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(१०४) विदेही-दशा
चारभुजारोड सं० २००७ नाथ कैसे आपो आप मिटायो? भाव विदेही पायो.. नाथ० आप अरूपी तन जड़ रूपी, कैसे बंध लगायो ? बंध विहीन होवे क्यों अनुभव, जन्म मरण दुखदायो. नाथ० बंध होत जो रूपी-अरूपी, क्यों नभ-मेघ न ठायो ? जड़-छादन दुख कारण तब क्यों, धन सौ रवि न दुखायो.. नाथ० उभय मिलन विन बंध न होवे, भाव अभिन्न कहायो, भावे बंधन भावे मुक्ति, क्यों उपदेश सुनायो.. नाथ० आत्म अभाने शेयनिष्ट हो, अपनो बंध मनायो, ज्ञाननिष्ट हो आपो मेटी, सहजानन्द पद रायो.. नाथ० (१०५) स्वदेश-पद
चारभुजारोड सं २००७ मूक ने खटपट संघली शाणा ! थाने झट निज देश रवाना; अण उल्लंध्य एक छत्र अखंडित, वर्त्त अहिं जम आणा, आवी अचानक करी क्रूरता, लूटे जमडो प्राणा • मू०१ सुर नर चक्रि हरि बलदेवा, राय, रंक, नृप राणा,. तन धन परिजन मोहे गाफल, गफलत मां लूटाणा. • मू० २ जे माटे भमतो आव्यो अहिं, रही मुसाफरखाना, सावधान थई शीघ्र करी ले, शिर धरी सद्गुरु आणा. • मू० ३ लेण देण खाता पतवी ने, वसूल करी निज नाणा, सबल वलावे प्होंची जा तु, सहजानन्द ठेकाणा- मू० ४
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