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________________ तप २५२ देह का दमन करना तप है, यह महान फलप्रद है । कोटि कोटि भवो के सचित कर्म तपस्या की अग्नि मे भस्म हो जाते हैं। २५४ तप के द्वारा पूजा प्रतिष्ठा की अभिलाषा नही करनी चाहिए। २५५ केवल कर्म निर्जरा के लिए तपस्या करनी चाहिए । इहलोक परलोक व यश कीर्ति के लिए नही । २५६ जिस प्रकार शकुनी नाम का पक्षी अपने परो को फडफडा कर उन पर लगी धूल को झाड देता हैं उसी प्रकार तपस्या के द्वारा मुमुक्षु अपने कृतकों का बहुत शीघ्र ही अपनयन कर देता है। २५७ तपो मे सर्वोत्तम तप है ब्रह्मचर्य । २५८ तप का आचरण तलवार की वार पर चलने के समान दुष्कर है ।
SR No.010170
Book TitleBhagavana Mahavira ki Suktiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1973
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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