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धर्म और नीति (मपरिग्रह) ६६
२३१ जो मनुष्य धन को अमृत मानकर अनेक पाप कर्मों द्वारा उसका उपार्जन करते हैं वे धन को छोड़कर मौत के मुंह में जाने को तैयार हैं । वे वैर से बंधे हुए मरकर नरकवास प्राप्त करते हैं।
२३२
अज्ञानी मनुष्य जिस कुल में उत्पन्न होता है अथवा जिसके साथ निवास करता हैं उसमे ममत्व भाव रखता हुआ अपने से भिन्न वस्तुओ में इस मूभिाव से अन्त मे वह बहुत दु.खित होता है।
२३३ यदि धन धान्य परिपूर्ण यह सारी सृष्टि किसी एक व्यक्ति को । दे दी जाय तव भी उसे संतोष होने का नहीं क्योंकि लोभी आत्मा की तृष्णा दुष्पूर होती है। -
२३४ जो लोग भगवान महावीर के वचनो में अनुरक्त है वे मक्खन, नमक, तेल, घृत, गुड़ आदि किसी भी वस्तु के संग्रह करने का मन मे संकल्प तक नहीं लाते ।
२३५ जो साधु मर्यादा विरुद्ध कुछ भी संग्रह करना चाहता है वह साधु नही बल्कि गृहस्थ ही है ।