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धर्म और नीति (अपरिग्रह) ७१ ।
२३६ संचय किया हुआ धन यथा समय दूसरे उडा लेते है किन्तु सग्रही को अपने पाप कर्मों का दुष्फल भोगना ही पड़ता है।
२३७ कामनाओ का अन्त करना ही दुःख का अन्त करना है।
२३८ जो साधक अपनी ममत्व बुद्धि का त्याग कर सकता है वही परिग्रह का त्याग करने में समर्थ हो सकता है।
२३६ जिसकी चित्तवृत्ति से ममत्वभाव निकल चुका है वही संसार के भय स्थानो को सुन्दर रीति से देख सकता है।
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परिग्रह तीन प्रकार का है-कर्म परिग्रह, शरीर परिग्रह, बाह्यभण्ड मात्र उपकरण परिग्रह ।
२४१ सग्रह करना यह अन्दर रहने वाले लोभ की झलक है।