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चंद रोज में चल वसेगा तू' कहां?
दर्द दिल का नहीं मिटा अब तक यहां...३ जीव फिर भी चेतता नहीं क्यों अरे !
जैन नाम धरा न जीता मोह रे...४ नर-पशुता छोड अब नरसिंह बनो ;
रणभूमि में मोह-क्षोभ सुभट हनो...५ ईतर झंझट छोड आत्म-साधन करो;
शम परायण सहजानन्द स्व-पद वरो"६ (१७०) पद होली
ता० २४-२-६१ . राग-होरी पिय संग खेलू मैं होली, प्रेम खजाना खोली.. पिय० गुप्ति गढ चढ बंकनाल-मग, गये हम दशम-प्रतोली, अशोक-वन अनुभूति-महल में, ज्ञान गुलाल भर झोली
रंग दी पियु मुह-मौली.. पियु० १ घट-पंकज-केसर चुन-चुन कर, पांडु-शिला पर घोली, मिला सुधारस भर पिचकारी, पियु छिडकें हम चोली;
हम पियु पिंड डुबोली पियु० २ पियु भी हम सर्वाग डुबोकर, पाप कालिमा धोली ; वाजत अनहद बाजे अद्भुत, नाचत परिकर टोली;
दिव्य संगीत ठठोली "पियु०३ ब्रह्माग्नि सर्वांग ही धधकत, कर्म कंडे की होली ; क्षायिक भावे खाक उडा फिर, बैठ स्वरूप खटोली ;
सहजानन्द रंग रोली पियु०४
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