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________________ अध्यात्म और दर्शन (वैराग्य) १८७ ५६४ प्राणी अकेला ही जाता है, और अकेला ही आता हैं। ५६५ वैराग्य भावना से श्रेष्ठ धर्म रूप श्रद्धा उत्पन्न होती है। ५६६ जैसे सूखे गोले पर कुछ चिपक नही सकता वैसे ही विरक्त आत्माएं कर्म मल से सलग्न नही होती। ५६७ जब पाप कर्मों का वेग क्षीण होता है और अन्तरात्मा क्रमश. शुद्धि को प्राप्त होता है तब कही मनुष्य जन्म मिलता है। ५६८ जन्म दु ख है जरा बुढापे का दुख है रोग मरण का दुःख है, अहो ! सारा संसार दुख रूप ही है। यहाँ सब प्राणी दुःख की आग मे जल रहे हैं। ५६६ पण्डित ! सुख और दुख प्रत्येक प्राणी को सहने पड़ते हैं, अब भी जीवन की घड़ियाँ शेप हैं । इस प्रकार का विचार करके अवसर को पहचान, इसे मत भूल । मानव शरीर असार है आधिव्याधियो का घर है जरा और मरण से ग्रस्त है अत. मैं क्षण भर भी इसमे रहना नही चाहता।
SR No.010170
Book TitleBhagavana Mahavira ki Suktiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1973
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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