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________________ भिक्षाचरी ७६४ जिस प्रकार भ्रमर वृक्ष के फूलो से थोड़ा-थोडा रस पीता है, किसी पुष्प को म्लान नही करता और अपनी आत्मा को सन्तुष्ट कर लेता है। उसी प्रकार लोक मे जो मुक्त श्रमण-साधु है, वे दाता द्वारा दिए गए दान आहार और एपणा मे रत रहते हैं, जैसे भ्रमर पुष्पो मे। भिक्षु को यदि नियमानुसार निर्दोष आहार न मिले तो दु ख न करे, किन्तु “सहज ही तप होगा" ऐसा मानकर क्षुधा आदि परिषहो को सहन करे। ७६७ साधु सदा धनवान और गरीब घरो की भिक्षा करे, वह निर्धन कुल का घर समझकर, उसे टालकर धनवान के घर न जाए। ७६८ वर्षा वरस रही हो, कुहरा छा रहा हो, आधी चल रही हो और मार्ग मे जीवजन्तु उड़ रहे हो, ऐसी स्थिति मे साधु भिक्षा के लिए अपने स्थान से वाहर न निकले।
SR No.010170
Book TitleBhagavana Mahavira ki Suktiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1973
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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