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अपरिग्रह
२१७ अधिक मिलने पर भी स ग्रह न करे । परिग्रह वृत्ति से अपने को दूर रखें।
२१८ जो परिग्रह मे व्यस्त हैं वे संसार में अपने प्रति वैर ही बढ़ाते है
२१६ परिग्रह रूप वृक्ष के स्कन्ध है लोभ, क्लेष, कषाय तथा चिंता रूपी सैकडो ही सघन और विस्तीर्ण उसकी शाखाए हैं।
२२० समूचे ससार मे परिग्रह के समान प्राणियो के लिए दूसरा कोई जाल एव बन्धन नही है।
२२१ अपने को अपरिग्रह भावना से सवृत्त कर लोक मे विचरण करना चाहिए।
' २२२ दूसरे की कोई भी चीज़ हो मजा लेकर ग्रहण करनी चाहिए ।
२२३ मू भाव ही परिग्रह कहा गया है ।