________________
सेवा
आचार्यादि की वैयावृत्त्य करने से जीव तीर्थकर नाम गौत्र का उपार्जन करता है।
५०१ अनाश्रित एव असहायजनो को सहयोग एवं आश्रय देने के लिए तत्पर रहना चाहिए।
५०२ रोगी की सेवा करने के लिए सदा अग्लानभाव से तैयार रहना चाहिए।
जो दूसरो के सुख एवं कल्याण का प्रयत्न करता है वह स्वय भी सुख एव कल्याण को प्राप्त होता है ।
५०४ शिष्य अप्रमादी होता हुआ आचार्य की सेवा भक्ति करे