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(४) ऋषदेभव तप स्तवन
अंतराय क्षय कारण विचरे, ऋषभदेव भगवान । राज समाज तजी व्रत धारी, सजी ने साध्य निशान ॥ निज साध्ये तन्मयता व्यापे, चार ज्ञान पण बोध न आपे। स्वजन शिष्य गण ममत तजी ने, बोले नहीं मुख वाण ॥ अं०॥शा यथा समय नित गोचरी जावे, अंतराय उदये नहिं पावे । रात दिवस रहे काउसग्ग मुद्रा, भूली जड़ तन भान ॥अं०॥२॥ हाथी घोड़ा मिल्कत सारी, कोई आपे निज प्रिय सुकुमारी। पण आहार न आपे जनता, दान विधान अजाण ॥अं०॥३॥ अणाहारी निज पद निश्चय थी, रहे अडोल क्षुधा परिषह थी। उदये अणव्यापकता साधी, धन्य मुनीश महान् ॥ अं०॥४॥ वर्ष उपर कइ दिन बीते ज्यां, आहार विघन दल क्षीणथयुं त्यां। अक्षयतृतीया पर्व मिले प्रभु, आव्या गजपुर स्थान ॥ अं०॥५॥ देखत प्रभु रोम रोम उल्लासे, जातिस्मरण लाधुं कुंवर श्रेयांसे । गतभव साध्वाचार स्मरी ने, जाण्युं दान विधान ॥ अं०॥६॥ नमि विनवी प्रभु घर पधरावे, अदूषण इक्षुरस वहोरावे। प्रगट्या पंच दिव्य जन हरख्या, महिमा ए प्रभु दान ॥अं०॥४॥ प्रभु साधकता मर्म लहीजे, इच्छारोधन तप एम कीजे । कर्म दही तप अनले लीजे, सहजानन्द निधान ॥ अं०॥८॥
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