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धर्म और नीति (ब्रह्मचर्य) ५७
१८८ जिस प्रकार कछुआ अपने अगो को अन्दर सिकोड़ कर भयमुक्त हो जाता है, उसी प्रकार साधक अध्यात्मयोग के द्वारा अन्तरात्माभिमुख होकर अपने आप को विपयो से बचाये रखे।
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ब्रह्मचारी को घी और दूध आदि रसो का सेवन नही करना चाहिए । क्योकि रस प्रायः उद्दीपक होते हैं, उद्दीत पुरुष के निकट काम वासना वैसे ही चली जाती है, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष के पास पक्षी चले आते हैं। ।
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भोगो के प्राप्त होने पर भी उनकी इच्छा नही करे।
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१६१ ब्रह्मचारी के लिए स्त्री के शरीर से भय रहता है।
१६२ ब्रह्मचर्य मे रत होता हुआ अतिमात्रा मे भोजन नही करे।
१६३ साधु स्त्रियो के साथ पूर्वकाल मे भोगे हुए भोगो को याद होने नही करे।
१६४ वैराग्य भावना से श्रेष्ठं धर्म रूप श्रद्धा उत्पन्न होती है।