Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. पूज्य गुरुदेव श्रीजोरावरमलजी महाराज की स्मृति में आयोजित সতীজেস্ট তুলসকে युवाचार्य श्री मधुकर मुनि उचासगढ़साओ. (मूल-अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-पटिरीटालट युक्त) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत श्रीसुव्रतमुनि 'सत्यार्थी शास्त्री एम. ए. (हिन्दी-संस्कृत) परमपूज्य, विद्वद्वरेण्य, तत्त्ववेत्ता, प्रबुद्ध मनीषी, आगमबोधनिधि, श्रमणश्रेष्ठ, स्व. युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. 'मधुकर' जी प्राचीन विद्या के सर्वतन्त्रस्वतन्त्र प्रवक्ता थे। अापके मार्गदर्शन एवं प्रधान सम्पादकत्व में जैन आगम प्रकाशन का जो महान् श्रुत-यज्ञ प्रारम्भ हुआ, उसमें प्रकाशित श्री आचारांग, उत्तराध्ययन, व्याख्याप्रज्ञप्ति और उपासकदशांग आदि सूत्र गुरुकृपा से देखने को मिले / आगमों की सामयिक भाषा-शैली, और तुलनात्मक विवेचन एवं विश्लेषण अतीव श्रमसाध्य है। शोधपूर्ण प्रस्तावना, अनिवार्य पादटिप्पण एवं परिशिष्टों से आगमों की उपयोगिता सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकार के पाठकों के लिए सुगम हो गई है तथा आधुनिक शोध-विधा के लिए अत्यन्त उपयोगी है / सभी सूत्रों की सुन्दर शुद्ध छपाई, उत्तम कागज और कवरिंग बहुत ही आकर्षक है। अतीव अल्प समय में विशालकाय 30 आगमों का प्रकाशन महत्त्वपूर्ण अवदान है। इसका श्रेय श्रुत-यज्ञ के प्रणेता प्रागममर्मज्ञ, पूज्यप्रवर युवाचार्य श्री जी म. को है तथापि इस महनीय श्रुत-यज्ञ में जिन पूज्य गुरुजनों, साध्वीवृन्द एवं सद्गृहस्थों ने सहयोग दिया है वे सभी अभिनन्दनीय एवं प्रशंसनीय हैं। आगम प्रकाशन समिति विशेष साधुवाद की पात्र है। Jai Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं जिनागम-ग्रन्थमाला: ग्रन्थांक--३ [परम श्रद्धय गुरुदेव पूज्य श्री जोरावरमलजी महाराज की पुण्यस्मृति में आयोजित] पंचम गणधर भगवत्सुधर्म-स्वामि-प्रणोत सप्तम अंग उपासकदशांग सूत्र [मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, परिशिष्ट युक्त प्रेरणा उपप्रवर्तक शासनसेवी स्व० स्वामी श्री ब्रजलालजी महाराज आद्य संयोजक तथा प्रधान सम्पादक स्व० युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादक--विवेचक-सम्पादक। डॉ. छगनलाल शास्त्री, एम. ए. (हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, जैनोलोजी) पी-एच. डी. काव्यतीर्थ, विद्यामहोदधि प्रकाशक - श्री आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-प्रन्यमाला : ग्रन्या३ / निर्देशन साध्वीश्री उमरावकुंवर 'अर्चना' / सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मनिश्री कन्हैयालाल 'कमल' उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि पण्डित श्री शोभाचन्द्र भारिल्ल / / सम्प्रेरक मनिश्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर' [] प्रकाशनतिथि प्रथम संस्करण : वीरनिर्वाण संवत् 2507, ई. सन् 1980 द्वितीय संस्करण : वीर निर्वाण सं० 2515, ई. सन् 1989 / प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति