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स्वात्मा ने समझ्यां बिना, समजाय न प्रभु रूप; ... नमी सत्पद सुण ते कहुँ, त्रिविध आत्म स्वरूप ११ बहिरंतर् परमातमा, मूढ़ प्रज्ञ ब्रह्मरूप ;
. तजी मूढता प्रज्ञ थइ, भज तु चिद्घन भूप"१२ दृश्य-दृष्टि ना मैथुने, उपजे भाव विमूढ ;
- देहज आत्म मानतो, अ बहिरात्मा मूढ "१३ देह भिन्न ब्रह्म ने वरी, ते दृग सम्यग-दृष्टि ;
त्यां प्रज्ञ अंतरात्म ने, सहजानंदघन वृष्टि...१४ द्रव्य-भाव नोकर्म पर-द्रव्य मुक्त चिद् रूप ;
- आप आपथी तृप्त जे, ते परमात्म स्वरूप...१५ हरिहरादिक ध्यावता, जेने नित थिर लक्ष ; - त्रिभुवन वंदित सिद्धगत, अलख प्रभु ते दक्ष...१६ सच्चिदानंदघन प्रभु, जे शिव शांत स्वभाव ; __ अचल अकृत्रिम अमल ते, भवजल तारण नाव...१७ जे निज भाव न परिहरे, ले पर भाव न जेह ;
सर्वज्ञ परमातमा, . ते शिव शांति सुगेह...१८ वर्ण गंध रस स्पर्शना, शब्दादिक नहिं जास ;
जन्म मरण जेने नहीं, जाण निरंजन तास...१६ क्रोध लोभ मद मोहना, नहिं माया के मान ; . देह गेह जेने नहिं, तेज निरंजन जाण...२० पुण्य पाप जेने नहि, हर्ष विषादं न कांइ ; .. . सर्व दोष थी मुक्त जे, तेज निरंजन भाई.. २१
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