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जो क्षण-स्थायी आपका, ज्ञाता सो वक्तार । वक्ता कभी न क्षणिक है, कर अनुभव निरधार ॥६६॥ कभी कोइ भी द्रव्यमा, केवल होत न नाश ।
आत्मा पावे नाश तब, किसमें मिले ? तलाश ॥७॥ (३) शंका-शिष्य उवाच:- .
कर्ता जीव न कर्मको, कर्म हि कर्ता कर्म । अथवा सहज स्वभाव या, कर्म जीवको धर्म ॥७॥ आत्मा सदा असंग अरु, करे प्रकृति हि बन्ध । अथवा ईश्वर प्रेरणा, जातें जीव अबन्ध ।।७२।। तातें मोक्ष उपायको, कोई न हेतु लखात ।
जीव कर्म-कत्तत्व नहीं, हो यदि तो न नशात ॥७३॥ समाधान-सद्गुरु उवाच:
होय न चेतन प्रेरणा, कौन ग्रहे तब कर्म । जड़ स्वभाव नहिँ प्रेरणा, खोजो याको मम ॥४॥ जब चेतन करता नहीं, तब नहिं होवें कर्म । तातें सहज स्वभाव ना, त्योंहि न आतम-धर्म ७५।। आत्मा असंग मात्र जो, क्यों नहिं भासत तोहि । असंग है परमार्थसों, जबकि स्वदृष्टि अमोहि ।।७६।। कर्ता प्रभु भिन्न व्यक्ति ना, प्रभु निज शुद्ध स्वभाव । भिन्न प्रभु प्रेरक गिनत, प्रभु-पद दोष लखाव ।।७७।। ज्ञाननिष्ठ जब चेतना, कर्ता कर्म अभाव । भूले ज्ञायकभाव तब, कर्ता कर्म प्रभाव ॥७॥
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