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________________ (१७१) प्रेरणा देह दुर्लभ नर की नर ! तुझ को मिली, वीत गई उम्मर न आये निज गली १ लाख यत्न करो बहिर्मुख सुख नहीं, लक्ष द्रष्ट्रा में धरो न फिरो कहीं २ रांकडा तुम बांकडा बन जाओगे, काय वच मन भिन्न निज धन पाओगे ३ जैन सच्चा हो जिनेश्वर पथ चले, नर स्व-सहजानन्द-पद में जा मिले ४ (१७२) जिन-वाणी-स्तुति अनन्त-अनन्त भाव भेद से भरी जो भली, अनन्त-अनन्त नय निक्षेपे ध्याख्यानी है सकल जगत हितकारिणी हारिणी मोह, तारिणी-भवाब्धि मोक्ष-चारिणी प्रमाणी है उपमा देने का जिसे गर्व रखना ही व्यर्थ, देने से दाता की मति मपाई मैं मानी है अहो ! राजचंद्र बाल ख्याल में न लेते इसे, जिनेश्वर-वाणी कोई विरले ही जानी है ॥१॥ [श्रीमद् राजचंद्र कृत गुजराती स्तुति का हिन्दी रूपान्तर ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003818
Book TitleSahajanand Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandana Karani, Bhanvarlal Nahta
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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