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________________ ब्रह्मचर्य १७५ जो आवश्यकता से अधिक भोजन नहीं करता, वही ब्रह्मचर्य का साधक सच्चा निर्ग्रन्थ है।। १७६ तपों मे सर्वोत्तम ब्रह्मचर्य तप है १७७ ब्रह्मचारी स्त्रीसंसर्ग को विपलिप्त कण्टक के समान मानकर उससे वचता रहे। १७८ ब्रह्मचारी को कभी अधिक मात्रा मे भोजन नही करना चाहिए। १७६ ब्रह्मचर्य, उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय का मूल है। १८० एक ब्रह्मचर्य के नष्ट होने पर सहसा अन्य सव गुण नष्ट हो जाते हैं। एक ब्रह्मचर्य की आराधना कर लेने पर, सब शील, तप विनय आदि व्रत आराधित होते हैं।
SR No.010170
Book TitleBhagavana Mahavira ki Suktiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1973
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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