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अप्रमाद
८२७ जो प्रमत्त है विषयासक्त हैं वह निश्चित ही जीवो को दण्ड देने वाले होते हैं।
८२८ मेधावी साधक को आत्मज्ञान द्वारा यह निश्चय करना चाहिए। कि मैने पूर्व जीवन मे प्रमाद वश जो कुछ भूले की हैं वे अब कभी नही करूगा।
८२९ अनन्त जीवन प्रवाह में मानव जीवन को बीच का एक सुअवसर जान कर धीर साधक मुहूर्त भर के लिए भी प्रमाद न करे।
८३० वुद्धिमान साधक को अपनी साधना मे प्रमाद नही करना चाहिए।
प्रमत्त को सब ओर भय रहता है अप्रमत्त को किसी ओर भी भय नहीं रहता है।
५३२ उठो प्रमाद मत करो।
८३३
प्रमाद को कर्म, आश्रव और अप्रमाद को अकर्म, संवर कहा है।