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________________ धर्म और नीति (समभाव) ६३ ३०२ समभाव उसी को रह सकता है जो अपने को हर किसी भय से मुक्त रखता हैं। ३०३ समग्र विश्व को जो समभाव से देखता है वह न किसी का प्रिय करता है और न अप्रिय अर्थात् समदर्शी अपने पराए की भेद बुद्धि से परे होता है। ३०४ हे आर्य ! आत्मा ही समत्व भाव है, और आत्मा ही सामायिक का अर्थ है। ३०५ शारीरिक कष्टो को समभाव पूर्वक सहने से, महावल की प्राप्ति होती है। ३०६ मनचाहा लाभ न होने पर झुजलाए नही ३०७ जो लाभ न होने पर खिन्न नही होता है, और लाभ होने पर अपनी वडाई नही हाँकता है, वही पूज्य है । ३०८ जो अपने को अपने से जानकर रागद्वेष के प्रसगो पर सम रहता है, वही साधक पूज्य है।
SR No.010170
Book TitleBhagavana Mahavira ki Suktiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1973
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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