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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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是一
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भगवान महावीर की पच्चीसीवी, निर्वाण शताब्दी समारोह के -
व का पलक्ष मे
भगवान महावीर
की
एक हजार आठ सूक्तियां
सम्पादक राजस्थान केसरी प्रसिद्धवक्ता परमश्रद्धेय की पुष्कर मुनि जी म. सा. के सुशिष्य समर्थ साहित्यकार श्री देवेन्द्र सुनिजी, शास्त्री
__के सुशिष्य राजेन्द्रसुत्नि, शास्त्री, काव्यतीर्थ
प्रकाशक
श्री तारकगुरु जैन ग्रंथालय ___ पदराडा, (उदयपुर) (राजस्थान)
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पुस्तक • भगवान महावीर की मूक्तियाँ विषय • भगवान महावीर की १००८ सूक्तिया
सम्पादक . राजेन्द्रमुनि शास्त्री काव्यतीर्थ सप्रेरिका , परमादरणीया मातेश्वरी महासती
श्री प्रकाशवतीजी प्रकाशक - श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय
पदराडा जि उदयपुर (राज.) प्रथम सस्करण ० दिसम्बर १९७३
प्रतिया २ १३०० मुद्रक . प्रतापसिंह लूणिया
जॉव प्रिंटिंग प्रेस ब्रह्मपुरी, अजमेर
मूल्य तीन रुपया
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समर्पण
जिनका जीवन त्याग और वैराग्य का
साहित्य और सस्कृति का
ज्ञान और विज्ञान का
पावन संगम है, उन्ही अनन्त-अनन्त श्रद्धा के केन्द्र श्रद्धय सद्गुरुवर्य राजस्थान केसरी प्रसिद्ध वक्ता श्री पुष्कर मुनिजी म. के
कर कमलो मे
-राजेन्द्र मुनि
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सम्पादक की कलम से
सूक्तियां स्वयमेव साहित्याकाश के लिए उज्ज्वल नक्षत्र के समान है। इनकी निर्मल ग्राभा, देशकाल की सङ्कीर्ण सीमा को लाघ कर एक रस रहती है ।
जीवन के विविध अनुभवो ने इनको अजरता और अमरता दे रखी है। इन सूक्तियो मे मिश्री का माधुर्य और अंगूर का सारस्य जैसा स्वाद परिलक्षित होता है। __ भगवान महावीर युग पुरुष के रूप मे प्रतिष्ठित थे। उनके समय-समय के प्रवचन अतिमर्मस्पृक होते थे। उनके आगम-साहित्य के अनेक प्रवचन-रत्न हैं । जिनकी झलक सहृदय एवं धार्मिक पुरुष के हृदयादर्श पर द्विगुणित प्रभासम्पन्न हो जाती है ।
अतएव उन प्रवचन रत्नो के चकाचौध मे सूक्तियो का सङ्कलन प्रारम्भ हया और जैसा जमा, जमाता चला गया। यही वह दूसरे रूप मे एक सग्रह हो गया। संग्रह के जीवनदाता श्रद्धेय गुरुदेव राजस्थान केसरी पण्डितरत्न श्री पुष्कर मुनि जी एव समर्थ साहित्य स्रष्टा
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गुरुदेव श्री देवेन्द्र मुनि जी महाराज है, और सहायक है मेरे ज्येष्ठ सहोदर श्री रमेश मुनि जी शास्त्री काव्यतीर्थ तथा सद्गुरुणी जी श्री पुष्पवती जी म एवं मातेश्वरी श्री प्रकाशवती जी की प्रबल प्रेरणा भी मुझे सदा उत्प्रेरित करती रही । जिससे यह संग्रह शीघ्र तैयार हो सका है ।
इसका आकार-प्रकार जैसा भी कुछ है, वह भक्तिमती और गुणानुरागिणी जनता के सम्मुख है और वह सब गुरुदेव की सेवा मे समर्पित है ।
लोढा धर्मशाला
अजमेर
२०-११-७३
राजेन्द्रमुनि शास्त्री
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प्रकाशकीय
भगवान महावीर के पच्चीससौवी निर्वाण तिथि के उपलक्ष मे 'भगवान् महावीर की सूक्तियां' प्रकाशित करते हुए हमे परम आह्लाद है, भगवान् महावीर की वाणी आगम के नाम से विश्रुत है, जिसमे अगणित विचार रत्न भरे पड़े हैं, उस आगम साहित्य का मन्थन कर श्री राजेन्द्रमुनि शास्त्री ने सूक्तियों का अनूठा सकलन तैयार किया, यह संकलन अपने आप में मौलिक है। इसमें आध्यात्म, धर्म, नीति, कर्त्तव्य, साधना, समभाव, वीतराग आदि विषयो पर सूक्तियां सकलित की गयी हैं। यह सग्रह मुनि श्री जी. ने श्री देवेन्द्र मुनि जी के निर्देश से सन् १९७२ मे तैयार किया था, संकलन को सूक्तिया लगभग २५ सौ हैं, पर पुस्तक अत्यधिक बडी होने के भय से प्रस्तुत पुस्तक में एक हजार आठ सूक्तिया ही दी जा रही है यद्यपि सूक्तियों के अनेक सकलन अनेक सस्थामो की ओर से समयसमय पर प्रकाशित हुए हैं, पर वे सकलन इतने बृहत्काय हो गए है कि उन्हे आज का प्रबुद्ध पाठक
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पढ़ने से कतराता है । इसलिए हम इस संकलन को पाकेट बुक् साइज में दे रहे है ।
राजेन्द्र मुनि जी परमश्रद्धेय राजस्थान केसरी पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी के पौत्र शिष्य हैं । आप हृदय से उदार स्वभाव से मिलनसार और कार्य करने में कुशल है । आपने बनारस की धर्मशास्त्री, कलकत्ता की काव्यतीर्थ और पाथर्डी की जैन सिद्धान्त शास्त्री आदि अनेक परीक्षाए समुत्तीर्ण की है ।
आपकी
अनेक रचनाएँ राजस्थान केशरी व्यक्तित्व र कृतित्व, भगवान महावीर : एक परिचय चौवीस तीर्थंकर : एक परिचय, देवेन्द्रमुनि शास्त्री
| साहित्यिक एक परिचय, प्रकाशन के पथ पर है । प्रस्तुत पुस्तक पाठको ने चाव से अपनायी तो हम शीघ्र ही अवशेष सूक्तियाँ भी प्रकाशित करना चाहते है ।
7.
प्रस्तुत पुस्तक को शीघ्र और मुद्रण कला की दृष्टि से सर्वाधिक सुन्दर बनाने का श्रेय स्नेह सोजन्य मूर्ति गाँधीवादी श्री जीतमल जी साहब लूणिया एव श्री प्रतापसिंह जो लूणिया को है ।
मश्री श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय
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अनुक्रमणिका
पृष्ठ
१ धर्म और नीति २. अध्यात्म और दर्शन ३. विखरे मोती
१-१७० १७१-३२३ ३२४-३२७
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धर्म और नीति (१)
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मगल *
धर्म अहिंसा *
सत्य * अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह
सद्गुण * स्वाध्याय *
क्रोध * मान + माया . लोभ *
विनय
श्रद्धा *
तप *
साधना समभाव * वीतराग * सरलता * सयम
ब्राह्मण कौन ? * रात्रिभोजन . सदाचार *
सेवा * सत्सग सतोप कर्तव्य .
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मंगल
णमो तित्थयरारणं
सन्तो सन्तिकरे लोए
अभयंकरे वीरे अणंतचक्खू
४
निव्वाणवादी णिह नायपुत्ते
लोगुत्तमे समरणे नायपुत्ते
इसोण सेट्ठ तह वद्धमाणे
सघ नगर । भद्दते ॥ अखड़ चारित्त पागारा
गमो अरिहताणं
3
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मंगल
साधु साध्वी श्रावक श्राविका रूप तीर्थ की स्थापना करने वाले तीर्थकर को नमस्कार हो। ।
शान्तिनाथ इस लोक में शान्ति करने वाले है।
प्रभु महावीर अभय देने वाले है और अनन्त चक्षु वाले है ।
निर्वाण वादियो मे जात पुत्र महावीर स्वामी पर्व श्रेष्ठ है।
लोक मे सर्वोत्तम श्रमण ज्ञातपुत्र महावीर है ।
ऋषियो मे सर्वश्रेष्ठ महावीर वर्द्धमान है।
अखण्ड चारित्र रूप प्राकार (कोट) वाले मे श्री सघ रूप नगर । तुम्हारा कल्याण हो । मगल हो ।
अरिहन्तो को नमस्कार
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४ भगवान महावीर की सूक्तियां
णमो सिद्धाणं
१० णमो आयरियाणं
णमो उवज्झायारणं
णमो लोए सव्वसाहूण
चत्तारि मंगलं अरिहता मंगल सिद्धा मगल साहू मंगल केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगल
नमो ते ससयातीत
धम्मो मगल मुक्किड़े
पावारणं जदकरणं तदेव खलु मंगल परमं
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धर्म और नीति (मंगल) ५
सिद्धों को नमस्कार ।
आचार्यों को नमस्कार
उपाध्यायों को नमस्कार
सर्व साधुओं को नमस्कार
मंगल चार हैं-अरिहन्त सिद्ध साधु और केवल प्ररूपित धर्म ।
१४ संशयातीत तुम्हे नमस्कार हो ।
धर्म सबसे उत्कृष्ट मगल है।
पाप कर्म न करना ही वस्तुत. परम मंगल है ।
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१७ धम्मो दोवो
दीवे व धम्म
१६ धम्मे हरए बम्भे सन्ति तित्थे
२० धम्मस्स विणो मूल
इह - माणुस्सए ठाणे धम्म माराहिऊ णरा
२२ धणेण किं धम्म धुराहिगारे
२३ धम्म पि काउणं जो गच्छइ पर भव सो सुही होइ ।
२४ धम्म चर सुदुच्चरं
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धर्म
१७ संसार समुद्र मे धर्म ही द्वीप है।
वर्म दीपक की तरह अज्ञान अन्धकार को दूर करने वाला है।
धर्म रूपी तालाब मे ब्रह्मचर्य रूप घाट है।
धर्म का मूल विनय है।
२१ इस मनुष्य लोक मे धर्माराधन के लिए मनुष्य ही समर्थ है।
२२
धर्म रूपी धुरा के अंगीकार कर लेने पर धन से क्या ?
२३
जो धर्म का आचरण कर के परभव को जाता है वह सुखी होता है।
२४ आचरण में कठिनाई वाला, फल मे सुन्दर ऐसे धर्म का तू आचरण कर।
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भगवान महावीर को सूक्तियाँ
२५
धम्म विऊ उज्जू
२६
एस धम्मे धुवे निच्चे, सासए जिण देसिए
२७
एक्को हु धम्मो ताणं न विज्जई अन्न मिहेह किंचि |
२८
श्रायस्य विदित्ताणं सव्वदुक्खाविमुच्चर्ड
२६
धम्म सद्धाणं- साया सोक्खेसुरज्जमरण विरज्जइ
1
३०
दिव्वं च गईं गच्छन्ति धम्ममारिय
चरिता
३१
आणाए मामगं धम्मं
३२
गच्चा
धम्म अणुत्तरं कय किरिए ण यावि मामए
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धर्म और नीति (धर्म) ६
२५ धर्म को समझने वाला सरल हृदयी होता है ।
जिन भगवान द्वारा उपदिष्ट यह धर्म ही ध्रुव है, नित्य, शाश्वत है।
२७
अकेला धर्म ही रक्षक है, अन्य कोई यहा पर रक्षक नही पाया जाता।
आचरण योग्य धर्म को जानकर के सभी दुख नाश किये जा सकते है।
२४ धर्म के प्रति श्रद्धा से सातावेदनीय जनित सुखो पर विरक्ति पैदा हो जाती है।
आर्य धर्म का आचरण करके अनेक महापुरुप दिव्य गति को जाते है।
आजानुसार चलना ही मेरा धर्म है।
३२ श्रेष्ठ धर्म को जानकर क्रिया करता हुआ ममत्व भाव को नही रखे।
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१० भगवान महावीर को सूक्तियाँ
चरिज्ज धम्म जिण देसियं विऊ
३४
धम्माण कासवो मुहं
३५ सद्दइह जिणभिहियं सो धम्मरुइ
दुविहे धम्मे पन्नते सुअधम्मे चेव चरित्त धम्मे चेव
तिविहे भगवया घम्मे सुप्रहिज्जिए सुज्झाइए सुतवस्सिए
चत्तारिधम्मदारा खंति मुत्ति अज्जवे मद्दवे
विणो वि तवो पि धम्मो
xo
एगे चरेज्ज धम्म
४१ समियाए धम्मे आरिएहि पवेइए
.
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धर्म और नीति (धर्म)११
३३
विद्वान पुरुष जिनभगवान द्वारा उपदिष्ट धर्म का आचरण करे।।
३४ धर्म का मुख ऋपभ देव स्वामी है ।
जिन वचनो मे श्रद्धा करनाय ही धर्म रूची है।
दो प्रकार का धर्म कहा गया है श्रु त धर्म और चारित्र धर्म ।
भगवान ने तीन प्रकार का धर्म बतलाया है सम्यक् प्रकार से सूत्रादि का अध्ययन, सम्यक् प्रकार से ध्यान और सम्यक् तप ।
३८ चार प्रकार के धर्म द्वार है क्षमा विनय सरलता और मृदुता ।
विनय एक स्वयं तप है और वह आम्यन्तर तप होने से श्रेष्ठतम धर्म है।
४० भले ही कोई सहयोग न दे, अकेले ही धर्म का आचरण करना चाहिए।
४१ आर्य महापुरुपो ने समभाव मे धर्म कहा है।
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१२ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
४२ धम्मे ठिपो अविमणेनिव्वाणमभिगच्छई
धम्मोमंगल मुक्किळू अहिंसा संजमो तवो देवा वित्तं नमसन्ति जस्स धम्मेसयामणो ।।
४४
समय मूढ़े धम्म नाभिजाणइ ।
४५ सोचा जाणइ कल्लाणं सोचा जाग इपावगं । उभयपि जाणइ सोच्चा जं सेयं तं समायरे ॥
४६ माणुस्स विग्गह लद्ध सुई धम्मस्स दुल्लहा । जं सोच्चा पड़िवज्जति तव खंतिमहिंसयं ।।
४७ जहापुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थइ । जहा तुच्छस्स कत्थइ तहा पुण्णस्स कत्थई ।।
४८
जागरियाघम्मीणं, पाहम्मीणं च सुत्तयासेया
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धर्म और नीति (धर्म) १३ ।
४२
जो बिना किसी विमनस्कता से पवित्र चित्त से धर्म में स्थित है वह निर्वाण को प्राप्त करता है।
धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है, धर्म का अर्थ है अहिंसा, संयम, और, तप । जिसका मन धर्म मे सदा रमा रहता है उसे देवता भी नमस्कार करते है।
४४ सदा विषय भोगो मे रहने वाला मनुष्य धर्म के तत्व को नही पहचान सकता।
यह आत्मा सुनकर ही धर्म का मार्ग जानता है और सुनकर ही पाप का । दोनो मार्ग सुनकर ही जाने जाते हैं, जो श्रेयस्कर हो उसका आचरण करे।
४६ मनुष्य शरीर पाकर भी सद्धर्म का श्रवण दुर्लभ है जिसे सुन कर मनुष्य तप, क्षमा और अहिंसा को स्वीकार करते है।
४७ धर्मोपदेश जिस प्रकार धनवान के लिए है उसी प्रकार गरीब के लिए भी हैं। जिस प्रकार गरीब के लिए है उसी प्रकार धनवान के लिए भी है।
४८ धार्मिक पुरुपो का जागते.रहना अच्छा है और पापी लोगो का सोते रहना अच्छा है।
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१४ भगवान महावीर की सूक्तियां
४६ चत्तारि परमगाणि दुल्लहाणोह जन्तुणो । माणुसत्त सुई सद्धा सजमम्मिय वीरियं ।। जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई । धम्म च कुणमाणस्स सफला जति राइयो ।
जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई। अहम्मं कुणमाणस्स अफला जति राइप्रो ।।
जरा जाव न पोडेइ वाहो जाव न वडढई। जाविदिया न हायति ताव धम्म समायरे ।।
अद्धाणं जो महन्त तु अप्पाहेरो पवज्जई । गच्छन्तो सो दुहिहोइ छुहा तण्हाए पिडिअो ।।
एवं धम्म अकाउण जो गच्छइ पर भवं । गच्छन्तो सो दुही होइ वाही रोगेहिं पीड़िो।
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धर्म और नीति (धर्म) १५
४६
संसार मे चार साधनो का मिलना दुर्लभ है, मनुष्यत्व, धर्म, श्रवण, श्रद्धा और सयम मे पुरुपार्थ ।
जो रात और दिन एक बार अतीत की ओर चले जाते हैं वे फिर कभी वापिस नही लौटते । जो मनुष्य धर्म करते है उसके वे रात दिन सफल हो जाते हैं।
जो रात और दिन एक वार अतीत की ओर चले जाते है वे कभी वापिस नही लौटते जो मनुष्य अधर्म पाप करता है उसके वे रात दिन निष्फल जाते हैं।
५२ जव तक बुढापा नहीं सताता जव तक व्याधियां नही बढ़ती जब तक इन्द्रिया हीन अशक्त नहीं होती तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए। .
जो पथिक विना पाथेय लिये ही लम्बी यात्रा पर चल पडता है, वह आगे जाता हुआ भूख तथा प्यास से पीडित हो कर अत्यन्त दु.खी होता है।
५४ इसी प्रकार जो मनुष्य विना धर्माचरण किये परलोक जाता है वह भी वहाँ नाना प्रकार के आधिव्याधियो से पीड़ित होकर अत्यन्त दुःखी होता है।
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१६ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
अद्धारण जो महन्ततु सपाहे ओ पवज्जहै । गच्छन्तो सो सुही होइ छुमा तण्हा विवज्जिो ॥
५६
एव धम्म पि काऊरण जो गच्छइ परं भवं। गच्छन्तो सो सुही होइ अपकम्मे अवेयरणे॥
५७
जहा सागडियो जाण सम्म हिच्चा महापह । विसमभगमोइण्गो अक्खे भग्गम्मि सोयई ।।
एवं धम्म विउवक्कम्म अहम पड़िवज्जिया । बाले मच्चुमुह पत्ते अक्खे भग्गेव सोयई ।।
जहा य तिन्नि वाणि या मूल घेत्तूण निग्गया । एगोऽत्थ लहइ लाभं एगोमूलेण आगो।।
६०
एगो मूल पि हारित्ता आगो तत्थ वाणियो। ववहारे उवमा एसा एव घम्मे वियाणह ।।
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धर्म और नीति (धर्म) १७
जो पथिक लम्बी यात्रा में अपने साथ पाथेय लेकर चलता है वह आगे चल कर भूख और प्लास से तनिक भी पीड़ित न होकर अत्यन्त सुखी होता है।
इसी प्रकार जो मनुष्य भली-भाति धर्माचरण करके परलोक जाता है वह वहाँ जाकर लघुकर्मी तथा पीडा रहित होकर अत्यन्त सुखी होता है ।
जिस प्रकार मूर्ख गाड़ीवान जानता हुआ भी साफ मार्ग को छोड़कर विषममार्ग पर जाता है और गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करता है।
५८
उसी प्रकार अज्ञानी मानव भी, धर्म को छोडकर और अधर्म को ग्रहण कर अन्त में मृत्यु के मुह मे पड़कर जीवन की धुरी टूटने पर शोक करता है।
किसी समय तीन' वणिक पुत्र मूल पू जी लेकर धन कमाने निकले । उनमे से एक को लाभ हुआ, दूसरा अपनी मूल पूजी ज्यो की त्यो बचा लाया।
और तीसरा मूल को भी गवाकर वापस आया । यह व्यापार की उपमा है, इसी प्रकार धर्म के विषय मे भी जानना चाहिए।
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१८ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
उत्तम धम्म सुई हु दुल्लहा
गामे वा अदुवा रणे नेव गामे नेव रणणे धम्ममायाणह
सोही उज्जुअभूयस्स धम्मो शुद्धस्स चिट्ठई
६४
एगा धम्म पडिमा जं से आया पज्जवजाए
पन्ना समिक्खए धम्म
विन्नाणेण समागम्म धम्म साहणमिच्छिउं
पच्चयत्थं च लोगस्स नाणविह विगप्पणं
3
.
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धर्म और नीति (धर्म) १६
उत्तम धर्म का श्रवण मिलना निश्चय ही दुर्लभ है।
६२
धर्म गाव में भी हो सकता है और जंगल मे भी, वस्तुतः धर्म न कही गांव में होता है और न कही जगल मे ही किन्तु वह तो अन्तरात्मा मे होता है।
सरल आत्मा की शुद्धि होती है और शुद्ध आत्मा मे ही धर्म स्थिर रह सकता है।
धर्भ ही एक ऐसा पवित्र अनुष्ठान है जिससे आत्मा का शुद्धि करण होता है।
साधक की अपनी प्रज्ञा ही समय पर धर्म की समीक्षा कर सकती है।
विवेक ज्ञान से ही धर्म के साधनो का निर्णय होता है।
धर्मों के वेष आदि के नाना विकल्प जन साधारण में परिचय के लिए है।
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अहिंसा
६८
__ दाणाण सेट्ठ अभयप्पयाणं
एवं खु नाणिणो सारं जं न हिंसइ किंचण
७० अहिंसा निउणा दिट्ठा
७१ न हणे णो विधायए
७२ तसे पाणे न हिसिज्जा
७३
सव्वेसिं जीवियं पियं
७४ पाणेय नाइ वाएज्जा निज्जाइ उदगं व थलामो
७५
न हिंसए किंचण सव्वलोए
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, -
अहिंसा
दान में सर्वश्रेष्ठ अभयदान है ।
। निी के लिए यही सार है कि वह किसी की भी हिंसा न करे।
७० अहिंसा निपुण यानी अनेक प्रकार के सुखों को देने वाली है।
न तो मारे और न घात करें।
त्रस प्राणियो की हिंसा मत करो।
सभी को अपना जीवन प्यारा है ।
७४
जो प्राणियों की हिंसा नही करता है उसके कर्म इस प्रकार दूर हो जाते हैं जैसे कि ढालू जमीन से पानी दूर हो जाता है।
७५
सम्पूर्ण लोक मे किसी की भी हिंसा मत कर ।
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२२ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
७६
न य वित्तासए परं
७७
दया मस्स खंतिए विप्पसीएज्ज मेहावी
७८
न हरणे पाणिरणो पाणे
७६
विरए वहाओ
८०
मुणी ! महब्भयं नाइ वाइज्ज कंचण
८ १
अणुपुव्व पाहि संजए
८२
अभय दाया भवाहि
८३
धम्मे ठिम्रो सव्व पयारणुकम्पी
८४
ताइरणो परिरिणन्डे
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धर्म और नीति (अहिंसा) २३
दुसरो को त्रास मत दो
-
७७ मेधावी दयाधर्म के लिए क्षमाशील होता हुआ अपनी
आत्मा को प्रसन्न करे।
प्राणियो के प्राणो को मत हरो ।
७६ - हिंसा से विरत बने ।
८०
हे मुनि | किसी की भी हिंसा मत कर, इसमे महान
भय रहा हुआ है।
८१ प्राणियो के साथ क्रम से सयमशील हो ।
अभय दान देने वाले बनो ।
धर्म मे स्थित होते हुए सभी जीवो पर अनुकम्पा
करने वाले बनो।
.८४ अभय दान देने वाले ससार से पार उतर जाते है ।
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२४ भगवान महावीर को सूक्तियाँ
८५
तसकाय समारम्भं जाव जीवाईवज्जए
एसखलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु णरए
८७ अप्पेगे हिसिसु मेत्तिवा वहंति
अप्पेगे हिंसंति मेत्तिवा वहंति अप्पेगे हिसिस्संति मेत्तिवा वहंति
प्रारम्भज दुक्खमिणं
८६ अायो बहिया पास
अस्थिसत्थं मरेण परं नत्थि असत्थं परेण पर
सेह पन्नाणमते बुद्ध आरंभो वरए
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धर्म और नीति (अहिंसा) २५
८५
त्रस काय का समारम्भ जीवन पर्यंत के लिए छोड़ दो।
यह हिंसा ही निश्चय बंधन है, मोह है, यही मृत्यु हैं
और नरक है।
८७
'इसने मुझे मारा' कुछ लोग इस विचार से हिंसा करते है, 'यह मुझे मारता है' कुछ लोग इस विचार से हिंसा करते हैं, 'यह मुझे मारेगा' कुछ लोग इस विचार से हिंसा करते हैं।
यह सब दु ख हिंसा मे से उत्पन्न होता है।
८६ अपने समान ही वाहर दूसरो को देखे ।
हिंसा एक से एक बढ़कर है, परन्तु अहिंसा ऐक से एक बढ़कर नही है अर्थात् अहिंसा की साधना से बढकर श्रेष्ठ दूसरी कोई साधना नही।
६१
जो हिंसा से उपरत हैं वही प्रजावान बुद्ध हैं ।
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२६ भगवान महावीर की सूक्तियां
६२
वय पुण एव माइक्खामो एव भासामो, एवं परुवेमो एवं पण्णवेमो, सव्वे पाणा सम्वे भूया, सवे जीवा सव्वे सत्ता, न हतव्वा न अज्जावेयव्वा
न परिघेतव्वा न पारियावेयव्वा न उददवेयव्वा इत्थं विजाणह नत्थिव्व दोसो
आरियवयणमेय
पुव्वं निकाय समय पत्तेय पत्तेय पुच्छिस्सामि,
ह भो पवाइया । कि भे सायं दुक्खं असायं ?
समिया पडिवण्यो या वि एव बूया
सव्वेसिं पाणाण सव्वेसि भूयाण सव्वेसि जीवाण,, सव्वेसिं सत्ताणं असायं अपरिनिव्वाणं
महब्भय दुक्खें
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धर्म और नीति (अहिंसा) २७
६२
हम ऐसा कहते हैं, ऐसा बोलते है, ऐसी प्ररुपणा करते हैं, ऐसी प्रजापना करते है, कि किसी भी प्राणी किसी भी भूत किसी भी जीव और किसी भी सत्व को न मारना चाहिए न उन पर अनुचित शासन करना चाहिए न उनको गुलामो की तरह पराधीन बनाना चाहिए, न उन्हे परिताप देना चाहिए और न उनके प्रति किसी प्रकार का उपद्रव करना चाहिए। उक्त अहिंसा धर्म में किसी प्रकार का दोप नही है यह ध्यान मे रखिए, अहिंसा पवित्र सिद्धान्त है ।
सर्व प्रथम विभिन्न मत मतान्तरो के प्रतिपाद्य सिद्धान्त को जानना चाहिए और फिर हिंसा प्रतिपाद्य मतवादियो से पूछना चाहिए कि हे ! प्रवादियो तुम्हे सुख प्रिय है या दु ख ? हमे दु ख अप्रिय है, सुख नही—यह सम्यक् स्वीकार कर लेने पर उन्हे स्पष्ट कहना चाहिए कि तुम्हारी तरह विश्व के समस्त प्राणीजीव भूत और सत्वो को भी दुख अशान्ति देने वाला है, महाभय का कारण है और दुख रूप है।
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२८ भगवान महावीर को सूक्तियां
तुमसि नाम त चेव ज हतन्व ति मन्नसि, तुमसि नाम त चेव ज अज्जावेयध्व तं मन्नसि, तुमसि नाम त चेव ज परियावेयव्व ति मन्नसि ।
जे वऽन्ने एएहिं काएहिं दडं समारभति तेसि
पि वय लज्जामो
तमाओ ते तम जति मदा आरभ निस्सिया
६७ वेराई कुव्बई वेरी तो वेरेहि रज्जतो
१८ ते प्रात्तो पासइ सव्वलोए
भूएहिं न विरुज्झज्जा
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धर्म और नीति ( श्रहिंसा) २६
९४
जिसे तू मारना चाहता है वह तू ही है, जिसे तू शासित करना चाहता है वह तू ही है, जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है ।
६५
यदि कोई अन्य व्यक्ति भी धर्म के नाम पर जीवो की हिंसा करते हैं तो हम इससे भी लज्जानुभूति करते हैं ।
६
हिंसा मे लगे हुए अज्ञानी जीव अन्धकार से अन्धकार की ओर जा रहे हैं ।
६७
वैर वृत्ति वाला जब देखो तव वैर ही करता रहता है वह वैर को बढाने मे रस लेता है ।
£5
तत्त्वदर्शी समग्र प्राणिजनो को अपनी आत्मा के समान देखता है।
&&
किसी भी प्राणी के साथ वैर विरोध न बढावे ।
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३० भगवान महावीर को सूक्तियां
१०० किभया पाणा ? दुक्खभया पाणा दुक्खे केण कडे जीवेणं कड़े पमाएणं
१०१
एगं अन्नयर तस पाण हणमारो
अणेगे जीवे हाइ
१०२ एग इसिं हणमाणे अणंते जीवे हण :
१०३ अट्ठा हणतिअगट्ठा हणति
१०४
कुद्धाहणंति, लुद्धा हणति,मुद्धा हणति
१०५ न य अवेदयित्ता अत्थिहु मोक्खो
tr
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धर्म और नीति (अहिंसा) ३१
१००
प्राणि किससे भय पाते हैं ?
दुख से दुःख किसने किया है ? स्वयं आत्मा ने अपनी ही भूल से ।
१०१ एक त्रस जीव की हिंसा करता हुआ आत्मा तत्संवन्धी अनेक जीवो की हिंसा करता है ।
१०२ एक अहिंसक ऋषि की हिंसा करने वाला एक प्रकार से अनन्त जीवो की हिंसा करने वाला होता है ।
१०३ कुछ लोग प्रयोजन से हिंसा करते हैं और कुछ लोग विना प्रयोजन भी हिंसा करते हैं।
१०४ कुछ लोग क्रोध से हिंसा करते हैं कुछ लोग लोभ से हिंसा करते हैं कुछ लोग अनान से हिंसा करते है।
१०५ हिंसा के कटु फल को भोगे विना छुटकारा नही ।
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___ ३२ भगवान महावीर को सूक्तियाँ
१०६ पाणवहो चण्डो रुद्दो खुद्दो प्रणारियो निग्घिणो निसंसो महन्मयो
१०७ अहिंसा तस थावर सव्वभूय खेमकरी
भगवती अहिंसा भीयाणं विव सरणं
१०६ अहिंसा निउणा दिठ्ठा सव्वभूएसु संजमो
सव्वे जीवा वि इच्छंति जो विऊँ न मरिज्जिऊं
१११ नय वित्तासए परं
११२ वेराणुबद्धा नरयं उर्वति
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धर्म और नीति (अहिंसा) ३३
१०६ हिंसा चण्ड है, रौद्र है, क्षुद्र है अनार्य है, करुणा रहित है क्रूर है और महा भयकर है ।
१०७
अहिंसा त्रस और स्थावर सब प्राणियो को कुशल होम
करने वाली है।
१०८ जैसे भयाक्रान्त के लिए शरण की प्राप्ति हितकर है। वैसे ही प्राणियो के लिए भगवती अहिंसा हितकर है ।
१०६ सव प्राणियो के प्रति स्वयं को सयत रखना यही अहिंसा
का पूर्ण दर्शन है।
समस्त प्राणी सुख पूर्वक जीना चाहते हैं
मरना कोई नही चाहता।
किसी भी जीव को कष्ट नहीं देना चाहिए।
११२ जो वैर की परम्परा को लम्बा किया करता है वह
नरक को प्राप्त होता है।
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३४ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
११३
न हणे पाणिणो पाणे भय वेरायो उवराए
११४
अणिच्चे जीव लोगम्मि कि हिंसाए पसज्जसि ?
११५ सव्वेपाणा परमाहम्मिया
आयतुले पयासु
११७ मेत्ति भूएसु कप्पए
११८ भूएहिं न विरुज्झज्जा
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धर्म और नीति (अहिंसा) ३५
जो भय और वैर से मुक्त हैं वे किसी भी प्राणी की हिंसा नही
करते हैं।
११४ जीवन अनित्य है क्षण भगुर है फिर क्यो हिंसा मे आसक्त
होते हो?
