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धर्म और नीति (वीतराग) ६६
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लोकेषणा से मुक्त रहना चाहिए। जिसको यह लोकेषणा नही है, उससे अन्य पाप प्रवृत्तियाँ कैसे हो सकती है ?
३२४ यह शक्य नही है कि कानो मे पडने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने न जाएं। अतः शब्दो का नही, पर शब्दो के प्रति जगने वाले राग द्वेष का साधु को त्याग करना चाहिए।
३२५ यह शक्य नहीं है कि आँखो के सामने आने वाला अच्छा या दुरा रूप देखा न जाए । अत. रूप का यही पर होने वाले राग द्वेप का साधु को त्याग करना चाहिए।
यह गक्य नही है कि नाक के समक्ष आया हुआ गन्ध या दुर्गन्ध, सूचने मे न आए । अत. गध का नही किन्तु गध के प्रति जगने वाले राग द्वेष का त्याग करना चाहिए।
३२७ यह शक्य नही है कि जीभ पर आया हुआ अच्छा या बुरा रस चखने मे न आए। अत रस का नही पर रस से होने वाले राग द्वेप का साधु को त्याग करना चहिए।
३२८ यह शक्य नहीं है कि शरीर के स्पर्श होने वाले अच्छे या बुरे स्पर्श की अनुभूति न हो । अत स्पर्श का नही पर स्पर्श से जगने वाले राग द्वेप का साधु को त्याग करना चाहिए।