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सूर्यचन्द्र मणि दीप कान्ति नी, मुझ प्रकाश वण किम्मत शी ?, प्रति देहे जे शोभनिकता छ, ते मारी जुओ विश्व मथी... अग्नि काष्ठ-आकारे रहे पण, थाय न काष्ठ ए बात नक्की ; शाके लण देखाय नहीं पण, अनुभवाय ते स्वाद थकी हुं० ४२ तनाकार रही शरीर न थाऊँ , लवण जेम जणाऊं सही ; रत्नदीप जेम स्व-पर-प्रकाशक,स्वयं-ज्योति छुप्रगट अहिं. • हुँ। अग्नि जेम उपयोग-चीपीए, पकडाऊं कोई सज्जन थी: प्रयोग थी बिजली माखण जेम सहजानंदघन अनुभव थी हुं०६ ।
आत्म-नित्यत्त्व-सिद्धि दोहा अनादि देहाध्यास थी, जीव पराश्रय प्रेम : जीणे वस्त्रवत् तन तजें, ग्रहे नवु फरी अम...१ अंते वृत्ति जे तन हती, ते तन वासनाधीन ; पाप पुण्य बे पांख थी, उडे हंसलो दीन...२ सामग्री स्थल पहोंची ने, रचे नवु तन प्रज्ञ ; गहण त्याग तन नु थतां, जन्म मरण कहे अज्ञ...३ जन्म मरण नहिं जीवनो, नित्य जेम नो तेम ; उपजे नवं अजाण ते, रड़े धाय स्तन केम...४ मान्यु देह स्वरूप हुं, पण निज नित्य स्वभाव ; कायम करवा देह ने; तेथी खेले दावः . .५ मरे जीव तो तेहने, मृत्युज्ञान न होय ; मृत्यु ज्ञान वण मृत्यु भय, पामे कदी न कोय...६ पूर्व मृत्यु अनुभव थकी, अहिं मृत्यु भयभीत ;
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