११५
सभी प्राणी सुख के अभिलापी है ।
प्राणियो के प्रति आत्मतुल्य भाव रक्खो
११७ समस्त जीवो पर मंत्री भाव रक्खो
११८ किसी भी प्राणी के साथ वैर विरोध न वढावे ।
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११६ सच्चमि धिई कुविवहा
१२०
पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि
१२१ सहियो दुक्खमत्ताए पुट्ठो नो झंझाए
१२२ सच्चस्स प्राणाए उवट्ठिए मेहावी मारं तरइ
१२३
जे ते उ वाइणो एव न ते ससारपारगा
१२४ सच्चेसु वा प्रणवज्ज वयति
१२५ सादिय न मुसं वया
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११४ 'सत्य में दृढ रहो।
१२० है मानव! एक मात्र सत्य को ही अच्छी तरह जान ले, परख ले।
१२१ सत्य की साधना करने वाला साधक सव और दुखो से घिरा रहकर भी घबराता नही।
१२२ जो मेधावी साधक सत्य की आज्ञा मे उपस्थित रहता है, वह मृत्यु के प्रवाह को तैर जाता है।
१२३ जो असत्य की प्ररुपणा करते हैं वे संसार सागर को पार नही कर सकते।
१२४ सत्य वचनो मे भी हिंसा रहित सत्य वचन श्रेष्ठ है।
१२५
मन मे कपट रखकर झूट मत बोलो
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४० भगवान महावीर की सूक्तियां
१३४
सच्चपि सजमस्स उवरोह कारकं किंचि वि न वत्तव्व
१३५ अप्पणो थवणा परेसु निंदा
कुद्धो सच्चं शील विणयं हणेज्ज
१३७ अणुमायं पि मेहावि मायामोसं विवज्जए
मुसावाोउ लोग्गम्मि सव्वसाहूहि गरहियो
१३६ सच्चा विसान वत्तव्वा जो पावस्स प्रागो
१४०
अप्पणा सच्च मेसेज्जा
१४१ भासियव्वं हिय सच्च
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धर्म और नीति (सत्य) ४१
१३४ सत्य भी यदि संयम का घातक हो तो नही बोलना चाहिए।
१३५
अपनी प्रशसा तथा दूसरो की निन्दा भी असत्य के समकक्ष है।
क्रोध मे अधा हुआ व्यक्ति सत्य शील और विनय का नाश कर देता है।
१३७
आत्मविद साधक अणुमात्र भी, माया और असत्य का सेवन न करे ।
१३८ विश्व के सभी सत्पुरुषो ने असत्य की निंदा की है।
१३६ ऐसा सत्य भी न बोलना चाहिए जिससे किसी प्रकार का पाप का आगमन होता हो ।
१४० अपनी स्वय की आत्मा के द्वारा सत्य का अनुसधान करो।
१४१ सदा हितकारी सत्य वचन बोलना चाहिए।
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३८ भगवान महावीर की सूक्तियां
१२६
से दिट्ठिमं दिटिठ न लूसएज्जा
१२७ अलियवयण अयसकरं वेरकरगं मणसकिलेसवियरणं
१२८ असंत गुणुदीरका य संत गुण नासकाय
१२९
-
सच्च सभासक भवति सबभावाणं
१३० त सच्चं खु भगवं
१३१
सच्चं लोगम्मि सारभूय गभीरतरं महासमुद्दामो
१३२ सच्च सोमत्तंर चंद मंडलामो दित्ततरं सुरमंडला
सच्चं च हियं च मियं च गाहणं च
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धर्म और नीति (सत्य) ३६
१२६ सम्यग्दृष्टि साधक को सत्य दृष्टि का अपलाप नही करना चाहिए।
१२७ असत्य वचन बोलने से बदनामी होती है परस्पर वर बढता है और मन मे संक्लेग की वृद्धि होती है ।
१२८ असत्यभापी लोग, गुणहीन के लिए गुणो का बखान करते हैं और गुणी के वास्तविक गुणो का अपलाप करते है ।
१२६ सत्य समस्त भावो तथा विपयो का प्रकाश करने वाला है ।
सत्य ही भगवान है।
१३१
ससार मे सत्य ही सारभूत है सत्य महासमुद्र से भी अधिक गमीर है।
१३२
सत्य चन्द्र मण्डल से भी अधिक सौम्य है, सूर्य मण्डल से भी अधिक तेजस्वी है। '
१३३ ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए जो हित मित और ग्राह्य हो । .
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४२ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
१४२
लुद्धो लोलो भणेज्ज ग्रलियं
१४३
मुसं परिहरेभिक्खू
१४४
मातिठ्ठारण विवज्जेज्जा
१४५
मूसं न बूयामुरिण प्रत्तगामी
१४६
हिंसगं न मुसं वूत्रा
१४७
सच्चे तत्थ करेज्जु वक्कमं
१४८
मुसाभान्सा निरत्थिया
१४६
सावज्ज न लवे मुणी
१५०
अप्परगट्टा परट्ठा, वा, कोहा वा जइ वा भया हिंसगं न मुस बया, नो वि अन्न वयावए
१५१
तहेव फरुसा भासा गुरु भू प्रोवा घइणी
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धर्म और नीति (सत्य) ४३
१४२ मनुष्य लोभ से प्रेरित होकर असत्य बोलता है।
१४३ भिक्षु असत्य का परिहार करदे ।
१४४ छल कपट के स्थान को छोडिये ।
१४५ आत्मा को मोक्ष में ले जाने की इच्छावाला मुनि झूठ नहीं बोले ।।
१४६
हिंसा पैदा करने वाला झूठ मत बोलो।
१४७
जो सत्य हो उसी मे पराक्रम करो।
१४८ __ असत्य भापा निरर्थक है ।
१४६ मुनि पाप कारी भाषा नही बोले ।
१५० निर्ग्रन्थ अपने स्वार्थ के लिए या दूसरो के लिए क्रोध से या भय से किसी प्रसंग पर दूसरो को पीड़ा पहुंचाने वाला सत्य या असत्य वचन न तो स्वय बोले न दूसरो से बुलवाये ।
जो भापा कठोर हो और दूसरो को पीडा पहुंचाने वाली हो वैसी भाषा न बोले।
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___४४ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
१५२ सच्चेण महासमुद्दमज्झे वि चिठ्ठन्ति न निमज्जति
१५३
सच्चं जसस्स मूलं
१५४ सच्चं विस्सासकारण परम
१५५ सच्च सग्ग हार
१५६ सच्च सिद्धिइ सोपाणं
१५७ नलवे असाहु साहुत्ति साहु साहुत्ति पालवे
१५८
ओह तहियं फरुसं वियाणे
मणुयगणाणं वंदणिज्ज अमरगणाणं अच्च णिज्जं
सया सच्चेण सम्पन्ने मेत्ति भू
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धर्म और नीति (सत्य) ४५
१५२ सत्य के प्रभाव से मनुष्य महासमुद्र मे भी सुरक्षित रहते है डूबते नहीं।
१५३ सत्य यश का मूल है।
१५४ सत्य विश्वास का परम कारण है।
१५५ सत्य स्वर्ग का द्वार है।
सत्य ही सिद्धि का सोपान है ।
किसी स्वार्थ या दवाव के कारण असाधु को साधु नही कहना चाहिए, साधु को ही साधु कहना चाहिए ।
१५८ सत्य वचन भी यदि कठोर हो तो वह मत बोलो।
१५६ सत्य मनुष्यो द्वारा स्तुत्य तथा देवो द्वारा अर्चनीय है।
जिसकी अन्तरात्मा सदा सत्य भावो से सम्पन्न है उसे विश्व के प्राणीमात्र के साथ मित्रता रखनी चाहिए।
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अस्तेय
अणुन्नविय गेण्हियव्वं
अदिन्नादाणाप्रो विरमण
लोभाविले आययई अदत्तं
१६४ दन्तसोहणमाइस्स अदत्तस्स विवज्जणं
१६५ असंविभागी न हु तस्स मोक्खो
परदव्व हरा नरा निरणुकंपा निरवेक्खा
१६७ परसंतिगऽभेज्जलोभमूलं
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अस्तेय
किसी भी चीज़ को आना लेकर ग्रहण करनी चाहिए ।
१६२ चोरी से दूर रहो।
। १६३ जब व्यक्ति लोभ से अभिभूत होता है तव चौर्य कर्म के लिए प्रवृत्त होता है।
१६४ अस्तेय व्रत मे निष्ठा रखने वाला व्यक्ति बिना किसी कि अनुमति के यहा तक कि दात कुरेदने के लिए तिनका भी नहीं लेता।
जो सविभागी प्राप्त सामग्री को साथियो मे बांटता नही है उसकी मुक्ति नहीं होती है।
दूसरो का धन हरण करने वाले मनुष्य निर्दय एव परभव की उपेक्षा करने वाले होते हैं ।
१६७ पर धन मे गृद्धि का मूल हेतु लोभ है और यही चौर्य कर्म है ।
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४८ भगवान महावीर की सूक्तियां
संविभाग सीले, संगहोवग्गहकुसले से तारिसए पाराहए वयमिणं
१६६ असंविभागी, असगहरुई. 'अप्पमाणभोई.. से तारिसए ताराहए वयमिण
१७० तइयं च अदत्तादाणं हरदहमरण भयकलुस तासण परसतिमऽभेज्ज लोभमूलं... .......
अकित्तिकरण अणज्ज ...."साहुगरहणिज्जं पियजणमित्रजण भेद विप्पीतिकारकं रागदोसवहुल
१७१ रुवे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उ अतुठ्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं
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धर्म और नीति (अस्तेय) ४६
१६८ जो सविभागशील है, संग्रह और उपग्रह में कुशल है वही अस्तेयन्वत की सम्यक आराधना कर सकता है ।
जो असविभागी है, असग्रहरुचि है, अप्रमाण भोगी है, वह अस्तेय व्रत की सम्यक आराधना नहीं कर सकता है ।
तीसरा अदत्ता दान; दूसरो के हृदय को दाह पहुंचाने वाला, मरण भय पाप कष्ट तथा पर द्रव्य की लिप्सा का कारण तथा लोभ का कारण है । यह अपयश का कारण है, अनार्य कर्म है, सन्त पुरुषो द्वारा निन्दित है, प्रियजन और मित्रजनो मे भेद करने वाला है, तथा अनेकानेक रागद्वेष को उत्पन्न करने वाला है।
१७१
जो रूप मे अतृप्त होता है उसकी आसक्ति बढती ही जाती है इसलिए उसे सन्तोष नही होता है । असन्तोष के दोप से दुखित होकर वह दूसरे की सुन्दर वस्तुओ का लोभी बनकर उन्हे चुरा लेता है।
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५० भगवान महावीर की सूक्तियां
१७२ चित्तमंतमचित्त वा अप्पं वा जइ वा बहु दन्त सोहणमित्तं पि उग्गहं से अनाडया त अप्पणा न गिण्हन्तिनो, विगिण्हावए परं अन्नं वा गिण्हमाणंपि नाणु जाति संजया
१७३
मदत्तादाण अकित्तिकरणं अणज्ज सया साहुगरहणिज्जं
१७४
अदिन्नमन्नेसु य णो गहेज्जा
Mou..
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धर्म और नीति (अस्तेय) ५१
१७२ सचित्त पदार्थ हो, या अचित्त, अल्प मूल्य वाला पदार्थ हो या वहुमूल्य, और तो क्या ? दात कुरेदने की शलाका भी जिस गृहस्थ के अधिकार मे हो, उसकी विना आज्ञा प्राप्त किए पूर्ण संयमी साधक न तो स्वय ग्रहण करते हैं, न दूसरो को ग्रहण करने के लिए उत्प्रेरित करते है।
१७३ अदत्तादान चोरी अपयश करने वाला अनार्य कर्म है। यह सभी भले आदमियों द्वारा सदैव निन्दनीय है।
१७४ विना दी हुयी किसी की कोई भी चीज़ नही लेना चाहिए ।
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ब्रह्मचर्य
१७५ नाइमत्तपाण भोयणभोई से निग्गे थे
तवेसुवा उत्तम बंभचेरं
१७७ तम्हा उबज्जए इत्थी विसलित्तं व कण्टगतच्चा
१७८ रणो पाण भोयणस्स अतिभत्तं आहारए सया भवई
१७९ बभचेर उत्तमतवनियम गारगदसण चरित्तसम्मत्त विणय मूल
१८०
जमिय भग्गमि होई सहसा सव्व भग्गज मिय पाराहियमि पाराहिय वयमिण सव्वं
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ब्रह्मचर्य
१७५
जो आवश्यकता से अधिक भोजन नहीं करता, वही ब्रह्मचर्य का साधक सच्चा निर्ग्रन्थ है।।
१७६ तपों मे सर्वोत्तम ब्रह्मचर्य तप है
१७७ ब्रह्मचारी स्त्रीसंसर्ग को विपलिप्त कण्टक के समान मानकर उससे वचता रहे।
१७८ ब्रह्मचारी को कभी अधिक मात्रा मे भोजन नही करना चाहिए।
१७६ ब्रह्मचर्य, उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय का मूल है।
१८० एक ब्रह्मचर्य के नष्ट होने पर सहसा अन्य सव गुण नष्ट हो जाते हैं। एक ब्रह्मचर्य की आराधना कर लेने पर, सब शील, तप विनय आदि व्रत आराधित होते हैं।
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५४ भगवान महावीर की सूक्तियां
१८१
अणेगा गुणा अहीणा भवति एक्कमि वंभचेरे
१८२ स एव भिक्खू जो सुद्धं चरइ वंभचेरं
१८३ देव दाणवगंधव्वा जक्ख रक्खस्स किन्नरा। बंभयारि नमसंति दुक्करं जे करंति ते ।।
१८४ इत्थिो जे रण सेवंति आइ मोक्खा हु ते जणा .
१८५ न तं सुहं काम गुणेसु रायं जं भिक्खुणं सील गुणे रयारणं
विभूसं परिवज्जेज्जा सरीर परिमंडणं । बंभचेर रो भिक्खू सिंगारत्यं न धारए ।
.
१८७ - सद्दे रुवे य गन्धे रसे फासे तहे वय पंचविहे कामगुणे निच्चसोपरिवज्जए
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धर्म और नीति (ब्रह्मवयं) '५५
१८१ ऐक ब्रह्मचर्य की साधना से अनेक गुण स्वतः अधीन हो जाते हैं।
१८२
जो शुद्ध भाव से ब्रह्मचर्य पालन करता है, वस्तुतः वही भिक्षु है।
देवता, दानव, गधर्व यक्ष, राक्षस और किन्नर सभी ब्रह्मचर्य के साधक को नमस्कार करते है क्योकि वह एक बहुत दुष्कर कार्य है।
१८४
___ जो पुरुष स्त्रियो का सेवन नहीं करते, वे मोक्ष प्राप्ति मे सबसे अग्रसर है।
“१८५ जो सुख, शील-गुण मे रत भिक्षुओं को प्राप्त होता है, वह सुख, काम भोगो मे राग रखने से नहीं मिल सकता।
१८६ ब्रह्मचर्य-साधनारत साधक-भिक्षु शगार का वर्जन करे और शरीर को शोभा सज्जात्मक शगार धारण न करे ।
१८७ ब्रह्मचारी शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श इन पाच प्रकार के काम गुणो का सदा त्याग करे ।
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५६ भगवान महावीर को सूक्तियाँ
१८८ जहा कुम्मे सअंगाई सए देहे समाहरे । एवं पावाई मेहावी अज्झप्पेण समाहरे ।।
१८६ रसापगामं न निसेवियव्वा पायंरसादित्तिकरा नरारणं दित्तं च कामा समभिवंति दुम जहा साउफलं व पक्खी।।
१६० लद्ध कामे ण पत्थेज्जा
बम्भयारिस्स इत्थी विग्गहरो भयं
१६२ नाइमत्तं तु भु जिज्जा बम्भचेररो
१६३ णो निग्गथं इत्थीणं पुव्वरयं पुव्वकीलियं अणुसरेज्ज
१६४
संमिरूम भावं पयहे पयासु
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धर्म और नीति (ब्रह्मचर्य) ५७
१८८ जिस प्रकार कछुआ अपने अगो को अन्दर सिकोड़ कर भयमुक्त हो जाता है, उसी प्रकार साधक अध्यात्मयोग के द्वारा अन्तरात्माभिमुख होकर अपने आप को विपयो से बचाये रखे।
१८९
ब्रह्मचारी को घी और दूध आदि रसो का सेवन नही करना चाहिए । क्योकि रस प्रायः उद्दीपक होते हैं, उद्दीत पुरुष के निकट काम वासना वैसे ही चली जाती है, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष के पास पक्षी चले आते हैं। ।
१६०
भोगो के प्राप्त होने पर भी उनकी इच्छा नही करे।
Post:
१६१ ब्रह्मचारी के लिए स्त्री के शरीर से भय रहता है।
१६२ ब्रह्मचर्य मे रत होता हुआ अतिमात्रा मे भोजन नही करे।
१६३ साधु स्त्रियो के साथ पूर्वकाल मे भोगे हुए भोगो को याद होने नही करे।
१६४ वैराग्य भावना से श्रेष्ठं धर्म रूप श्रद्धा उत्पन्न होती है।
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१८ भगवान महावीर को सूक्तियां
विसएसु मणुन्नेसु पेमं नाभि निवेसए
१६६ नारीसु नोव गिज्झेज्जा धम्मं च पेसलं णच्चा
१९७ नय रुवेसु मरणं करे
१९८ निविण्ण चारी अरए पयासु
१९६ विरते सिणाणाइसु इत्थिया सु
२०० इत्थि निलयस्स मज्झे न बम्भयारिस्स खमो निवासो
२०१ गुत्तिदिए गुत्त बम्भयारी सया अप्पमत्ते विहरेज
२०२ सन्विदियाभिनिव्वुड़े पयासु
२०३ इत्यि याहि अणगारा सवाासेण णासमुवयंति
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धर्म और नीति (ब्रह्मचर्य) ५९
१९५ मन के चाहे हुए विषयों मे मोह का आग्रह मत करो, मोहग्रस्त न बनो।
१६६ साधक धर्म को सुन्दर समझ कर, स्त्रियो का लोभ नही करे।
१६७
रूप विपयों में मन को न लगाओ।
१६८ वैराग्यशील होकर स्त्रियो के प्रति रतिभावना नही लाए ।
१६९ स्नान आदि शंगारिक कार्यों से और स्त्रियो से विरक्त रहो।
२०० स्त्रियो के निवास स्थल पर ब्रह्मचारी का निवास . क्षम्य नही है ।
२०१ जितेन्द्रिय और गुप्तब्रह्मचारी सदा अप्रमादी होकर ही विचरे ।
. २०२ स्त्रियो से सभी इन्द्रियो द्वारा दूर ही रहना चाहिए।
२०३ अणगार स्त्रियो के साथ सहवास करने से नष्ट होते है।
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६० भगवान महावीर की सूक्तियाँ
२०४ जा जा दिच्छसि नारीओ अठ्ठि अप्पा भविस्ससि
२०५ न चरेज्ज वेस सामते
२०६ अरए पयासु
२०७
अविवास सयं नारी बम्भयारी विवज्जए
२०८ थी कह तु विवज्जए ,
२०४ जे विन्नवणा हिंऽज़ोसिया सतिन्नेहि समं वियाहिया
२१० सुबंभचेरं वसेज्जा
२११ उग्ग महन्वयं, धारेयव्वं सुदुक्कर
२१२
कुसीलवड्ढणं ठाणं दूरनो परिवज्जए
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धर्म और नीति (ब्रह्मचर्य) ६१
२०४ काम भावना से जिन जिन नारियो की और देखोगे, उतनी ही वार आत्मा अस्थिर होगी।
२०५
वेश्या के मकान के पास नही जाए।
२०६ स्त्रियो से विरक्त रहना चाहिए ।
२०७ ब्रह्मचारी सौ वर्ष की आयु वाली स्त्री से भी दूर ही रहे ।
२०८ स्त्रीकथा को सर्वथा छोड दो ।
२०४ जो स्त्रियो द्वारा सेवित नही हैं, वे सिद्ध पुरुषो के समान ही कहे गए हैं।
२१० सुब्रह्मचर्य रूप धर्म मे रहे यानी ब्रह्मचर्य का पालन करे ।
२११ जो उग्र है महावत हैं सुदुष्कर है, ऐसे ब्रह्मचर्य को धारण करना चाहिए।
२१२ कुशील के बढाने वाले स्थान को दूर ही से छोड दो।
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६२ भगवान महावीर को सूक्तियां
२१३ दुक्खं बंभवय घोर
२१४ मूलमेयमहम्मस्स, महादोस समुस्सय
२१५ दुज्जए कामभोगे य, निच्चसो परिवज्जए
२१६ जे गुणे से आवट्ट, जे आवट्टे से गुणे
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धर्म और नीति (ब्रह्मचर्य) ६३
२१३ उग्र वह्मचर्य व्रत का धारण करना अत्यन्त कठिन है ।
२१४ अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, महादोपो का स्थान है।
२१५ स्थिरचित्त भिक्षु दुर्जय काम भोगो को हमेशा के लिए छोड दे ।
२१६ इन्द्रियो के लिए जो शब्दादि विषय कामगुणात्मक है, वे ससार मे भँवर के समान हैं । अत. कामगुणात्मक इन्द्रियो के विषयो से दूर रहना चाहिए।
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अपरिग्रह
२१७ बहु पि लघु न निहे, परिग्गहारो अप्पाणं अवसक्किज्जा
परिग्गह निविट्ठाण वेरं तेसि पवड्ढई
२१६ लोभ कलि कसाय महक्खंधो चितासय निचिय विपुल सालो
२२०
नत्थि एरिसो पासो पडिबंघो अत्थि सब जीवाणं सव्वलोए
२२१ अपरिग्गह संकुडेण लोगमि विहरियब्व
२२२
अणुन्नविय गेण्हियवं
२२३ मुच्छा परिगहो वुत्तो
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अपरिग्रह
२१७ अधिक मिलने पर भी स ग्रह न करे । परिग्रह वृत्ति से अपने को दूर रखें।
२१८ जो परिग्रह मे व्यस्त हैं वे संसार में अपने प्रति वैर ही बढ़ाते है
२१६ परिग्रह रूप वृक्ष के स्कन्ध है लोभ, क्लेष, कषाय तथा चिंता रूपी सैकडो ही सघन और विस्तीर्ण उसकी शाखाए हैं।
२२० समूचे ससार मे परिग्रह के समान प्राणियो के लिए दूसरा कोई जाल एव बन्धन नही है।
२२१ अपने को अपरिग्रह भावना से सवृत्त कर लोक मे विचरण करना चाहिए।
' २२२ दूसरे की कोई भी चीज़ हो मजा लेकर ग्रहण करनी चाहिए ।
२२३ मू भाव ही परिग्रह कहा गया है ।
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६६ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
२२४ सव्वारम्भ परिच्चागो निम्ममत्तं
२२५ वित्तण ताणं न लभे पमत्ते इमम्मि लोए अदुवा परत्था
२२६
नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अस्थि सव्व जीवाणं सव्वलोए
२२७ इच्छा हु आगास समा अणंतिया
२२८ धरणधन्न पेसवग्गेसु परिग्गह विवज्जणं सव्वारम्भ परिच्चायो निम्ममत्तं सुदुक्कर
२२६ जयानिविदए भोए जे दिव्वे जे य माणुसे तया चयइ संजोग सब्भितर बाहिरं
२३० जपि वत्थ च पाय वा कंबल पाय पुच्छण जं पि सजम लज्जठ्ठा धारति परिहरति य
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धर्म और नीति (अपरिग्रह) ६७ ।।
२२४
सभी प्रकार के आरम्भ का परित्याग करना ही निर्ममत्व है ।
२२५ प्रमत्त पुरुप धन के द्वारा न तो इस लोक मे अपनी रक्षा कर सकता है और न परलोक में ही ।
२२६ विश्व के सभी प्राणियो के लिए परिग्रह के समान दूसरा कोई जाल नही, वन्धन नही।
२२७ इच्छा आकाश के समान अनन्त है।
२२८ धन धान्य नौकर चाकर आदि का परिग्रह त्यागना, सर्व हिंसात्मक प्रवृत्तियो को छोडना और निरपेक्ष भाव से रहना यह अत्यन्त दुष्कर है।
२२६ जव मनुष्य दैविक और मनुष्य सम्बन्धी भोगो से विरक्त हो जाता है, तब वह आम्यन्तर और वाह्य परिग्रह को छोडकर आत्म-साधना मे जुट जाता है।
२३० जो भी वस्त्र पात्र कम्बल और रजोहरण हैं उन्हे मुनि सयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही रखते है किसी समय वे मयम की रक्षा के लिए इनका परित्याग भी करते हैं।
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६८ भगवान महावीर की सूक्तियां
२३१ जे पाव कम्मेहिं धरण मणूसा समाययन्ती अमयं गहाय पहाय ते पास पयढ़िए नरे वेराणु बद्धा नरयं उवेति
२३२ जस्सि कुले समुप्पन्ने जेहिं वा संवसे नरे ममाइ लुप्पई वाले अन्ने अन्नेहिं मुच्छिए
२३३
कसिणपि जो इमलोय पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स तेणाऽवि से न संतुस्से इइ दुप्पूरए इमे आया
२३४ विडमुन्भेइमं लोणं तेल्ल सप्पि च फाणिय न ते सन्निहिमिच्छन्ति नायपुत्त वोरया
२३५ जे सिया सन्तिहिकामे गिही पव्वइए न से
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धर्म और नीति (मपरिग्रह) ६६
२३१ जो मनुष्य धन को अमृत मानकर अनेक पाप कर्मों द्वारा उसका उपार्जन करते हैं वे धन को छोड़कर मौत के मुंह में जाने को तैयार हैं । वे वैर से बंधे हुए मरकर नरकवास प्राप्त करते हैं।
२३२
अज्ञानी मनुष्य जिस कुल में उत्पन्न होता है अथवा जिसके साथ निवास करता हैं उसमे ममत्व भाव रखता हुआ अपने से भिन्न वस्तुओ में इस मूभिाव से अन्त मे वह बहुत दु.खित होता है।
२३३ यदि धन धान्य परिपूर्ण यह सारी सृष्टि किसी एक व्यक्ति को । दे दी जाय तव भी उसे संतोष होने का नहीं क्योंकि लोभी आत्मा की तृष्णा दुष्पूर होती है। -
२३४ जो लोग भगवान महावीर के वचनो में अनुरक्त है वे मक्खन, नमक, तेल, घृत, गुड़ आदि किसी भी वस्तु के संग्रह करने का मन मे संकल्प तक नहीं लाते ।
२३५ जो साधु मर्यादा विरुद्ध कुछ भी संग्रह करना चाहता है वह साधु नही बल्कि गृहस्थ ही है ।
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७० भगवान महावीर की सूक्तियाँ
२३६
श्रन्ने हरंति तं वित्तं कम्मी कम्मेहि किच्चतो
२३७
कामे काही कमिय खु दूक्ख
२३८
जे ममाइत्र मई जहाइ से जहाइ ममाइ
२३ε
से हु दिठ्ठभर मुणी जस्स नत्थि ममाइग्र
२४०
तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते त जहा कम्म परिग्गहे, सरीर परिग्गहे, बाहिर भंडमत्त
परिग्गहे,
२४१
लोहस्सेस अगुफ्फासो मन्ने अन्नयरामवि
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धर्म और नीति (अपरिग्रह) ७१ ।
२३६ संचय किया हुआ धन यथा समय दूसरे उडा लेते है किन्तु सग्रही को अपने पाप कर्मों का दुष्फल भोगना ही पड़ता है।
२३७ कामनाओ का अन्त करना ही दुःख का अन्त करना है।
२३८ जो साधक अपनी ममत्व बुद्धि का त्याग कर सकता है वही परिग्रह का त्याग करने में समर्थ हो सकता है।
२३६ जिसकी चित्तवृत्ति से ममत्वभाव निकल चुका है वही संसार के भय स्थानो को सुन्दर रीति से देख सकता है।
२४०
परिग्रह तीन प्रकार का है-कर्म परिग्रह, शरीर परिग्रह, बाह्यभण्ड मात्र उपकरण परिग्रह ।
२४१ सग्रह करना यह अन्दर रहने वाले लोभ की झलक है।
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श्रद्धा
२४२ सद्धा परमदुल्लहा
२४३ जाए श्रद्धाए निक्खंतो तमेव अणु पालेज्जा विजहित्ता विसोत्तियं
२४४ वितिगिच्छा समावन्नेणं अप्पाणणं नो लहई समाहिं
२४५ कह कह वा विति गिच्छतिण्ण
२४६ अदक्खू व दक्खु वाहियं सद्दहसु
२४७
संसयं खलु सो कुणइ जो मग्गे कुणइ घर
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श्रद्धा
२४२ . धर्म मे श्रद्धा होना अत्यन्त दुर्लभ है।
२४३ जिस श्रद्धा के साथ निष्क्रमण किया है, साधनापथ अपनाया है, उसी श्रद्धा के साथ मन की शंका या कुण्ठा से दूर रहकर उसका अनुपालन करना चाहिए।
२४४
शकाशील व्यक्ति को कभी समाधि नही मिलती।
२४५ मनुष्य को कैसे न कैसे मन की विचिकित्सा से पार हो जाना चाहिए।
२४६ नही देखने वालो ! तुम देखने वाले की वात पर श्रद्धा रखकर चलो।
२४७ साधना में सशय वही करता है जो कि मार्ग मे ही रुक जाना चाहता है।
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७४ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
२४८ सद्धा खमं णे विणइत्त रागं
२४६ सुई च लद्ध सद्धं च वीरिय पुण दुल्लहं बहवे रोयमाणावि णो य एवं पडिवज्जई
२५० धम्मसद्धाएण सायासोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ
२५१ सद्दहणा पुरणरावि दुल्लहा
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धर्म और नीति (श्रद्धा) ७५
२४८ धर्म श्रद्धा हमे आसक्ति से मुक्त कर सकती है।
२४६ श्रति और श्रद्धा प्राप्त होने पर भी संयम मार्ग मे वीर्य पुरुषार्थ होना अत्यन्त कठिन है । बहुत से लोग श्रद्धा सम्पन्न होते हुए भी सयम मार्ग मे प्रवृत्त नही होते ।
- २५० धर्म श्रद्धा से वैपयिक सुखो की आसक्ति छोडकर यह जीव वैराग्य को प्राप्त कर लेता है।
उत्तम धर्म को सुन लेने के बाद भी उस पर श्रद्धा होना और भी दुर्लभ है।
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तप
२५२ देहदुक्खं महाफलम्
२५३ भवकोड़िय संचियंकम्म तवसा णिज्जरिज्जइ
२५४ नो पूयणं तवसा पावहेज्जा
२५५ नन्नत्थ निज्जरट्टयाए तवमहिछेज्जा
२५६
सउणी जह पंसुगुडिया विहणिय धसयइ सियं रयं एंव दवियोवहाण कम्म खवइ तवस्सि माहरणे
२५७
तवेसु वा उत्तमं बभचेरं
२५८ असिघारागमण चेव दुक्करं चरिउं तवो
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तप
२५२ देह का दमन करना तप है, यह महान फलप्रद है ।
कोटि कोटि भवो के सचित कर्म तपस्या की अग्नि मे भस्म हो जाते हैं।
२५४ तप के द्वारा पूजा प्रतिष्ठा की अभिलाषा नही करनी चाहिए।
२५५ केवल कर्म निर्जरा के लिए तपस्या करनी चाहिए । इहलोक परलोक व यश कीर्ति के लिए नही ।
२५६ जिस प्रकार शकुनी नाम का पक्षी अपने परो को फडफडा कर उन पर लगी धूल को झाड देता हैं उसी प्रकार तपस्या के द्वारा मुमुक्षु अपने कृतकों का बहुत शीघ्र ही अपनयन कर देता है।
२५७ तपो मे सर्वोत्तम तप है ब्रह्मचर्य ।
२५८ तप का आचरण तलवार की वार पर चलने के समान दुष्कर है ।
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७८ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
२५६
एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरग
२६० छन्दं निरोहेण उवेइ मोक्ख
२६१ सक्ख खु दोसइ तवो विसेसो न दीसई जाइ विसेस कोई
२६२ तवो जोइ जीवो जोई ठाण जोगा सुया सरीरं कारिसग कम्मेहा सजमजोग सन्ति होम हुणामि इसिणपसत्थ
२६३
कसेहिं अप्पाण जरेहि अप्पाण
२६४
अप्पपिण्डासि पारणासि अप्पभासेज्ज सुव्वए
२६५ यो पाणभोयणस्स अतिमत्त
आहारए सया भवई
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।
धर्म और नीति (तप) ७९
२५६ आत्मा को शरीर से पृथक् जानकर भोगलिप्त शरीर को तपस्या के द्वारा वुन डालो।
२६० इच्छा निरोध तप से मोक्ष की प्राप्त होता है।
२६१ तप की विशेषता तो प्रत्यक्ष दिखलाई देती है किन्तु जाति की तो कोई विशेपता नजर नही आती।
२६२
तप ज्योति अर्थात् अग्नि है, जीव ज्योति स्थान है, मन वचन काया के योग आहुति देने की कडछी है, शरीर अग्नि प्रज्वलित करने का साधन है कर्म जलाए जाने वाला इधन है, सयम योग शाति पाठ है मैं इस प्रकार का यन करता हूँ जिसे ऋषियो ने श्रेष्ठ बतलाया है।
तप के द्वारा अपने को कृश करो। तन मन को हल्का करो अपने को जीर्ण करो, भोग वृत्ति को जर्जर करो।
२६४ सुव्रती साधक कम खाए, कम पीए और कम बोले ।
२६५ ब्रह्मचारी को कभी भी अधिक मात्रा मे भोजन नही करना चाहिए।
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८० भगवान महावीर की सूक्तियाँ
२६६
जमे तव नियम संजम लज्भाय भाणाऽवस्सय मादीएस जोगेसु जयणा सेत्त' जत्ता
२६७
तवेण परिसुज्भई
२६८
तवप्पहारण चरिय च उत्तम
२६६
सो तवो दुविहो वुत्तो बाहिरब्भन्तरो तहा बाहिरो छवि वृत्तो एवमब्भत रोतवो
२७०
तव नारायजुत्तेण भित्तणं कम्म कंचुय
२७१
वेज्ज निज्जरा पेही
२७२
पच्चक्खाणेण प्रसव दाराइ निरुम्भइ
२७३ ग्रहये तवे चेव
२७४
अप्पादतो सुही होइ
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धर्म और नीति (तप) ८१
२६६ तप नियम सयम स्वाध्याय ध्यान आवश्यक आदि योगो मे जो यत्ना विवेक प्रवृत्ति है वह मेरी वास्तविक यात्रा जीवन चर्या है।
२६७ साधक तप से शुद्ध हो जाता है ।
२६८ तप मूल चारित्र ही सर्वश्रेष्ठ चारित्र है।
२६६ तप दो प्रकार का है वाह्य और आभ्यन्तर । ये दोनो ६, ६ प्रकार का कहा गया है।
२७० तप रूपी लोह वाण से युक्त धनुष के द्वारा कर्म रूपी कक्च को भेद डालें।
२७१ निर्जरा का आकांक्षी सहनशील होवे ।
२७२ प्रत्याख्यान से आश्रव के द्वार वध हो जाते हैं।
૨૭રૂ. तप से पूर्ववद्ध कर्मो का नाश करो।
२७४ मात्मस्थ कपायो का दमन करने वाला ही सुखी होता है।
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८२ भगवान महावीर को सूक्तियां
२७५ तवेण वोदाण जणयई
२७६ अणसणभूणोयरिया भिक्खा यरिया रसपरिच्चायो कायकिलेसो संलोणया य, वज्झो तवो होइ
२७७ पायच्छित्त विरणो, वेयावच्च तहेव सज्झायो झारण च विउस्सग्गो एसो अन्भिन्तरो तवो
२७८ आलोयणाए उज्जुभाव जणयइ
२७६ बल थाम च पेहाए सद्धमारोग्गमप्पणो श्वेत्त काल च विन्नाय तहप्पारण निजु जए
२८०
तवं चरे
२८१ तवसाधुणइपुराण पावग
२८२ तवोगुण पहाणस्स उज्जुम इ
२८३ समाहिकामे समणे तवस्सी
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धर्म और नीति (तप) ८३
२७५ तप से व्यवदान-पूर्व कर्मों का क्षय कर आत्मा शुद्धि प्राप्त करता है ।
२७६ अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरो, रसपरित्याग, कायक्लेश और प्रति सलीनता ये बाह्य तप के ६ भेद है ।
२७७ प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य स्वाध्याय ध्यान और कायोत्सर्ग ये आभ्यन्तर तप के छ. भेद हैं ।
२७८ आलोचना से निष्कपटता के भाव पैदा होते हैं ।
२७४ अपना बल दृढता श्रद्धा आरोग्य तथा क्षेत्रकाल को देखकर आत्मा को तपश्चर्या में लगाना चाहिए ।
२८० तप का आचरण करो ।
२८१ तप द्वारा पुराने पाप की निर्जरा होती है ।
२८२ तप रूप प्रधान गुण वाले की मति सरल होती है ।
२८३ जो श्रमण समाधि की कामना करता है वही तपस्वी है ।
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८४ भगवान महावीर को सूक्तियां
२८४
पडिक्कमणेणं वय छिद्दाणि पिहेइ
२८५ तव कुव्वइ मेहावी
२८६ परक्कमिन्ना तव संजम्मि
२८७ अकोहणे सच्चर ते तवस्सो
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धर्म पोर नीति (तप) ८५
२८४ प्रतिक्रमण से व्रतो के छिद्र ढक जाते हैं।
२८५ मेधावी पुरुष तप करता है।
तप संयम में पराक्रम बतलाओ।
२८७ अक्रोधी, सत्यरत तपस्वी होता है ।।
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साधना
२८८
झाणजोगं समाह? कायं विउसेज्ज सव्वसो
२८९ भोगी भोगे परिच्चयमाणे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ
२६० जं मे तव नियम संजम सज्झाय झाणाऽवस्सय मादीएसु जोगेसु जयणा, से तं जत्ता
बाहहिं सागरो चेव तरियध्वो गुणोदही
२६२ खमावणयाएणं पल्हायणभावं जरणयइ
२६३
असंजमे नियत्ति च संजमेय पवत्तरणं
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साधना
२८८
ध्यान योग का आलम्वन कर देहभाव का सर्वतोभावेन विसर्जन करना चाहिए ।
२८६
भोग समर्थ होते हुए भी जो भोगो का परित्याग करता है वह कर्मों की महान निर्जरा करता है उसे मुक्ति रूप महा फल प्राप्त होता है |
२६०
तप नियम सयम स्वाध्याय ध्यान आवश्यक आदि योगो में जो यतना विवेक युक्त प्रवृत्ति है वही मेरी वास्तविक यात्रा है ।
२६१
सद्गुणों की साधना का कार्य भुजाओ से सागर तैरने जैसा है ।
२ε२ क्षमापना से आत्मा मे प्रसन्नता की अनुभूति होती है ।
२६३
असयम से निवृत्ति और सयम मे प्रवृत्ति करनी चाहिए ।
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८८ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
२९४
ग्रीवेन्तदिट्टिए चरितं पुत्त दुच्चरे
२९५
जवा लोहमया चेव चावेयब्वा सुदुक्कर
२६६
अणुवोगो दव्वम्
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धर्म और नीति (साधना) ८६
२६४ सर्प जैसे एकाग्र दृष्टी से चलता है वैसे एकाग्र दृष्टि से चारित्र। धर्म का पालन बहुत ही कठिन है।
२६५ जैसे लोह के जवो को चवाना कठिन है वैसे ही सयम साधना का पालन भी कठिन है।
२६६ उपयोग (विवेक) शून्य साधना केवल द्रव्य है, भाव नहीं।
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समभाव
२६७
जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थइ जहा तुच्छस्स कत्थई तहा पुण्णस्स कत्थइ
२६८
उवहेएणं बहिया य लोग से सव्वलोगम्मि जे केइ विष्णू
२६६
जीविय नाभि कखिज्जा मरणंनोवि पत्थए दुहन विन सज्जेज्जा जीविए मरणे तहा
३००
गथेहि विवित्तहि आउकालस्स पारए
३०१
इदिएहि गिलायंतो समिय आहरे मुरणी तहा वि से ग्रगरहे अचले जे समाहिए
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समभाव
२६७ निस्पृह उपदेशक जिस प्रकार पुण्यवान को उपदेश देता है उसी प्रकार तुच्छ को भी उपदेश देता है और जिस प्रकार तुच्छ को उसी प्रकार पुण्यवान को भी, अर्थात् दोनो के प्रति समभाव रखता है।
२६८ जो अपने धर्म से विपरीत रहने वाले लोगो के प्रति भी, तटस्थता रखता है, उद्विग्न नही होता है वह समस्त विश्व के विद्वानो मे अग्रणी है।
२९६ सावक न जीने की आकाक्षा करे और न मरने की कामना करे । वह जीवन और मरण मे किसी प्रकार की आकाक्षा न रखता हुमा समभाव से रहे ।
साधक को अन्दर और बाहर की सभी बन्धन रूप गाठो से मुक्त होकर जीवन यात्रा पूर्ण करनी चाहिए ।
३०१ शरीर और इन्द्रियो के क्लान्त होने पर भी मुनि अन्तर्मन मे समभाव रखे, इधर उधर गति और हलचल करता हुआ भी, साधक निंद्य नहीं है यदि वह अन्तरग मे अविचल है तो।
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१२ भगवान महावीर की सूक्तियां
३०२
समाइ यमाहु तस्स ज जो अप्पाणं भए ण दसए
३०३ सव्वंजगं तू समयाणु पेही पियमप्पिय कस्स वि नो करेज्जा
३०४ आयाणे अज्जो सामाइए आयाणे अज्जो सामाइयस्त
३०५ देहदुक्ख महाफलम्
थोव लद्धं न खिसए
३०७ अलधु यं नो परिदेवइज्जा लद्धं न विकत्थइ स पुज्जो
३०८ वियाणिय। अप्प गमप्पएणं जो रागदोसेहिं समो स पुज
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धर्म और नीति (समभाव) ६३
३०२ समभाव उसी को रह सकता है जो अपने को हर किसी भय से मुक्त रखता हैं।
३०३ समग्र विश्व को जो समभाव से देखता है वह न किसी का प्रिय करता है और न अप्रिय अर्थात् समदर्शी अपने पराए की भेद बुद्धि से परे होता है।
३०४ हे आर्य ! आत्मा ही समत्व भाव है, और आत्मा ही सामायिक का अर्थ है।
३०५ शारीरिक कष्टो को समभाव पूर्वक सहने से, महावल की प्राप्ति होती है।
३०६ मनचाहा लाभ न होने पर झुजलाए नही
३०७ जो लाभ न होने पर खिन्न नही होता है, और लाभ होने पर अपनी वडाई नही हाँकता है, वही पूज्य है ।
३०८ जो अपने को अपने से जानकर रागद्वेष के प्रसगो पर सम रहता है, वही साधक पूज्य है।
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___६४ भगवान महावीर को सूक्तियां
३०४ लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा समो निंदा पसंसासु समो माणा वमाण प्रो
३१० लाभुत्ति न मज्जिज्जा अलाभुत्ति न सोइज्जा
३११ नो उच्चावयं मणं नियछिज्जा
३१२ समयं सया चरे
३१३ समता सव्वत्थ सुव्वए
३१४ पियमप्पिय सनं तितिक्खएज्जा
३१५ सयणे अजणे अ समो समोन मारणावमाणेसु
३१६
समे यजे सवपारणभूयेसु से हु समणे
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धर्म और नीति (समभाव) ९५
३०९ जो लाभ, अलाभ सुख, दुःख ,जीवन, मरण, निन्दा, प्रशसा, और मान अपमान मे समभाव रखता है वही वस्तुतः मुनि है ।
माधक मिलने पर गर्व न करे और न मिलने पर भोक न करे ।
३११ सकट की घड़ियों मे भी मन को ऊ चा नीचा अर्थात् डावाडोल नही होने देना चाहिए ।
३१२ । साधक को सदा समता का आचरण करना चाहिए।
३१३ सुन ती को सर्वत्र समताभाव रखना चाहिए ।
३१४
प्रिय हो, अप्रिय हो, सबको समभाव से सहन करना चाहिए ।
३१५ स्वजन तथा परजन मे, मान एव अपमान मे जो सदा समभाव रखता है, वह श्रमण होता है ।
समस्त प्राणियो के प्रति जो समभाव रखता है, वही सच्चा साधु है।
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१८ भगवान महावीर की सूक्तियां
३२३
न लोगस्सेसणंचरे जस्स नत्थि इमा जाई अण्णा तस्स को सिया ?