वज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) / मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ D मूल्य :535) सर्पो ल्य 44) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Sri Joravarmalji Maharaj Fifth Ganadhara Sudharma Swami Compiled Seventh Anga UPASAKADASANGA SUTRA [ Original Text, Hindi Version, Notes, Annotation and Appendices etc. ) Inspiring Soul Up-pravartaka Shasansevi Rev. Swami Sri Brijlalji Maharaj mi Sti Brillahi Mahara Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj 'Madhukar' Editor & Anootator Dr. Chhaganlal Shastri, M. A. Ph. D. Publishers Sri Agama Prakashan Samiti Beawar (Raj) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 3 1 Direction Sadhvi Umravkunwar Archana' (Board of Editors Anuyoga-pravartaka Muni Shri Kanhaiyalal 'Kamal Upachrya Sri Devendramuni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharilla O Promotor Munisri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendramuni 'Dinakar' Publishers Sri Agam Prakashan Samiti, Brij-Madhukar Smriti-Bhawan, Pipalia Bazar, Beawar (Raj.) Pin 305 901 O Printer Satishchandra Shukla Vedic Yantralaya Kaisarganj, Ajmer 44 = Price : Rs. 351. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिनका हृदय अलौकिक माधुर्य से प्राप्लावित है, जिनकी वाणी में अद्भुत प्रोज है, जिनकी कर्तृत्व-क्षमता अनूठी है, उन्हीं श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ के आधारस्तम्भ श्रमणसूर्य कविवर्य महास्थविर मरुधरकेसरी प्रवर्तकवर्य मनि श्री मिश्रीमलजी महाराज के कर-कमलों में सादर, सविनय और सभक्ति / 0 मधुकर मुनि (प्रथम संस्करण से) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्रमण भगवान् महावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी के पावन प्रसंग पर साहित्य प्रकाशन की एक नई उत्साहपूर्ण लहर उठी। भारत की प्रायः प्रत्येक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थानों ने अपनेअपने साधनों और समय के अनुरूप भगवान् महावीर से सम्बन्धित साहित्य प्रकाशित किया। इस प्रकार उस समय जैनधर्म-दर्शन और भगवान महावीर के लोकोत्तर जीवन और उनकी कल्याणकारी शिक्षानों से सम्बन्धित विपुल साहित्य का सृजन व प्रकाशन हुआ। __ इसी प्रसंग पर स्वर्गीय विद्वद्रत्न युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. 'मधुकर' के मन में एक उदात्त भावना जागृत हुई कि भगवान् महावीर से सम्बन्धित प्रभूत साहित्य प्रकाशित हो रहा है / यह तो ठीक किन्तु श्रमण भगवान् महावीर के साथ आज हमारा जो सम्पर्क है, वह उनकी जगतपावन वाणी के माध्यम से है, जिसके सम्बन्ध में कहा गया है-- सव्वजगजीवरक्खणदयट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं / अर्थात जगत् के समस्त प्राणियों की रक्षा और दया के लिये ही भगवान् की धर्म-देशना प्रस्फुटित हुई थी। अतएव इस भगवद्वाणी का प्रचार व प्रसार करना प्राणिमात्र की दया का ही कार्य है। विश्वकल्याण के लिये इससे अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई कार्य नहीं हो सकता है है। इसलिये उनकी मूल एवं पवित्र वाणी जिन आगमों में है, उन आगमों को सर्वसाधारण के लिये सुलभ कराया जाये। युवाचार्यश्री जी ने कतिपय वरिष्ठ आगमप्रेमी श्रावकों तथा विद्वानों के समक्ष अपनी भावना प्रस्तुत की। धीरे-धीरे युवाचार्य श्री जी की भावना और आगमों के संपादन-प्रकाशन की चर्चा बल पकड़ती गई। विवेकशील और साहित्यानुरागी श्रमण व श्रावक वर्ग ने इस पवित्रतम कार्य की सराहना और अनुमोदना की। __ इस प्रकार जब आगमप्रकाशन के विचार को सभी ओर से पर्याप्त समर्थन मिला तब युवाचार्य श्री जी के वि. सं. 2035 के ब्यावर चातुर्मास में समाज के अग्रगण्य श्रावकों एवं विद्वानों की एक बैठक आयोजित की गई और प्रकाशन की रूपरेखा पर विचार किया गया। योजना के प्रत्येक पहल के बारे में सुदीर्घ चिन्तन-मनन के पश्चात् वैशाख शुक्ला 10 को जो भगवान् महावीर के केवलज्ञान कल्याणक का शुभ दिन था, आगमबत्तीसी के प्रकाशन की घोषणा कर दी और कार्य प्रारम्भ कर दिया गया। कार्य की सफलता के लिये विद्वद्वर्ग का अपेक्षित सहयोग प्राप्त हुना। विद्वज्जन तो ऐसे कार्यों को करने लिये तत्पर रहते ही हैं और ऐसे कार्यों को करके आत्मपरितोप्प की अनुभूति करते हैं, किन्तु श्रावक वर्ग ने भी तन-मन-धन से सहयोग देने की तत्परता व्यक्त कर व्यवस्थित कार्य [7] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचालन के लिये ब्यावर में 'श्री आगम प्रकाशन समिति' के नाम से संस्था स्थापित कर आवश्यक धनराशि की व्यवस्था कर दी। प्रारम्भ में प्राचारांग आदि नामक्रमानुसार शास्त्रों को प्रकाशित करने का विचार किया गया था, किन्तु ऐसा अनुभव हुआ कि भगवती जैसे विशाल आगम का संपादन अनुवाद होने आदि में बहुत समय लगेगा और तब तक अन्य आगमों के प्रकाशन को रोक रखने से समय भी अधिक लगेगा और पाठकवर्ग को सैद्धान्तिक वोध कराने के लिये योजना प्रारम्भ की है, वह उद्देश्य भी पूरा होने में विलम्ब होगा तथा यथाशीघ्र शुभ कार्य को सम्पन्न करना चाहिये। अत: यह निर्णय हुआ कि जो-जो शास्त्र तैयार होते जायें, उन्हें ही प्रकाशित कर दिया जाये। जैसे-जैसे आगम ग्रन्थ प्रकाशित होते गये, वैसे-वैसे पाठकवर्ग भी विस्तृत होता गया एवं अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भी इन ग्रन्थों को निर्धारित किया गया / अतः पुनः यह निश्चय किया गया कि प्रथम संस्करण की प्रतियों के अप्राप्य हो जाने पर द्वितीय संस्करण भी प्रकाशित किये जायें, जिससे सभी पाठकों को पूरी आगमबत्तीसी सदैव उपलब्ध होती रहे। एतदर्थ इस निर्णयनुसार अभी आचारांरसूत्र और उपासकदशांगसूत्र के द्वितीय संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं तथा ज्ञाताधर्मकथांग आदि सूत्र भी यथाशीघ्र प्रकाशित होंगे। द्वितीय संस्करण के प्रकाशन में लागत व्यय की वृद्धि हो जाने पर भी ग्रन्थों के मूल्य में सामान्य वृद्धि की गई है। अनेक प्रबुद्ध सन्तों, विद्वानों तथा समाज ने प्रस्तुत प्रकाशनों की प्रशंसा करके हमारे उत्साह का संवर्धन किया है और सहयोग दिया है, उसके लिये आभारी हैं तथा पाठकवर्ग से अपेक्षा है कि आगम साहित्य के अध्ययन-अध्यापन, प्रचार-प्रसार