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धर्म और नीति (वीतराग) १०१
३२९ अग्नि शिखा के समान प्रदीप्त एवं प्रकाशमान रहने वाले अन्तर्लीन साधक के तप प्रज्ञा और यश निरन्तर, बढते रहते हैं।
३३० अहं रहित एवं अनासक्त भाव से मुनि को राग द्वेष के प्रसगो से दूर रहना चाहिए।
३३१ प्राप्त होने पर भी काम भोगो को स्वीकार नही करना चाहिए।
३३२ वीतराग भाव से राग और तृष्णा के वधन कट जाते हैं।
जो भले और बुरे शब्दादि के विषयो मे समाव रहता है वह वीतराग है।
३३४ रागात्मा को ही मन एवं इन्द्रियो के विषय दु ख के हेतु होते है । वीतराग को तो वे किञ्चित् मात्र भी दुखी नही वना सकते।
३३५
आत्मवेत्ता साधक को निःस्पृह होकर आने वाले कष्टो को सहन करना चाहिए।