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(११३) उपदेश पद
अलखगुफा (गोकाक ) २५३-५४
[दिलमां दिवड़ो थाय. • •ए ढब भा पंच विषय विक्षेप, झेरी चेप, वमी थाओ चंगा,
उल्लसे सहजानंद गंगा; जो विषयपत्ति अ.नंददाता, तो केम थाको ते भोगवता ! ज्यारे आवो शरणे विषय-निवृत्ति-प्रसंगा. उल्लसे०...१ विषयेच्छा पूर्ति पराधीन छे, पण तास-निर्वृत्ति स्वाधीन छ; रहो स्पर्श-गंध-रस-रूप-रवेज असंगा। उल्लसे ०२ विषयेच्छा-पूर्ति प्रमाद-वहा, आरंभ परिग्रह पाप महा ! लहो निवृत्तिए निज, आत्म प्रतीति अभगा · उल्लसे० ३ विषयेच्छा टिकट छे चार गति, निवृत्ति आपे स्वस्वरूप-स्थिति; करो विषयातीत थई प्रतिक्षण सत्संगा. रल्लसे० ४ विषयाधीन खोयो आत्मप्रभु, निर्वृतिए प्रगटे ज्ञान विभु; तजो व्यर्थ चिन्तन-बकवाद-आचरण दंगा "उल्लसे०५
(११४) प्रात्मा पद६३५४
[दिलमां दिवड़ो थाय.. ए ढब ए थाय न कदि बीमार, त्रिलोकीसार, जड़ तन न्यारो,
प्रियतम आनंदघन म्हारो ए चिद्धातुमय परमशान्त, छे एक स्वभावि न आदि अंत; . अडग अकाग्र असंख्य प्रदेशाधारो प्रियतम० १ पुरुषाकारो चिन्मय देही, कफ-वात-पित्त वर्जित गेही; रस-स्पर्श-गंध रवरूपनो ले न सहारो.. प्रियतम० २ ओ अज अजरामर असंयोगी, जड़ नो नहीं कर्ता नहिं भोगी; नहिं योगी-अयोगी शुद्ध-उपयोग-सितारो.. प्रियतम० ३ अणे बंध प्रथा दूरे नांखी, थयो कर्म कर्मफल नो साखी; चैतन्य लक्ष्मी कहे भव्य ! भजो मुझ प्यारो"प्रियतम०४
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