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वक्र वचक छल दंभ कपट ए, जड़ लाभे दाव अटपटा रे...३ कंटक सम निज दोष ढकावे, शिव-मग ठग माया छटारे ४ संतजीभे पग मेली ठेली मग, मन चली चाल उवटा रे...५ ज्ञान अंधे भव धंधे धपावे, ए छे गुमान गज नी घटारे... ६ सत्पथ सत्साधन संत-द्रोहे, आशातना ए चटपटारे अखे लाली तन-तापे धू, जारी, क्रोध फणीधर नी फटारे...८ चारे कषाय अनन्तानुबंधी ए, लूटे सम्यक्त्व-धन नी अटारे... दर्शन - मोह तोषे भ्रम पोषे, आत्म स्वभाव मुख घुंघटारे १० सत्संग- प्रेम निज दोष अरक्षा, संताज्ञा शरणे हटा रे... ११ अनुभवपथ-पंथी सहजानंद, आत्मसिद्धि द्वार खटखटारे... १२ प्रत्याख्यानी कषाय स्वरूप
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राग- होरी
अविरति क्षोभ जमावे, अप्रत्याख्यान- तावे. दिग्भूम रोग गयो य छता ए, स्वास्थ्य लाभ न पावे; प्रवृत्ति वण निवृत्ति काले पण, क्वचित अस्थिर स्थिर भावे आतम-लक्ष खंडावे• • •अवि० १
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७-१०-५७
ज्ञाने जे पर- द्रव्य-भाव नी, त्याग अवस्था कहावे; भ=नहीं प्रत्याख्यान = प्रतिज्ञा, ठरवा देन स्वभावे; आत्म-प्रतीति छतां ए अवि० २
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