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जगत् प्रवर्तक नियम छे, नियमित ऊगे भाण ; ....अग्नि-उष्ण जल शीतता, दिन रजनी क्रम जाण...५ नियम मर्याद अलंध्य छे, जलधि न मूके कार; ... लंघे चेतन एक तूं, अरे! धिक्कार !! धिक्कार !!! ...६ नियमसार रहस्ये रम्ये, शीघ्र टले भव-व्याधि ;
नियम-मर्यादा थी सधे, सहजानन्द समाधि...७ पर्याये उत्पाद-व्यय, ते पर यम नो पाश ;
निसरे जेथी पर्यय हग, हेतु-नियम स्वप्रकाश.... टले चर्म-हग अंधता, उघड़े अंतर्दृष्टि ; .
निज प्रभुता निजमा लखे, नियमसार जिन दृष्टि...६ निर्गत-यम-फाँसी सदा, सम्यग-दर्शन-झान ;
चारित्र ए त्रण रत्न ते, कार्य-नियम सुविधान...१० रत्नत्रयी अंकूशथी, नियमित मन-गज-वृत्ति
संवेगे शिव-मग चले, सारे नियम निर्वृत्ति...११ कारण-प्रभु स्व-स्वरूपमा, जोई जाणी रममाण ; .. नियमसार शिव-मार्ग छे, तस फल छ निर्वाण...१२ मोक्षोपाय ए नियमनु, कारण छे सम्यक्त्व ;
ते आप्तागम ने श्रद्धय , परख्ये जिन पर तत्व...१३ शंका-मुक्त ते आप्त छ, शंका-सौ मोह-सैन्य ; . ....... दर्शन-मोह विमुक्त जिन, क्षायिक-दृष्टि जघन्य...१४
घनघातिक-अरिहन्त जिन, सर्वोत्कृष्ट विश्वास्य ; .:...: विकल-सकल-ब्रती मध्य-जिन, आप्ते त्रिविध रहस्य...१५
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