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एना विशेष विचार थी, सुविवेक-भानु झगमगे, सप्रमाण लागे सहज ए, फेले चिद्-ज्योति रग रगे; आसन्न भव्ये स्व-श्रद्धा-प्रक्रिया, मिथ्यात्व वमल सौ जाय ठरी
ओ०१ जे भाव-निद्रा स्वप्न सृष्टिम अहं-ममता संवरे, सव विभाव-पर्यय-अध्यासे-अकता ते संहरे ; ओ त्रिविध-तापनी खरी दवा, इष्टानिष्ट-परिणति जाय मरी.... संलग्न अशुद्ध विनाशी भावे, हर्ष शोक न उद्भवे, पर-द्रव्य-भाव थी भिन्न, निज चैतन्य-सत्ता अनुभवे ; सर्वात्म दृष्टि स्वभाव-दया, देखी नाशे दृग-मोह अरी' 'अ० ३ आ देह ने आ जीव हुं, अज अजर अमर अरोग छु, संपूर्ण शुद्ध अबाध्य-संवेदन अत्यन्त प्रत्यक्ष नु : अम भेदविज्ञान बले विरम्या, शुद्धज्ञान-सुधारस पान करी...
अ०४ सौ आधि-व्याधि-उपाधि-संग, असंग आत्म-समाधिए, अपरोक्ष केवलज्ञान सहजानंदघन रस लहलहे; निज स्वरूप विलासभवन सुशय्या, जागृत उजागृत शयन करी
अ०५ सद्गुरु-महिमा पद
चौपाई आत्म-विचारे षट्-पद-रीति, ते नक्की लहे आत्म-प्रतीति ; आत्मज्ञान ने आत्म-समाधि, टले तस आधि व्याघि उपाधि...१
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