न सक्का न सोउं सद्दा सोतविसयमागया रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए
३२५ नो सक्का रुवमद्दटठं चक्खू विसयमागय राग दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए
३२६ न सक्का गधमग्धाऊँ नासाविषयमागय रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए
३२७
न सक्का रस मस्साऊं जीहा विषयमागयं रागदोसाउ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए
३२८ न सक्का फासमवेएॐ फासविसय भागय राग दोसा उ जे तत्थ ते भोक्खू परिवज्जए
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धर्म और नीति (वीतराग) ६६
३२३
लोकेषणा से मुक्त रहना चाहिए। जिसको यह लोकेषणा नही है, उससे अन्य पाप प्रवृत्तियाँ कैसे हो सकती है ?
३२४ यह शक्य नही है कि कानो मे पडने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने न जाएं। अतः शब्दो का नही, पर शब्दो के प्रति जगने वाले राग द्वेष का साधु को त्याग करना चाहिए।
३२५ यह शक्य नहीं है कि आँखो के सामने आने वाला अच्छा या दुरा रूप देखा न जाए । अत. रूप का यही पर होने वाले राग द्वेप का साधु को त्याग करना चाहिए।
यह गक्य नही है कि नाक के समक्ष आया हुआ गन्ध या दुर्गन्ध, सूचने मे न आए । अत. गध का नही किन्तु गध के प्रति जगने वाले राग द्वेष का त्याग करना चाहिए।
३२७ यह शक्य नही है कि जीभ पर आया हुआ अच्छा या बुरा रस चखने मे न आए। अत रस का नही पर रस से होने वाले राग द्वेप का साधु को त्याग करना चहिए।
३२८ यह शक्य नहीं है कि शरीर के स्पर्श होने वाले अच्छे या बुरे स्पर्श की अनुभूति न हो । अत स्पर्श का नही पर स्पर्श से जगने वाले राग द्वेप का साधु को त्याग करना चाहिए।
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वीतराग
३१७
विमुत्ता हु ते जणा जे जणा पारगामिणो
३१८ लोभमलोभेण दुगछमाणे लद्धे कामे नाभि गाहई
३१६ अणोहंतराए, ए नो य अोहं, तरित्तए अतीरंगमा एए नो य तीर गभित्तए अपारंगमा, ए ए नोय पारं गमित्तए
३२० कामादुरतिक्कामा
३२१
अणोमदसो निसण्णे पावेहि कम्मेहिं
३२२
किमत्थि उवाही पासगस्स न विज्जइ ? नत्थि
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वीतराग
३१७ जो साधक कामनाओ को पार कर गए हैं, वस्तुतः वे ही मुक्त पुरुष हैं।
३१८ जो लोभ के प्रति अलोभ वृत्ति रखता है, वह और तो क्या काम भोगो के प्राप्त होने पर भी आकृष्ट नही होता।
जो वासना के प्रवाह को नही तर पाए है वे संसार के प्रवाह को नही तैर सकते । जो इन्द्रिय जन्य काम भोगो को पार कर तट पर नही पहुँचे हैं, वे संसार सागर के तट पर नही पहुँच सकते । जो रागद्वेप को पार नही कर पाए हैं, वे संसार सागर से पार नहीं हो सकते ।
३२० कामनाओ का पार पाना, बहुत कठिन है।
३२१
उच्च दृष्टि वाला साधक ही पाप कर्मों से दूर रहता है ।
३२२ वीतराग सत्यद्रष्टा को कोई उपाधि होती है या नही ? नही ।
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१०० भगवान महावीर की सूक्तियाँ
३२९ समाहियस्स आग्गिसिहा व तेयसा तवो य पन्ना य जस्सोय वडढ़इ
अणुक्कमे अप्पलीणे मज्झेण मुणिजावए
३३१ लद्ध कामे न पत्थेज्जा
वीयरागयाएण नेहाणुबधणणि, तण्हाणुवंधणणिय वोछिदई।
३३३ समोय जो तेसु स वीयरागो
३३४ एविदियत्थाम य मणस्स अत्थ दुक्खस्स हे उ मणुयस्स रागिणो न चेव थोव पि कयाइ दुःखं न वीयरागस्स करेति किंचि
३३५ अणि हे से पुछे अहियासए
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धर्म और नीति (वीतराग) १०१
३२९ अग्नि शिखा के समान प्रदीप्त एवं प्रकाशमान रहने वाले अन्तर्लीन साधक के तप प्रज्ञा और यश निरन्तर, बढते रहते हैं।
३३० अहं रहित एवं अनासक्त भाव से मुनि को राग द्वेष के प्रसगो से दूर रहना चाहिए।
३३१ प्राप्त होने पर भी काम भोगो को स्वीकार नही करना चाहिए।
३३२ वीतराग भाव से राग और तृष्णा के वधन कट जाते हैं।
जो भले और बुरे शब्दादि के विषयो मे समाव रहता है वह वीतराग है।
३३४ रागात्मा को ही मन एवं इन्द्रियो के विषय दु ख के हेतु होते है । वीतराग को तो वे किञ्चित् मात्र भी दुखी नही वना सकते।
३३५
आत्मवेत्ता साधक को निःस्पृह होकर आने वाले कष्टो को सहन करना चाहिए।
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१०२ मगवान महावीर को सूक्तियाँ
वीयरागभाव पडिवन्ने वियरणं जीवे सम सुह दुक्खे भवइ
३३७
नलिप्पई भव मझे वि संतो जलेण वा पोखरिणी पलासं
३३८ से हु चक्खू मणुस्साणं जे कंखाए य अन्तए
३३६ कामी कामे न कामए, लद्ध वावि अलद्धं कण्हुई ।
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1
धर्म और नीति ( वीतराग ) १०३
३३६
वीतराग भाव को प्राप्त हुआ जीव सुख दुख मे एकसा रहता है ।
३३७
जो आत्मा विषयो से दूर है, वह ससार मे रहता हुआ भी जल मे कमलिनी पत्र के समान अलिप्त रहता है ।
३३८
जिस सावक ने आसक्ति भाव को नष्ट कर दिया है, वह मनुष्यो के लिए मार्ग-दर्शक चक्षु रूप है ।
३३ε
साधक सुखाभिलाषी वन काम भोगो की कामना न करे और प्राप्त भोगो के प्रति भी निस्पृह भाव रखे ।
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सरलता
३४०
कड़ कडेत्ति भासेज्जा अकड़ नो कडेत्तिय
३४१
आहच्च चंडालिय कट्ट, न निण्हविज्ज कयाइवि
३४२
सोहि उज्जूय भूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिठ्ठइ
३४३ एगमवि मायी मायं कटटु आलोएज्जा जाव पड़िवज्जेजा अस्थि तस्स आराहणा
अविसवायण सं पन्नायाए णं जोवे धम्मस्स आराहए भवइ
३४५
करण सच्चे वठ्ठमाणे जीवे जहावाइ तहाकारी यावि,भवई
MA
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सरलता
३४०
बिना किसी छिपाव या दुराव के किए हुए कर्म को किया हुआ कहिए तथा नही किए हुए कर्म को न किया हुआ कहिए ।
३४१
यदि साधक कभी कोई चाण्डालिक दुष्कर्म करले तो फिर कभी उसे छिपाने का प्रयत्न न करे ।
३४२
ऋजु अर्थात् सरल आत्मा की विशुद्धि होती है, और विशुद्ध आत्मा मे ही धर्म ठहरता है ।
३४३
जो प्रमादवश हुए कपटाचरण के प्रति पश्चाताप करके सरल हृदय हो जाता है, वह धर्म का आराधक है ।
३४४
दम्भ रहित अविसवादी आत्मा ही धर्म का सच्चा आराधक होता है ।
३४५ करणसत्य-व्यवहार मे स्पष्ट तथा सच्चा रहने वाला आत्मा दर्श को प्राप्त करता है ।
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संयम
जं मयं सव्व साहूणं त मयं सल्लगत्तणं साहइत्ताण तं तिण्णा देवा वा अभविसुते
३४७ बालुया कवले चेव निरस्साए उ संजमे
३४८ संजमेण अणण्यत्तं जणयइ
३४६ जो जीवे विन जाणइ अजीवे विन जाणइ जीताऽजीवे अयाणतो कहं सो नाहीइ संजमं
जो जीवे वि वियाणाइ अजीवे वि वियाणइ जीवाऽजीवे वियाणतो सो हु नाहीइ संजमं
३५१
असंजमे नियत्ति च सजमेय पवत्तरणं
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संयम
३४६
सभी साधुओ द्वारा मान्य ऐसा जो संयम धर्म है, वह पाप का नाश करने वाला है । इसी सयम धर्म की उत्कृष्ट आराधना कर अनेक भव्य जीव संसार सागर से पार हुए हैं और अनेक ने देवयोनि प्राप्त की है ।
३४७
सयम वालू-रेती के कौर की तरह नीरस है ।
३४८
सयम से जीव आश्रव - पाप का निरोध करता है ।
३४६
जो जीवो को नही जानता है, वह अजीवो को भी नही जानता जीव और अजीव दोनो को नही जानने वाला सयम को कैसे जान सकता है |
३५०
जो जीवो और अजीवो को भी जानता है, वह जीव और अजीव दोनो को जानने वाला सयम को भी भली-भाँति से जान लेता है ।
३५१
असयम से निवृत्ति और सयम मे प्रवृत्ति करनी चाहिए ।
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२०८ भगवान महावीर की सूक्तियां
३५२ गारत्थेहिय सब्वेहिं साहवो संजमुत्तरा
३५३ तहेव हिंस अलियं चोज्जं अबम्भ सेवणं इच्छाकामं च लोभ च संजयो परिवज्जए
३५४
जो सहस्स सहस्सारणं मासे मासे गवं दए तस्सावि संजमो सेयो अदिन्तस्स वि किंचण
३५५ एगमघमाण सपेहाए धुणे सरीरग
३५६ कसेहि अप्पारणं जरेहि अप्पाण
३५७ चउविहे संजमे मण सजमे वइ संजमे काय संजमे ठवगरण संजमे
३५८ . गरहा संजमे नो अगरहा सँजमे
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धर्म और नीति ( संयम ) १०६
३५२
सव गृहस्थो की अपेक्षा साधुओ का संयम श्रेष्ठ होता है ।
३५३
सयमी पुरुष हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य सेवन, भोगलिप्सा एव लोभ इन सवका सदा परित्याग करे ।
३५४
जो मनुष्य प्रति मास दस दस लाख गायो का दान देता है उसकी अपेक्षा दान न देने वाले अकिंचन सयमी का सयम
श्रेष्ठ है ।
३५५
आत्मा को शरीर से पृथक् जानकर भोगलिप्त शरीर को बुन डालो |
३५६
अपने को कृग करो, तन-मन को हल्का करो, अपने को जीर्ण करो और भोगवृत्ति को जर्जर करो ।
३५७
सयम के चार प्रकार हैं-मन का सयम, वचन का सयम, शरीर का सयम और उपाधि सामग्री का सयम |
३५८
गर्हा (आत्मालोचन ) सयम है और अगर्हा सयम नही है ।
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११० भगवान महावीर की सूक्तियाँ
३५६
भोगी भोगे परिच्चय मागे महारिगज्जरे महापज्जवसाणे भवइ
३६०
अच्छंदा जेन भुजति नसे चाइत्ति वुच्चई
३६१
- जे य कते पिएभोए लद्ध विपट्टि कुव्वई साहीणे चयई भोए से हु चाइत्ति वुच्चए
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धर्म श्रोर नीति ( सयम ) १११
३५६
भोग समर्थ होते हुए भी जो भोगों का परित्याग करता है, वह करता है, उसे मुक्ति रूप महाफल
कर्मों की महान निर्जरा प्राप्त होता है ।
३६०
जो पराधीनता के कारण विपयो का उपभोग नही कर पाते, उन्हें त्यागी नही कहा जा सकता ।
३६१
जो मनोहर और प्रिय भोगो के उपलब्ध होने पर भी, स्वाधीनता पूर्वक उन्हें पीठ दिखा देता है अर्थात् त्याग देता है, वही त्यागी कहलाता है ।
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सदगुण
३६२ गुणसट्ठियस्स वयण घयपरिसित्तुव पावोभाई गुणहीणस्स न सोहइ नेहविहूणो जह पइवो
३६३
अंबत्तणेण जीहाइ कूइया होइ खोरमुढगम्मि हसो मोत्तूण जलं आपियइ पय तह सुसी सो
३६४
चउहि ठाणेहि सते गुणे नासेज्जा कोहेणं पडिनिवेसेणं अकयण्णुयाए मिच्छत्ताभिणिवेसेणं
३६५ गुणेहिं साहू अगुणेहिंऽसाहू गिण्हाहि साहू गुणमुञ्चऽसाहू
३६६ कखे गुणे जाव सरीर भेऊ
३६७ निमम्मे निरहकारे
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सद्गुण
गुणवान व्यक्ति का वचन घृतसिंचित अग्नि की तरह तेजस्वी होता है जबकि गुणहीन व्यक्ति का वचन स्नेहरहित (तैलशून्य) दीपक की तरह तेज और प्रकाश से शून्य होता है।
हस जिस प्रकार अपनी जिह्वा की अम्लता शक्ति के द्वारा जल मिश्रित दूध मे से जल को छोडकर दूध को ग्रहण कर लेता है उसी प्रकार सुशिष्य दुर्गुणो को छोडकर सद्गुणों को ग्रहण करता है।
३६४ क्रोध, ईर्ष्या-डाह, अकृतज्ञता और मिथ्या आग्रह इन चार दुगुणो के कारण मनुष्य के विद्यमान गुण भी नष्ट हो जाते हैं।
सद्गुण से साधु कहलाता है, दुर्गुण से असाधु । अतएव दुर्गुणो को त्याग कर सद्गुणों को ग्रहण करो।
जव तक जीवन है तब तक सद्गुणो की आराधना करते रहना चाहिए।
३६७ ममता रहित और अहकार रहित बनो
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११४ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
३६८
कोहरणे सच्चरए सिक्खा सीने
३६६ अप्पमत्तो परिव्वए
३७०
संगाम सीसे व परं दमेज्जा
३७१ मेहावी जाणिज्ज धम्मं
३७२
सिक्खं सिक्वेज्ज पड़िए
३७३
न कखे पुव्व सथवं
३७४ वायणाए निज्जरं जणयइ
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धर्म और नीति ( सदगुरण ) ११५
३६८
अक्रोधी सत्यरत तपस्वी होता है ।
३६६ अप्रमादी होता हुआ विचरे ।
३७०
जैसे संग्राम के अग्रभाग पर शत्रु का दमन किया जाता है वैसे ही इन्द्रियो के विषयो का दमन करो ।
३७१
मेधावी धर्म को जाने ।
३७२
व्याकरणादि का अध्ययन करे ।
पण्डित पुरुष
३७३
पूर्व काल मे प्राप्त प्रशसा आदि की इच्छा नही करे ।
३७४
वाचना से निर्जरा होती है ।
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स्वाध्याय
३७५ सज्झाए वा निउत्तेण सव्व दुक्खविमोखणे
३७६
सज्झायं च तवो कुज्जा सब भावविभावण
३७७ सज्झाएणं णाणावरणिज्झ कम्म खवेई
३७८ नवि अस्थि न वि आ होही सज्झायसमं तवोकम्म
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स्वाध्याय
३७५ स्वाध्याय करते रहने से समस्त दु.खों से मुक्ति मिल जाती है।
३७६ स्वाध्याय रूपी तप सभी भावो का प्रकाशक है ।
३७७ स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है।
३७८ स्वाध्याय के समान दूसरा तप न कभी हो सका, न वर्तमान मे कहीं और न भविष्य मे कभी होगा।
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क्रोध
३७६ पव्वयराइसमाणं कोह अणुपविट्ठ जीवे कालं करेइ णेरइएसु उववज्जति
३८० कुद्धो सच्च सीलं विषयं हणेज्ज
३८१
जे य चंड़े मिए थद्धे, दुब्बाई नियड़ी सढ़ वुज्झइ से प्राबिणी यप्पा कड्ढ सोयगयं जहा
३८२ अप्पाणंपि न कोवए
३८३ कोह विजयेणं खंति जणयई
३८४
कसाया अग्गिणो वुत्ता
३८५ अहेवयइ कोहेणं
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क्रोध
३७६ पर्वत की दरार के समान जीवन में कभी नही मिटने वाला उग्र क्रोध आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है।
क्रोध मे अवा हुमा व्यक्ति सत्य, शील और विनय का नाश कर डालता है।
३८१ जो मनुष्य क्रोधी अविवेकी अभिमानी दुर्वादी कपटी और धूर्त है. वह संसार के प्रवाह मे वैसे ही वह जाता है जैसे जल के प्रवाह मे काष्ठ ।
३८२ अपने आप पर भी कभी क्रोध न करो।
३८३ क्रोध को जीत लेने से क्षमाभाव जागृत होता है।
३८४ कषाय को अग्नि कहा है।
३८५ क्रोध से नीची गति को जाता है।
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१२० भगवान महावीर की सूक्तियां
३८६ कोहो पीइ पणासेइ
३८७ उवसमेण हणे कोह
३८८
विगिंच कोहं अविकपमाणे
३८६ इमं णिरुद्धाउय सपेहाए दुक्खं य जारण अदु आगमेस्स पुढो फासाई या फासे लोय य पास विफदमारणं
३६० चउहि ठाणेहिं कोहुप्पत्ति सिया तं जहा-खेत्त पडुच्च वत्थु पडुच्च सरीर पडुच्च
उवहिं पडुच्च
३६१ चउ पइदिए कोहे पण्णत्ते तं जहा आयपइटिए परपइट्टिए तदुभयपइट्ठिए अप्पइट्ठिए।
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धर्म और नीति (कोष) १२१
३८६ क्रोध प्रीति का नाश करता है।
३८७ शान्ति से क्रोध को जीतो।
३५८ आत्मसाधक कम्प रहित होकर क्रोधादि कपाय को नष्ट कर के कर्मरूपी काष्ठ को जला डालता है।
३८४ कोष मनुष्य की आयु को नष्ट करता है तथा क्रोध से मानसिक दु.ख होता है । क्रोधी मनुष्य पाप कर्म को बांधकर नरक मे जाता है और वहां नाना प्रकार के दुखों को भोगता है, यह समझ कर क्रोध का त्याग करना चाहिए ।
३६०
क्रोध उत्पन्न होने के चार कारण हैं -१. क्षेत्र नरकादि आश्रित २. वस्तु घर अथवा सचित्त अचित्त मिश्र वस्तु आश्रित ३ शरीर कुरूपादि आश्रित ४. उपाधि उपकरण आश्रित ।
३६१
क्रोध के चार प्रकार-१. आत्म प्रतिष्ठित-अपनी भूल पर होने वाला २. पर प्रतिष्ठित-दूसरे के निमित्त से होने वाला ३. तदुभय प्रतिष्ठित दोनो के निमित्र से होने वाला ४. अप्रतिष्ठित निमित्त के विना उत्पन्न होने वाला।
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१२२ भगवान महावीर की सूक्तियां
३६२ जे कोह दंसी से माणदेसी
३६३ णो फुझे नो माणे
३६४ कोह ण पत्थए
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धर्म और नीति (क्रोष) १२३
३६२ जिसके हृदय मे क्रोध है उसके हृदय मे मान भी अवश्य है ।
क्रोध न करें और मान न करे ।
३६४ क्रोध की इच्छा मत करो।
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मान
३६५ पन्नामयं चेव तवोमयं च निन्नामए गोयमयं च भिक्खू आजीवगं चेव चउत्थमाहु से पण्डिए उत्तमपोग्गले से
३४६
उन्न यमाणे य नरे महामोहे पमुज्झई
३६७ बुद्धामो त्ति य मन्नता, अंतए ते समाहिए
३९८
जे माणदसी से मायादंसी
माणो विणय नासणो
४०० माणं मद्दवया जिणे
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३६५ प्रज्ञा मद, तप मद गौत्र मद और आजीविका मद, इन चार प्रकार के मदो को नही करने वाला निस्पृह भिक्षु सच्चा पण्डित और पवित्रात्मा होता है ।
३६६
अहकार करता हुआ मनुष्य महामोह से विवेक शून्य होता है।
३९७ अज्ञान वश अपने आपको ज्ञानी समझने वाला समाधि से बहुत दूर है।
३९८ जो मान वाला है उसके हृदय में माया भी निवास करती है ।
३६६ मान विनय गुण का नाश करता है ।
४०० मान को नम्रता से जीते ।
.4
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१२६ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
४०१ न तस्स जाई वा कुल व तारणं नण्णत्थ विज्जाचरण सुचिण्णं
४०२ अत्ताणं न समुक्कस्स
४०३ बालजयो पगब्भई
४०४ अन्नं जणंपस्सति बिबभू
४०५ अन्न जण खिसइ बालपन्ने
'४०६ सेल थभसमारणं माणं अणुपवि? जीवे काल करेइ गरइएसु उववज्जति
४०७ मारण विजए ण मद्दव जणयई
४०८
सूअलाभे न मज्जिज्जा
४०६ गो मारो
४१० माण ग पत्थए
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धर्म और नीति (मान) १२७
४०१ गोत्राभिमानी को उसकी जाति व कुल शरणभूत नही हो सकते । मात्र जान और धर्म के सिवाय अन्य कोई भी रक्षा नही कर सकते।
४०२ आत्मा के लिए समुत्कर्ष शील (अहंकारी) न हो।
४०३ अभिमान करना अज्ञानी का लक्षण है।
४०४ अभिमानी अपने अहकार से चूर होकर दूसरो को सदा परछाई के समान तुच्छ मानता है ।
४०५ जो अपनी बुद्धि के अहंकार मे दूसरो की अवज्ञा करता है वहमद बुद्धि है
४०६ पत्थर के खभे के समान जीवन मे कभी नहीं झुकने वाला अहकार आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है।
४०७ अभिमान को जीत लेने से नम्रता जागृत होती है।
४०८ ज्ञान प्राप्त होने पर मान न करें।
४०४ मान न करें।
४१०
मान की इच्छा मत करो।
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माया
४११
माई पमाई पुर्ण एइ गब्भ
४१२
सुहमे सले दुरुद्धरे
४१३ वंसीमूलके तणसमाणं माय अणुपविठ्ठ जीवे काल करेइ जेरइयेसु उववज्जति
४१४ मायी विउव्वइ नो अमायो विउव्वइ
४१५ मायाविजएणं अज्जवं जरणयइ
४१६ जे माणदंसी से मायादंसी
४१७ माया मज्जव भावेरण
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माया
४११ मायावी और प्रमादी वार वार गर्भ मे अवतरित होता है, जन्म मरण करता है।
४१२ मन मे रहे हुए विकारो के सूक्ष्म शल्य का निकालना बहुत कठिन हो जाता है।
४१३ वास की जड के समान गाठदार माया आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है।
४१४ जिसके अन्दर मे माया का अश है वही नाना रूपो का प्रदर्शन करता है वैसा अमायी नही करता है।
४१५ माया को जीत लेने से सरल भाव प्राप्त होता है ।
४१६ जो मान करने वाले है, वे माया करने वाले भी है ।
४१७ सरलता से माया-कपट को जीतें ।
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१३० भगवान महावीर की सूक्तियाँ
४१८ माई मिच्छादिट्ठि अमाई सम्मदिट्ठी
४१६ माया मित्ताणि नासेइ
४२० धम्मविसए वि सुहमा माया होइ अगत्थाय
४२१
मायामोसं वड्ढई लोभदोसा तत्थाऽवि दुक्खान विमुच्चई से
४२२ मायं च वज्जए सया
४२३ माया गई पडिग्यायो
४२४ माया मोस विवज्जए
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धर्म और नीति (माया) १३१
४१८
मायावी जीव मिथ्यादृष्टि होता है, अमायावी सम्यग्दृष्टि
४१६ माया मित्रता का नाश करती है ।
४२० धर्म के विपय मे की हयी मुक्ष्म माया भी अनर्थ का कारण बनती है।
४२१ लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ वढता है परन्तु कपट और झूठ का प्रयोग करने पर भी वह दुख से मुक्त नही होता।
४२२
सदा के लिए माया को छोड दो।
४२३ माया उच्च गति का प्रतिघात करने वाली है।
४२४ माया मृपावाद को छोड दो।
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लोभ
४२५ लोभो सव्वविणासणो
४२६ इच्छालोभिते मुत्तिमग्गस्स पलिमंथू
४२७ लोभ संतोसो जिणे
४२८ करेइ लोह वेरं वड्ढइ अप्पणो
४२६ लोभायो दुहरो भय
४३० पुढवी साली जवा चेव हिरण पडिपुण्ण नालमेगस्स इइ विज्जा तव चरे
६ सिण पि जो इम लोय पडिपुण्णं दलेज इक्कस्स तणापि से न सतुस्से इइ दुप्पूरए इमे आया
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लोभ
४२५ लोभ सभी सद्गुणो का नाश कर देता है।
४२६ लोभ मुक्ति पथ का अवरोधक है।
४२७ लोभ को सन्तोष से जीतना चाहिए ।
४२८ जो व्यक्ति लोभ करता है वह अपनी ओर से चारो ओर वैर की अभिवृद्धि करता है।
४२४ लोभ से दोनो लोक में भय रहा हुआ है।
४३० चावल और जो आदि धान्यों तथा सुवर्ण और पशुओ से परि पूर्ण यह समूची पृथ्वी मी लोभी को तृप्त नहीं कर सकती यह जानकर संयम मे रत होना चाहिए ।
४३१ अनेक बहु मूल्य पदार्थों से परिपूर्ण सारा विश्व भी किसी एक मनुष्य को दे दिया जाय तो भी वह सन्तुष्ट न होगा। लोभी आत्मा की तृष्णा इस प्रकार शान्त होनी अत्यन्त कठिन है।
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१३४ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
४३२ सुवण्णरूप्पस्स उ पव्वया भवे सिया हु केलाससमा असंखया नरस्स लुद्धस्स न तेहि किचि इच्छा हु आगाससमा अरणन्तिया
४३६
जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढई दो मास कयं कज्ज कोडोए विन निष्ठियं
४३४
भवतण्हा लया कुत्ता भोमा भोम फलोदया तमुच्छित्तु जहानायं विहरामि महामुखी
४३५
तण्हाया जस्स न होई लोहो
४३६
लोभपत्त े लोभी समावइज्जा मोसं वयरणाए
४३७
मम्माइ लुप्पइ बाले
४३८
सीहं जहा व कुणिमेणं निव्भयमेग चरेति पासेणं
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धर्म और नीति (लोभ) १३५
४३२ कैलाश के समान चादी और सोने के कैलाश के समान विशाल असख्य पर्वत भी यदि पास में हो तो भी तष्णाशील व्यक्ति की तृप्ति के लिए वे नहीं के बराबर हैं कारण आकाश के समान तृष्णा अनन्त है ।
४३३ ज्यो ज्यो लोभ होता है त्यो त्यो लोभ भी बढता जाता है देखिए पहले केवल दो मासे स्वर्ण की इच्छा थी बाद में वह तृष्णा करोडो पर भी पूरी न हो सकी।
४३४ हे महामुनि | ससार-तृष्णा एक भयकर लता है जिसके फल भी बडे भयकर है । मैं उस लता का उच्छेद करके सुख पूर्वक विचरण करता हूँ।
४३५ जिसको लोभ नही, उसकी तृष्णा नष्ट हो गयी।
४३६ लोभ का प्रसग आने पर व्यक्ति असत्य का आश्रय ले लेता है।
४३७
यह मेरा है, वह मेरा है, इस ममत्व बुद्धि के कारण, वाल जीव विलुप्त होते हैं।
४३८
निर्भय अकेला विचरने वाला सिंह भी मास के लोभ से जाल मे फस जाता है, वैसे ही मनुष्य भी।
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१३६ भगवान महावीर को सूक्तियाँ
४३६ अन्न हरंति तं वित्तं कम्मी कम्मे हो किच्चती
४४० किमिराग रत्त वत्थ समाणलोभ अणुपविट्ठे जोवे कालं करे इ नेरइएसु उववज्जति
४४१ लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं
४४२ लोभ विजएण सतोसं जणयइ
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धर्म और नीति (लोम) १३७
४३६ यथावसर संचित धन को तो दूसरे उड़ा लेते हैं और संग्रही को अपने पाप कर्मो का दुष्फल फल भोगना पड़ता है।
४४० कृमिराग अर्थात् मजीठ के रंग समान जीवन में कभी नही छूटने वाला लोभ आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है।
४४१ मनुष्य लोभग्रस्त होकर झूठ बोलता है ।
४४२ लोभ को जीत लेने से सतोप की प्राप्ति होती है।
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विनय
४४३ थभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणय न सिक्खे । सो चेव उ तस्स अभूइभावो, फलं व कीअस्स वहाय होइ ।।
४४४ सिया हु से पाबय नो डहिज्जा आसीविसो वा कुवित्रो न भवखे सिया विस हालहल न मारे न यावि मुक्खो गुरुहीलणाए
४४५
विणयं पि जो उवाएण, चोइनो कुप्पई नरो । दिव्वं सो सिरिमिज्जंति दण्डेण पडिसेहए ।।
