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धर्म और नीति (लोभ) १३५
४३२ कैलाश के समान चादी और सोने के कैलाश के समान विशाल असख्य पर्वत भी यदि पास में हो तो भी तष्णाशील व्यक्ति की तृप्ति के लिए वे नहीं के बराबर हैं कारण आकाश के समान तृष्णा अनन्त है ।
४३३ ज्यो ज्यो लोभ होता है त्यो त्यो लोभ भी बढता जाता है देखिए पहले केवल दो मासे स्वर्ण की इच्छा थी बाद में वह तृष्णा करोडो पर भी पूरी न हो सकी।
४३४ हे महामुनि | ससार-तृष्णा एक भयकर लता है जिसके फल भी बडे भयकर है । मैं उस लता का उच्छेद करके सुख पूर्वक विचरण करता हूँ।
४३५ जिसको लोभ नही, उसकी तृष्णा नष्ट हो गयी।
४३६ लोभ का प्रसग आने पर व्यक्ति असत्य का आश्रय ले लेता है।
४३७
यह मेरा है, वह मेरा है, इस ममत्व बुद्धि के कारण, वाल जीव विलुप्त होते हैं।
४३८
निर्भय अकेला विचरने वाला सिंह भी मास के लोभ से जाल मे फस जाता है, वैसे ही मनुष्य भी।