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________________ उसके दो भेद १ भाव विकारी भावों को शरीर रूप में परिणमन हो वह । ५४ आते हुए कर्मों को रोकना 'वर - स्वस्वरूप स्थिरता से पुण्य-पापादि रोकना । २ द्रव्यसंवर - भावसंवर से जड़ कर्मों का अग्रहण । ५५ आत्मा से कर्मों को अलग करना । इसके दो भेद हैं, १- भाव निजरा - अखण्डानंद शुद्धात्म स्वभाव लक्ष के बल से स्वरूप स्थिरता की वृद्धि से अशुद्ध अवस्था का आशिक नाश करना। उसका निमित्त पाकर जड़ कर्मो का आंशिक क्षरण होना, वह २ द्रव्यनिर्जरा । ५६ मोक्ष ५७ राजा । (२०) भाव दीवाली स्तवन दिल मां दिवड़ो थाय, स्वपर समझाय, विभावने टाली; ३८ हूं उजवं पर्व दीवाली ॥ टेर ॥ • - अस्तित्व गुणे हुँ आत्म प्रभु, शुद्ध स्वपर प्रकाशक ज्ञान विभुः मन वच काया थी जुदो, कर्म संग टाली · · · हुँ उज० ॥१॥ नित्यत्व गुणे हुँ अविनाशी, निर्मल चिन्मय निज गुणराशी; अकृत्रिम सहज स्वरूपी, अखंड त्रिकाली हुँ उजवु० ॥२॥ धुं शुद्ध बुद्ध सुख धाम महा ! हूं. स्वयं ज्योति परिमुक्त अहा ! 'सहजानंद' कर्त्ता - भोक्ता, स्वरूप संभाली हुँ उजवें ||३|| • Jain Educationa International सीवाणा For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003818
Book TitleSahajanand Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandana Karani, Bhanvarlal Nahta
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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