४४६ मूलामो खंधप्पभवो दुमस्स खधाऊपच्छा समुवेन्ति साहा साहाप्पसाहा विरुहन्ति पत्ता तो सि पुप्फ च फल रसोय
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विनय
४४३ जो मुनि अभिमान, क्रोध, माया या प्रमादवश गुरु के निकट रहकर विनय नही सीखता, उनके प्रति विनय का व्यवहार नहीं करता उसका यह अविनयी भाव बास के फल की तरह स्वय के लिए विनाश का कारण बनता है ।
४४४ संभव है कदाचित अग्नि न जलावे, सम्भव है कुपित विषधर न डसे और यह भी सम्भव है कि हलाहल विष भी मृत्यु का कारण न वने किन्तु गुरु की अवहेलना करने वाले साधक के लिए मोक्ष सम्भव नही है।
४४५ कोई महापुरुष सुन्दर शिक्षा द्वारा किसी को विनय मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करे तब वह कुपित होता है। ऐसी स्थिति में वह स्वय अपने द्वार पर आई हुयी दिव्य लक्ष्मी को डण्डामार कर भगा देता है।
४४६ वृक्ष के मूल से स्कन्ध उत्पन्न होता है स्कन्ध के पश्चात् शाखाए और शाखाओ मे प्रशाखाए निकलती है इसके पश्चात् फूल फल और रस उत्पन्न होता है।
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१४० भगवान महावीर को सूक्तियां
एव धम्मस्स विणो मूलं परमो से मोक्खा जेण कित्ति सुय सिग्ध, निस्सेस चाभिगच्छई।
४४८
जस्सतिए धम्म पयाई सिक्खे तस्सतिए वेणइय पउ जे
४४६ पायरियं कुविय नच्चा पत्तिएण पसायए । विज्झवेझ पजली उड़ो वएज न पुणुत्ति य ।।
४५० विणो वि तवो तवो पि धम्मो
४५१ वेयावच्चेण तित्थयरनाम गोय कम्म निबधेइ
४५२
, गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्च करणयाए अब्भुट्टेयव्व भवइ ।
४५३ कलह डम्बर वज्जिए.... सुविणीएत्तिवुच्चई
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धर्म और नीति (विनय) १४१
४४७ इसी प्रकार धर्म रूपी वृक्ष का मूल विनय है और उसका अन्तिम फल मोक्ष है । विनय से मनुष्य को कीर्ति प्रशसा और श्रुतज्ञान आदि समस्त इष्ट तत्वों की प्राप्ति होती है।
४४८ जनके पास धर्म शिक्षा प्राप्त करे उनके प्रति सदा विनय भाव रखना चाहिए।
४४६ विनीत शिष्य आचार्य को कुपित जानकर प्रीतिकारक वचनो से उन्हे प्रसन्न करे, हाथ जोडकर उन्हें शान्त करे, और अपने मुह से ऐसा कहे कि 'पुन मैं ऐसा नही करूगा'।
४५० विनय स्वयं एक तप है और श्रेष्ठ धर्म है ।
४५१ वैय्यावृत्य-सेवा से जीव तीर्थंकर नाम गौत्र जैसे उत्कृष्ट पुण्यकर्म का उपार्जन करता है।
४५२ रोगी की सेवा के लिए सदा जागरूक रहना चाहिए ।
४५३
कलह और जीव हिंसा को वर्जनेवाला व्यक्ति सुविनीत होता है ।
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१४२ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
४५४
तम्हा विणयमेसिज्जा, सोल पडिलभेज्जश्रो
४५५
विणय मूले धम्मे पन्नते
૪૫૬ जत्थेव धम्मायरियं पासेज्जा तत्थेव वदिज्जा नमसिज्जा
४५७
रायगिएसु विणय पऊजे
४५८
जे श्रायरिय उवज्झायाण सुस्सूसा वयरण करे तेसि सिक्खा पवढन्ति जलसित्ता इवपायवा
४५६ विवत्ती विणीयस्स सपत्ती विणीयस्स य ४६० जे छन्दमाराहयई स पुज्जो
४६१
प्राणाणिद्द स करे गुरुणमुवत्राय कारए इंगियागार सम्पन्ने से विणोए त्ति वुच्चई
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धर्म और नीति (विनय) १४३
४५४ विनय से साधक को शील-सदाचार मिलता है अत. उसकी खोज करनी चाहिए।
४५५ धर्म का मूल विनय-आचार है ।
४५६ जहा कही भी अपने धर्माचार्य को देखें, वही उन्हे वन्दन नमस्कार करना चाहिए ।
४५७ बडो के साथ विनय पूर्वक व्यवहार करो।
४५८ जो अपने आचार्य एव उपाध्यायो की शुश्र पा-सेवा तथा उनकी आज्ञा का पालन करता है उनकी शिक्षाएं वैसे ही बढती है जैसे कि जल से सीचे जाते पर वृक्ष ।
४५६ अवनीत दु ख का भागी होता है और विनीत सुख का भागी।
४६०
जो गुरुजनो की आज्ञा का पालन करता है, वह शिष्य पूज्य होता है।
४६१ जो गुरुजनो की आज्ञा का पालन करता है उनके निकट सपर्क मे रहता है एव उनके हर सकेत व चेष्टा के प्रति सजग रहता उसे विनीत कहा जाता है।
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१४४ भगवान महावीर को सूक्तिया
૪૬૨ अणुसासिनो न कुप्पिज्जा
हियं तं मण्णई पण्णो वेसं होइ असाहुणो
૪૬૪ रमए पडिए सास हय भद्द व वाहए
४६५
बाल सम्मइ सासंतो गलियस्व
वाहए
४६६ नच्चानमड मेहावी
४६७ विरणए ठविज्ज अप्पाण इच्छन्तो हियमप्पणो
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धर्म और नीति (विनय) १४५
४६२
गुरुजनो के अनुशाशन से कुपित नही होना चाहिए ।
४६३ विनीत शिष्य गुरुजनो की हितशिक्षा को हितकर मानता है पर अवनीत को वे बुरी लगती हैं।
४६४ विनीत शिष्य को शिक्षा देता हुआ ज्ञानी गुरु उसी प्रकार प्रसन्न होता है जिस प्रकार अच्छे घोडे पर सवारी करता हुआ घुडसवार ।
४६५ मूर्ख शिष्यो को शिक्षा देता हुआ गुरु वैसे ही खिन्न होता है जैसे अडियल घोड़े पर चढा हुआ सवार ।
yey
,
४६६ बुद्धिमान ज्ञान प्राप्त करके विनीत हो जाता है।
४६७ अपनी आत्मा का हित चाहने वाले को विनय धर्म मे स्थिर रहना चाहिए।
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ब्राह्मण कौन ?
४६८
जो न सज्जइ आगंतुं पव्वयंतो न सोयई रमइ अज्ज-वयणम्मि त वयं बूम माहणं
४६६
जायरुव जहामढ़ निद्धतमल पावगं राग-दोस-भयाईय त वयं वूम माहरणं
४७० तसपाण वियाणेत्ता संगहेण य थावरे जो न हिंसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं
।
४७१ कोहा वा जइ वा हासा लोहा वा जइ वा भया मुसं न वयई जोउ त वय बूम माहरण
४७२ चित्तमतमचित्तं वा अप्प वा जइ वा बहु न गिण्हेइ अदत्त जे त वयं बूम माहणं
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ब्राह्मण कौन ?
४६८ जो आने वाले स्नेही जनो मे, आसक्ति नही रखता और जो उनके जाने पर शोक नही करता जो सदा आर्य वचनो मे रमण करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते है ।
४६६ जो अग्नि मे तपाकर शुद्ध किए हुए और कसौटी पर परखे हुए सोने के समान निर्मल है, जो राग द्वेष तथा भय से रहित है, उसे हम ब्राह्मग कहते हैं।
४७० जो जगम स्थावर सभी प्राणियो को भलीभाति जानकर उनकी ' तन मन वचन से कभी हिंसा नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
४७१ जो क्रोध से हास्य लोभ अथवा भय से किसी भी अशुभ, सकल्प से असत्य नही वोलता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।
४७२ जो सचित्त अचित्त कोई भी पदार्थ चाहे वो थोड़ा हो या ज्यादा स्वामी के दिए विना चोरी से नही लेता उसे हम ब्राह्मण कहते है।
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१४८ भगवान महावीर की सूक्तियां
४७३ दिव्वमाणु सतेरिच्छ जो न सेवइ मेहुणं । मणसा काय वक्केणं, त वयं वूम माहणं ।।
४७४
जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पड़ वारिणा, एवं अलित्तं कामेहिं तं वयं बूम माहणं
४७५
जहित्तापुबं संजोग नाहू सगे य बंधवे जो न सज्जइ भोगे सु तं वयं वूम माहणं
४७६ कम्मुणा बभणो होइ
४७७ तवस्सियं किस दन्त अवचियमंससोरिणयं । सुव्वय पत्तनिवारण, त वयं बूम माहणं ॥
४७८ अलोलुय मुहाजीवि प्रणगार अकिचणं । असंसत्त गिहत्थे सु त वय बूम माहणं
४७९ बभचेरेण बंभणो
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धर्म मोर नीति (ब्राह्मण कोन?) १४६
४७३ जो देवता मनुष्य तथा तीर्यञ्च सम्बन्धी सभी प्रकार के मैथुन भाव का तन मन वचन से कभी सेवन नहीं करता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
४७४ जसे कमल जल में उत्पन्न होकर भी जल से लिप्त नही होता उसी प्रकार जो संसार में रह कर भी काम वासनाओ से लिप्त नही होता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
४७५ जो स्त्री पुत्रादि के सम्बन्धो को जाति बिरादरी के मेल मिलाप को बन्धु जनो को एक बार त्याग कर उनके प्रति कोई आसक्ति नही रखता, दुबारा काम भोगों में नहीं फंसता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
४७६ कर्म से ही ब्राह्मण होता है।
४७७ जो तपस्वी कृश एवं इन्द्रियो का दमन करने वाला है जिसके मास और रुधिर का अपचय हो चुका है जो व्रतशील एवं शान्त है उसको हम ब्राह्मण कहते हैं।
४७८ जो मनुष्य लोलुप नहीं है जो निर्दोष भिक्षा वृत्ति से निर्वाह करता है, जो गृह-त्यागी है, अकिंचन है, गृहस्थो में अनासक्त है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।
४७६ ब्रह्मचर्य के पालन से ब्राह्मण होता है।
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रात्रि भोजन
४८०
अत्यंगयमि आइच्चे, पुरत्था य अणुगए । आहारमाइयं सव्वं, मणसा वि न पत्थए ।।
४८१
सन्तिमे सुहमा पाणा, तसा अदुव थावरा जाई राम्रो अपासंतो, कहमेसणियं चरे
४८२ से प्रसणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइम वा, ने वसयं राइंभुजिज्जा नेवन्नेहि राई
भुंज्जाविज्जा राई भुंजते वि अन्ने न समणुजाणिज्जा
४८३ राईभोयण विरो जीवभवई प्रणासवो
४८४ उदउल्लं बीयसंसत्तं, पाणा निन्वडिया महिं । दिया ताइ विवज्जेज्जा राम्रो तत्थ कह चरे॥
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रात्रि भोजन
४८० सूर्योदय के पहले या मूर्यास्त के बाद संयमी मनुष्य को भोजन पान आदि किसी भी वस्तु की मन से इच्छा नही करनी चाहिए।
४८१ ससार में बहुत से त्रस और स्थावर प्राणी बडे ही सूक्ष्म होते है वे रात्रि को दिखाई नही देते तव रात्रि भोजन कैसे किया जा सकता ? .
४८२ साधक अन्नपाणखादमस्वादम इन चारो आहार का रात्रि में न स्वय सेवन करे न करावे न करते हुए को भला जानें।
४८३ जो रात्रि भोजन से विरत रहता दूर रहता वह आस्त्रव रहित हो जाता है।
४८४ कही जमीन पर कुछ पडा होता है, कही बीज बिखरे होते हैं और कही पर सूक्ष्म कीड़े मकोड़े होते हैं दिन मे तो उन्हे टाला जा सकता है किन्तु रात्रि मे उन्हे बचाकर भोजन कैसे किया जा सकता है।
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१५२ भगवान महावीर को सूक्तियां
४८५ चउविहे वि अाहारे राई भोयण वज्जरणा सन्निही संचओ चेव वज्जेयव्वो सुठुक्करं
४८६
अग्गं वणिएहि आहियं धारंति राइणिया इहं एवं परमामहन्वया अक्खाया उ सराइभोयणा
४८७ सव्वाहारं न भुजति, निग्गंथा राइभोयणं
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धर्म और नीति (रात्रि भोजन) १५३
४८५ अन्न आदि चतुर्विध आहार का रात्रि मे सेवन नही करना चाहिए तथा दूसरे दिन के लिए भी रात्रि मे खाद्य पदार्थ का संग्रह करना निषिद्ध है । अतः रात्रि भोजन का त्याग वास्तव मे बडा दुष्कर है।
४८६ जिस प्रकार दूर-देशान्तर से व्यापारी द्वारा लाये हुए बहुमूल्य रत्नो को राजा लोग ही धारण कर सकते है। इसी प्रकार तीर्थंकर द्वारा कथित रात्रि भोजन त्याग के साथ पंचमहावतो को कोई विशिष्ट आत्मा ही धारण कर सकती है।
४८७ निर्ग्रन्थ मुनि रात्रि के समय किसी भी प्रकार का आहार नही करते।
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सदाचार
४८८ जहा सुणी पुइकन्नी निक्कसिज्जई सव्वसो एवं दुस्सील पडिणीए मुहरी निक्कसिज्जई
४८६ कणकुण्डगं चइत्ताणं विट्ठभुंजइ सूयरे एवं सीलं चइत्ताणं दुस्सीले रमई मिए
४६० विणए उविज्ज अप्पाणं इच्छन्तो हियमप्पणो
चीराजिण नगिणिण जडिसंघाडि मुंडिण एयाणि वि न तायन्ति दुस्सोत्नपरियागयं
४६२ भिक्खाए वा गिगत्थे वा सुव्वए कम्मड दिवं
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सदाचार
४८८ जिस प्रकार सडे हुए कानों वाली कुतिया जहाँ भी जाती है, निकाल दी जाती है उसी प्रकार दुःशील उद्दड और वाचाल मनुष्य भी सर्वत्र धक्के देकर निकाल दिया जाता है।
४८४ जिस प्रकार चावलो का स्वादिष्ट भोजन छोडकर शूकर विष्ठा खाता है उसी प्रकार पशुवत जीवन बिताने वाला अज्ञानी सदाचार को छोड कर दुराचार को पसन्द करता है।
४६० आत्मा का हित चाहने वाला साधक स्वयं को सदाचार मे स्थिर करे।
४६१
चीवर, मृगचर्म, नग्नता, जटाएं, और शिरोमुंडन, ये सभी उपक्रम माचार हीन साधक की दुर्गति से रक्षा नही कर सकते।
४६२ भिक्षु हो चाहे गृहस्थ हो जो सदाचारी है वह दिव्य गति को प्राप्त होता है।
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१५६ भगवान महावीर की सूक्तियां
४६३ गिहिवासे वि सुव्वए न संतसति मरणं ते सीलवन्ता बहुस्सुया ।
४६४ नत अरी कंठछित्ताकरेइ जं से करे मप्पणिया दुरप्पा
४६५ भयंता अकरेन्ता य, बंध मोक्ख पइण्णिणो। वायावीरियमेत्तेण, समासासेन्ति अप्पयं ॥
४६६ न चित्ता तायए भासा, कुओ बिज्जाणुसासरणं
४९७ मा णं तुमं पदेशी पुव्वं रमणिज्जे भवित्ता, पच्छा अरमणिज्जे भवेज्जासि ।
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धर्म और नीति ( सदाचार) १५७
४६३
धर्म शिक्षा सम्पन्न गृहस्थ गृहवास मे भी सदाचारी है । ज्ञानी और सदाचारी आत्माएं मरण काल में भी भयाकान्त नही होते ।
४६४
गर्दन काटने वाला शत्रु भी इतनी हानि नही करता जितनी हानि दुराचार मे प्रवृत्त अपना ही स्वयं का आत्मा कर सकता है ।
४६५
बन्ध और मोक्ष की चर्चा करने वाले दार्शनिक केवल वाणी के बल पर ही आत्मा को आश्वासन देते हैं । किन्तु आचरण कुछ भी नही करते वे केवल बोलकर ही रह जाते हैं ।
४६६
विविध भाषाओ का ज्ञान मनुष्य को दुर्गति से बचा नही सकता तो फिर विद्याओ का अनुशासन कैसे किसी को बचा सकेगा ?
४६७
हे राजन् । तुम जीवन के पूर्वकाल मे रमणीय होकर उत्तर काल मे अरमणीय मत बनना ।
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१५८ भगवान महावीर की सूक्तियां
४६८
तमे णामं एगे जोइ, जोई गाम एगे तमे ।
४६६
धम्मज्जियं च ववहार बुद्धेहिं प्रायरियं सया । तमायरतो ववहार ववहार गरह णाभिगच्छइ ।।
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धर्म और नीति (सदाचार) १५६
४६८ कभी कभी अज्ञान अन्धकार में भी सदाचार की ज्योति जल उठती है और कभी कभी ज्ञान ज्योति पर दुराचार का अन्धकार भी छा जाता है ।
४६६ जो व्यवहार धर्म सगत है जिसका तत्वज्ञ आचार्यो ने सदा आचरण किया उस व्यवहार सदाचार का आचरण करने वाला मनुष्य कभी भी निन्दा का पात्र नही होता ।
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सेवा
वेयावच्चेणं तित्थयर नामगोयंकम्म निबंधेइ
५०१
असगिहीय परिजणस्स सगिण्हणयाए अब्भुट्टेयव्व भवई
५०२ गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्चकरणयाए
अन्मुद्रेयव्वं भवइ
५०३ समाहिकारए णं तमेव समाहिं पडिलब्भई
५०४ सुस्सूसए पायरि अप्पमत्तो
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सेवा
आचार्यादि की वैयावृत्त्य करने से जीव तीर्थकर नाम गौत्र का उपार्जन करता है।
५०१ अनाश्रित एव असहायजनो को सहयोग एवं आश्रय देने के लिए तत्पर रहना चाहिए।
५०२ रोगी की सेवा करने के लिए सदा अग्लानभाव से तैयार रहना चाहिए।
जो दूसरो के सुख एवं कल्याण का प्रयत्न करता है वह स्वय भी सुख एव कल्याण को प्राप्त होता है ।
५०४ शिष्य अप्रमादी होता हुआ आचार्य की सेवा भक्ति करे
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सत्संग
५०५ सवणे नाणे य विन्नारणे, पच्चक्खाणेय संजमे अणण्हये तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी
५०६
कुज्जा साहूहिं संथव
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सत्संग
५०५
सत्संग से धर्म, श्रवण से तत्व ज्ञान, तत्वज्ञान से विज्ञान - विशिष्ट तत्व बोध, विज्ञान से प्रत्याख्यान, सासारिक पदार्थों से विरक्ति प्रत्याख्यान से संयम, संयम से अनाश्रव, नवीन कर्म का अभाव अनाश्रव से तप, तप से पूर्वबद्ध कर्मों का नाश, पूर्वबद्ध कर्म नाश से निष्कर्मता, सर्वथा कर्म रहित स्थिति और निष्कर्मता से सिद्धि अर्थात् मुक्त स्थिति प्राप्त होती है ।
५०६
हमेशा साधु के साथ ही सत्संग करो ।
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संतोष
५०७ संतोसिणो नो पकरेंति पावं
५०८
सट्टे अतित्तेय परिग्गहम्मि सत्तो व सत्तो न उवेइ तुछि
५०६ सतोसपाहन्नरए स पुज्जो
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संतोष
५०७
सन्तोषी साधक कभी पाप नही करते।
. . ५०८ शब्द आदि विषयों मे अतृप्त और परिग्रह में आसक्त रहने वाला अत्मा संतोष को कभी प्राप्त नहीं होता।
५०६ जो सतोष के पथ मे रमता है, वही पूज्य है।
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कर्तव्य
५१०
अकिरिय परिवज्जए
सव्व सुचिण्णं सफलं नराणं
जाइ सद्धाइ निक्खत्तो तमेव अणु पालिज्जा
५१३ णो जीवितं णो मरणाहि कंखी
५१४ अणट्ठाजे य सम्वत्था परिवज्जेज्ज
५१५ रायणिएसु विणयं पउंजे
५१६ अलं बालस्स संगेणं
५१७ चरेज्ज अत्त गवेसए
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. कर्तव्य
५१० अकर्तव्य का परिवर्जन कर दें।
५११ सभी सुकृत्य मनुष्यो के लिए अच्छा फल लाने वाले होते हैं।
___५१२ जिस श्रद्धा के साथ धर्म मार्ग पर निकले उसी अनुसार उसका अनुपालन करे।
५१३, अनासक्त महापुरुष न तो जीवन की आकाक्षा करे और न मृत्यु की ही आकाक्षा करे ।
५१४ जो अनर्थ रूप है उन्हे सर्वथा छोड़ दे।
५१५ नानदर्शन चारित्र मे वृद्धपुरुपो के प्रति विनय रखना चाहिए ।
५१६ मूर्ख आदमियो के संसर्ग से दूर रहो।
५१७ आत्मा का अनुसंधान करने वाला चारित्र शील हो।
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१६८ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
५१८
घुय मायरेज्ज
५१६
तत्ताए परिव्वर
५.२०
निव्विदेज्ज सिलोग पूयण
५२१
सुपरिच्चाई दमं चरे
५२२
सत्यार भत्ती अणुवीई वायं
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धर्म और नीति (कर्तव्य) १६६
संयम का आचरण करो।
५१६ आत्मा को पाप से बचाने के लिए संयम शील हो।
अपनी प्रशसा पूजा और प्रतिष्ठा से दूर ही रहो।
५२१ सुपरित्यागी इन्द्रिय दमन रूप धर्म का आचरण करें।
५२२ आचार्य की भक्ति विचार पूर्वक वाणी मे रही हुई है।
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है
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अध्यात्म
और दर्शन (३)
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आत्मा वैराग्य
श्रमण
श्रमणोपासक * सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्र वाणी विवेक
अज्ञान * अप्रमाद * अनासक्ति मनोनिग्रह *
रागद्वेप + पापपुण्य मानवजीवन *
अभय *
अधर्म * अनिष्ट-प्रवृत्ति *
कामादि * बाल और पडितमरण *
कर्म *
क्षमा *
योग महापुरुष अनित्यता तत्वस्वरूप
मोक्ष भिक्षाचरी *
उपदेश' * प्रशान्त * स्नेह सूत्र *
गुरु शिष्य * इन्द्रिय निग्रह * मृत्यु कला * परलोक *
मोह *
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प्रात्मा
५२३ एगे आया
५२४ नो इन्दियगेज्झ अमुत्तभावा अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो
५२५ अरुवी सत्ता अपयस्स पयं नस्थि ।
५२६ जेण वियाणई से आया।
५२७ कप्पियो फालियो छिन्नो उक्कित्तो अणेगसो
५२८ दद्धो पक्को अ अवसो पावकम्मेहिं पाविश्नो
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प्रात्मा
५२३ स्वरूप दृष्टि से सभी आत्माएं समान हैं ।
५२४ मुक्त जीवात्मा अमूर्त स्वरूप है, इसलिए इन्द्रियो द्वारा ग्राह्य नही है, अमूर्त स्वरूप होने की वजह से वह निश्चय पूर्वक नित्य है।
५२५ मुक्त जीव अरूपी सत्ता वाला होता है, शब्दातीत के लिए शब्द नही होता अपद के लिए पद नही है ।
५२६ । जिससे ज्ञान होता है, वही आत्मा है ।
५२७ यह आत्मा अनेक बार काटा गया, फाडा गया, छेदन किया गया और चमडी उतारी गयी। फिर भी आत्मा-आत्मा है।
५२८ यह पापी आत्मा पापकर्मों द्वारा आग से जलाया गया, पकाया गया और दु.ख झेलने के लिए विवश किया गया। फिर भी यह ज्यो का त्यो है।
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१७४ भगवान महावीर की सूक्तियां
५२६ अन्नो जीवो अन्नं सरीरं
५३० अहं अव्वए वि अहं अवट्ठिए वि
५३१
हत्थिस्स य कंथुस्स य स चेव जीवे
५३२
अत्तकडे दुःखे नो परकडे
५३३ सरीर माहु नावत्ति, जीवो वुच्चइ नाविनो संसार अण्णवो वुत्तो जे तरन्ति महेसियो
वरं मे अप्पा दन्तो संजमेण तवेणय माऽहं परेहिं दम्मन्तो बन्धणेहिं वहेहिय
न तं अरी कठ छेत्ता करेइ जं से करे अप्पणिया दुरप्पा
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अध्यात्म और दर्शन ( श्रात्मा) १७५
५२६
आत्मा और है शरीर और है ।
५३०
मैं आत्मा अविनाशी हूँ और अवस्थित भी हूँ ।
५३१
आत्मा की दृष्टि से हाथी और कुन्थुआ इन दोनो में एक ही आत्मा है ।
५३२
आत्मा का दुख अपना ही किया हुआ दुख है, किसी अन्य का नही ।
५३३
शरीर नाव है, आत्मा नाविक है । ससार समुद्र है इस ससार समुद्र को महर्षि जन पार करते हैं ।
५३४
दूसरे लोग मेरा बन्धनादि से दमन करें इसकी अपेक्षा मैं सयम और तप के द्वारा अपना दमन करूँ, यह अच्छा है ।
५३५ सिर काटने वाला शत्रु भी उतना बुरा नही करता जितना कि दुराचरण मे आसक्त श्रात्मा करती है ।
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६ भगवान महावीर को सूक्तियाँ
संबुज्झह किं न बुज्झह संबोहि खलु पेच्च दुल्लहा नो हुवणमतिराइओ नो सुलभ पुणरावि जोविय
५३७
भावणा जोग सुद्धप्पा, जले नावा व आहिया नावा व तीर सम्पन्ना, सव्वदुक्खातिउट्टइ
५३८ जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ
५३६ सुयं च अज्झत्थं च मे बंध पमोक्खो अज्झत्थेव
५४० जे पाया से विन्नाया जे विन्नाया से आया
इमेण मेव जुज्झाहि किं ते जुज्झेण बज्झयो
जुज्झारिहं खलु दुल्लह
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अध्यात्म और दर्शन ( आत्मा ) १७७
५३६
मनुष्यो । जागो जोगो, अरे तुम क्यो नही जगते ? परलोक में अन्तर्जागरण प्राप्त होना दुर्लभ है । वीती हुई रात्रियाँ कभी लौट कर नही आती पुनः मानव जीवन पाना आसान नही है अत. अपने आपको समझिए ।
५३७
भावना योग से जिसका अन्तरात्मा शुद्ध हो गया है वह पुरुष जल मे नाव के समान माना गया है, जैसे तीर भूमि को पाकर नाव विश्राम करती है इसी प्रकार वह मानव सब दुखो से छुटकारा पा जाता है ।
५३८
जो एक आत्म स्वरूप को जानता है, वह सब कुछ जानता है।
"
५३६
मैंने सुना है और अनुभव किया है कि बन्ध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा पर ही निर्भर करता है ।
५४०
जो आत्मा है वह विज्ञाता है जो विज्ञाता है वही आत्मा है ।
५४१
मनुष्य जीवन पाकर कर्मों से क्या लेना-देना है ? यदि इस बार
युद्ध
नर जन्म मिलना कठिन है ।
१२
करो, बाह्ययुद्धो से तुझें चूक गए तो युद्ध के योग्य
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१७८ भगवान महायीर की सूक्तिया
५४२ अप्पानई वेयरणी अप्पा मे कूड़ सामली अप्पा काम दुहा घेणू अप्पामे नन्दरण वणं
५४३ अप्पाकत्ताविकत्ताय दुहाणय मुहाणय अप्पामित्तममित्त च दुपछिअ सुपठ्ठियो
५४४ अप्पा चेव दमेयव्वो अप्पाहु खलु दुद्दमो अप्पा दन्तो सुहो होइ अस्सि लोए परत्थय
५४५ अप्पाण मेव जुज्झाहि कि ते जुज्झेण बज्झो
५४६
अप्पाणं जइत्ता सुह मेहए
५४७ सव्व अप्पे जिए जिय
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अध्यात्म और दर्शन (आत्मा) १७६
५४२ अपनी आत्मा ही नरक की वैतरणी नदी तथा कूटशाल्मली वृक्ष है और अपनी आत्मा ही स्वर्ग की काम दुधाधेनु तथा नन्दन वन है।
५४३ आत्मा ही अपने सुख-दु ख का कर्ता तथा भोक्ता है अच्छे मार्ग पर चलने वाला आत्मा अपना मित्र है और बुरे मार्ग पर चलने वाला आत्मा अपना शत्रु है।
५४४ आप अपने आप अपना दमन कीजिए। क्योकि अपने से अपना दमन कठिन है। जो अपने से अपना दमन कर सकता है, वह दोनो लोको मे सुखी रहता है ।
५४५ आत्मा से ही युद्ध करो। वाह्य युद्ध से तुम्हे क्या प्राप्त होने वाला है ?
