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वैराग्य
मैं अकेला ही हूँ, मेरा कोई नहीं है, और मैं भी किसी का नही हूँ।
५५२ तुम्हारा शरीर निश्चय ही जीर्ण होने वाला है।
५५३ हे गौतम | यह तुम्हारा शरीर छूट जाने वाला है, विध्वंस हो जाने वाला है।
५५४ जैसे वृक्ष का पीला पत्ता गिर पडता है, वैसे ही मनुष्य के जीवन को समझो। । ।
जैसे घास पर ओस की बु द अस्थिर होती है वैसे ही यह मनुष्य जीवन भी अस्थिर है।
५५६ जैसे कुगान पर ठहरा हुआ जलविंदु हवा द्वारा प्रेरणा पाकर गिर पड़ता है वैसे ही बाल जन का भोगी जीवन भी नष्ट हो जाता है ।