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धर्म और नीति (अपरिग्रह) ६७ ।।
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सभी प्रकार के आरम्भ का परित्याग करना ही निर्ममत्व है ।
२२५ प्रमत्त पुरुप धन के द्वारा न तो इस लोक मे अपनी रक्षा कर सकता है और न परलोक में ही ।
२२६ विश्व के सभी प्राणियो के लिए परिग्रह के समान दूसरा कोई जाल नही, वन्धन नही।
२२७ इच्छा आकाश के समान अनन्त है।
२२८ धन धान्य नौकर चाकर आदि का परिग्रह त्यागना, सर्व हिंसात्मक प्रवृत्तियो को छोडना और निरपेक्ष भाव से रहना यह अत्यन्त दुष्कर है।
२२६ जव मनुष्य दैविक और मनुष्य सम्बन्धी भोगो से विरक्त हो जाता है, तब वह आम्यन्तर और वाह्य परिग्रह को छोडकर आत्म-साधना मे जुट जाता है।
२३० जो भी वस्त्र पात्र कम्बल और रजोहरण हैं उन्हे मुनि सयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही रखते है किसी समय वे मयम की रक्षा के लिए इनका परित्याग भी करते हैं।