५४६ आत्मा को जीत कर सुख प्राप्त करो।
५४७ आत्मा को जीत लेने पर सब कुछ जीता हुआ ही है।
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१८० भगवान महावीर की सूक्तियाँ
५४८
जे प्रज्झत्थं जाणइ से बहिया जारणइ जे बहिया जाणइ से प्रज्झत्थं जारगड
५४६
एवं जिन्न अप्पारण एस से परमो जनो
५५०
पाड़िओो फालियो छिन्नो विप्फुरन्तो अणेगसो
१
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अध्यात्म और दर्शन (प्रात्मा) १८१
५४८ जो आतरिक को जानता है वही वाह्य को भी जानता है और जो बाह्य को जानता है वही आतरिक को भी जानता है।
५४६ । अकेली आत्मा पर ही विजय प्राप्त करो यही सर्वश्रेष्ठ विजय है।
यह आत्मा अनेक बार इधर उधर भागते हुए पटका गया, फाड़ा गया, छिन्न-भिन्न किया गया।
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वैराग्य
एगे अहमंसि न मे अत्थिकोइ न या हमवि कस्स वि
५५२ परिजूरइ ते सरीर यं
५५३ विड्डइ विद्धसइ ते सरीर यं
५५४ दुमपत्तए पंडुयए जहा एवं मणुयाण जीवियं
५५५ कुसग्गे जह प्रोस विंदुए एवं मणुयाण जीवियं
कुसग्गे पणुन्नं निवइयं वाएरियं एवं बालस्स जीवियं
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वैराग्य
मैं अकेला ही हूँ, मेरा कोई नहीं है, और मैं भी किसी का नही हूँ।
५५२ तुम्हारा शरीर निश्चय ही जीर्ण होने वाला है।
५५३ हे गौतम | यह तुम्हारा शरीर छूट जाने वाला है, विध्वंस हो जाने वाला है।
५५४ जैसे वृक्ष का पीला पत्ता गिर पडता है, वैसे ही मनुष्य के जीवन को समझो। । ।
जैसे घास पर ओस की बु द अस्थिर होती है वैसे ही यह मनुष्य जीवन भी अस्थिर है।
५५६ जैसे कुगान पर ठहरा हुआ जलविंदु हवा द्वारा प्रेरणा पाकर गिर पड़ता है वैसे ही बाल जन का भोगी जीवन भी नष्ट हो जाता है ।
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१८४ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
५५७ ण य संखय माहु जीवितं तह विय बाल जणो पगभई
५५८ तरुण ए वाससयस तुट्टती इत्तर वासे य वुज्झह
५५६
ताले जह वधण चुए एवं आउक्खय मि तुट्टती
५६० एको सयं पच्चणु होइ दुक्खं
मच्चुणाऽन्भाहो लोगो जराए परिवारियो
५६२ माया पिया बहुसा भाया नालं ते मम तारणाए
५६३ एगत्त मेय अभिपत्थएज्जा
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अध्यात्म और दर्शन (वैराग्य) १८५
५५७ टूटा हुआ जीवन पुन. नही जोडा जा सकता है फिर भी वालजन पाप करता ही रहता है ।
५५८ सो वर्ष की आयु वाले पुरुप की आयु भी तरुण अवस्था मे टूट जाया करती है अत यहा पर अल्प कालीन वास ही समझो।
५५६ जैसे बंधन से गिरा हुआ ताड़फल टूट जाता है वैसे ही आयुष्य के क्षय होते ही प्राणी परलोक चला जाता है।
दु.ख का अनुभव अकेले को ही और खुद को ही करना पड़ता है।
५६१ यह ससार मृत्यु से पीडित है और वुढापे से गिरा हुआ है।
माता पिता पुत्र वन्धु भाई कोई भी मेरी रक्षा के लिए समर्थ नही है।
एकत्व भावना को ही प्रार्थना करो।
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१८६ भगवान महावीर की सूक्तियां
५६४ एगस्स जतो गति रागतीय
५६५ संवेगेरणं अणुत्तरं धम्म सद्ध जणयइ
विरत्ता उ न लग्गन्ति जहा सुक्को गोलो
५६७ कम्मारणं तु पहाणाए आणुपुव्वी कयाइउ जीवा सोहि मणुपत्रा प्राययंति मगुस्सयं
जम्मं दु:क्ख जरा दुःखं, रोगाय मरणाणिय अहो दुःक्खो हु संसारो, जत्थ कीसति जंतुणो
जाणित्तुं दुक्खं पत्तेय, सायं अरणभिक्कतच खलु वय सपेहाए, खण जाणाहि पड़िए।
५७० माणुसत्ते असारम्मि, बाहिरोगाण आलए । जरा मरण घम्मि , खणं पि न रमास ।
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अध्यात्म और दर्शन (वैराग्य) १८७
५६४ प्राणी अकेला ही जाता है, और अकेला ही आता हैं।
५६५ वैराग्य भावना से श्रेष्ठ धर्म रूप श्रद्धा उत्पन्न होती है।
५६६ जैसे सूखे गोले पर कुछ चिपक नही सकता वैसे ही विरक्त आत्माएं कर्म मल से सलग्न नही होती।
५६७ जब पाप कर्मों का वेग क्षीण होता है और अन्तरात्मा क्रमश. शुद्धि को प्राप्त होता है तब कही मनुष्य जन्म मिलता है।
५६८ जन्म दु ख है जरा बुढापे का दुख है रोग मरण का दुःख है, अहो ! सारा संसार दुख रूप ही है। यहाँ सब प्राणी दुःख की आग मे जल रहे हैं।
५६६ पण्डित ! सुख और दुख प्रत्येक प्राणी को सहने पड़ते हैं, अब भी जीवन की घड़ियाँ शेप हैं । इस प्रकार का विचार करके अवसर को पहचान, इसे मत भूल ।
मानव शरीर असार है आधिव्याधियो का घर है जरा और मरण से ग्रस्त है अत. मैं क्षण भर भी इसमे रहना नही चाहता।
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१८८ भगवान महावीर की सूक्तियां
५७१ असासए सरीरम्मि, रइ नोवलभामह। पच्छा पुरा व चइयव्वे, फेणवुब्बुय सन्निभे
५७२ जीविय चेव रुव च, विज्जुसपाय चञ्चल जत्थ त मुज्झसिराय पेच्चत्य नाव वुज्झसि
५७३ जो परिभवइ पर जण, ससारे परिवत्तई मह । अदु इंखिणिया ऊ पाविया, इति संखाय मुणीण मज्झई ।
५७४ जेण सिया तेण गोसिया इणमेव नाव बुज्झन्ति जे जरणा मोह पाउडा
५७५ जह तुब्भे अह अम्हे तुम्हे, वि होहिहा जहा अम्हे अम्पाहेइ पडत पंडुअ, पत्तं किस लयाणं
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अध्यात्म और दर्शन (वैराग्य) १८६
५७१
यह शरीर पानी के बुलबुले के समान क्षण भंगुर है, पहले या पीछे एक दिन इसे छोडना है अतः इसके प्रति मेरी तनिक भी आसक्ति नही है।
५७२ मनुष्य का जीवन और रूप सौन्दर्य बिजली की चमकवत् चचल है। राजन् आश्चर्य है, फिर भी तुम इस पर मुग्ध हो रहे हो परलोक की ओर क्यो नही निहारते ?
५७३ जो मनुष्य दूसरे का तिरस्कार करता है वह चिर काल तक संसार में परिभ्रमण करता है । पर निन्दा पाप का कारण है यह समझ कर साधक अहभाव का पोपण नहीं करते।
५७४
तुम जिनसे सुख की आशा रखते हो वस्तुतः वे सुख के कारण हैं नही मोह से घिरे हुए लोग इस बात को नही समझते ।
५७५ पीला पत्ता जमीन पर पडता हुआ अपने साथी हरे पत्तो से कहता है, आज जैसे तुम हो एक दिन हम भी ऐसे ही थे और प्राज जैसे हम हैं एक दिन तुम्हे भी ऐसा ही होना है।
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१६० भगवान महावीर की सूक्तियां
५७६ जावंतविज्जा पुरिसा, सव्वे ते दुक्ख संभवा । लुप्पंति वहुसो मूढा, ससारम्मि अणंतए ।
५७७ जीवियनाभि कखेज्जा, मरण नो वि पत्थए । दुह प्रो वि न सज्जेज्जा, जीविए मरणे तहा।
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मध्यात्म श्रीर दर्शन ( वैराग्य) १६१
५७६
जितने भी अज्ञानी पुरुष हैं वे सब दुःख के भागी है । सत् असत् के विवेक से शून्य वे इस अनन्त ससार मे बार-बार पीड़ित होते रहते है ।
५७७ सावक, न तो जीवित रहने की इच्छा करे और न शीघ्र मरना ही चाहे, जीवन तथा मरण किसी मे भी आसक्ति न रखे ।
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श्रमण
५७८
सम सुह दुक्ख सहे अजे स भिक्खू
५७६ रोइ अनाय पुत्तवयणे पचासव संवरे जे सभिक्खू
५८०
वंतं नो पडिप्रायइ जे सभिक्खू
५८१
जे कम्हि विन मुच्छिए स भिक्खू
५८२
मण वय कायसु सवुडे स भिक्खू
५८३
धम्मज्झाणरए अजे स भिक्खू
५८४
सव्व सगावगए अ जे स भिक्खू
५८५
प्रणाइले या अक्साइ भिक्खू
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श्रमण
५७८ जो सुख दुख सहने मे समभाव रखता है, वह भिक्षु है ।
५७६
ज्ञातपुत्र महावीर के वचन मे रूचि लाकर जो पाचो आश्रवो का संवर करता है वही भिक्षु है ।
५८० त्यागे हुए को जो पुनः ग्रहण नहीं करता वही भिक्षु है ।
५८१ जो किसी मे भी मूच्छित नही होता है वही भिक्षु है।
५८२
जो मन वचन काया के द्वारा सवृत्त है, व्रत शील है, वही भिक्षु है।
५८३ जो धर्म ध्यान में रत है वही भिक्षु है ।
५८४
जो सभी प्रकार की सगति से दूर है वही भिक्षु है ।
अनाविल (पापरहित) अथवा अकषायी ही भिक्षु होता है।
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१६४ भगवान महावीर की सूक्तियां
निग्गंथा उज्जु दंसिणो
५८७ धम्माराम चरे भिक्खू
५८८ भिक्खू सुसाहुवादो
चरे मुणी सव्वउ विप्पमुक्के
५६०
:
निदं च भिक्खू न पमाय कुज्जा
अलोलं भिक्खू न रसे सुगिज्झे
५६२ सामण्णं दुच्चरं
५६३
मुणी ण मज्जई
५६४ निम्ममो निरहंकारो, चरे भिक्खू जिणाय ।
अभयंकरे भिक्खु अणाविलप्पा
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अध्यात्म और दर्शन ( श्रमरण) १६५
५८६
निर्ग्रन्थ सरल दृष्टि वाले होते हैं ।
५८७
भिक्षु धर्म रूपी वाटिका में ही विचरे ।
५८८
भिक्षु सत्य और मधुर बोलने वाला होता है |
५८६
सब तरह से प्रपञ्च से दूर रहता हुआ मुनि जीवन का व्यवहार चलावे ।
५६०
भिक्षु निद्रा और प्रमाद नही करे ।
५६१
अचचल होता हुआ ( अनासक्त होता हुआ ) भिक्षुओ मे गृद्ध न हो ।
५६२
भ्रमण धर्म का आचरण करना अति कठिन है ।
५६३
मुनि अहकार नही करता है ।
५६४
ममता रहित और अहकार रहित होता हुआ भिक्षु जिन आज्ञानुसार विचरे ।
५६५
रागद्वेष रहित आत्मा वाला भिक्षु अभय दान देता रहे ।
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१६६ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
५६६
भिक्खवत्ती सुहावहा
५६७
मुणी मोरगं समायाय धुणे कम्म सरोरगं
५६८
समे य जे सव्वपाण, भूतेसु सेहु सम
५६६
विहंगमा व पुप्फेसु दाणभत्ते सणे रया
६००
श्रवि अप्पणो विदेहम्मि नायरति ममाइयं
६०१
मुच्चा पिच्चा सुह सुवई, पावसमत्ति वुच्चइ
६०२ अस विभाग प्रचियत्ते पावसमरणेत्ति वुच्चइ
६०३
सो समरणो जइ सुमरणो, भावेण जइरण होइ पावमणो । सयणे य जरणे य समो, समो य माणावमाणेसु ॥
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अध्यात्म और दर्शन ( श्रमरण) १९७
५६६
भिक्षा वृत्ति सुखो को लाने वाली है ।
५६७
मुनि मौन को ग्रहण करके शरीर मे रहे हुए (आत्मस्थ ) कर्मों को कंपित कर दे |
५६८
जो समस्त प्राणियो के प्रति समभाव रखता है वही श्रमण है । ५६६
श्रमण जीवनोपयोगी आवश्यक्ताओ की इस प्रकार पूर्ति करे कि किसी को कुछ कष्ट न हो ।
६००
अकिंचन मुनि, और तो क्या अपने देह पर भी ममत्व नही रखते ।
६०१
सोता है, समय पर धर्माराधना कहलाता है |
जो श्रमण खा पीकर खूब नही करता है, वह पाप श्रमण
६०२
जो भ्रमण प्राप्त सामग्री को साथियो मे बाटता नही है वह पाप श्रमण कहलाता है |
६०३
जिसका हृदय सदा प्रफुल्लित है जो कभी भी पाप चिन्ता नही करता जो स्वजन परजन तथा मान और अपमान बुद्धि का सन्तुलन रखता है वही श्रमण है ।
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१६८ भगवान महावीर को सूक्तियां
जह मम न पिय दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ य, समणमई तेण सो समणो ।
६०५ पत्थि ये से कोइ वेसो पियो य सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो, एसो अन्नो वि पज्जायो ।।
नाणदंसणसम्पन्नं संजमे य तवे रयं एवं गुण समाउत्तं संअयं साहुमालवे ।
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प्रध्यात्म और दर्शन (श्रमण) १६६
६०४ जिस प्रकार मुझे दुख अच्छा नहीं लगता उसी प्रकार सभी जीवो को दु.ख अच्छा नहीं लगता यह समझ कर जो न स्वयं हिंसा करता न करवाता अर्थात् सभी प्राणियो पर समबुद्धि रखता है वही श्रमण है।
६०५ श्रमण की एक व्याख्या यह भी है कि जो किसी से द्वेष नही करता जिसे सब समान भाव से प्रिय है, वह श्रमण है ।
सच्चा श्रमण उसी को कहना चाहिए जो ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न हो सयम और तपश्चरण मे लीन हो और सदा सदगुण को धारण करने वाला हो ।
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श्रमणोपासक
६०७ धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणाविहरंति
६०८ चत्तारि समणोवासगा अदागसमोरण पडागसमाणे खाणु समाणे खरकंट समाणे
६०६
उस्सिय फलिहा, अवंगुय-दुवारा, चियत्तंतेउर-परघरपवेसा।
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श्रमणोपासक
६०७ सद्गृहस्थ धर्मानुकूल ही आजीविका करते है।
६०८ श्रमणोपासक चार प्रकार के होते हैंसर्पण के समान-स्वच्छहृदय, पताका के समान अस्थिर हृदय स्थाणु के समान मिथ्याग्रही तीक्ष्णकंटक के समान कटुभाषी
६०६ जिसका हृदय स्फटिक रत्न के समान निर्मल, दानादि लोक सेवा के लिए उदार चित्र वाला है और जिसके घर का द्वार सदा खुला रहता है। राजभवन से लेकर साधारण घरो तक वह नि शक होकर प्रवेश कर सकता है । ऐसा श्रावक का जीवन होता है।
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ज्ञान
तम्हा पण्डिए नो हरिसे नो कुप्पे
उद्देसो पासगस्स नत्थि
६१२ कुसले पुण नो बद्धे न पुत्ते
पन्नाणेहिं परियाणह लोयं मूणोत्ति वुच्चे
६१४ आयंकदंसी न करेइ पावं
६१५ का अइई के आणंदे ?
सउणीजह पंसु गुंडिया, विहुरिणय घसयई सियं रय । एवं दवि प्रोवहाण वं, कम्मं खवई तवस्सिमाहणे ॥
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ज्ञान
आत्म ज्ञानी साधक को किसी भी स्थिति मे न हर्षित होना चाहिए न कुपित ही।
तत्वद्रष्ट्रा को किसी के उपदेश की अपेक्षा नही है ।
६१२ जानी के लिए वन्ध या मोक्ष जैसा कुछ नही है।
जो अपने ज्ञान से संसार को ठीक तरह जानता है, वही मुनि कहलाता है।
६१४ जो संसार के दु.खो का ठीक तरह से दर्शन कर लेता है, वह पाप कर्म नही करता।
ज्ञानी के लिए क्या दुःख क्या सुख ? कुछ भी नही है।
मुमुक्षु तपस्वी अपने कृत कर्मों का बहुत शीघ्र ही अपनयन कर देता है जैसे कि पक्षी अपने पैरो को फड़फड़ाकर उन पर लगी हुयी धूल को झाड देता है।
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२०४ भगवान महावीर की सूक्तियां
६१७
जहा हि अंधे सह जो तिणावि रुवादियो पस्सति हीणणेत्ति
६१८ ग्राहसु विज्जाचरणं पमोक्खं
६१६ न कम्मुणा कम्म खवेति बाला अकम्मुणा कम्म खवेति धीरा
६२० तमे णामं एगे जोई जोई णामं एगे तमे
६२१ इह भविए वि नाणे पर भविए वि नाणे तदुभय भविए विनाणे
६२२ पढमं नाणं तो दया
जहासूई ससुत्ता पड़िया वि न विणस्सइ तहा जीवे ससुत्ते ससारे न विरणस्सइ
६२४ नागेण जाणइ भावे
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अध्यात्म और दर्शन (ज्ञान) २०५
६१७ जिस प्रकार अन्ध पुरुष प्रकाश होते हुये भी नेत्र न होने के कारण रुपादि कुछ भी नहीं देख पाता है इसी प्रकार प्रज्ञाहीन मनुष्य शास्त्र के समक्ष रहते हुये भी सत्य के दर्शन नहीं कर पाता।
ज्ञान एव विद्याचरण से ही मोक्ष प्राप्त होता है।
अज्ञानी मनुष्य पापानुष्ठान से कर्म का नाश नहीं कर पाते किन्तु ज्ञानी धीर पुरुष अकर्म से कर्म का क्षय कर देते हैं।
६२० कभी कभी अज्ञानी मनुष्यो मे से भी ज्ञान ज्योति जल उठती है और कभी कभी ज्ञानी हृदय पर भी अज्ञान छा जाता है।
६२१ ज्ञान का प्रकाश इस जन्म मे रहता हैं परभव मे रहता है और कभी दोनो जन्मो मे भी रहता है।
६२२ । पहले ज्ञान होना चाहिए फिर तदनुसार आचरण होना चाहिए।
धागे में पिरोइ हुयी सुई गिर जाने पर भी गुम नही होती, उसी प्रकार ज्ञान रूप धागे से युक्त आत्मा ससार मे भटकता नही, विनाश को प्राप्त नहीं होता।
६२४ ज्ञान से जीव, जीवादिक तत्वो को जानता है।
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२०६ भगवान महावीर की सूक्तियां
६२५ तत्थ पचविंह नाणं सुयं अभिरिणवोहियं प्रोहि नाणं तु तइयं मण नाणं च केवलं
नाणेणविणा न हु ति चरण गुणा
६२७ दुविहा बोही णाण वोही चेव देसण बोही चेव
६२८ एगेनाणे
६२६ महुगार समाबुद्धा
६३०
नाणी नो परिदेवए
सीहे मियाण पवरे एवं हवइ बहुस्सुए
सक्के देवाहिवई एवं हवई बहुस्सुए
६३३
सुयमहिठ्ठिज्जा उत्तमट्ठ गवेसए
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प्राध्यात्म और दर्शन (ज्ञान) २०७
६२५ मति, श्रुत, अवधि, मन: पर्याय और केवल इस तरह ज्ञान पाच प्रकार का है।
जान के विना जीवन मे चारित्र के गुणो की प्राप्ति नहीं होती है।
समझ दो प्रकार की है, ज्ञान समझ और दर्शन समझ ।
६२८ उपयोग की दृष्टि से ज्ञान एक प्रकार का है।
६२६ ज्ञानी मधुकर के समान होते हैं।
६३० ज्ञानी कभी खेद नही करते।
६३१ जैसे सिंह मृगो मे श्रेष्ठ होता है वैसे ही जनता मे बहुश्रुत व्यक्ति श्रेष्ठ होता है।
६३२
जैसे इन्द्र देवताओ का अधिपति होता है, वैसे ही विद्वान भी जनता मे प्रमुख होता है।
६३३ श्रु तशास्त्र का अध्ययन करके उत्तम अर्थ की, मोक्ष की खोज करे।
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२०८ भगवान महावीर की सूक्तियां
६३४ जिणो जाणइ केवली
ना दंसरिणस्स नाण
६३६ नाणेण य मुणी होइ तवेण होई तावसो
६३७ बुद्धा हु ते अंतकड़ा भवंति
६३८ दुविहे नाणे पच्चक्खे चेव परोक्खे चेव
६३६ नाणसपन्नयाए जीवे सव्व भावाहि गर्म जणयइ
६४० चउबिहा बुद्धी उप्पइया वेणइया कम्मिया पारिणामिया
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अध्यात्म और दर्शन (मान) २०६
६३४ जिन रूप केवली ही सब कुछ जानते हैं ।
सम्यक् दर्शन से रहित का सम्यग् ज्ञान नही होता है।
६३६ ज्ञान से ही मुनि होता है और, तप से ही तपस्वी होता है ।
६३७ जो निश्चय मे ज्ञानी है वे संसार का अस्त करने वाले होते है।
६३८ ज्ञान दो प्रकार का है प्रत्यक्ष और परोक्ष।
६३६ ज्ञान की संम्पन्नता से जीव सभी पदार्थों का ज्ञान उत्पन्न कर लेता है। -
६४० चार प्रकार की बुद्धि बतलाई गयी है ओत्पातिकी, वेनयिकी कार्मिक और पारिणामिकी।
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सम्यग्दर्शन
६४१ समत्तदंसी न करेइ पाव
६४२
नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं
६४३
'नादंसं रिगज्ज नारण नाणेण विणा न हुँति चरणगुणा गुणिस्स नत्थि मोक्खो गत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं
૬૪૪
तहियाणं तु भावाण सब्भावे उवसगं भावेगं सद्दहन्तस्स सम्मत्त त वियाहियं
६४५ दसणेण य सहे
६४६ नाणभट्ठा दसण लूसिणो
६४७
वोरा सम्मत्त दंसिणो सुद्ध तेसि परक्कतं
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सम्यग्दर्शन
६४१ सम्यग्दर्णी साधक कभी पाप कर्म नहीं करता।
६४२ सम्यक्त्व के अभाव मे चारित्र नही हो सकता।
सम्यग्दर्शन के अभाव मे जान प्राप्त नहीं होता, ज्ञान के अभाव मे चारित्र के गुण नही आ सकते, गुणो के अभाव मे मोक्ष नही होता और मोक्ष के अभाव मे निर्वाण प्राप्त नहीं होता।
૬૪૪ जिवादिक सत्य पदार्थों के अस्तित्व के विषय मे सद्गुरु के उपदेश से अथवा स्वय ही अपने भाव से श्रद्धा करना दर्शन कहा गया है।
६४५ दर्शन के अनुसार ही श्रद्धा रक्खो ।
६४६
सम्यक् दर्शन से पतित हुआ प्राणी सम्यग्ज्ञान से भी भ्रष्ट्र हो जाता है।
६४७ जो वीर हैं और सम्यक्त्व दर्शी है, उन्ही का पराक्रम शुद्ध है।
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२१२ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
६४८
दसण सपन्नयाए भव मिच्छत्तछेयण करेई
૬૪૨
सम्मी सया अमूढ़ े
६५०
दिट्टिमं दिट्ठि ण लूसएज्जा
६५१
चउव्वीसत्यएरणं दंसणविसोहि जययइ
६५२
दुविहे दसणे सम्म दसणे चेव मिच्छा दसरणे चेव
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मध्यात्म और वर्शन (सम्यग्दर्शन) २१३
६४८
दर्शन की सम्पन्नता से सांसारिक मिथ्यात्व का छेदन होता है।
६४६ सम्यक् दृष्टि सदैव अमूढ होता है।
सम्यक् दृष्टि वाला अपनी दृष्टि को दूषित नही करे।
६५१
चोवीस तीर्थकरो की स्तुति से सम्यक्त्व शुद्धी होती है।
६५२ दर्शन दो प्रकार का है सम्यक्त्व दर्शन और मिथ्यात्वदर्शन ।
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B.
चारित्र
६५३
चरित्रेण निगिण्हाई
६५४
अगुणिस्स नत्थि मोक्खो
६५५ चरित संपन्नयाए सेलेसी भावं जणयई
६५६ एगे चरिते
t
६५७
विज्जा चरणं पमोक्खं
६५८
सामाइय माहु तस्स जं, जो अप्पाणं भए ण दंसए ।
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चारित्र
साधक चारित्र से भोग वासनाओ का निग्रह करता है।
६५४ चारित्र हीन को मोक्ष नही मिलता ।
६५५ चारित्र सम्पन्नता से जीवन मे निर्मल गुण पैदा होता है।
६५६ एक ही चारित्र है।
ज्ञान और चारित्र ही मोक्ष है ।
जो अपनी आत्मा के लिए किसी भी प्रकार का भय नही देखता है, यही उसके लिए सामायिक कही गयी है ।
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वाणीविवेक
६५६
नो वयरणं फरुस वइज्जा
६६० राइगियस्स भासमारणस्सवा वियागरेमाणस्स
वा नो अंतरा भास भासिज्जा
अणणुवीइ भासी से निग्गन्थे
अरणगुवीइ भासी से निग्गथे समावइज्जामोसं वयरणाए
अणुचितिय वियागरे
६६४ छन्नं तं न वत्तव्यं
जं
तुमं तुमति अमणुन्नं सव्वसो तं न वत्तए
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६५६ कठोर वचन न बोले ।
वाणीविवेक
६६०
अपने से बड़े गुरुजन जव बोलते हो विचार चर्चा करते हो तो उनके बीच मे न बोले ।
६६१
जो विचार पूर्वक बोलता है, वही सच्चा निर्ग्रन्थ है |
६६२
जो विचार पूर्वक नही बोलता है, उसका वचन कभी असत्य से दूषित हो सकता है |
६६३
जो कुछ बोले पहले विचार कर बोले ।
६६४
जो गोपनीय बात हो वह नही कहनी चाहिए ।
६६५
तू तू जैसे अभद्र शब्द कभी नही बोलने चाहिए ।
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२१८ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
↓
६६६ विभज्जवाय च वियागरेज्जा
६६७
निरुद्धग वावि न दीहइज्जा
६६८ नाइवेल वएज्जा
६६६ इमाई छ प्रवरणाइ वदित्तए अलियवयणे हीलियवयणे खिसितवयणे फरुसवयणे गारत्थिय वयणे विउसवित्तं वा पुणो उदीरित्तए
६७०
मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमथू
६७१
जमटठंतु न जाणेज्जा एवमेयति नो वए
६७२
जत्थशंकाभवे त तु एवमेयेति नोवए
६७३
नलवे साहु साहुत्ति, साहु साहुत्ति आलवे
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श्रध्यात्म और दर्शन (वारणी विवेक) २१६
६६६
विचार शील पुरुष सदा स्याद्वाद से युक्त वचन का प्रयोग करे ।
६६७
थोडे मे कही जानी वाली बात को लभ्वी न करें ।
६६८
साधक आवश्यक्ता से अधिक न बोले ।
६६६
छ तरह के वचन नही बोलने चाहिए, असत्यवचन, तिरस्कार युक्त वचन, भिडकते हुए वचन, कठोर वचन, साधारण मनुष्यो की तरह अविचार पूर्णवचन, और शान्त हुए कलह को फिर से भडकाने वाले वचन ।
६७०
वाचालता सत्य वचन का विघात करती है ।
६७१
जिस वात को स्वय न जानता हो उसके सम्वन्ध में 'यह ऐसा ही हैं इस प्रकार निश्चित भाषा न बोले ।
६७२
जिस विषय मे अपने को शका हो उसके विषय मे 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार निश्चित भाषा न वोले ।
६७३
किसी भी प्रकार के दवाव व खुशामद से अयोग्य को योग्य नही कहना चाहिए, योग्य को योग्यं कहना चाहिए ।
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२२० भगवान महावीर की सूक्तियां
६७४
न हासमाणो वि गिरं वएजा
६०५
मियं अदुढठं प्रणुवीइ भासए सयारण मज्झे लहई पसंसरणं
६७६
वइज्ज बुद्धे, हिय मागुलोमियं
६७७
वायादुरुत्ताणि दुरुद्वाराणि वेर बधीणि महत्भयाणि
६७८
न य कुग्महिय कहं कहिज्जा
६७६
बहुय माय आलवे
६८०
नापुठ्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं बए
६८१
वयगुत्तायाए णं णिविकारत्तं जरगमइ
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अध्यात्म और दर्शन (वारणीविवेक) २२१
६७४ हंसते हुए नही बोलना चाहिए।
६७५ जो विचार पूर्वक सुन्दर व परिमित शब्द बोलता है, वह सज्जनो मे प्रशंशा पाता है ।
६७६ बुद्धिमान ऐसी भाषा बोले जो हितकारी, हो और सभी को प्रिय हो।
६७७ वाणी से वोले हुए दुष्ट और कठोर वचन जन्म जन्मात्तर के वैर और भय के कारण बन जाते हैं।
६७८
विग्रह वढाने वाली बात नही करनी चाहिए।
६७६
बहुत नही बोलना चाहिए।
६८० विना बुलाए बीच मे कुछ नहीं बोलना चाहिए, बुलाने पर भी असत्य जैसा कुछ न कहे ।
६८१ वचन गुप्ति से निर्विकार स्थिति प्राप्त होती है।
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२२२ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
६८२
तहेव काण काणेत्ति, पडगं पंडगे त्ति वा वाहिय वा वि रोगि त्ति, तेण चोरे त्ति नो वए
६८३ गातिवेल वदेज्जा
६८४
न असब्भमाहु
६८५
अप्प भासेज्ज सुव्वए
६८६
न लवेज्ज पुठ्ठो सावज्जं
६८७
ज छन्न त न वत्तष्वं
६८८
अणुचितिय वियागरे
६८६ भासमाणो न भासेज्जा
६६०
अपुच्छिम्रो न भासिज्जा
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अध्यारम और दर्शन (वाणीविवेक) २२३
६८२ काने को काना, नपुंसक को नपु सक, रोगी को रोगी, चोर को चोर कहना सत्य है पर ऐसा नही कहना चाहिए इससे उन व्यक्तियो को दुख पहूचता है ।
६८३ लम्बे समय तक वार्तालाप नही करे।
६८४ असभ्यता के साथ मत बोलो।
६८५ सुव्रती अल्प ही बोले ।
६८६ पूछने पर सावद्य न बोले ।
६८७ जो गोपनीय हो उसे नही बोलना चाहिए ।
६८८ गभीर विचार करके बोले ।
६८६
कोई दूसरा वोलता हो तो उसके बीच न बोले ।
६६० नही पूछा हुआ नहीं बोले ।
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२२४ भगवान महावीर को सूक्तियां
गेव वंफेज्ज मम्मयं
६६२ सत्तविहे वयण विकप्पे आलावे, अणालावे, उल्लावे, उणुल्लावे, सल्लावे, पलावे, विप्पलावे।
६६३ चत्तारि भासाओ भासित्तए जायणी, पुच्छणी, अणुन्नवणी, पुठुस्सवागरणो
६९४
मिश्र भासे
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अध्यात्म और दर्शन (वारणीविवेक) २२५
मर्मघाती वाक्य नहीं बोले ।
सात प्रकार का वचन विकल्प कहा गया है। १ थोड़ा बोलना २ कुत्सित बोलना। ३ मर्यादा उल्लंघन कर बोलना। ४ मर्यादा रहित बोलना । ५ परस्पर बोलना । ६ निरर्थक बोलना ७ विरुद्ध बोलना।
६६३
चार प्रकार की भाषा कही गयी है याचनिक पृच्छनिका अवग्राहिका और पृष्ठ व्याकरणिका ।
६६४ परिमित बोले।
१५
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कर्म
६६५ कड़ारणकम्माण न मोक्खप्रत्थि
६६६
जमियं जगई पुढोजगा, कम्मेहि लुप्पन्ति पारिणरणो सयमेव कडेहिं गाहई, गो तस्स मुच्चेज्जऽपुठ्ठय
६६७
सव्वे सयकम्म कप्पिया, श्रवियत्तेण दुहेण पाणिगो हिण्डन्ति भयाउला सढा, जाइ जरामरणेहिऽभिदुया
६६८
तम्हा एएसि कम्माणं, अणुभागा वियाणिया एएसि संवरे चैव खवणे य जए बुहो
६६६
तेणे जहा सधिमुहे गहीए, स कम्मुणा किच्चइ पावकारी एवं पया पेच्च इहच लोए कडाण कम्माण न मोक्रव प्रत्थि
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कर्म
६६५ किए हुए कर्मो को बिना भोगे मुक्ति नही है।
सभी प्राणी अपने-अपने सचित कर्मों के कारण ही ससार मे आते-जाते है, और कर्माअनुसार भिन्न-भिन्न योनियो मे पैदा होते हैं। क्योकि कर्म के भोगे विना जीव को छुटकारा नही मिलता।
६६७ प्राणिजन अपने-अपने कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न योनियो को प्राप्त हुए हैं। कर्मों की अधीनता के कारण एकेन्द्रिय आदि की अवस्था में वे दु.खी रहते हैं। अशुभ कर्मों के कारण जन्म जरा और मरण से सदा भयभीत रह कर गतिचतुष्टय के रूप से संसार मे भटकते रहते हैं।
६६८ कर्मों के फल भोगने पड़ते हैं, ऐसा समझ कर नये कर्मो से क्रिया को रोकने के लिए तथा सचित कर्मों को क्षय करने के लिए बुद्धिमान पुरुष को सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए।
६६६ जैसे पापकर्ता चोर नकाब लगाने के मौके पर पकडा जाकर अपने कर्म से मारा जाता है । ठीक वैसे ही इस लोक मे एव परलोक मे कृतकर्मा आत्मा को कृत कर्म का फल भोगना पड़ता है । क्योकि कृत कर्मों से कभी फदा नही छूटता ।
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२२८ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
७००
रागो य दोसोऽविय कम्मबीय
७०१
पट्ट चित्तो यो चिणाइ कम्मं
७०२
कम्मारण बलवन्ति हि
७०३
कम्म च मोहप्पभव
७०४
गाढा य विवाग कम्मुणो
७०५
कम्मे हि लुप्पंति पारिगणो
७०६
कम्म च जाई मरणस्स मूलं
७०७
ससरइ सुहा सुहेहिं कम्मे हि
७०८
आहाकम्मेहिं गच्छई
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अध्यात्म और दर्शन (कर्म) २२६
७०० असत् कर्म के हेतु-राग और द्वेष हैं ।
७०१ प्रदुष्ट चित्त ही असत कर्म को एकत्र करता है।
७०२ कर्म निश्चय ही बलवान हैं ।
७०३ मोह ही से कर्मों का उदय होता है।
७०४ कर्मों का फल अत्यन्त प्रभाव कारी होता है ।
७०५ प्राणिजन कर्मों से ही डूबते हैं ।
७०६ जन्म और मरण का मूल कर्म ही है ।
७०७ शुभ कर्मों से साता रूप सुख शान्ति फैलती है ।
७०८ (आत्मा) अपने किये हुए कर्मो के अनुसार ही (परलोक) को जाता है।
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२३० भगवान महावीर की सूक्तियां
७०४ कम्मुणा उवाही जायइ
७१०
इहं तु कम्माइं पुरे कड़ाई
७११ असुहाण कम्मणिनिज्जारणं पावगं
७१२ कत्तार मेव अणुजाइ कम्म
७१३
कम्मुणा तेण संजुत्तोगच्छई उ परंभव
७१४
जहा कड कम्म तहा से भारे
७१५ जं जारिसपुन्बमकासिकम्मं तमेव नागच्छति सपराए
७१६ कम्मी कम्मेहिं किच्चती
७१७
बाला वेदति कम्माई पुरे कड़ाई
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अध्यात्म और दर्शन (कर्म) २३१
७०६ कर्म से उपाधियाँ (अनेक विपत्तियाँ) पैदा होती है।
यहां पर जिन कर्मों को भोग रहे हो वे पहिले किए हुये हैं।
७११ अशुभ कर्मों का मूल कारण पाप है।
७१२ कर्म कर्ता का ही अनुगमन करता है।
७१३ उस कर्म के साथ ही जीव परलोक को जाता है ।
७१४ जैसा कर्म किया है, वैसा ही उसका बोझ समझो ।
७१५ जिसने जैसा पूर्व जन्म मे कर्म किया है, वैसा ही ससार में उसको फल भोगना पड़ता है।
७१६ कर्मी कर्मों से ही दुःख पाता है।
७१७
अवोध मनुष्य पूर्वकृत कर्मो का फल भोगते हैं।
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२३२ भगवान महावीर की सूक्तियां
७१८
सकम्मुरणा विप्परियासुवेइ
७१६
श्रायाणिज्जं परिन्नाय परियाएरण विगिचड
७२०
रयाइं खेवेज्ज पुराकड़ाइ
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धर्म और नीति (कर्म) २३३
७१८ प्रत्येक आत्मा कर्मों के अनुसार अदलता-बदलता रहता है।
७१६ ज्ञानी आश्रव और वध को समझ कर साधुता के रूप से उन्हे दूर रखता है।
७२० पूर्वकृत कर्मों की रज को फेंक दो।
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योग
७२२ पंच निग्गहणा धीरा
७२३ आयगुत्ते सयावीरे
७२४ भावणा जोग सुद्धप्पा जलेणावा व आहिया
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योग
७२२ जो पाचो इन्द्रियो का निग्रह करते है वही धीर पुरुप हैं ।
७२३ जो वीर होता है वही मन वचन काय गुप्ति को नियंत्रण मे रखता है।
७२४ भावना के योग से शुद्ध आत्मा जल मे नाव की तरह कहा गया है।
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महापुरुष
७२५
सड़ढ़ी आणाए मेहाव
4
७२६
विणियदृति भोगेसु जहा से पुरिसुत्तमो
७२७
बुद्धो भोगे परिच्चयई
७२5
मोहावी अप्पणो गिद्धिमुद्धरे
७२६
अणुन्नएनावणए महेसी
७३०
पंतं लूहं सेवति वीरा समत्त देसिणो ।
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महापुरुष
७२५ जो भगवान की आज्ञा में विश्वास करता है वही महापुरुष है।
७२६ जो भोगो से दूर रहते हैं वे ही श्रेष्ठ महापुरुष है ।
७२७ बुद्धिमान पुरुष ही भोगों को छोड़ता है ।
७२८
बुद्धिमान और आत्मार्थी पुरुप अपनी ममत्व बुद्धि को हटादे, यही महापुरुषो का पंथ है।
७२६ महात्मा पुरुष न तो हर्ष से अभिमानपुरुष हो और न दुःख से दीन हो।
७३० सम्यग्दर्शी वीर पुरुष नीरस और निस्वाद भोजन का आहर करते है।
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अनित्यता
७३१ इम सरीर अणिच्चं असुइ असुइं संभवं
७३२ असासया वासमिणं दुक्ख केसाण भायणं
७३३
अल्लीण गुत्तो निसिए।
७३४ अगुत्ते अणाणाए
७३५ अमणुन्न समुप्पायं दुक्खमेव
७३६ न सव्व सव्वत्थ अभिशेय एज्जा
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अनित्यता
७३१ यह शरीर अनित्य है, अशुद्ध है और अशुद्धि से ही उत्पन्न हुआ है।
७३२ यह वास सयोग अशाश्वत् है और दुःख एवं क्लेशो का ही भाजन है।
७३३ गुर आदि के आश्रित रहता हुआ गुप्ति धर्म का पालन करता
हुआ वैठे।
७३४ अगुप्ति वाला आज्ञा से रहित होता है ।
७३५ अमनोज्ञ की समुत्पत्ति ही दुःख है।
सब जगह किसी भी पदार्थ के प्रति ललायित मत हो ।
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तत्व स्वरूप
७३७ नाणं च दसणं चेव चरित्त च तवो तहा । वीरियं उवोगोय, एवं जीवस्स लक्खण ।।
७३८ जीवाऽजीवा य बन्धोय, पुण्ण पावाऽ सवोतहा संवरो निज्जरा मोक्खो, सन्तेए तहिया नव
७३६ सरीरं सादियं सनिधणं
७४०
जीवो णो वहढति णो हायंति अवट्ठिया
७४१ नो य उप्पज्जए अस
७४२ करणश्रो सा दुक्खा नो खलु सा अकरणो दुक्खा
७४३ समुप्पायमजाणता कहं नायंति संवरं
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तत्त्व स्वरूप
७३७ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये सब जीव के लक्षण हैं ।
७३८ जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा मोक्ष ये नो तत्व हैं।
७३६ गरीर का आदि भी है और अन्त भी है।
७४० जीव न कभी बढते हैं और न कभी घटते है बल्कि सदा अवस्थित रहते हैं।
७४१ जो असत् है वह कभी सत् रूप मे उत्पन्न नही होता।
७४२ कोई भी क्रिया किए जाने पर ही सुख दुःख का कारण वनती है, न किये जाने पर कभी नही।
७४३ जो दुखोत्पत्ति के कारण को नहीं समझता वह उस के निरोध का कारण कैसे जान सकेगा ?
