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________________ अध्यात्म और दर्शन (मशरण) ३२३ संमारी मनुष्य अपने प्रियजनो के लिए बुरे से बुरे कर्म भी कर डालता है, पर जव उसका दुष्फल भोगने का समय आता है, तव अकेला ही दु ख भोगता है । कोई भी भाई वन्धु उसका दुख बटाने वाला नही होता है। ६६५ पढ़े हुए वेद तेरा त्राण नही कर सकते, जिमाए हुए बाह्मण अन्धकार से अन्धकार मे ले जाते हैं तथा पैदा किये हुए पुत्र भी, रक्षा नही कर सकते । एसी दशा मे कौन विवेकी पुरुष इन्हें स्वीकार करेगा। १६६ दास, दासी, द्वीपद, घोड़ा, हाथी, चतुष्पद, क्षेत्र, गृह और धन घान्य सब कुछ छोडकर, विवशता की अवस्था मे प्राणी अपने कृत कमों के साथ अच्छे या बुरे परभव को चला जाता है। ६६७ जन्म जरा मरण रोग का दुःख है । अहो ! सारा ससार दुःखमय ही है । जब देखो तब प्रत्येक प्राणि क्लेश पा रहा है। १८ यह शरीर अनित्य है, अशुचि है। अशुचि से उत्पन्न हुआ है, दुख और क्लेशो का धाम है। जीवात्मा का निवास अल्प है, अचानक छोड़ के जाना है।
SR No.010170
Book TitleBhagavana Mahavira ki Suktiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1973
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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