में हमारे सहयोगी बनें। इसी पाशा और विश्वास के साथ रतनचन्द मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष सायरमल चोरडिया अमरचन्द मोदी महामन्त्री मन्त्री श्री पागम प्रकाशन समिति, ब्यावर Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શારd (प्रथम संस्करण से) जैनधर्म, दर्शन व संस्कृति का मूल प्राधार वीतराग सर्वज्ञ की वाणी है। सर्वज्ञ-अर्थात् प्रात्मद्रष्टा / सम्पूर्ण रूप से आत्मदर्शन करने वाले ही विश्व का समग्र दर्शन कर सकते हैं / जो समग्र को जानते हैं, वे ही तत्त्वज्ञान का यथार्थ निरूपण कर सकते हैं। परमहितकारी निःश्रेयस् का यथार्थ उपदेश कर सकते हैं / सर्वज्ञों द्वारा कथित तत्त्वज्ञान, आत्मज्ञान तथा प्राचार-व्यवहार का सम्यक् परिबोध-'पागम', शास्त्र या सूत्र के नाम से प्रसिद्ध है। तीर्थंकरों की वाणी मुक्त सुमनों को वृष्टि के समान होती है, महान् प्रज्ञावान् गणधर उसे सूत्र रूप में प्रथित करके व्यवस्थित 'आगम' का रूप देते हैं।' आज जिसे हम 'पागम' नाम से अभिहित करते हैं, प्राचीन समय में वे 'गणिपिटक' कहलाते थे। 'गणिपिटक' में समग्र द्वादशांगी का समावेश हो जाता है। पश्चाद्वर्ती काल में इसके अंग, उपांग आदि अनेक भेद किये गये। जब लिखने की परम्परा नहीं थी, तब आगमों को स्मृति के आधार पर गुरु-परम्परा से सुरक्षित रखा जाता था। भगवान् महावीर के बाद लगभग एक हजार वर्ष तक 'पागम' स्मृतिपरम्परा पर ही चले आये थे / स्मृति-दुर्बलता, गुरु-परम्परा का विच्छेद तथा अन्य अनेक कारणों से धीरे-धीरे आगमज्ञान भी लुप्त होता गया / महासरोवर का जल सूखता-सूखता गोष्पद मात्र ही रह गया था / तब देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने श्रमणों का सम्मेलन बुलाकर, स्मृति-दोष से लुप्त होते आगमज्ञान को, जिनवाणी को सुरक्षित रखने के पवित्र उद्देश्य से लिपिबद्ध करने का ऐतिहासिक प्रयास किया। वल्लभी [सौराष्ट्र में आचार्य देवद्धिगणी ने तथा मथुरा में आचार्य नागार्जुन ने जिनवाणी को पुस्तकारूढ़ करके आने वाली पीढ़ी पर अवर्णनीय उपकार किया तथा जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की धारा को प्रवहमान रखने का अद्भुत कार्य किया / आगमों का यह प्रथम सम्पादन वीर-निर्वाण के 980 या 993 वर्ष पश्चात् सम्पन्न हुआ। पुस्तकारूढ़ होने के बाद जैन आगमों का स्वरूप मूल रूप में तो सुरक्षित हो गया, किन्तु कालदोष, बाहरी आक्रमण, अान्तरिक मतभेद, विग्रह, स्मृति-दुर्बलता एवं प्रमाद आदि कारणों से आगम-ज्ञान की शुद्ध धारा, अर्थबोध को सम्यक् गुरु-परम्परा, धीरे-धीरे क्षीण होने से नहीं रुकी। आगमों के अनेक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ, पद तथा गूढ़ अर्थ छिन्न-विच्छिन्न होते चले गए / जो आगम लिखे जाते थे, वे भी पूर्ण शुद्ध नहीं होते, उनका सम्यक् अर्थ-ज्ञान देने वाले भी विरले ही रहे / अन्य भी अनेक कारणों से आगम-ज्ञान की धारा संकुचित होती गयी। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में लौंकाशाह ने एक क्रान्तिकारी प्रयत्न किया / आगमों के शुद्ध और यथार्थ अर्थ-ज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पुनः चालू हुआ / किन्तु कुछ काल बाद पुनः उसमें भी व्यवधान आ गए। साम्प्रदायिक द्वेष, सैद्धान्तिक विग्रह तथा लिपिकारों का अज्ञान आगमों की उपलब्धि तथा उसके सम्यक् अर्थबोध में बहुत विघ्न बन गए / 1. 'अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं / [9] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जब आगम-मुद्रण की परम्परा चली तो पाठकों को कुछ सुविधा हुई / आगमों की प्राचीन टीकाएँ, चणि व नियुक्ति जब प्रकाशित होकर तथा उनके माधार पर आगमों का सरल व स्पष्ट भावबोध मुद्रित होकर पाठकों को सुलभ हुआ तो आगमज्ञान का पठन-पाठन स्वभावत: बढ़ा, सैकड़ों जिज्ञासुओं में आगम-स्वाध्याय की प्रवृत्ति जगी व जैनेतर देशी-विदेशी विद्वान् भी आगमों का अनुशीलन करने लगे। आगमों के प्रकाशन-सम्पादन-मुद्रण के कार्य में जिन विद्वानों तथा मनीषी श्रमणों ने ऐतिहासिक कार्य किया, पर्याप्त सामग्री के अभाव में आज उन सबका नामोल्लेख कर पाना कठिन है। फिर भी मैं स्थानकवासी परम्परा के महान् मुनियों का नाम-ग्रहण अवश्य ही करूंगा। - पूज्य श्री अमोलकऋषिजी महाराज स्थानकवासी परम्परा के वे महान् साहसी व दृढ़ संकल्पबली मुनि थे, जिन्होंने अल्प साधनों के बल पर भी पूरे बत्तीस सूत्रों को हिन्दी में अनूदित करके जन-जन को सुलभ बना दिया। पूरी बत्तीसी का सम्पादन-प्रकाशन एक ऐतिहासिक कार्य था, जिससे सम्पूर्ण स्थानकवासी-तेरापंथी समाज उपकृत हुआ। गुरुदेव पूज्य स्वामीजी श्री जोरावरमलजी महाराज का एक संकल्प . मैं जब गुरुदेव स्व० स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज के तत्वावधान में प्रागमों का अध्ययन कर रहा था तब अागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित कुछ आगम उपलब्ध थे। उन्हीं के आधार पर गुरुदेव मुझे अध्ययन कराते थे / उनको देखकर गुरुदेव को लगता था कि यह संस्करण यद्यपि काफी श्रमसाध्य है, एवं अब तक के उपलब्ध संस्करणों में काफी शुद्ध भी है, फिर भी अनेक स्थल अस्पष्ट हैं, मूल पाठ में ब उसकी वृत्ति में कहीं-कहीं अन्तर भी है। ___ गुरुदेव स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज स्वयं जैन सूत्रों के प्रकांड पण्डित थे / उनकी मेधा बड़ी व्युत्पन्न व तर्कणाप्रधान थी। आगम-साहित्य की यह स्थिति देखकर उन्हें बहुत पीड़ा होती और कई बार उन्होंने व्यक्त भी किया कि प्रागमों का शुद्ध, सुन्दर व सर्वोपयोगी प्रकाशन हो तो बहत लोगों का भला होगा। कुछ परिस्थितियों के कारण उनका संकल्प, मात्र भावना तक सीमित रहा। इस बीच प्राचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज, जैनधर्म दिवाकर आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज, पूज्य श्री घासीलालजी महाराज, आदि विद्वान् मुनियों ने आगमों की सुन्दर व्याख्याएँ व टीकाएँ लिखकर अथवा अपने तत्त्वावधान में लिखवाकर इस कमी को पूरा किया है। वर्तमान में तेरापंथ सम्प्रदाय के आचार्य श्री तुलसी ने भी यह भगीरथ प्रयत्न प्रारम्भ किया है और अच्छे स्तर से उनका आगम-कार्य चल रहा है / मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' आगमों की वक्तव्यता को अनुयोगों में वर्गीकृत करने का मौलिक एवं महत्त्वपूर्ण प्रयास कर रहे हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के विद्वान श्रमण स्व. मूनि श्री पूण्यविजयजी ने आगम-सम्पादन की दिशा में बहुत ही व्यवस्थित व उत्तम कोटि का कार्य प्रारम्भ किया था। उनके स्वर्गवास के पश्चात् मुनि श्री जम्बूविजयजी के तत्त्वावधान में यह सुन्दर प्रयत्न चल रहा है / [10] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त सभी कार्यों पर विहंगम अवलोकन करने के बाद मेरे मन में एक संकल्प उठा। आज कहीं तो आगमों का मूल मात्र प्रकाशित हो रहा है और कहीं आगमों की विशाल व्याख्याएँ की जा रही हैं / एक, पाठक के लिए दुर्बोध है तो दूसरी जटिल / मध्यम मार्ग का अनुसरण कर आगमवाणी का भावोद्घाटन करने वाला ऐसा प्रयत्न होना चाहिए जो सुबोध भी हो, सरल भी हो, संक्षिप्त हो, पर सारपूर्ण व सुगम हो / गुरुदेव ऐसा ही चाहते थे। उसी भावना को लक्ष्य में रखकर मैंने 4-5 वर्ष पूर्व इस विषय में चिन्तन प्रारम्भ किया था / सुदीर्घ चिन्तन के पश्चात् गतवर्ष दृढ़ निर्णय करके आगम-बत्तीसी का सम्पादन-विवेचन कार्य प्रारम्भ कर दिया और अब पाठकों के हाथों में पागम ग्रन्थ क्रमशः पहुँच रहे हैं, इसकी मुझे अत्यधिक प्रसन्नता है / अागम-सम्पादन का यह ऐतिहासिक कार्य पूज्य गुरुदेव को पुण्यस्मृति में आयोजित किया गया है। आज उनका पुण्यस्मरण मेरे मन को उल्लसित कर रहा है। साथ ही मेरे वन्दनीय गुरु-भ्राता पूज्य स्वामी श्री हजारीमलजी महाराज की प्रेरणाएँ, उनकी आगम-भक्ति तथा आगम सम्बन्धी तलस्पर्शी ज्ञान मेरा सम्बल बना है / अतः मैं उन दोनों स्वर्गीय आत्माओं की पुण्यस्मृति में विभोर हूँ। शासनसेवी स्वामीजी श्री ब्रजलाल जी महाराज का मार्गदर्शन, उत्साह-संवर्द्धन, सेवाभावी शिष्य मुनि विनयकुमार व महेन्द्रमुनि का साहचर्य-बल, सेवा-सहयोग तथा विदुषी साध्वी श्री उमरावकुवरजी 'अर्चना' की विनम्र प्रेरणाएँ मुझे सदा प्रोत्साहित तथा कार्यनिष्ठ बनाए रखने में सहायक रही हैं। मुझे दृढ़ विश्वास है कि आगम-वाणी के सम्पादन का यह सुदीर्घ प्रयत्नसाध्य कार्य सम्पन्न करने में मुझे सभी सहयोगियों, श्रावकों व विद्वानों का पूर्ण सहकार मिलता रहेगा और मैं अपने लक्ष्य तक पहुँचने में गतिशील बना रहूँगा / इसी आशा के साथ —मुनि मिश्रीमल 'मधुकर' 1. वि. सं. 2036, वैशाख शुक्ला 10, महावीर कैवल्यदिवस [11] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम संस्करण के अर्थसहयोगी स्त. श्रीमान् सेठ पुखराजजी शीशोदिया (जीवन-रेखा) सेठ पुखराजजी सा. शीशोदिया के व्यक्तित्व में अन्ठापन है। उनकी दृष्टि इतनी पैनी और व्यापक है कि वे अपने आसपास के समाज के एक प्रकार से संचालक और परामर्शदाता होकर रहते हैं / संभवत: उन्हें जितनी चिन्ता अपने गाहस्थिक कार्यों की रहती है उतनी ही दूसरे कार्यों की भी / श्री शीशोदियाजी के जीवन को देखकर सहसा ही प्राचीन काल के उन श्रावकों की सार्वजनिकता का स्मरण हो पाता है जिनसे समाज का हर व्यक्ति सलाह व संरक्षण पाता था। शीशोदियाजी का जन्म सं० 1968 में मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के दिन ब्यावर में हुआ / पिताजी का नाम श्री हीरालालजी था। आपके पिताजी की आर्थिक स्थिति साधारण थी। शिक्षा