१६
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मोक्ष
७४४ खेमं च सिवं अणुत्तरं
७४५ सुद्धण उवेति मोक्खं
७४६ सव्व सग विनिम्मुक्को सिद्ध भवई नीरए
७४७ सिद्धो हवइ सासमो
७४८
अन्नाग मोहस्स विवज्जणाए एगन्त खोक्ख समुवेइ मोक्खं
७४६
मोक्खसन्भूय साहणा नाण च दसरण चेव चरित्तचे
७५० अगुणिस्स नत्थिमोक्खो
७५१ नत्यि अमोक्खस्स निव्वाण
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मोक्ष
७४४ मोक्ष शिव स्वरूप है, और श्रेष्ठ है।
७४५ शुद्ध आत्मा मोक्ष को प्राप्त करती है।
७४६ सभी प्रकार के सग से विनिर्मुक्त होती हुयी सिद्ध आत्मा कर्म रहित हो जाती है।
७४७
सिद्ध प्रभु शाश्वत होते हैं ।
७४८ अज्ञान रूपी मोह के विवर्जन से एकान्त मोक्ष सुख को प्राप्त करता है।
७४६ मोक्ष के सदभूत साधन ज्ञान दर्शन और चारित्र है।
७५० मगुणी का मोक्ष नही है।
७५१ कों से अमुक्त के लिए निर्वाण नही है ।
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२४४ भगवान महावीर की सूक्तियां
७५२ डहरे य पाणे वुडढेय पारणे, ते अत्तो पासइ सव्वद उन्हइ लोगमिणं महन्तं, बुद्धो पमत्तेसु परिव्वएप
७५३
जे अणण्णारामे से अणत दसी
७५४
अरई आउट्टे से मेहावि खवंसि मुक्के
७५५ आयाण निसिद्धा सगन्भि
७५६ पच्छाविते पयाया खिप्प गच्छन्ति अमरभवणाई नेसिपिनो तवोसजमो य, खंति अ बंभ चेरं च
७५७
नारण च दसरण चेव चरित्त च तवो तहा, एस मग्गुत्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वर दरिसिहि ।
७५८ विगि च कम्मणो हेऊँ जस सचिणु खंतिए, सरीर पाढवं हिच्चा उड्ढ पकमई दिसं ।
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अध्यात्म मौर वर्शन (मोक्ष) २४५
७५२
जो संसार के सब प्राणियो को आत्मवत् देखता है, ससार को अशाश्वत समझता है और अप्रमत्त भाव से सयम मे रहता है वही मोक्ष का अधिकारी है।
७५३ जो साधक मोक्ष के अतिरिक्त कही भी रूची नही रखता वही अटल श्रद्धा वाला माना गया है।
७५४ जो साधक अरति को दूर रखता है, वह क्षण भर मे मुक्त हो जाता है।
७५५
भावि कर्मों का आश्रव रोकने वाला साधक पूर्व सचित कर्मों का भी क्षय कर देता है।
७५६
जो ढलति हुयी उम्र मे भी संयम के मार्ग मे चल पडते हैं, और तप संयम क्षमा तथा ब्रह्मचर्य को प्रिय समझ कर उनमे रमण करते हैं, वे भी अमरत्व को प्राप्त हो जाते हैं।
७५७ सर्वदर्शी ज्ञानियो ने ज्ञान दर्शन चारित्र और तप को ही मोक्ष का मार्ग बतलाया है।
७५८ कर्म बन्ध के कारणो को ढूढो, उनका छेद करो, और फिर क्षमादि के द्वारा अक्षय यश का सचय करो साधक पार्थिव शरीर को छोड़कर सद्गति को प्राप्त करता है।
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71
२४६ भगवान महावीर की सूक्तियां
७५६
नादंसणिस्स नाणं नागेण विणा न हुति चरण गुरणा, अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वारणं ।
७६०
जया संवर मुक्किट्ठ धम्मं फासे अणुत्तर, तया घुराइ कम्मरयं अबोहि कलुस कडं ।
७६१
जया जोगे निरुभित्ता सेलेसि पड़िवज्जई, तया कम्मं खवित्तारणं सिद्धि गच्छइ नीरश्र ।
७६२
जयाकम्मं खवित्ताणं सिद्धि गच्छई नीरो, तया लोगमत्थयत्थो सिद्धो हवइ सासनो ।
७६३
छिदिज्ज सोय लहुभूयगायी
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आध्यात्म र दर्शन (मोक्ष) २४७
७५६
श्रद्धा हीन को ज्ञान नही होता है, ज्ञान हीन को आचरण नही होता आचरण हीन को मोक्ष नही मिलता, और मोक्ष पाये बिना निर्वाण-पूर्ण गान्ति नही मिलती ।
७६०
जब साधक उत्कृष्ट एव अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है, तब आत्मा पर से अज्ञान कालिमा जन्य कर्म रज को झाड देता है । ७६१ जब मन, वचन और शरीर के योगो का निरोध कर आत्मा शैलेशी अवस्था को पाती है पूर्णत स्पन्दन रहित हो जाती है तब कर्मों का क्षय कर सर्वथा मल रहित होकर मोक्ष को प्राप्त होता है ।
७६२
जब आत्मा समस्त कर्मो का क्षय कर सर्वथा मल रहित होकर मोक्ष को पा लेती है, तव लोक के अग्रभाग पर स्थित होकर सदा के लिए सिद्ध हो जाति है ।
७६३
शीघ्र ही मोक्ष में जाने की इच्छा रखने वाला साधक सताप को दूर रखे ।
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भिक्षाचरी
७६४ जहा दुमस्स पुफ्फेसु, भमरो प्रावियइ रस । ण य पुष्फ किलामेइ, सोय पीरणेड अप्पयं ।।
७६५ एमे ए समणा मुत्ता, जे लोए सति साहुणो । विह गमा व पुप्फेसु, दाणभत्ते सणे रया ।।
अलामुत्ति न सोएज्जा, तवोत्ति अहियासए
७६७ समुयाणं चरे भिक्कू कुलमुच्चावयं सया । नीय कुलमइक्कम्म, ऊसढ नाभिधारए ।।
न चरेज्ज वासे वासंते महियाए वा पड तिए । महावाए व वायंते तिरिच्छ सपाइमेसुवा ।।
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भिक्षाचरी
७६४ जिस प्रकार भ्रमर वृक्ष के फूलो से थोड़ा-थोडा रस पीता है, किसी पुष्प को म्लान नही करता और अपनी आत्मा को सन्तुष्ट कर लेता है।
उसी प्रकार लोक मे जो मुक्त श्रमण-साधु है, वे दाता द्वारा दिए गए दान आहार और एपणा मे रत रहते हैं, जैसे भ्रमर पुष्पो मे।
भिक्षु को यदि नियमानुसार निर्दोष आहार न मिले तो दु ख न करे, किन्तु “सहज ही तप होगा" ऐसा मानकर क्षुधा आदि परिषहो को सहन करे।
७६७ साधु सदा धनवान और गरीब घरो की भिक्षा करे, वह निर्धन कुल का घर समझकर, उसे टालकर धनवान के घर न जाए।
७६८ वर्षा वरस रही हो, कुहरा छा रहा हो, आधी चल रही हो
और मार्ग मे जीवजन्तु उड़ रहे हो, ऐसी स्थिति मे साधु भिक्षा के लिए अपने स्थान से वाहर न निकले।
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२५० भगवान महावीर की सूक्तियाँ
७६६ अलद्ध य नो परिदेव एज्जा लद्ध न विकत्थयई स पुज्जो
७७० महुघयं व भुजिज्ज संजए
७७१ भारस्स जामा मुरिण भुज्जएज्जा
७७२ पक्खी पत्तं समादाय निखेक्खो परिव्वए
७७३
न रसट्ठाए भुजिज्जा जवणठाए महामुणी
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श्रध्यात्म और दर्शन (मिक्षाचरी) २५१
७६६
भिक्षा न मिलने पर जो खेद प्रकट नही करता और मिलने पर प्रशसा नही करता, वह पूज्य है ।
७७०
सरस या निरस जैसा भी आहार समय पर उपलब्ध होजाय, साधक उसे 'मधुघृत' की तरह प्रसन्न चित्त से खाए ।
७७१
मुनि संयम निर्वाह के लिए आहार ग्रहण करे ।
७७२
मुनि पक्षी की भांती कल की अपेक्षा न रखता हुआ पात्र लेकर भिक्षा के लिए परिभ्रमण करे ।
७७३
मुनि स्वाद के लिए न खाए, बल्कि जीवन निर्वाह के लिए खाए ।
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उपदेश
७७४ भूएहिं न विरुज्झेज्जा
७७५
मियं कालेणभक्खए
७७६ जं सेयं त समायरे
ওওও कखे गुणे जाव सरीर भेउ
ওওও
जं किच्चाणिव्वुड़ा एगे निट्ठ पावंति पंड़िया
ওও कालेकाल समायरे
७८० दिहिं निव्वेयं गच्छिज्जा
७८१
अच्चे ही अणुसास अप्पयं
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उपदेश
७७४ प्राणियो के साथ वैरभाव मत रक्खो।
७७५ समयानुसार परिमित भोजन करो।
७७६ जो कल्याणकारी है उसीका आचरण करो।
७७७
शरीर समाप्ती के अन्तिम क्षण तक भी गुणो की आकाक्षा करते रहो।
७७८
सत् आचरण को करके अनेक निवृत्त हुए हैं। उसी आधार से पण्डित सिद्धि को प्राप्त करते हैं ।
काल क्रम के अनुसार ही जीवन व्यवहार को चलावे।
७८० विरोधी उपदेशो से उदासीनता ग्रहण करलो ।
७८१ त्यागी अपनी आत्मा को अनुशासित करें।
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२५४ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
७८२ पिय मपिय कस्सइ णो करेज्जा
७८३ सोय परिणायचरिज्जदेते
७८४ जं मयं सव्व साहूण त मयं सल्ल गत्तरणं
७८५ तमेव सच्च नीसंक जं जिणेहिं पवेइयं
७८६ वण्गजरा हरइ नरस्स
७८७
जरोवरणीयस्स हु नत्थि ताणं
७८८
न सिया तोत्त गवेसए
७८४ दव दवस्स न गच्छेज्जा
७६० अकप्पिय न गिण्हिज्जा
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अध्यात्म और दर्शन (उपदेश) २५५
७८२ प्रिय अप्रिय सभी शातिपूर्वक सहन करो।
७८३ सयमी निरवद्य आचारका ज्ञान करे तदनुसार आचरण करें।
७८४ जो सिद्धान्त सभी साधुओ द्वारा मान्य है वही सिद्धान्त शल्य को छेदने वाला है।
७८५ सत्य और नि गंक उसी को समझो जो कि वीतराग देव द्वारा कहा गया है।
७८६ बुढापा मनुष्य के वर्ण को हरण कर लेता है।
७८७
बुढापे को प्राप्त हुए जीव के लिए निश्चय ही रक्षा का साधन नहीं है।
७८८ पर छिद्रो के ढूढ़ने वाले मत बनो।
७८९ जल्दी जल्दी धब धब करके नही चलें ।
७६० अकल्पनीय ग्रहण नहीं करें।
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२५६ भगवान महावीर की सूक्तियां
७६१ सव्वत्थ विरति कुन्जा
७६२ प्रज्जाई कम्माइं करेहि
७६३ रस गिद्धे न सिया
७६४ कुम्मुव्व अलीण पलीण गुत्तो
७६५ हसंतो नाभिगच्छेज्जा
७६६ निवारण संघए मुणि
७६७ अणुसासण मेव पक्कमे
७९८ छिन्न सोए अममे अकिंचणे
७६६ संकठ्ठाणं विवज्जए
८००
खणं जाणाहि पण्डिए
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अध्यात्म और दर्शन (उपदेश) २५७
७६१ सब जगह संवर का याचरण करो।
७६२ श्रेष्ठ कामो को करो।
७९३ रम मे गृद्ध वाले मत बनो ।
७६४ गुरु आदि के आश्रय मे रहता हुआ कछुए के समान अपनी इन्द्रियो को और मन को संयम मे रखने वाला बने ।
७६५ हंसता हुआ नही चले।
७६६
मुनि निर्माण को ही सावे ।
ওও भगवान की आज्ञा मे ही प्रराक्रम शील हो ।
७६८ आत्मार्थी छिन्न शोक वाला, ममता रहित और अकिंचन धर्म वाला होवे।
७६१ शका के स्थान को छोड दो।
८०० हे आत्मज्ञ | समय के मूल्य को पहचानो।
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प्रशस्त
८०१ नो लोगस्सेसणं चरे
८०२ बुद्धा धम्मस्स पारगा
८०३
प्राणाए अभिसमेच्चा अकुप्रोभयं
८०४ आवट्ट सोए सग मभिजाणाई
८०५ भाव विसोहीए निव्वाण मभिगच्छई
८०६ सघ पाउमस्सभ समणगण सहस्स पत्तस्स
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प्रशस्त
८०१ लोकानुसार आचरण मत करो।
८०२
बुद्ध ज्ञानी धर्म के पार पहुंचे हुए होते हैं ।
८०३
जैसा वीतराग देव ने फरमाया है तदनुसार जो आचरण करता है उसको संसार का भय कैसे हो सकता है ?
८०४ जो सम्यग्दर्शी है वह आवर्त यानी जन्म जरा मरण रूप संसार को भलीभांति जानता है ।
८०५ भावो की विशुद्धि से निर्ममत्व भावना मोक्ष की प्राप्ति होती है।
८०६ श्री सघ कमल रूप है जिसके हजारो साधुरूपी सुन्दर पन्त लगे हुए हैं, ऐसा श्री सघ का हमेशा कल्याण हो ।
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स्नेह सूत्र
५०७
निबद्धो नाइ संगेहिं हत्थी वा वि नवग्गेहे ।
८०८ ए ए सगा मणूसाण पायाला व अतारिमा ।
८०६ त च भिक्खू परिन्नाय सव्वे सगा महासवा ।
८१०
विजहित्तु पुव्वसंजोग न सिणेह कहंचि कुविज्जा।
५११ वोच्छिद सिणेहमप्पणो कुमुग्रं सारईयं व पाणियं ।
८१२ असिणेह सिणेह करेहिं ।
८१३
नेहपासा भयंकरा ।
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स्नेह सूत्र
८०७ स्नेह पाश में बंधे हुए मुनि की स्वजन उसी तरह चोकसी रखते हैं जिस तरह नए पकडे हुए हाथी की।
८०८ माता, पिता, आदि का स्नेह सम्बन्ध छोडना उसी तरह कठिन है जिस तरह समुद्र को पार करना ।
८०९ मुनि संसर्ग को ससार का कारण समझ कर उसका परित्याग कर देवें।
८१० पूर्व संयोगों को छोडकर फिर किसी भी वस्तु में स्नेह न करें।
८११ जैसे शरदऋतु का कुमुद जल मे लिप्त नही होता, वैसे तूं भी अपने स्नेह को छोड़कर निर्लिप्त बन ।
८१२ जो तेरे से स्नेह करता है, उससे भी तूं नि स्नेह भाव से रह ।
स्नेह के वन्धन भयकर हैं।
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८१४
अणारणाय पुढा वि एगे नियंति
मदा मोहेण पाउड़ा
८१५
वितहं पप्पऽखेयन्ने तम्मि ठाणम्मि चिट्ठइ ।
८१६ अल बालस्स संगणं
८१७ सुत्ता अमुणी मुणिणो सया जागरन्ति
८१८
लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं
८१६ अंधो अंध पह णितो दूरमद्धाणुगच्छइ
८२० जहा अस्साविरिंग णावं जाइप्रंधो दुरुहिया इच्छइ पारमागंतु अंतराय विसीयई
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अज्ञान
८१४
मोहाच्छन्न अज्ञानी साधक संकट आने पर, धर्म शासन की अवज्ञा कर फिर संसार की ओर लोट पडते है ।
८१५
अज्ञानी सावक जब कभी असत्य विचारो को सुन लेता है तो वह उन्ही मे उलझ कर रह जाता है ।
८१६
अज्ञानी का सग नही करना चाहिए ।
८१७
अज्ञानी सदा सोये रहते हैं और ज्ञानी सदा जागते रहते है ।
८१८
यह समझ लिजीए कि संसार मे अज्ञान तथा मोह ही अहित और दु.ख करने वाले है ।
८१६
अधा अधे का पथ प्रदर्शक बनता है तो वह अभीष्ट मार्ग से दूर भाग जाता है |
८२०
अज्ञानी साधक उस जन्मान्ध व्यक्ति के समान है जो सछिद्र नौका पर चढकर नदी किनारे पचहुँना तो चाहता है पर किनारा आने के पहले ही प्रवाह मे डूब जाता है ।
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२६४ भगवान महावीर की सूक्तियां
८२१ बाले पापेहिं मिज्जती
८२२ इनो विद्धं समाणस्स पुणो सबोही दुल्लभा
८२३
अन्नाणि किं काही कि वा नाहो सेय पावग
८२४ जीवाजीवे अयाणंतो कहं सो नाही संवरं ?
८२५ जावतड विज्जापुरिसा सव्वे ते दु:ख संभवा लुप्पति बहूसो मूढ़ा ससारम्मि अणतए
८२६ आसुरीय दिसं बाला गच्छति अवसातमं
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अध्यात भार ५॥ [Iny in
८२१ अज्ञानी आत्मा पाप करके भी उस पर अहकार करता है।
८२२ जो अज्ञान के कारण पथभ्रष्ट होगया है उसे फिर भविष्य में सवोधि मिलना कठिन है।
८२३ अज्ञानी आत्मा क्या करेगा ? वह पुण्य और पाप को कैसे जान पाएगा?
८२४ जो न जीव और अजीव को जानता है वह सयम को कैसे जान पाएगा?
