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क्रोध
३७६ पर्वत की दरार के समान जीवन में कभी नही मिटने वाला उग्र क्रोध आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है।
क्रोध मे अवा हुमा व्यक्ति सत्य, शील और विनय का नाश कर डालता है।
३८१ जो मनुष्य क्रोधी अविवेकी अभिमानी दुर्वादी कपटी और धूर्त है. वह संसार के प्रवाह मे वैसे ही वह जाता है जैसे जल के प्रवाह मे काष्ठ ।
३८२ अपने आप पर भी कभी क्रोध न करो।
३८३ क्रोध को जीत लेने से क्षमाभाव जागृत होता है।
३८४ कषाय को अग्नि कहा है।
३८५ क्रोध से नीची गति को जाता है।