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धर्म और नीति (माया) १३१
४१८
मायावी जीव मिथ्यादृष्टि होता है, अमायावी सम्यग्दृष्टि
४१६ माया मित्रता का नाश करती है ।
४२० धर्म के विपय मे की हयी मुक्ष्म माया भी अनर्थ का कारण बनती है।
४२१ लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ वढता है परन्तु कपट और झूठ का प्रयोग करने पर भी वह दुख से मुक्त नही होता।
४२२
सदा के लिए माया को छोड दो।
४२३ माया उच्च गति का प्रतिघात करने वाली है।
४२४ माया मृपावाद को छोड दो।