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धर्म और नीति (विनय) १४३
४५४ विनय से साधक को शील-सदाचार मिलता है अत. उसकी खोज करनी चाहिए।
४५५ धर्म का मूल विनय-आचार है ।
४५६ जहा कही भी अपने धर्माचार्य को देखें, वही उन्हे वन्दन नमस्कार करना चाहिए ।
४५७ बडो के साथ विनय पूर्वक व्यवहार करो।
४५८ जो अपने आचार्य एव उपाध्यायो की शुश्र पा-सेवा तथा उनकी आज्ञा का पालन करता है उनकी शिक्षाएं वैसे ही बढती है जैसे कि जल से सीचे जाते पर वृक्ष ।
४५६ अवनीत दु ख का भागी होता है और विनीत सुख का भागी।
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जो गुरुजनो की आज्ञा का पालन करता है, वह शिष्य पूज्य होता है।
४६१ जो गुरुजनो की आज्ञा का पालन करता है उनके निकट सपर्क मे रहता है एव उनके हर सकेत व चेष्टा के प्रति सजग रहता उसे विनीत कहा जाता है।