भी वाणिज्य क्षेत्र तक सीमित थी / उन दिनों शिक्षा के आज की तरह प्रचुर साधन भी उप लब्ध नहीं थे। पिताजी आपके बाल्यकाल में ही स्वर्गवासी हो गये / इन सब कारणों से शीशोदियाजी को उच्चशिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्राप्त नहीं हो सका / किन्तु शिक्षा का फल जिस योग्यता को प्राप्त करना है, और जिन शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियों का विकास करना है, वह योग्यता और वे शक्तियां उन्हें प्रचुर मात्रा में प्राप्त हैं / उनमें जन्मजात प्रतिभा है / उनकी प्रतिभा की परिधि बहुत विस्तृत है। व्यापारिक क्षेत्र में तथा अन्य सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों में आपको जो सफलता प्राप्त हुई है उसमें आपके व्यक्तित्व की अन्यान्य विशिष्टताओं के साथ आपकी प्रतिभा का वैशिष्टय भी कारण है। जिसकी आर्थिक स्थिति सामान्य हो और बाल्यावस्था में ही जो पिता के संरक्षण से वंचित हो जाय, उसकी स्थिति कितनी दयनीय हो सकती है, यह कल्पना करना कठिन नहीं है / किन्तु ऐसे विरल नरपुंगव भी देखे जाते हैं जो बिना किसी के सहारे, बिना किसी के सहयोग और बिना किसी की सहायता के केवल मात्र अपने ही व्यक्तित्व के बल पर अपने पुरुषार्थ और पराक्रम से और अपने ही बुद्धिकौशल से जीवन-विकास के पथ में आने वाली समस्त बाधाओं को कुचलते हुए आगे से आगे ही बढ़ते जाते हैं और सफलता के शिखर पर जा पहुँचते हैं। आपके पिताजी का स्वर्गवास संवत् 1980 में हुआ / उस वक्त आपके परिवार में दादाजी, माताजी व बहिन थी / पिताजी के स्वर्गवास के पश्चात् शीशोदियाजी के लिये सभी दिशाएँ अन्धकार से व्याप्त हो गई / मगर लाचारी, विवशता, दीनता और हीनता की भावना उनके निकट भी नहीं फटक सकी। यही नहीं परिस्थितियों की प्रतिकूलता ने आपके साहस, संकल्प और मनोबल को अधिक सुदृढ़ किया और आप कर्मभूमि के क्षेत्र में उतर पड़े / मात्र बारह वर्ष की उम्र में आपने 200, दो सौ रुपया ऋण लेकर साधारण व्यवसाय प्रारंभ किया। स्वल्प-सी पूजी और वह भी पराई, कितनी लगन और कितनी सावधानी उसे बढ़ाने के लिये बरतनी पड़ी होगी और कितना श्रम करना पड़ा होगा, यह अनुमान करना भी कठिन है। मगर प्रबल इच्छाशक्ति और पुरुषार्थ के सामने सारी प्रतिकूलताएं समाप्त हो जाती हैं और सफलता का सिंहद्वार खुल जाता है, इस सत्य के प्रत्यक्ष उदाहरण शीशोदियाजी हैं। [ 12 ] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज शीशोदियाजी बड़े लक्षाधीश हैं और नगर के गणमान्य व्यक्तियों में हैं / ब्यावर नगर आपके व्यवसाय का मुख्य केन्द्र है / ब्यावर के अलग-अलग बजारों में तीन दुकानें हैं / एक दुकान अजमेर में है / किशनगढ़-मदनगंज, विजयनगर और सोजत रोड में भी आपकी दुकानें रह चुकी हैं / प्रमुख रूप से आप आढ़त का ही धंधा करते हैं / आपका व्यापारिक क्षेत्र अधिकांश भारतवर्ष है। आपके चार पुत्र हैं-श्री भंवरलालजी, श्री जंवरीलालजी, श्री माणकचन्दजी और श्री मोतीलालजी / इन चार पुत्रों में से एक अध्ययन कर रहा है और तीन व्यापार कार्य में हाथ बंटा रहे हैं शीशोदियाजी का व्यापारिक कार्य इतना सुव्यवस्थित और सुचारु रहता है कि आपकी दुकान पर काम करने वाले