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दोहा अंगोपांगाध्ययन कर, भये गीतारथ आप । मिथ्यामत तम भेद ने, स्याद्वाद शर चाप ॥१॥ रची वृत्ति नव अंग की, अभयदेवसूरीश । जिनवल्लभ तस पाट पे, भये परम योगीश ॥२॥ ग्यारह गुणहत्तर ( ११६६ ) समें, पदठावै गच्छ ईश । चउविह संघ वित्तौड़ में, श्री जिनदत्तसूरीश ॥ ३॥
राग-आशावरी भये गुरु अतिशय महिमाधारी, पाई शासन रखवारी । भये। चित्तौड़ अरु विक्रमपुर नयरे, वज्र स्तंभ मन्दिरों । मंत्र पोथी ग्रही निज शाक्ते, जीते बावन वीरों॥ भये ॥१॥ जोगणियां चौसठ व्याख्याने, गुरु छलने कुं आवे । खीली गई तब शीश नमावे, वर सप्तक बक्षावे ॥ भये ॥२॥ सिंधु पंच नदी पंच पीरों, पंथिक जन दुख कारी। आत्मबले निज दास बनाये, ऐसे गुरु उपकारी ॥ भये०॥३॥ पक्खी पडिकमणे अजमेरे, जगमग बिजली आवे । पात्र तले स्थंभी गुरुवर ने, वरदेई अदृश थावे । भये०॥४॥ युगप्रधान इच्छुक अंबड़को, अंबिकाने लिख दीना । युगप्रधान जिनदत्तसूरीश्वर, सञ्चारित्रतप पीना। भये० ॥५॥
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