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वसे देव तन-मंदिरे, चिदानंदघन मूर्ति
वंदो पूजो भावथी, प्रतिक्षण जगवी स्फूर्ति "३३ देह आत्म मिथ स्पर्शता, रविकर-घन-नभ जेम ; - स्पर्श रहित ने स्पर्श शो, जाण आत्म प्रभु तेम...३४ निर्विकल्प समतागृहे, अनुभवाय छे जेह ;
... वीतराग आनंदघन, प्रभु पद. जाणे तेह"३५ दर्पण-बिंबवत् आत्म थी, बद्ध देहादिक कर्म ; . पण जे थाय न कर्मतन, लखे ए प्रभु-पद मर्म...३६ परमार्थे निष्कल प्रभु, त्रिविध कर्म थी भिन्न ; ... तेने मूढ अज्ञान थी, माने देह अभिन्न...३७ नभ-नक्षत्र समूह वत् , ज्ञाने त्रिभुवन जास; ..भिन्नाभिन्न अभिन्नभिन्न, लख परमात्मा तास...३८ सन व्यापक अनुभूति ने, जे ध्यावे योगीश; ....... मोक्ष हेतु एकाग थई, लख सहजानंद ईश.३६
अग्याने जगभूम रचे, ज्ञाने करे संहार ; । कर्ता हर्ता आप छे, अन्य नहीं करतार...४० रचे सृष्टि बहिरात्मवृन्द, अंतरात्म लयकार ;
__व्यापक ज्ञान स्वभाव नो, प्रभु पोषण करतार...४१ सृष्टि स्थिति लय ने कहे, ब्रह्मा विष्णु महेश;
- छत्रण पद पण व्यक्ति ना, लख वशिष्ट उपदेश...४२ सृष्टि स्थिति लय युत अयुत, आप कथंचित् एह ; ..... लखो द्रव्य-पर्यय-नये, देव बसे जे देह...४३
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