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धर्म और नीति (तप) ८३
२७५ तप से व्यवदान-पूर्व कर्मों का क्षय कर आत्मा शुद्धि प्राप्त करता है ।
२७६ अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरो, रसपरित्याग, कायक्लेश और प्रति सलीनता ये बाह्य तप के ६ भेद है ।
२७७ प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य स्वाध्याय ध्यान और कायोत्सर्ग ये आभ्यन्तर तप के छ. भेद हैं ।
२७८ आलोचना से निष्कपटता के भाव पैदा होते हैं ।
२७४ अपना बल दृढता श्रद्धा आरोग्य तथा क्षेत्रकाल को देखकर आत्मा को तपश्चर्या में लगाना चाहिए ।
२८० तप का आचरण करो ।
२८१ तप द्वारा पुराने पाप की निर्जरा होती है ।
२८२ तप रूप प्रधान गुण वाले की मति सरल होती है ।
२८३ जो श्रमण समाधि की कामना करता है वही तपस्वी है ।