________________
(१३५) श्रद्धा-रहस्य
ता०५-१०-५७
राग-आशा समझो श्रद्धा प्रयोग प्रक्रिया, गुप्त रहस्य सुधीया.. स० इष्ट वस्तु ने जोबा जाणवा, अंधारे ज्यम दीया, चेतना बेटरी चांप चांपी ने, फेले चिद-ज्योति स्वकीया; स० १ धारण पोषण क्षिप्त ज्योतिर्नु, कार्य पर्यन्त रूढ़िया, श्रत+दधाति इति श्रद्धाए, शब्द व्युत्पत्ति शुद्धिआ. स० २ दृष्टि-दृश्यनु मिथ-परस्पर, भाव संग द्योतक 'या'; मिथ्या श्रद्धा दर्शन मोहक, आत्म-भांति लहे जीया. स० ३ क्षिप्त ज्योति न पाळु समावु, 'सम्य' ते आतम-हिया; आप आपने शोधी ठरवा, स्वार्थे 'क' प्रत्यय आ; स० ४ सम्यक-श्रद्धा अर्थ निष्पत्ति ए, शब्द ब्रह्म मथ लीया; आतम दर्शन-ज्ञान-रमण मां, कार्य करी साधकीया; "स०५ सम्यक अंकित ज्योति सम्यक्त्वए, सर्व गुणांश उघडिया; देह भिन्न केवल चिन्मूर्ति, सहजानंदघन प्रिया.. स०६ (१३६) अनन्तानुबन्धी कषाय स्वरूप पद
६-१०.५७ (चन्दना बन्दना वन्दना रे.. ए ढब] जो-जो उभा सामे भटा रे, अनन्तानुबंधी चार चोरटा, चोरटा चोरटा चोरटा रे, अनन्तानुबंधी चार चोरटा... असीम परिग्रह फांसे फंसावी, तृष्णा समुद्र जल गटगटा रे.. .१ सत्संग प्रेम पीयूष हरी ले, ए छे अनंत लोभ नी लटा रे...२
१४४
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org