८२५ जितने भी अज्ञानी तत्व बोध हीन पुरुष हैं, वे सब दुःख के पान्त हैं । इस अनन्त ससार मे वे मूढ़ प्राणी बार-बार विनाश को प्राप्त होते रहते है।
अज्ञानी जीव विवश हुए अंधकाराच्छन्न आसुरी गति को प्राप्त होते हैं।
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अप्रमाद
८२७
जे पमत्ते गुणट्ठिए से हु दंड़े त्ति पवुच्चति
८२८ तपरिणाय मेहावी इयाणि णो जमह पूवमकासी पमाएरणं
८२६ अतर च खलु इमं संपेहाए धोरे मुहुत्तमविणो पमायए
८३० अलं कुसलस्स पमाएणं
८३१
सव्वप्रो पमत्तस्स भयं सव्वश्रो अपमत्तस्स नत्थि भय
उट्ठिए नो पमायए
८३३ पमायं कम्ममाहंसु अप्पमायं तहावर
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अप्रमाद
८२७ जो प्रमत्त है विषयासक्त हैं वह निश्चित ही जीवो को दण्ड देने वाले होते हैं।
८२८ मेधावी साधक को आत्मज्ञान द्वारा यह निश्चय करना चाहिए। कि मैने पूर्व जीवन मे प्रमाद वश जो कुछ भूले की हैं वे अब कभी नही करूगा।
८२९ अनन्त जीवन प्रवाह में मानव जीवन को बीच का एक सुअवसर जान कर धीर साधक मुहूर्त भर के लिए भी प्रमाद न करे।
८३० वुद्धिमान साधक को अपनी साधना मे प्रमाद नही करना चाहिए।
प्रमत्त को सब ओर भय रहता है अप्रमत्त को किसी ओर भी भय नहीं रहता है।
५३२ उठो प्रमाद मत करो।
८३३
प्रमाद को कर्म, आश्रव और अप्रमाद को अकर्म, संवर कहा है।
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२६८ भगवान महावीर को सूक्तियां
८३४ जे छेय से विप्पमाय न कुज्जा
८३५ जे ते अप्पमत्ते संजया ते णं नो पायारंभा, नो परारंभा जाव अणारभा।
८३६ अप्पमत्तो जये निच्चं
८३७
घोरा मुहुत्ता प्रबलं सरीरं भारड़ परखीव चरेऽप्पमत्ते
८३८
सत्तेसुयावि पडिबुद्ध जीवी
८३६ धीरो मुहत्तमपिणो पमायए वो अच्चेइ जोव्वणं च
८४० समयं गोयम मा पमायए
८४१ असंखयं जीवियं मा पमायए
८४२ वित्तण ताण न लभे पमत्त
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मध्यात्म और दर्शन (अप्रमाद) २६६
५३४ चतुर वही है जो कभी प्रमाद न करे,
८३५ आत्म-साधना मे अप्रमत्त रहने वाले साधक न अपनी हिंसा करते हैं न दूसरो की वे सर्वथा अनारभ अहिसक रहते हैं।
सदा अप्रमत्तभाव से साधना मे यत्न शील रहना चाहिए ।
८३७ समय बड़ा भयकर और इधर प्रतिक्षण जीर्ण शीर्ण होता हमा, शरीर है अत अप्रमत्त होकर भारड़पक्षी की तरह विचरण करना चाहिए।
८३८
जागत साधक प्रमादी के बीच भी सदा अप्रमादी रहता है।
८३६ वीर ! एक मुहुर्त का भी प्रमाद मत कर, तेरी आयु वीत रही है और यौवन ढल रहा है।
८४० है गौतम ! क्षणमात्र का प्रमाद मतकर ।
८४१ जीवन क्षणभगुर है अतः क्षणभर भी प्रमाद मत करो।
८४२ प्रमादी धन के द्वारा अपनी रक्षा नही कर सकता।
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२७० भगवान महावीर की सूक्तिया
८४३ विप्पमायं न कुज्जा
८४४ जोवो पमाय बहुलो
८४५ नाणी नो .पमाए कयाइ वि
८४६ अप्पारण रक्खी चरे अप्पमत्तो
८४७ से यं खु मेयं ण पमोय कुज्जा
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अध्यात्म और दर्शन ( श्रप्रमाद ) २७१
८४३
प्रमाद मत करो ।
८४४
स्वभाव से ही जीव बहुत प्रमादी है ।
८४५
ज्ञानी कभी भी प्रमाद नही करें।
८४६
अपनी आत्मा की रक्षा करने वाला अप्रमादी होता हुआ विचरे ।
८४७
इसमे मेरा ही कल्याण है ऐसा विचार कर प्रमाद का सेवन न करें ।
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अनासक्ति
८४८
प्रासं च छदं च विगिच धीरे, तुमं चेव सल्लमाहठु
८४६ जहा जुन्नाइ कठ्ठाइं हव्ववाहो पमत्थइ एव अत्त समाहिए अणिहे
८५० सव्वत्थ भगवया अनियाणया पसत्था
८५१ कामे कमाही कमियं खु दुक्ख
८५२ असंसत्तं पलोइज्जा
८५३
कन्नसोक्खेहि सद्देहिं पेमं नाभिविवेसए
८५४
इह लोए निप्पिवासस्स नत्थि किंचि वि दुक्कर
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अनासक्ति
८४८ हे धीर पुरुष । आशा, तृष्णा और स्वच्छन्दता का त्याग कर। तू स्वय ही इन काटो को मन मे रखकर दुखी हो रहा हैं।
८४६ जिस प्रकार अग्नि पुराने सूखे काष्ठ को शीघ्र ही भस्म कर डालती है, उसी तरह सतत अप्रमत्त रहने वाला साधक कर्मों को कुछ ही क्षणो मे क्षीण करदेता है ।
८५० भगवान ने सर्वत्र निष्कामता को श्रेष्ठ बतलाया है।
८५१ कामनाओ को दूर करना ही दुःखो को दूर करना है।
८५२ किसी भी वस्तु को ललचाही आंखो से न देखें।
८५३ केवल कर्णप्रिय तथा तथ्यहीन शब्दो मे अनुरक्ति नही रखनी चाहिए।
८५४
जो व्यक्ति ससार की तृष्णा से रहित है उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है।
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मनोनिग्रह
८५५ नो उच्चावयं मरण नियछिज्जा
८५६ मणं परिजाणइ से निग्गथे
८५७ अदीण मणसो चरे
८५८ संकाभित्रो न गच्छेज्जा
८५६ मणोसाहस्सियो भीमो दुट्ठस्सो परिधावई त सम्मं तु निगिण्हामि धम्म सिक्खाइ कन्थ
८६० मणगुत्तयाएण जीवे एगग्ग जणयइ
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मनोनिग्रह
८५५ संकट में मन को ऊंचा नीचा अर्थात् डावाडोल नही होने देना चाहिए।
८५६ जो अपने मन को अच्छी तरह से परखना जानता है, वही सच्चा निर्ग्रन्थ साधु है।
८५७ ससार मे अदीन भाव से रहना चाहिए ।
८५८ जीवन मे भयभीत होकर मत चलो।
६५६ यह मन वडा ही साहसिक भयकर दुष्ट घोडा है जो वडी तेजी के साथ दौड़ता रहता है । मैं धर्मशिक्षा रूप लगाम से उस घोडे को अच्छी तरह से वश मे किए रहता हूँ।
८६० मनोगुप्तता से जीव एकाग्रता को प्राप्त होता है।
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रागद्वेष
८६१ दुविहे बंधे, पेज्जबंधे चेव दोस बंधे चेव
८६२ रागोय दोषोय बिय कम्मबीय कम्मं च मोहप्पभवं वयंति कम्मं च जाइमरणस्समूलं दुक्खं च जाइमरणं वयंति
८६३ रागस्स हेऊँ समणुन्नमाहु दोसस्स हेऊं श्रमणुन्नमाहु
पेज्जवत्तिया मुच्छा दुविहा माए चेव लोहे चेव
८६५ वेराणुबधीणिभयव्भयारिण
छिंदाहि दोसं विणएज्जरागं
८६७ रागदोसा दयोतिव्वा नेहपाया भयंकरा
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रागद्वेष
८६१
वन्धन दो प्रकार के हैं, प्रेम का वन्धन और द्वेष का बन्धन ।
राग और द्वेष ये दोनो कर्म के बीज हैं । कर्म मोह से उत्पन्न होता है, कर्म ही जन्ममरण का मूल है, और जन्म मरण ही वस्तुतः दुःख है।
८६३ मनोज्ञ शब्द आदि राग के हेतु होते हैं, और अमनोज्ञ द्वेष के हेतु हैं।
५६४ रागवृत्ति से सम्बन्धित मूर्छा दो प्रकार की है, माया सम्बन्धी और लोभ सम्वन्धी।
वैर का अनुबंध महान् भय वाला होता है ।
८६६ द्वेष को काट डालो और राग को हटादो।
८६७ रागद्वेष आदि मोहपाश तीव्र है और भयंकर हैं।
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पापपुण्य
८६८
पावोगहा हि आरंभा दुक्खफासाय अंतसो
८६६
इहलोगे सुचिन्नाकम्मा इहलोगे सुहफलविवागसंजुत्ताभवति
इहलोगे सुचिन्ना कम्मा परलोगे सुहफल विवाग संजुत्ताभवंति
८७०
सव्वं सुचिणं सफल नराणां
८७१
पावा अप्पारण निवट्टएज्जा
८७२
पिहियासव्वस्सदंतस्स, पाव कम्मं न बंधइ
८७३
पावकम्म, नेव कुज्जा न कारवेज्जा
८७४
पावाइं मेहावी ग्रज्झप्पेण समाहरे
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पापपुण्य
८६८ पापानुष्ठान अन्ततः दुःख ही देते हैं ।
८६६ इस जीवन मे किए हुए सत्कर्म इस जीवन मे सुखदायी होते है और इस जीवन में किए हुए सत्कर्म अगले जीवन मे भी सुखदायी होते हैं ।
८७०
मनुष्य के सभी सत्कर्म सफल होते हैं ।
८७१ पाप से आत्मा को लौटादो।
८७२ जिसने आश्रव को रोक दिया है, और जो इन्द्रियो का दमन करने वाला है उसके पाप कर्म नही वधा करते है ।
८७३ पापकर्म न तो करे न करावें।
८७४ मेधावी आत्मा ध्यान द्वारा ही पापो को दूर कर देता है ।
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+
मानव जीवन
८७५
तोठारण देवे पिज्जा माणुस्तं भवं आरिएखेत्ते जम्मं सुकुलपच्चायांति
८७६
चत्तारि परमंगारिण, दुल्लहारणीह जन्तुरणो माणुसत्तं सुइ श्रद्धा, सजमम्मिय वीरियं
८७७
माणुसत्तं भवे मूलं, लाभो देवगइ भवे मूलच्छेयेण जीवाण, नरकतिरिक्खत्तणं धुव
८७८
दुल्लहे खलु माणुस्से भवे
८७६
जीवा सोहि मणुपत्ता प्राययति मणुस्सय
ܘܟܟ
पुव्वकम्मखयट्ठाए, इम देह समुद्धरे
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मानव जीवन
८७५
देवता भी तीन बातो को चाहते हैं-मनुष्य जीवन, आर्य क्षेत्र मे जन्म और श्रेष्ठ कुल की प्राप्ति ।
८७६
इस संसार मे मानव को चार अग मिलने अत्यन्त कठिन हैं मनुष्यत्व, धर्म का सुनना, सम्यक् श्रद्धा और संयम मे पुरुषार्थ ।
८७७ मनुष्य जीवन मूल धन है, देवगति उसमे लाभ है, मूल धन के नाश होने पर नरक तिर्यञ्च गति रूप हानि होती है।
८७८
मनुष्य जन्म निश्चय ही वडा दुर्लभ है।
८७६ संसार में प्रात्माएं क्रमश. विकाश को प्राप्त करते करते मनुष्य भव को प्राप्त करती हैं ।
८८० पूर्व संचित कर्मों के क्षय के लिए ही यह देह धारण करनी चाहिए।
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अभय
८५१ दाणाण सेठं अभयप्पयारणं ण भाइयव्वं भीतं खु भया अइति लहुयं
८८२
P
८८३ भीतो अबितिज्जोमणुस्सो
८८४ भीतो भूतेहिं घिप्पइ
८८५ भीतो अन् पि हु भेसेज्जा
८८६ भीतो तव सजम पि हु मुएज्जा भीतो य भर न नित्थरेज्जा
८८७ न भाइयव्वं भयस्स वा वाहिस्स वा रोगस्स वा जराए वा मच्चुस्स वा
८८८ दाणाणं चेव अभय दारणं
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८८१
दानो मे श्रेष्ठ अभय दान है ।
अभय
८८२
भय से डरना नही चाहिए । भयभीत मानव के पास भय शीघ्र आते हैं ।
८८३
भयभीत मनुष्य किसी का सहायक नही हो सकता ।
८८४
भयाकुल मानव ही भूतो का शिकार होता है ।
८८५
स्वयं डरा हुआ व्यक्ति दूसरो को ज़रा देता है ।
८८६
भयभीत व्यक्ति तप और सयम की साधना छोड़ बैठता है भयभीत किसी भी दायित्व को निभा नही सकता है ।
८८७
आकस्मिक भय से, व्याधि से, रोग से, बुढापे से और तो क्या मृत्यु से भी कभी डरना नही चाहिए ।
८८८
सब दानो मे अभय दान श्रेष्ठ है ।
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अधर्म
८८६
अहम्मं कुरण माणस्स अफला जन्ति राइश्रो
८६०
पड़न्ति नरए घोरे जे नरा पावकारिणो
८६१
असंसत्तं पलोइज्जा
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अधर्म
८८९
अधर्म कार्य करने वाले की रात्रियां निष्फल ही जाती हैं।
८६० जो मनुष्य पाप कारी हैं वे घोर नरक में पढ़ते है ।
८६१ आसक्ति पूर्वक किसी के ओर मत देखो।
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अनिष्ट प्रवृत्ति
८६२
संतप्पती साहुकम्मा
८६३
दुक्खी इह दुक्कड़ेण
८६४
आसयण नत्थि मुक्खो
८६५
असेकरी अन्नेसी इंखिणी
८६६ इंखिणिया उपाविया
८६७
वेरा बद्धा नरय उवेति
८६८
सप्पहास विवज्जए
5&E
मिच्छ दिट्टी भरणा रिया
ܘܘ
रिणद्दं पि नोपगामाए
६०१
पाणापाणे किले सति
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अनिष्ट प्रवृत्ति
८९२ असाधुकर्मी महान् ताप भोगता है।
८६३ यहा पर प्राणी दुष्कृत्यो से ही दुःखी होता है।
८६४ अशातना मे ( आज्ञा भग मे ) मोक्ष नही है।
८९५ दूसरो की निंदा अश्रेयस्कारी ही है।
८९६ निन्दा ही पाप-है।
८६७ वैर भावना मे वधे हुए नरक को प्राप्त होते हैं।
८९८ हसीवाली (पाप क्रिया को) छोड दो।
८६६ मिथ्या दृष्टि वाले अनार्य हैं ।
8००
बहुत निद्रा भी मत लो।
६०१ प्राणी ही प्राणियो को क्लेश पहुचाते हैं।
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कामादि
६०२ अवभ चरित्र घोर
१०३ इत्थी वसं गयावाला, जिण सासरण परम्मुहा
६०४ गिद्ध नरा कामेसु मुच्छिया
६०५ नो विहरे सहणमित्थीसु
१०६
अदक्खु कामाइं रोगव
न कामभोगा, समय उवेन्ति
१०८ कामभोगा विसं तालउड़
६०६ कामाणु गिद्धिप्पभव खु दुक्खं
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कासादि
६०२ अब्रह्मचर्य घोर पाप है।
९०३
जो वाल मूर्ख स्त्री के वश मे गए हुए हैं, वे जिनशासन से पगन्मुख हैं।
६०४
गद्ध मनुष्य काम भोगो मे मूच्छित होते हैं।
६०५ स्त्रियो के साथ विहार मत करो।
९०६ काम भोगो को रोग पैदा करने वाले ही देखो।
१०७ काम भोग वाले प्राणी शांति ( समता ) को नही प्राप्त कर सकते हैं।
९०८ काम भोग साक्षात् तालपुट विष के समान है।
९०६ दःख निश्चय ही काम भोगो मे अनुगद्ध होने से उत्पन्न होते हैं। १६
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२६० भगवान महावीर की सूक्तियां
९१०
दुज्जए काम भोगेय, निच्चसो परिवज्जए
६११ काम भोगे यदुच्चए
९१२ सत्ता कामेसु माणवा
६१३ भोगा इमे संग करा हवति
६१४ कामे संसार वढणे सकमाणोतणुचरे
९१५ खाणी अगत्थाय उ कामभोगा
६१६ सल्ल कामा विसकामा कामा पासी विसोवमा
६१७ कामा दुरतिक्कमा
६१८ कामभोगरसगिद्धा उववज्जन्ति :
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अध्यात्म और दर्शन (कामादि) २६१
९१० कठिनाई से छोड़ने योग्य इन काम भोगो को सदैव के लिए छोड़ दो।
९११ काम भोग कठिनाई से त्यागे जाते हैं।
६१२ मानव समाज काम भोगो मे आसक्त है।
ये भोग कर्मों की संगति कराने वाले होते हैं।
६१४ काम भोग ससार को बढ़ाने वाले है, ऐसा समझते हुए उन्हे पतला कर दें (क्षीण कर दें)।
काम भोग निश्चय ही अनर्थो की खान है ।
६१६ ये काम भोग शल्य के समान है विष के समान है, और विष वाले सर्प के समान हैं।
६१७
काम भोगो पर विजय प्राप्त करना बडा ही कठिन है।
जो काम भोगो के रस मे गृद्ध हैं, वे अन्त मे असुरकाया मे उत्पन्न होते हैं।
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२६२ भगवान महावीर की सूक्तियां
९१९ रुवेहि लुप्पंति भयावहेहि
६२० कामे कमाही कमियंखु दुक्खं
६२१ मूलमेय महमस्स
६२२ न बाहिरं परिभवे
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अध्यात्म और दर्शन (कामादि) २६३
९१६ भय लाने वाले रूप द्वारा ही प्राणी लुप्त होते है, विनाश को प्राप्त होते हैं।
९२० काम भोगो को हटादो, इससे निश्चय ही दुःख भी हट जायेगा।
६२१ यह काम भोग नीचता की जड़ है।
६२२ वाह्य व्यक्तियो को पराजित मत करो।
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बाल और पण्डित
६२३ एएसु बाले य पकुव्वमाणे आवट्टई कम्मसु पावएसु
१२४ तुलियारणं बालभावं, अबालं चेव पण्डिए चइउण बालभावं, अबालं सेवई मुणी
६२५ तिउद्दई उ मेहावी, जाणं लोगंसि पावगं तुट्ट ति पाव कम्मारिण नयंकम्ममकुव्वनो
९२६ न कम्मुणा कम्म खवेन्ति बाला, अकम्मुणा कम्म खवेन्तीधीर मेहावियो लोभ भयावतीता, संतोसिणो नो पकरेन्ति पावं
९२७
मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेणं तु मुंजए न सो सुयक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसि
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बाल और पण्डित
६२३
पृथ्वीकाय आदि जीवो के साथ दुर्व्यवहार करता हुआ बाल जीव पाप कर्मो मे लिप्त रहता है ।
६२४
पण्डित मुनि बाल और अवाल भाव की तुलना करे, और बाल भाव को छोड़ कर अबाल भाव का आचरण करे ।
२५
पाप कर्म को जानने वाला मेधावी पुरुष ससार मे रहते हुए भी पापो को नष्ट करता है । जो पुरुष नए कर्म नही बाधता उसके सभी पापकर्म नष्ट हो जाते हैं ।
२६
अज्ञानी प्रवृत्तिया तो काफी करते है, पर वे सभी कर्मोत्पादक होने से पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय नही कर पाती, जबकि ज्ञानी की प्रवृत्तिया सयम वाली होने से अपने पूर्व बद्ध कर्मो को क्षय कर सकती है । जो वस्तुत. लोभ और भय से दूर है और सन्तोष गुण से विभूषित होने से वे पाप वृत्ति नही करते ।
६२७
वाल जीव एक एक महिनो का त्याग करके दर्भ के अग्रभाग पर रहे उतने भोजन से पारणा करता है पर वह तिथंकर प्ररुपित धर्म की सोलवी कला को भी प्राप्त नही कर सकता ।
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२६६ भगवान महावीर की सूक्तियां
६२८ निच्चुट्विग्गो जहा तेणो, अत्त कम्मेहिं दुम्मई
तारिसो मरगते वि, न पाराहेइ संवरं
६.२६ वित्त पसवो य नाइओ, तं वाले सरणंति मन्नई एते मम तेसुवि अह, नो ताण सरण न विज्जई
६.३० बाल भावे अप्पाण नो उवदसिज्जा
६३१ न कम्मुणा कम्म खवेति बाला
६३२ असु मूढे अजरामरेव्वा
६३३ अन्नं जण खिसति बालपन्ने
६३४ न सरण बाला पड़िय मारिगणो
६३५ बाल जणो पगब्भइ
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अध्यात्म और दर्शन (वाम मोर पण्डित) २६७
६२८ जैसे चोर सदा भयभीत रहता है अपने कुकर्म के वजह से दुःख पाता है वैसे ही अज्ञानी मनुष्य भी अपने कुकर्मों के कारण दुख पाता है, मृत्यु का भय होने पर भी वह सयम की आराधना नही करता।
१२६ बाल जीव ऐसा मानता है कि धन, पशु तथा ज्ञाति जन मेरा रक्षण करेंगे। वे मेरे हैं मैं उनका हूँ परन्तु किसी प्रकार उनकी रक्षा नही होती अर्थात् आखीर मे उनको शरण नही मिलता।
९३० अपनी आत्मा को बालभाव मे नही दिखाना चाहिए ।
९३१ वालजन अज्ञानी अपने कार्यों द्वारा कर्म का क्षय नही कर सकते है।
मूढ आर्त ( आर्तध्यान सवन्धी कामो ) मे अजर अमर की तरह फसे हुए हैं।
९३३ वाल प्रज्ञ (मूर्खबुद्धिवाला) दूसरे मनुष्य की ही निंदा करता है।
६३४ अपने आपको पडित मानने वाले वालजन शरण रहित होते है।
६३५
वाल जन ही अभिमानी होता है।
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२६८ भगवान महावीर को सूक्तियां
बाले पाहि मिज्जती
९३७ सीयंति अबुहा
९३८ ममाइ लुप्पई बाले
६३६ मंदा मोहेण पाउज्जा
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अध्यात्म और दर्शन (बाल और पणित) २६६
९३६ मूर्ख पापो से डूबता है।
६३७ अज्ञानी मूर्ख दुःखी होते है ।
६३८
वाल आत्मा ममता से डूबता है।
लि आत्मा
।
मंद बुद्धि वाले ही मोह से ढके हुए होते है ।
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क्षमा
६४० खंति सेविज्ज पंडिए
९४१ खंतिएणं परिसहे जिणइ
९४२ खमावणयाए पल्हायण भावं जरण्यइ
१४३ पियमप्पियं सव्व तितिक्खयेज्जा
६४४ समता सव्वत्थ सूक्वते
९४५ समयं सया चरे
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क्षमा
६४० सज्जन पुरुप क्षमा का आचरण करें।
६४१ उच्च आत्मा क्षमा द्वारा परिषहो को जीतता है।
६४२
क्षमापन से प्रसन्नता के भाव पैदा होते हैं।
६४३ प्रिय अप्रिय सभी शाति पूर्वक सहन करो।
६४४ सुव्रती सर्वत्र क्षमा रक्खे ।
६४५ सदैव क्षमा का आचरण करो।
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गुरुशिष्य
६४६
हिरिमं पडिसंलीणे, सुविणीए ।
९४७ गुरुं तु नासाययई स पुज्जो
१४८ न या वि मोक्खो गुरु हीलणाए
६४६ कसं व दठुमाइण्णे, पावगं परिवज्जए।
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४६
जो शिष्य लज्जाशील और इन्द्रिय-विजेता होता है, वह
सुविनीत बनता है ।
जो
गुरुशिष्य
गुरु
६४७
की आशातना नही करता, वह पूज्य है ।
६४८
जो साधक गुरुजनो की अवहेलना करता है, वह कभी बन्धन से मुक्त नही हो सकता ।
४
जैसे विनीत घोडा चाबुक को देखते ही उन्मार्ग को छोड़ देता है, वैसे ही विनीत शिष्य गुरु के इंगित और आकार को देखकर अशुभ प्रवृत्ति को छोड दे ।
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इन्द्रिय निग्रह
६५० इदियाइं वसेकाउ, अप्पारणं उवसहरे।
९५१ न रागसत्तू धरिसेइ चित्तं, पराइनो वाहिरिवोसहेहिं ।
९५२ चरेज्ज भिक्खू सुसमाहि इंदिए ।
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इन्द्रिय निग्रह
६५० पाच इन्द्रियो को वश मे कर अपनी आत्मा का उपसंहार करना चाहिए। याने प्रमाद की ओर बढ़ती हुयी आत्मा को धर्म की ओर लाना चाहिए।
९५१ जसे उत्तम प्रकार की औषधि रोग को नष्ट कर देती है पुन. उभरने नहीं देती, वैसे ही जितेन्द्रिय पुरुप के चित्त को राग तथा विषय रूपी कोई शत्रु सता नही सकता।
९५२ मनि सर्व इन्द्रियों को सुसमाहित करता हुआ विचरण करे ।
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मृत्यु
९५३ ___ जहेह सिहो य मिग गहाय, मच्चू नरं नेड हु अन्तकाले ।
न तस्स माया व पिता य भाया, कालम्मि तम्म सहरा भवन्ति
६५४
इह जीविए राय असासयम्मि, धणियं तु पुण्णाइ अकुव्वमाणो से सोयई मच्चुमुहोवणीए, धम्म अकाऊण परंमि लोए ।।
६५५ जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं, जस्सवत्थि पलायणं जो जाणे न मरिस्सामि सोह कखे सुए सिया
माणुस्स च अणिच्च, वाहिजरामरणवेयणा पउरं
९५७ डहरावडा य पासह गब्भत्था वि चयन्ति माणवा सेरो जह वट्टय हरे, एव आउखयम्मि तुट्टई
१५८ पंडियाण सकाम मरण
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मृत्यु
६५३ जैसे सिंह मृग को पकड कर ले जाता है उसी प्रकार मृत्यु अन्त समय मे मनुष्य को पकडकर परलोक मे ले जाती है। उस समय उसके माता पिता भ्रात आदि कोई भी सहायक नही होता है।
९५४ हे राजन् । इस अशाश्वत जीवन मे पुण्य को न करने वाला जीव मृत्यु के मुख मे पहुँचकर सोच करता है और धर्म को न करने वाला जीव परलोक मे जाकर सोच करता है ।
६५५
जिसकी मृत्यु से मित्रता है जो मृत्यु से भाग सकता है जिसको यह ज्ञान है कि मैं नही मरूगा वही आगामी दिवस की आशा कर सकता है।
६५६ मनुष्यदेह क्षणभगुर है तथा व्याधि जरामरण और वेदना से पूर्ण है।
६५७ देखो ससार की ओर दृष्टिपात करो। बालक और वृद्ध सभी मरते है कई मनुष्यो का गर्भावस्था मे ही अवसान हो जाता है। जैसे वाझ पक्षी तीतर पर झपटा लगा के उसका सहार करता है उसी प्रकार आयुष्य का क्षय होते ही मृत्यु मनुष्य पर चोट लगाकर उसका प्राण हर लेता है।
६५८ पण्डितो का सकाम मरण होता है।
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परलोक
६५६ पच्छा वि ते पयाया, खिप्प गच्छन्ति अमरभवणाई । जेसि पियो तवो सजमो य, खती य बंभचेरं च ।
९६० तेणात्रि ज कय कम्म, सुह वा जइ वादुहं । कम्मुणा तेण सजुत्तो गच्छइ उ पर भवं ।
गार पि अावसे नरे, अणुपुत्वं पाणेहि सजए । समता सव्वत्थ सुब्बते, देवाण गच्छे स लोगय ।।
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परलोक
९५६ जिन्हे तप, सयम, क्षमा और ब्रह्मचर्य प्रियकर है, वे शीघ्र ही देवलोक को प्राप्त होते हैं। भले ही पिछली अवस्था में ही क्यों न प्रवजित हुये हों ?
उस मरने वाले व्यक्ति ने जो भी कम किया है-शुभ या अशुभ उसी के साथ वह परलोक मे चला जाता है।
६६१ गह मे निवास करता हुआ गृहस्थ भी यथा-शक्ति प्राणियों के प्रति दयाभाव रखे। सर्वत्र समता धारण करे, नित्य जिन वचन का श्रवण करे, तो वह मृत्यु के पश्चात् दिव्य गति मे उत्पन्न होता है।
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मोह
હ૬ર इत्थ मोहे पुणो पुणो सन्ना, नो हव्वाए नो पाराए
६६३ एगं विगिचमाणे पुढो विगिचइ
९६४ असकियाई सकंति, सकियाई असकिणो
जहाय अंडप्प भवा बलागा, अड़ बलागप्पभवं जहाय, एमेव मोहाययणं खू तण्हा, मोहं च तण्हाययणं वयंति
६६६ दुक्ख हयं जस्सन होई मोहो
६६७ मोहा विगई उवेइ
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६६२
बार बार मोह ग्रस्त होने वाला साधक न उस पार अर्थात न इस लोक का न
न इस पार रहता है
पर लोक का ।
मोह
६६३
जो मोह को क्षय करता है वह अन्य अनेक कर्म विकल्पो को क्षय करता है ।
९६४
मोहमूढ व्यक्ति जहा भय नही वहा भय करता है और जहा भय की आशका नही वहा करता है ।
६६५
जिस प्रकार वगुलि अण्डे से उत्पन्न होति है और अण्डा वगुलि से, इसी प्रकार मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है और तृष्णा मोह से ।
६६ जिसको मोह नही होता उसका दुख नष्ट हो जाता है ।
६६७
मोह से राम द्वेष रूप विकार उत्पन्न होता है ।
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*
* लेश्या
*
दुर्लभाग
*
अशरण
पढावश्यक
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दुर्लभांग
उत्तम धम्म सुई हु दुल्लहा
६६६ सुई धम्मस्स दुल्लहा
६७०
सदहणा पुणरावि दुल्लहा
६७१ सद्धा परम दुल्लहा
९७२ णो सुलभ वोहिं च पाहिय
६७३ सबोही खलु दुल्लहा
६७४ दुल्लहया कारण फासया
९७५ दुल्लहायो तहच्चामो
६७६ आयरिअत्त पुणरावि दुल्लहं
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दुर्लभांग
९६८ निश्चय ही उत्तम धर्म का श्रवण दुर्लभ है ।
धर्म सुनने का प्रसग मिलना दुर्लभ है ।
९७० पुन. पुन. श्रद्धा प्राप्त होना दुर्लभ है।
९७१ श्रद्धा परम दुर्लभ है।
६७२ सम्यकज्ञान सुलभ रीति से प्राप्त होने योग्य नहीं कहा गया है ।
६७३ सबोधी याने सम्यकज्ञान निश्चय ही दुर्लभ है ।
६७४ शरीर द्वारा धर्म का परिपालन किया जाना दुर्लभ है।
९७५ श्रद्धानुसार ही त्याग प्राप्ती भी दुर्लभ है ।
९७६
आचरण करना ही सब से अधिक दुर्लभ है।
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३१६ भगवान महावीर को सूक्तियां
ওও दुल्लभेऽयं समुस्सए
९७८ अहीण पचेंदियया हु दुल्लहा
६७४ नो सुलभं पुणरावि जीवियं
९८० जुद्धारिहं खलु दुल्लह
९८१ इनो विद्ध समाणस्स पुणो संबोहि दुल्लभा
१८२
बहुकम्म लेव लित्ताणं बोही होइ सुदुल्लहा
१८३ सुदुल्लह लहिऊं बोहिलाभ विहरेज्ज
९८४
मारणस्सं खु सुदुल्लह
hinde
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आर्य
प्राध्यात्म और दर्शन (दुर्लभांग) ३१७
६७८
परिपूर्ण पाचो इन्द्रियो की स्थिति प्राप्त होना दुर्लभ है ।
६७७
यह शरीर सपति दुर्लभ है ।
युद्ध
६७६
बार बार जीवन प्राप्त होना सुलभ नहीं है ।
६८०
याने कषायों से युद्ध करना बहुत ही दुर्लभ है ।
६८१
यहा से विध्वस हुयी आत्मा के लिए पुन ज्ञान प्राप्त होना दुर्लभ है ।
६८२
बहुत कर्मों के लेप से लिप्त प्राणियो के लिए सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति सुदुर्लभ है ।
६८३
सुदुर्लभ वोधिलाभ की प्राप्ति के लिए विचरण करें
६८४
मनुष्यत्व निश्चय ही सुदुर्लभ है ।
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श्या
६८५
किण्हानोलाय काउ य, तेऊ पम्हा तहेव य सुक्कलेसा य छठ्ठा य, नामाइ तु जहक्कमं
१८६
अंतमहत्तम्मि गए अत, मुहत्तम्मि सेसए चेव लेसाहि परिणयाहि, जीवागच्छन्ति परलोयं
६८७
तम्हा ए यासि लेसारण, अणुभावे वियारिया ग्रप्पसत्थान वज्जिता पसत्थाऽहिट्ठिएमुरणी
लेस
६८८
समाहट्टू परिवयेज्जा
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लेश्या
६८५ लेश्या छ है। उनके क्रम से नाम कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्या है ।
१८६ लेश्या की परिणति के वाद अन्तर्मुहुर्त के बीतने पर और अन्तर्मुहुर्त शेप रहने पर जीव परलोक मे जाता है।
९८७
इसलिए साधुलेश्या के अनुभव रस को जानकर अप्रशस्त लेश्याओ को छोडकर प्रशस्त लेश्या अगीकार करे
१८८
अशुभ लेश्या का परिहार कर के सयमशील होवे।
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प्रशरण
९८९ वित्त पसवो व नाइनो, त बाले सरणं ति मन्नई, एए मम तेसुवि, अहं नो तारण, सरणं न विज्जई
880 दाराणि सुया चेव मित्ता य तह बन्धवा जीवन्तमणु जोवन्ति मय नाणु वयन्तिय
९६१ जमिण जगई पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पंति पारिणणो । सयमेव केड़ेहि गाहई, नो तस्स मुच्चेज्जपुठ्ठयं ।
९६२ पुढो छदा इह माणवा पुढो, दुक्ख पवेइय
६६३ जहेह सीहोव मिय गहाय, मच्चु नर नेह हु अंतकाले न तस्स माया व पिया व भाया कालम्मि तस्स सहरा भवति
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प्रशरण
१८९ अज्ञानी मनुष्य धन पशु और जाति वालो को अपना शरण मानता है, और समझता है कि 'ये मेरे हैं । और मै इनका है" परन्तु इनमें से कोई भी अन्त मे त्राण तथा शरण देने वाला नहीं है।
९९० स्त्री, पुत्र, मित्र, वन्धुजन, सब कोई जीते जी के ही साथी है, मरने पर कोई भी साथ नही निभाता ।
९६१ संसार मे सव प्राणी अपने कृत कर्मों के द्वारा ही दुखी होते हैं । अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म है उसका फल भोगे विना पिंड नही छूटता।
88२ ससार मे लोग भिन्न भिन्न अभिप्राय वाले होते हैं, पर अपना अपना दुख सव को स्वय ही भोगना पडता है।
जैसे सिंह हिरण को पकड ले जाता है, उसी तरह अन्त समय मृत्यु भी मनुष्य को उठा ले जाती है । उस समय माता पिता भाई आदि कोई भी उसके दु.ख मे भागीदार नही बनते । २१
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३२२ भगवान महावीर की सूक्तियाँ
९६४ ससारमावन्न परस्स अठ्ठा, साहासरणं जं च करेइ कम्मं । कम्मस्स ते तस्स उ वेय काले, न बंधवा बधवयं उति ।।
६६५ वेया महीया न भवति ताणं भुत्तादिया निति तमं तमेणं जाया य पुत्ता न हवति ताणं, को नाम ते अणुमन्नेज्ज एयं
६६६ चिच्चादुपयं च चउप्पयं च, खेत्त गिहं धण धन्नं च सव्वं
कमप्पबीयो अवसो पयाई पर भवं सुन्दरं पावगं वा
६६७ जम्म दुःखं जरा दुःक्ख, रोगाणि मरणाणिय अहोदुक्खो हु संसारो जत्थ की सन्ति जन्तुणो
९९८ इमं शरीरं अणिच्चं, असुइ असुइसभव प्रसासया वा समिणं दुःख के साणभायणं
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अध्यात्म और दर्शन (मशरण) ३२३
संमारी मनुष्य अपने प्रियजनो के लिए बुरे से बुरे कर्म भी कर डालता है, पर जव उसका दुष्फल भोगने का समय आता है, तव अकेला ही दु ख भोगता है । कोई भी भाई वन्धु उसका दुख बटाने वाला नही होता है।
६६५ पढ़े हुए वेद तेरा त्राण नही कर सकते, जिमाए हुए बाह्मण अन्धकार से अन्धकार मे ले जाते हैं तथा पैदा किये हुए पुत्र भी, रक्षा नही कर सकते । एसी दशा मे कौन विवेकी पुरुष इन्हें स्वीकार करेगा।
१६६ दास, दासी, द्वीपद, घोड़ा, हाथी, चतुष्पद, क्षेत्र, गृह और धन घान्य सब कुछ छोडकर, विवशता की अवस्था मे प्राणी अपने कृत कमों के साथ अच्छे या बुरे परभव को चला जाता है।
६६७ जन्म जरा मरण रोग का दुःख है । अहो ! सारा ससार दुःखमय ही है । जब देखो तब प्रत्येक प्राणि क्लेश पा रहा है।
१८ यह शरीर अनित्य है, अशुचि है। अशुचि से उत्पन्न हुआ है, दुख और क्लेशो का धाम है। जीवात्मा का निवास अल्प है, अचानक छोड़ के जाना है।
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षड़ावश्यक
६६६
समाइएरणं भंते ? जीवे किं जणयई ? सामाइयेणं सावज्ज जोगविरइं जरणय इ
१०००
चउव्वीसत्थएणं भंते ? जीवे किं जणयई ? चउव्वीसत्थ एणं दंसरण विसोहि जणयइ ।
१००१
वंदयेणं भते ! जीवे कि जरणयइ ?
