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जेना चारित्र दर्शने, टले
शिथिल - आचार;
युगप्रधान आचार्य प्रभु, मुमुक्षु गण रखवाल ११४ कार्य - अनन्त चतुष्क-प्रभु, घन-घातिक अरिहंत ;
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भव-तारक जगपूज्य जिन, धर्मचक्री जयवंत ११५ शुद्ध पूर्ण चैतन्यघन, अलख अडोल स्वरूप ;
योगीगम्य अकृत्रिम पद, कार्य प्रभु सिद्ध भूप ११६ उपादान निज. आत्मने, कारणता दातव्य ;
कारणे कार्य प्रसिद्धि अतः, कारण प्रभु छे सेव्य ... ११७ उपादान सत्पात्रता, निमित्त कारण सत्संग ;
उभय कारण- प्रभु सेवतां, सहजानंद अभंग...११८ कार्य प्रभु पद व्यक्तता, शुद्ध चारित्र प्रसाद ;
सहजानंद समाज ने, चारित्र रहस्ये स्वाद ११६ सहजानंद समाज नो, निश्चय मुख्य वे'वार ;
जड़ खटपट झटपट तजी, चित्त शुद्धि करनार १२० शुद्ध प्रतिक्रमण कर्ता कारयिता न तन, नर - तिरि-नारक- देव ;
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अनुमंता नहिं देह हुं, छु परब्रह्म सुदेव १२१ मार्गण गुण जीवस्थाननो, कर्त्ता कारयिता न ;
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अनुमंता ना छू अकल, विष्णु ज्ञान निधान. १२२ बाल तरुण वृद्ध हुँ नहीं, ना कर्त्ता अनुमंत;
कारयिता ना छु'
कर्त्ता कारयिता न हूं,
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अलख, बुद्ध शुद्ध गुणवंत १२३ राग द्वेष के मोह ;
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अनुमंता तद्रूप ना, वीतराग - जिन - ओह ! १२४
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