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प्रशरण
१८९ अज्ञानी मनुष्य धन पशु और जाति वालो को अपना शरण मानता है, और समझता है कि 'ये मेरे हैं । और मै इनका है" परन्तु इनमें से कोई भी अन्त मे त्राण तथा शरण देने वाला नहीं है।
९९० स्त्री, पुत्र, मित्र, वन्धुजन, सब कोई जीते जी के ही साथी है, मरने पर कोई भी साथ नही निभाता ।
९६१ संसार मे सव प्राणी अपने कृत कर्मों के द्वारा ही दुखी होते हैं । अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म है उसका फल भोगे विना पिंड नही छूटता।
88२ ससार मे लोग भिन्न भिन्न अभिप्राय वाले होते हैं, पर अपना अपना दुख सव को स्वय ही भोगना पडता है।
जैसे सिंह हिरण को पकड ले जाता है, उसी तरह अन्त समय मृत्यु भी मनुष्य को उठा ले जाती है । उस समय माता पिता भाई आदि कोई भी उसके दु.ख मे भागीदार नही बनते । २१