वंद एणं नियागोय कम्मं खवेइ, उच्चागोयं कम्मं निबंधइ सोहग्गं च ग अपड़िहयं श्ररणाफलं निव्वत्तेइ दाहिण भावं च रणं जरणयइ
१००२
पक्किमरणं भंते ? जीवे किं जरणयइ ? पक्किमणेण वयछिद्दाणि पिहेइ पिहियवय छिद्देपुण जीवे निरुद्धासवे प्रसबल चरिते अठ्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते पुहुत्ते सुप्परिगहिए विहरह
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षड़ावश्यक
सामायिक से जीव क्या पाता है ? सामायिक से जीव के सावद्ययोगो की निवृत्ति होती है।
१००० चतुर्विशतिस्तव करने से क्या फल होता है ? चतुर्विशतिस्तव से दर्शन विशुद्धि होती है।
१००१ हे भगवन् ! वन्दना करने से जीव क्या फल पाता है ? वदना से नीचगौत्र कर्म का क्षय होकर ऊ च गौत्र कर्म बघता है अविच्छिन्न सौभाग्य तथा आज्ञाफल प्राप्त करता है और विश्ववल्लभ होता है।
१००२ प्रतिक्रमण से जीव क्या फल पाता है ? इससे व्रत मे हुए छिद्रो को ढंकता है, फिर शुद्ध व्रतधारी होकर आश्रवो को रोकता है। आठ प्रवचन माता मे सावधान होता है । शुद्ध चारित्र पालता हुआ समाधि पूर्वक सयम मे विचरता है।
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३२६ भगवान महावीर को सूक्तियां
१००३ काउसग्गेणं भंते ! जीवे कि जणयई ? काउसग्गेणं तीयपडुप्पन्नपायछित्त विसोहेइ विशुद्ध पायच्छित्ते य जोवे निव्वुयहियए अोहरिय भरोव्व भारवहे पसत्थज्झाणोवगए सुहं सुहेण विहरइ ।
१००४ पच्चक्खाणेणं भंते । जीवे किं जरणयई ? पच्चक्खाणेणं आसवदाराई निरु भइ पच्चक्खाणेणं इच्छानिरोहं जणयइ इच्छानिरोहं गए य णं जीवे सव्वदब्वेसु विणीयतण्हे सीइभूए विहरइ ।
१००५ सूरोदए पासति चक्खुणेव
वो अच्चेति जोवणंच
१००७ चइज्ज देहं न हु धम्मसासण
१००८ आगाए धम्म
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अध्यात्म और वर्शन (षड़ावश्यक) ३२७
१००३ है भगवन ! कायोत्सर्ग का क्या फल है ? कायोत्सर्ग से भूत
और वर्तमान काल के अतिचारो की शुद्धि होती है । इस शुद्धि से बोझ रहित हल्का, निश्चिन्त और प्रशस्त ध्यान युक्त होकर सुखपूर्वक विचरता है।
१००४ हे भगवन । प्रत्याख्यान से जीव को क्या फल प्राप्त होता है ? प्रत्याख्यान से जीव आश्रवद्वारों को बन्द कर देता है । इच्छा का निरोध होता है । इच्छानिरोध होने से जीव सभी द्रव्यो से तृष्णा रहित होकर शान्ति से विचरता है।
१००५ कई लोग छोटी छोटी बातो पर क्षुब्ध हो जाते है ।
१००६ उम्र और यौवन प्रतिपल व्यतीत हो रहा है।
१००७ देह को भले ही त्याग दे, पर अपने धर्मशाशन को न त्यागे ।
१००८ जिनेश्वर देव की आज्ञा के पालन मे ही धर्म है ।
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प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रयुक्त आगम
१. आवश्यक सूत्र २. भगवती ३. उत्तराध्ययन ४ सूत्रकृताग ५. नदी ६. दशवकालिक सूत्र ७. आचाराग ८..प्रश्नव्याकरण ६. अनुयोग द्वार १० बृहत्कल्प माध्य ११. स्थानाग १२. समवायाग १३. राजप्रश्नीय सूत्र १४. उपासकदशाग १५. ज्ञाता धर्म कथा १६. अन्तगढ़दशाग १७ औपपातिक १८. दशाश्रु तस्कन्ध
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१. आवश्यक २३. उत्तरा १६,२२ ४२. दशा०श्रु ० ५५,१ २. भगवती २४. उत्तरा. १८,३३ ४३, दशव० १,१ ३. उनग.१८,३८ २५. आचा. ३,१०८, ४४. आचाराग ४ मूत्र० ६,२५ उ० १ ४५. दशव० ४,११ ५ सूत्र० ६,२१ २६. उत्तरा. १६,१७ ४६. उत्तग० ३,८ ६. मूत्र० ६,२३ २७. उत्तरा. १४,४० ४८, आचाराग। ७. सूत्र० ६,२२ २८. उत्तरा. ६, ६ ४८ बृहत्कल्प ८. भग०
२६. उत्तरा २६,३ ४६ उत्तरा० ३,१ ६. भगवती ३० उत्तरा. १८,२५ ५०. उत्तरा. १४,२५ १०. भग० ३१. आचा. ६,१८१, ५१. उत्तरा. १४,२४ ११. भग० ३२. सूत्र.२,२८ उ २ ५२. दगवै० ८,३६ १२. भग० ३३ उत्तरा. २१,१२ ५३ उत्तरा० १३ आवश्यक सूत्र० ३४. उत्तरा. २५,१६ ५४. उत्तरा०
अ० ४ ३५ उत्तरा. २८,२७ ५५ उत्तरा० १४. उत्तरा. २३,८५३६. ठाणा. २ ठा. १५६. उत्तरा० १५ दशव० १,१ ला, उ० २५ ७. उत्तरा० १६. वृह भा७ ८१४ ३७. ठाणा० ३ ठा० ५८. उत्तरा० १७. उत्तरा. २३,६८ उ० ४,२७५६. उत्तरा० ७,१४ १८ सूत्र० ६,४ ३८. ठाणा० ४ उ० ६०. उत्तरा० ७१५ १६. उत्तरा. १२,४६ ४,३८ ६ १. उत्तरा. १०,१७ २०. दश० ६,२,२ ३६. प्रश्न० २,३ ६२ आचा० १,८.१ २१. सूत्र० १५,१५ ४०. प्रश्न० २,३ ६३. उत्तरा० ३,१२ २२. उत्तरा. १४,१७ ४१ आचा० १,८,३ ६४ स्थाना. १,१,४०
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६५. उत्तरा २३ २५ २६ आचा० ६६. उत्तरा. २३,३१ ८७ आचा० ६७. उत्तरा. २३,३२ ८८ आचा० ६८ सूय० ६, २३ ८६. आचा० ६६ सूत्र.१,१०,उ ४ ६० आचा० ७०. दशवै० ६,
६ ६१ आचा० ७१. दशवै० ६,१० १२ आचा० ७२. दशव० ८,१२ ६३. आचा० ७३. आचा० २,८१, ६४ आचा०
उ०
३ ६५. माचा० ७४. उत्तरा० ८,६ ६६. मूत्र० ७५. सूत्र ५,२४,उ.२ ६७. सूत्र० ७६. उत्तरा० २,२० १८. सूत्र० ७७. उत्तरा० ५,३० ६६. सूत्र० ७८. उत्तरा० ६.७ १००. स्थानाग ७६. आचा.३,७,उ २१०१ भगवतो ८०. आचा. ६.१७५, १०२. भगवती
उ० ३ १०३ प्रश्नव्या० ८१. सूत्र० २, १३, १०४. प्रश्न
उ० ३ १०५. प्रश्न ८२. उत्तरा. १८,११ १०६ प्रश्न० ८३. उत्तरा. १३,३२ १०७. प्रश्न ८४. दशवै० ३, १५ १०८ प्रश्न० ८५. दशवै० ६, ४६ १०९. प्रश्न
११० दश० १११ दग० ११२ उत्तरा० ११३. उत्तरा ११४ उत्तग० ११५ दग० अ० ४ ११६. मूत्र १.११,३ ११७. उत्तरा० ६२ ११८. आचा. ३, १,
१०६ ११६. सूत्र. १,१५,८ १२०. उत्त० १२१ उत्त० १२२. आचा १,३,३ १२३ मूत्र० १,१.१,
१२४ सूत्र० ६, २३ १२५. सूत्र० ८, १६ १२६ सूत्र० १२७ प्रश्न० १, २ १२८. प्रश्न १२६. प्रश्न १३० प्रश्न० २ १३१. प्रश्न० २, २
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१३२. प्रश्न० २, २ १५६. दशव० ७,१२ १७६. प्रश्न० २, ४ १३३. प्रश्न० २, २ १५७. दशव० ७,४८ १८०. प्रश्न० २, ४ १३४ प्रश्न० २, २ १५८. मूत्र० १४,२१ १८१. प्रश्न० २, ४ १३५. प्रश्न० २, २ १५६. प्रश्न. २, २ १८२. प्रश्न १३६. प्रश्न० २, २ १६०. मूत्र. १,१५,३ १८३. उत्तरा.१६,१६ १३७ दशव० १६१. प्रश्न० २, ३ १८४ मूत्र. १,१५,६ १३८. दशवै० ६.१२ १६२. दश० अ० ४ १८५. उत्तरा.१३,१७ १३६. दशव० ७,११ १६३. उत्तरा० अ. १८६. उत्तरा. १६.६ १४० उत्तरा० ६,२ ३२ गा० २६ १८७. उत्तरा. १६,१ १४१. उत्तरा १६,२६ १६४. उत्तरा.१६,२८ १८८. सूत्र. १,८,१६ १४२. प्रश्न० २, २ १६५. दश ० ६,२,२२ १८६. उत्तरा. १४३. उत्तरा. १,२४ १६६ प्रश्न० १ ३ १६०, सूत्र. ६,३२ १४४. मूत्र० ६, २५ १६७. प्रश्न० १,३६ १६१. दश, ८,५४ १४५ सूत्र० १०,२२ १६८ प्रश्न० २, ३ १९२. उत्तरा. १६.८ १४६. दशवं ६, १२ १६६ प्रश्न० २, ३ १६३. उत्तरा. १६
४७ सूत्र. २,१४ ३ १७० प्रश्न० ३, ६ १६४. सूत्र. १०,१५ १४८ उत्तरा.१८,२६ १७१. उत्तरा ३२,२६ १६५. दशवै. ८,५६ १४६. दशव० ७,४० १७२. दश.६,१३,१४ १६६. उत्तरा. ८,१६ १५० दगवै० ६,११ १७३. प्रश्न० १६७. दशवै. ८,१६ १५१. दशव० ७,११ १७४. मूत्र० १०, २ १९८. आचा. ५, १५२. प्रश्न० २, २ १७५. आचा०
१५५,३ १५३ दशव० ७,११ १७६. सूत्र० ६, २३ १६६. सूत्र. ७,२२ १५४. दशव० ७,११ १७७. सूत्र० २००. उत्तरा.३२,१३ १५५ दशव० ७,११ १७८. स्थाना० २०१. उत्तरा. १६
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२०२. सूत्र. १०,४ २२३ दग. ६, २० २४७ उत्तरा ६, २६ २०३. सूत्र. ४,२७,१ २२४ उत्तरा. १६,३ २४८ उत्तरा. १४,२८ २०४. दशवं. २,६ २२५ उत्तरा. ४, ५ २४६ उत्तरा ३,१० २०५. दश. ५,६ २२६ प्रश्न. १, ५ २५० उत्तरा. २६,३ २०६ आचा. ३, २२७ उत्तरा. ६,४८ २५१ उत्तरा १०,१६ २०७. दश. ८,५६ २२८ उत्तरा. १६,२६ २५२. दश० ८,२७ २०८. उत्तरा १६,२ २२६ दश. ४, १७ २५३ उत्तरा. ३०,६ २०६. सूत्र, २,२,३ २३० दशव ६, १६ २५४. सूत्र. १,७ २७ २१० सूत्र १४,१ २३१ उत्तरा. ४, २ २५५. दग० ६,४ । २११. उत्तरा. १६, २३२ सूत्र १, १, ४ २५६ सूत्र. २,१,१५
२६ २३३ उत्तरा. ८, १६ २५७. सूत्र० ६,२३ २१२ दश. ६,५६ २३४ दशवं. ६, १७ २५८. उत्तरा० १६, २१३ उत्तरा १६, २३५ दशवं. ६, १८ ३८ ३४
२३६ सूत्र १, ६, ४ २५६. आचा १,४,२ २१४. दश. ६,१६ २३७ दश २, ५ २६०. उत्तरा० ४,८ २१५. उत्तरा. १६, २३८ आचा. २, ६ २६१. उत्तरा० १२, १४ २३६ आचा. २, ६
३७ २१६ उत्तरा २४० भगवती. १८,७२६२. उत्तरा० ११ २१७ आचा १,२,५ २४१ दशवै ६, १८ २६३. आचा १,४,३२१८ सूत्र १६,३ २४२ उत्तरा. ३, ६ २६४, सूत्र. १, ८, २१६ उत्तरा. २४३.आचा १,३,२० २५ २२० प्रश्न. १, ५ २४४ आचा. १,५,५ २६५ स्थाना० ६ २२१ प्रश्न. २४५ सूत्र.
२६६ भगवती. १८५ २२२ प्रश्न. २ ३ २४६ सूत्र. २ ३,११ १०
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________________
२६७ उत्तरा० २८, २८४ उत्तरा० १२, ३००. माचा० १,८,
३५
३७
८,२१
२६८. उत्तरा० १६, २८५. दशवं ० ५,४४ ३०१. आचा. २,१,६ २८६. दशवे० ८,४१३०२. सूत्र० १,२,२,
६७
२६६. उत्तरा
३०, २८७. सूत्र० १०,१२
१७
७८
२८८. सूत्र १,८, १६
२७०. उत्तरा० ह
२८६. भगवती ७,७
२२ २७१. सूत्र. १,७,२७ २६०. भग० १८,
२७२. उत्तरा० ४,८
२७३. भग० २,५ २७४. उत्त. २८, ३५
२७५. उत्त २६,२७ २६२. उत्तरा० २६,
२७६ उत्त० ३०,८
१७
२७७. उत्त. ३०,३० २६३. उत्तरा. २७८. दशवे. ६, ४ २७६. दशर्व ८,३५
२६४. उत्तरा० ३६
२८०. उत्तरा. १८, १५
२८१. दशवं. ६,४ २८२. दगवै. ४,
·
३०३. सूत्र. १,१०,६
३०४. भग० १,६ ३०५. दश० ८,२७ ३०६ दश० ८,२६
३०७. दश० ६, ३, ४
३७ २६१. उत्तरा० १६, ३०८. दश. ६,३,११ ३७ ३०६ : उत्तरा १६,
६१
३१,२
१६,
३१०. आचा. १, २, ५
३११. आचा. २,३, १
३१२. सूत्र० २,२,३
३१३. सूत्र २,३,१३
२६५. उत्तरा० १६, ३१४. उत्तरा० २१, १५
३१५ अनु. १३२
३६ २६६.. अनु० १३ २१७. आचा. १,२,६ ३१६ प्रश्न २, ५ २६८. आचा. १,४,३३१७ आचा. १,२,२
२७
२८३. उत्तरा ३२, २६६. आचा० १,८, ३१८ आचा. १,२,२ ८, १४ ३१६ आचा. १,२,३
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________________
३२० आचा. १,२,५३३६ उत्तरा.२६,३६ ३६१. दशव. २,३ ३२१ आचा. १,३,२ ३३७ उत्तरा. ३२,४७ ३६२. बृहत्कल्प. ३२२ आचा. १,३,४ ३३८ सूत्र. १,१५,१४ । २४४ ३२३ आचा. १,४,१ ३३६ सूत्र. १,२,३,६ ३६३. बृहत्कल्प. ३२४ आचा. २, ३, ३४० उत्तरा. १,११ २४७
१५, १३१ ३४१ उत्तरा. १, ११ ३६४. स्थानांग,४,४ ३२५ आचा २, ३, ३४२ उत्तरा. ३, १२ ३६५ दगनै.६ ३.११
१५, १३२ ३४३ स्थानाग ८ ३६६. उत्तरा. ४,१३ ३२६ आचा. २, ३, ३४४ उत्तरा.२६,४६ ३६७ उत्तरा २६,
१५, १३३ ३४५ उत्तरा. २६,५१ २१ ३२७ आचा २, ३, ३४६. सूत्र. १,१५, ३६८. उत्तरा. ११,५ १५, १३४
२४ ३६९, उत्त रा. ६,३ ३२८ आचा. २, ३, ३४७. उत्तरा. १६, ३७०. सूत्र ७,२६
१५, १३५ ३४८. उत्तरा. २६, ३७१. आचारा. ६, ३२६ आचा. २, ४, २६
१८८,४ १६, १४० ३४६, दशः ४,११ ३७२. सूत्र. ८,१५ ३३० सूत्र. १, १, ३५०. दश ४,१३ ३७३. उत्तरा. ६,४
४, २ ३५१. उत्तरा: ३१,२ ३७४. उत्तरा. २६, ३३१ सूत्र. १,६,३२ ३५५. आचा १
१६ ३३२ उत्तरा.२६,४५ ३५६. आचा. १ ३७५. उत्तरा. २६,१ ३३३ उत्तरा. ३२,६१ ३५७. स्थाना. ४,२ ३७६. उत्तरा २६, ३३४ उत्तरा. ३२, ३५८. भग. १,६
१०० ३५६. भगः ७,७ ३७७. उत्तरा २६, ३३५ सूत्र. २,१,१३ ३६०. दशव. २,२
१८
३७
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________________
३७८. वृहत ११६६ ३६६. आचा० ५,४ ४१५ उत्तरा २६, ३७६. स्थाना. ४,२ ३६७. सूत्र ११,२५ ६ ६ ३८० प्रश्न. २,२ ३६८. आचा. ३,४ ४१६. आचा० ३, ३८१ दश ६२,३ ३६९. दश० ८,३८ १ २६,४ ३८२. उत्तरा.१,४६ ४००. दश० ८.३६ ४१७. दश० ८,३६ २८३ उत्तरा. २६, ४०१. सूत्र १,१३, ४१८. भग. ५,४,२८
११ ४१६ दश. ८३८ ३८४. उत्तरा. २३ ४०२. दशवै ८,३० ४२०. ज्ञाता० १,८ ३८५. उत्तरा.६,५४ ४०३. सूत्र. १,११,२ ४२१. उत्त० ३२,३० ३८६. दश.८,३८ ४०४. सूत्र० १,१३, ४२२. उत्तरा. १,२४ ३८७. दश.५,३६
१८ ४२३. उत्तरा. ६,५४ ३८८. आचा. ४, ३, ४०५. सूत्र० १,१३, ४२४. दश० ५,५१, १३५ १४
उ २ ३८६. आचा. ४,३, ४०६. स्थाना. ४,२ ४२५. दश० ८,३८
१३६ ४०७. उत्तरा० २६, ४२६. स्था० ६,३ ३६०. स्था. ४, १, ६८ ४ २७. दश० ८,३६
२४६ ४०८. दशव० ८,३० ४२८. आचा. २,५ ३६१ स्था. ४, १, ४०६. सूत्र. २,६,२ ४२६. उत्तरा. ६,५४
२४६ ४१०. सूत्र. ११,३५ ४३०. उत्तरा. ६,४६ ३६२. सूत्र. १,२,६ ४११. आचा. १,३,१४३१. उत्तरा.८,१६ ३६३. आचा. ३, ४ ४१२. सूत्र. १,२,२ ४३२. उत्तरा. ६,४८ ३६४. सूत्र. २,६,२ ११ ४ ३३. उत्तरा, ८.१७ ३६५. सूत्र. १,१३, ४१३. स्थानाः ४,२ ४३४: उत्तरा०
१५ ४१४३ भग० १३,६ ४३५. उत्तरा०
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________________
४३६. आचा. २३, ४५६ दग. ४८३ उत्तरा. ३, २
१५,२ ४६० दश, ४८४ दशव. ६, २४ ४३७. सूत्र. १,१,१,४ ४६१ उनरा. १, २ ४८५ उत्तरा १६,३० ४३८. सूत्र. १,४,१,८४६२ उत्तरा १, ६ ४८६ मूत्र १,२,३ : ४३६ सूत्र. १, ६,४ ४६३ उत्तरा. १, २८ ४८७ दश ६, २६ ४४० स्थाना. ४, २ ४६४ उत्तरा ४८८ उत्तरा १, ४ ४४१ प्रश्न २, २ ४६५ उत्तरा. ४८९ उत्तरा. १, ५ ४४२ उत्तरा २६,७० ४६६ उत्तरा ४६० उत्तरा १, ६ ४४३ दश. ६,२ ४६७ उत्तरा. १, ६ ४६१ उत्तरा ५, २१ ४४४ दश ६, ७ ४६८ उत्तरा. २५ २०४६२ उत्तरा. ५, २२ ४४५ दश. ६, २, ४ ४६६ उत्तरा. २५२१ ४६३ उत्तरा ५, २४ ४४६ दश ६, २, १ ४७० उत्तरा. २५,२२ ४६४ उत्तरा. २०.४८ ४४७ दश. ६, २, २ ४७१ उत्तरा २५ २३ ४६५ उत्तरा ६, १० ४४८ दग ६, १, १२ ४७२ उत्तरा २५,२४ ४६६ उत्तरा ६, ११ ४४६ उत्तग १, ४१ ४७३ उत्तरा २५,२५ ४६७ राजप्रश्नीय ४५० प्रग्न २ ३ ४७४ उत्तरा २५,२६४. ८२ ४५१ उत्तरा.२६,४३ ४७५ उत्तरा २५ २७ ४६८ स्थानाग. ४ ३ ४५२ स्थाना ८ ४७६ उत्तरा.२५ ३१४६६ उत्तरा. १, ४२ ४५३ उत्तरा.११,१३ ४७७ उत्तरा २५,२२ ५०० उत्तराध्ययन ४५४ उत्तरा. १, ७ ४७८ उत्तरा २५,२७ २६, ३ ४५५ ज्ञाता. २ ५ ४७६ उत्तरा २५,३० ५०१ स्थानाङ्ग ८ ४५६ राज. ४, ७६ ४८० दश. ८, २८ ५०२ स्थानाङ्ग. ८ ४५७ दशवै. ८, ४० ४८१ दग. ६, २३ ५०३ भगवती. ७, १ ४५८ दश. ४८२ दश, ४, ५०४ दश. ६, १७
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________________
५०५ भग -२ ५ ५०६ दश ८, ५३
५२७ उत्तरा १६,६३ ५४६ उत्तरा. ६, ३४ ५२८ उत्तरा. १६५८ ५५० उत्तरा. १६,५५ ५०७ सूत्र. १,१२,१५५२६ सूत्र २, १, ६५५१ आचा. ८,२१६ ५०८ उत्तरा. ३२,४२ ५३० ज्ञाता. ६५५२ उत्तरा. १०,२१ ५५३ उत्तरा १०,२७
१,
५५४ उत्तरा १०,१
५५५ उत्तरा १०, २
५५६ आचा ५ १४३
१ ५५७ सूत्र. २,१०,३ ५५८ सूत्र. २, ८, ३ ५५६ सूत्र २, ६, १
५०६ दश. ६ ३, ५ ५३१ भग. ७८ ५१० उत्तरा १८३३ ५३२ भग. ७. १ ५११ उत्तरा १३,१० ५३३ उत्तरा. ५१२ दश. १,२०, ३ ५३४ उत्तरा. ५१३ सूत्र १२, २२ ५३५ उत्तरा ५१४ उत्तरा-१८३० ५३५ उत्तरा. ५१५ दश. ८, ४१ ५३६ सूत्र ५१६ आचा.२,६६,५५३७ सूत्र. ५१७ उत्तरा २, १७५३८ आचा ५१८ सूत्र ५,२५ २ ५३६ आचा. ५१६ सूत्र. ११, ३२ ५४० आचा. ५२० सूत्र. २,१३,३ ५४१ आचा. ५२१ उत्तरा १८,४३ ५४२ उत्तरा ५६४. सूत्र १३,१८ ५२२ सूत्र. १४, २६ ५४३ उत्तरा. ५२३ ठाणा १ ला. ५४४ उत्तरा २०, ३७ ५६५. उत्तरा २६,१ ५४५ उत्तरा. ६, ३५ ५६६. उत्तरा . २५, ४३ ५४६ उत्तरा ६, ३५
५६० सूत्र २,२२२ ५६१ उत्तरा. १४,
२३
५६२ उत्तरा ६ ३
५६३ सूत्र १०, १२
ठा. १ ५२४ उत्तरा, १४ १६ ५२५ आचा. ५,१७१
५४७ उत्तरा ६, ३६५६७ ५४८ आचा १५७, ५६
१७२, उ. ६
५२६ आचा. ५,१३६
७
•
उत्तरा
उत्तरा.
५६६ आचा
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________________
१०
५७० उत्तरा.
५७१. उत्तरा.
५७२. उत्तरा
५७३. सूत्र
५७४. आचा ५७५. अनुयोग
५७६. उत्तरा
५६२. उत्तरा १६,२५६१३. आचा. १,३, १ ५६३. सूत्र. २, २, २६१४. आचा. १,३, २ ५६४. सूत्र. ६, ६
६१५. आचा. १३,३
५५. सूत्र. ७, २८
५६६. उत्तरा ३५, १५
५६७. आचा. २,१००
५७७ आचा
६
६२०. स्थाना ४, ३ २२६२१. भग. १.१ १७,३६२२. दश. ४,१०
१७, ६२३. उत्तरा० १६,
५६
५७८. दशवे. १०,११५६८. प्रश्न. २, ५, ५७६. दशवं. १०, ५ ५६६. दश. १ ३ ५८० दशवं. १०, १६००. दश ६, ५८१ उत्तरा . १५.२६०१. उत्तरा ५८२ उत्तरा १५, ६०२. उत्तरा १२ ११ ५८३. दशवे १०,१६६०३. अनु. ५८४ दशवै. १०,१६ ६०४. अनु. ५८५. सूत्र. १४, २१६०५. अनु. ५८६. दशवं. ३, ११६०६. दश. ७, ४६ ५८७ उत्तरा. १६, ६०७. सूत्र. २,२,३६ १५ ६०८. स्थानाग ४,२ ५८८. सूत्र. १३, १३६०६. प्रश्न. ५८. सूत्र. १०, १६ ६१०. आचा. १,२,३
६२४. उत्तरा० २८९
३५
६२५. उत्तरा० २८,
३५
६२६. उत्तरा० २८,
३५
६२७. ठाणा. २,३,४,
११
५६०. सूत्र. १४, ६ ६११. आचा. १,२,३ ६२८. ठा० १,४२ ५६१. दशवं. १०,१७६१२. आचा. १.२,६६२६. दश० १,५
६१६. सूत्र, १,२,१५ ६१७. सूत्र. १,१२,८
६१८. सूत्र. १, १२,
११ ६१९. सूत्र. १,१२, १५
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________________
२४
६३०. उत्त० २,१३ ६४६. दश० १०, ७ ६७२. दश० ४ ६३१. उत्तरा. ११, ६५०. सूत्र० १४,२५ ६७३. दश० ४
२० ६ ५१ उत्त० २६, ६ ६७४ दश० ४ ६३२. उत्तरा० ११, ६५२. ठाणा० २, १, ६७५ दश ० ५ २३
२३
२३ ६७६ दश० ४ ६३३. उत्त० ११,३२ ६५३. उत्त० २८,३५ ६७७. दश० ४ ६३४. दश०,४,२२ ६५४. उत्त० २८,३० ६७८. दश० ४ ६३५. उत्त० २८,३० ६५५. उत्त० २६,६१ ६७६. उत्त०४ ६३६ उत्त. २५ ३२ ६५६, ठाणा० १,४४ ६८०. उत्त० ८ ६३७ सूत्र० १२ १६ ६५७. सूत्र० १२ ११ ६८१ उत्त० २६ ६३८ ठाणा० २,१, ६५८. सूत्र. २,१७,२६८२. दश० ७, ५
६५९. आचा० १ ६८३ सूत्र० १४,२५ ६३६ उत्त. २६,५६ ६६०. आचा० १ ६८४. उत्त० २१,१४ ६४०. ठाणा० ४,४, ६६१ आचा० १ ६८५. सूत्र० ८, २५
३१ ६६२. आचा० १ ६८६. उत्त० १, २५ ६४१. आचा० ६६३. सूत्र० २ ६८७ सूत्र० ६, २६ ६४२. उत्तरा० ६६४. सूत्र० २ ६८८. सूत्र० ६, २५ ६४३, उत्तरा० ६६५. सूत्र० २ ६८६ सूत्र० ६, २५ ६४४. उत्तरा.२८,१५ ६६६. सूत्र० २ ६६०, दश ० ८, ४७ ६४५. उत्तरा.२८,३५६६७. सूत्र० २ ६६१. सूत्र० ६, २५ ६४६. आचा० ६, ६६८. सूत्र० २ ६६२. ठाणा० ७,७८
१८७,
४ ६६६, स्थाना० ३ ६६३. ठाणा. ४,१,४ ६४७. सूत्र० ८, २३ ६७०. स्थाना० ३ ६६४. दश० ८, १६ ६४८. उत्त० २६,६० ६७१. दश० २ ६९५ उत्तरा० ४
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________________
+3
१२
६६६ सूत्र० २४ ७१६. आचा० ६,
७३६. उत्तरा २१,
६७. सूत्र० २,१८
१८१,२
१५
६६८. उत्त० ३३ ३५ ७२०. उत्तरा० २१, ७३७. उत्त० २८,११
६६६ उत्तर. ४, ३
१८
७३८ उत्त० २८, १४
७००. उत्तर. ३२,७ ७२१. उत्त०
७३६
प्रश्न ० १,२
७४० भग० ५,८
७०१. उत्त० ३२,५६ ७२२. दश० ३,११ ७०२ उत्त० २५,३० ७२३. आचा० ३,
७४१. सूत्र. १,१,१,
७०३ उत्त० ३२,७
११७,३
१६
७०४. उत्त० १०,४ ७०५ सूत्र० २४,१ ७०६ उत्त० ३२, ७
७२४. सूत्र० १५, ५ ७२५. आचा० ३, १२५,४
७४२ भग० १.१० ७४३. सूत्र. १,१,३, १०
७०७ उत्त० १०,१५७२६. दश ० २,११ ७०८. उत्त० ३,३ ७२७ उत्त० ७, ६ ७०६. आचा० ३, ७२८ सूत्र० ८,१३
७२६ उत्त० २१,२०७४७. दश ० ४,२५
११,१ ७१० उत्त० १३,१६७३० आचा० २, १००,६
७४८. उत्त० ३२,२
७११. उत्त० २१,६
७४६ उत्त. ३२, ३३
७१२ उत्त० १३,२३ ७३१ उत्त० १६,१३ ७५०. उत्त. २८,३० ७१३. उत्त० १८,१७ ७३२ उत्त० १६,१३ ७५१. उत्तरा. २८,
३७
७१४ सूत्र ५,३६,१७३३. दश० ८, ४५ ७१५ सूत्र. ५३६,२७३४. जाचा. १,४३, ७१६. सूत्र० ९,४ ५
७५२. सूत्र. २
७५३. आचा. २
७१७ सूत्र० ५,१,२ ७३५. सूत्र० १, १०, ७५४. आचा. २
७१८. सूत्र० ७,११
३
७५५. आचा.. २
७४४. उत्त० १०,३५
७४५. सूत्र. १४,१७
७४६. उत्त० १८,५४
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________________
७५६. दशवै. ७७८. सूत्र. १५, २१ ७६८. उत्तरा. २१, ७५७. उत्तरा. ७७६ दश. ५, ४,२, २१ ७५८ उतारा. ७८०. आचा.४,१२८ ७६६ दश. ५, १५ ७५६ उत्तरा.
८००. आचा २ ७१ ७६०. दग. ७८१ सूत्र. २, ७,
३ १ ७६१. दश. ७८२. सूत्र. १०, ७ ८०१. आचा ४,१२८ ७६२. दश. ७८३. आचा ३,८,२ ७६३ आचा. ३, ७, ७८४. मूत्र. १५, २४ ८०२ आचा ८, १८ २
७८५. आचा ५,१६३ ७६४. दा. १, २ ५
८०३ आचा. १, २२ ७६५. दश १, ३ ७८६. उत्तरा १३, ३ ७६६ दश. ५, २,६ २६ ८ ०४ आचा.३,१०८ ७६७. दश ५,२,२५ ७८७. उत्तरा. ४,
१ १ ७६८, दश ५, १, ८ ७८८ उत्तरा. १,४०८०५. सूत्र १,२७,२ ७६६. दश ६, ३, ४ ७८६ दश ५, १४ ८०६. नदी. ८ ७७०. दश ५,१६७ ७६०. दश ५, २७ ८०७ सूत्र. १, ३,२ ७७१, सूत्र. १,७ २६ ७६१. सूत्र. ११, ११ ११ ७७२. उत्तरा ६ १६७६२. उत्तरा १३, ८०८. सूत्र. १, ३, २ ७७३. उत्तरा ३५, ३२
१७ ७६३ उत्तरा. ८.११ ८०६ सूत्र. १, ३, २ । ७७४. सूत्र. १५, ४ ७६४. दश. ८, ४१ १३ ७७५ उत्तरा १,३२ ७६५. दश ५, १४ ८१०, उत्तरा ८, २ । ७७६. दश ४, ११ ७६६ सूत्र ६, ३६ ८११. उत्तरा. १०, ७७७. उत्तरा. ४,१३ ७६७. सूत्र. २ ११,१ २८
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________________
१४
४३
४३
८१२. उत्तरा. ८, २ ८३५ भग० ८५८. उत्त० ८१३ उत्तरा २४, ८३६. दश० ८५६. उत्त०
८३७. उत्त० ८६०. उत्त० ८१४ आचा. ८३८. उत्तरा० ८६१ स्था० ८१५ आचा. ८३६. आ० ८६२. उत्त० ८१६ आचा ८४० उन० ८६३ उत्त० ८१७ आचा. ८४१. उत्त० ४, ५ ८६४. ठाणा० २,४, ८१८. आचा. ८४२. उत्त० ४, ५ १३ ८१६, सूत्र० ८४३. सूत्र० १४, १ ८६५. सूत्र० १०,२१ ८२०, सूत्र० ८४४. उत्त० १०,१५ ८६६. दश० २, ५ ८२१. सूत्र० ८४५ आ० ३,११७, ८६७ उत्तरा० २३, ८२२. सूत्र० ८२३ दश० ८४६ उत्त० ४, १० ८६८. सूत्र० ८२४. दश० ८४७. सूत्र० १४, ६ ८६६ स्था० ८२५. उत्त० ८४८ आ० ८७०. उत्त० ८२६. उत्त० ८४६ आ०
८७१. सूत्र. १०,२१ ८२७ आचा० ८५०. स्था०
८७२. दग० ४,६ ८२८ याचा० ८५१ दश०
८७३. आ० २,६७,६ ८२६ आचा० ८५२. दश०
८७४. सूत्र० ८,१६ ५३०. आचा० ८५३. दश०
८७५. स्थाना ३,३, ५३१. आ० ८५४. उत्त०
५२ ८३२. आ०
८५५ आ० ८७६ उत्तरा० ३,१ ८५६. आ०
८७७ उत्तरा० ८५७. उत्त० ८७८. उत्तरा. १०,४
सूत्र०
८३४. सूत्र०
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________________
२. उत्त० ३,
७ ६०२. दश. ६, १६ ६२४. उत्त. ७, ३० • उत्त० ६,१४ ६०३. सूत्र. ३, ६, ४ ६२५. सुत्र १५, ६ १. सूत्र. ६०४. सूत्र २८,३ ६२६ सूत्र. १२, १५ २. प्रश्न. ६०५. सूत्र. ४, १२, ६२७ उत्त. ६, ४४ ३. प्रश्न. १
६२८ दश. ५, ३६ ४. प्रश्न. ६०६. मूत्र २,२,३ ६२६ सूत्र १, १६ ५. प्रश्न. १०७. उत्त.३२,१८१६३०. आ. ५१६४, ६. प्रश्न. १०८. उत्त १६,१३ ६३१ सूत्र. १२, १५ ७. प्रश्न. ६०६. उत्त ३२,१६ ६३२ सूत्र. १०, १८ ८. प्रश्न. ६१०. उत्त. १६,१४ ६३३. सूत्र. १३, १४ - ६. उत्त.१४, २४ ६११. उत्त. १४,४६ ६३४ सूत्र ११, ४ -० उत्त. १८,२५ ६१२. आ. ६, १७५, ६३५. सूत्र २१, २ -१. दश. ५, २३ १
६ ३६ सूत्र. २,२१,२ -२ सूत्र. ५ ६, २ ६१३. उत्त १३,२७ ६३७. सूत्र० ३,४,२ ३३. सूत्र. ५,१६,१ ६१४. उत्त, १४ ४७ ६३८ मूत्र० १४, १ २४. दश ६, ५ ६१५. उत. १४,१३ ६३६ सूत्र० ३,११,१ २५. सूत्र. २,१,२ ६१६. उत्त. ६ ५३ ६४०. उत्त० १, ६ २६. सूत्र. २,२,२ ६१७ आ २, ६३,५ ६४१. उत्त० २६४६ २७. उत्त. ४, २ ६१८. उत्त ८, १४ ६४२. उत्त० २६.१७ १८. दश ८, ४२ ६१६. सूत्र. १३, २१ ६४३. उत्त० २१,१५ -१६ सूत्र. ३,१३,४ ६२० दश. २,
५ ६४४. सूत्र. २,१३,३ ००. आचा. ६,६६ ६२१. दश. ६, १७ ६४५. सूत्र० २.३,२ २
६ २२ उत्त. ६४६. उत्त. ११,११ ०१. आ. ६,१७४,१ ६२३. सूत्र. १०, ५ ६४७. दश० ६,३,२
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६४८ दश. ६,१,७ ६६६. उत्त ३.८ ६६० सूत्र. ९४६ उत्त ६, १२ ९७० उत्त. १०,१६ ६६१ उत्त ६५०. उत्त. २२ ४८ ६७१. उत्त ३, ६ ६६२ आचा. ६५१ उत्त. ३२,१२ ६७२. सूत्र २,१६,३ ६६३. उत्तरा ६५२ उत्त. २१,१४ ६७३. सूत्र २, १,१६६४. उत्त ६५३. उत्त १३, २२ ९७४ उत्त. १०,२० ६६५ उत्त ९५४. उत्त १३,२१ १७५. सूत्र. १५,१८ ६६६. उत्त. ..... --------............. ......98., १६७'उत्त १६ १५
६६८ उत्त. १६,१२ ९६६ उत्त. २६ १०००. उत्ता. २६ १००१. उत्त, २६ १००२ उत्त. २६
०३ उत्त २६ ०४. उत्त. २६ २५, सूत्र १,१४,
०६ आचा. १,२.
२७ दश १,१७ २८. आचा. ६,२,
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