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जगतज्ञान सवज्ञता, ते सर्वावधि ज्ञान ; तदतिक्रान्त केवल दशा, ए परमार्थ विज्ञान"२ ए केवल अवलंबने, प्रगटे स्वरूप ज्ञान ;
संत कृपाए विरल ने, सहजानंदघन भान...३ वीरप्रभु चै० २४
आत्म प्रदेश ने स्थिर करे, ते अभिसंधि-वीर्य ; कषाय वश थी वीर्य ते, अनभि संधि अस्थैर्य...१ अभिसंधि बल फोरव्ये, वीर पणुं मन-मौन ; उदय अव्यापकतन-वचन, क्रिया थाय ज्यांगौण...२ साढा बार वरस लगी, वीर पणे विचरंत ; वंदुं श्रीमहावीर ने, सहजानंदघन संत...३
कलश
निज अलख गुण लखवा भणी, धरी लक्ष तजी सहु पक्षने ; गिरिकन्दरा मोकल चोमासे, साधवा मन अक्ष ने; आनंदघन चौवीसी' लक्षे, चैत्यवंदन ए स्तव्या; गति-नभ-ख-बंधन (२००४) विक्रमे, शुद्ध सहजानंदघन पद ठव्या ?
१-आनंदघनजी की चौवीसी पर्याप्त प्रसिद्ध और भावपूर्ण रचना है। उसके योग्य चैत्यवन्दनों की कमी अनुभव कर आपने उन्हीं भावों को लेकर यह चैत्यवन्दन चौवीस गुम्फित की है ।
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