भागीदारों तथा मुनीमों की भी नगर में कीमत बढ़ जाती है। आपके यहाँ कार्य करना व्यक्ति की एक बड़ी योग्यता (qualification) समझी जाती है / आपकी फर्मों से जो भी पार्टनर या मनीम अलग हए हैं. वे आज बडी शान व योग्यता से अपना अच्छा व्यवसाय चला रहे हैं। उन्होंने भी व्यवसाय में नाम कमाया है / ऐसी स्थिति में आपके सुपुत्र भी यदि व्यापारनिष्णात हों तो यह स्वाभाविक ही है। उन्होंने आपका बहुत-सा उत्तरदायित्व संभाल लिया है। इसी कारण आपको सार्वजनिक, धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों के लिये अवकाश मिल जाता है। ___ नगर की अनेक संस्थाओं से प्राय जुड़े हुए हैं। किसी के अध्यक्ष, किसी के कार्याध्यक्ष, किसी के उपाध्यक्ष, किसी के मंत्री, किसी के कोषाध्यक्ष, किसी के सलाहकार व सदस्य आदि पदों पर रह कर सेवा कर रहे हैं तथा अनेकों संस्थाओं की सेवा की है / मगर विशेषता यह है कि जिस संस्था का कार्यभार आप संभालते हैं उसे पूरी रुचि और लगन के साथ सम्पन्न करते हैं / श्री मरुधरकेसरी साहित्य प्रकाशन समिति, मुनि श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, आगम प्रकाशन समिति, श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन वीर संघ के तो आप प्रमुख आधार हैं। नगर की अन्य गोशाला, चेम्बर' सर्राफान आदि आदि संस्थाओं को भी पूरा योगदान दे रहे हैं। इस प्रकार शीशोदियाजी पूर्णरूप से आत्मनिर्मित एवं प्रात्मप्रतिष्ठित सज्जन हैं / अपनी ही योग्यता और अध्यवसाय के बल पर आपने लाखों की सम्पत्ति उपार्जित की है / मगर सम्पत्ति उपार्जित करके ही आपने सन्तोष नहीं माना, वरन उसका सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में सदुपयोग भी कर रहे हैं। एक लाख रुपयों से आपने एक पारमार्थिक ट्रस्ट की स्थापना की है / इसके अतिरिक्त आयके पास से कभी कोई भी खाली हाथ नहीं जाता। आपने कई संस्थाओं की अच्छी खासी सहा की है। आगम प्रकाशन समिति के पाप महास्तम्भ हैं और कार्यवाहक अध्यक्ष की हैसियत से आपही उसका संचालन कर रहे हैं। प्रस्तुत 'उपासकदशांग' सूत्र के प्रकाशन का सम्पूर्ण व्ययभार समिति के कार्यवाहक अध्यक्ष श्री शीशोदियाजी ने ही वहन करके महत्त्वपूर्ण योग दिया है / समिति इस उदार सहयोग के लिये आपकी ऋणी है। [ 13 ] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (प्रथम संस्करण से) धर्म का मुख्य आधार किसी भी धर्म के चिर जीवन का मूल आधार उसका वाङमय है। वाङमय में वे सिद्धान्त सुरक्षित होते हैं, जिन पर धर्म का प्रासाद अवस्थित रहता है। शाखा-प्रशाखाओं की बात को छोड़ दें, भारतीय धर्मों में वैदिक, बौद्ध और जैन मुख्य हैं। वैदिकधर्म का मूल साहित्य वेद है, बौद्धधर्म का पिटक है, उसी प्रकार जैनधर्म का मूल साहित्य आगमों के रूप में उपलब्ध है। आगम आगम विशिष्ट ज्ञान के सूचक हैं, जो प्रत्यक्ष या तत्सदृश बोध से जुड़ा है / दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है---प्रावरक हेतुओं या कर्मों के अपगम से जिनका ज्ञान सर्वथा निर्मल एवं शुद्ध हो गया, अविसंवादी हो गया, ऐसे प्राप्त पुरुषों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का संकलन अागम हैं / आगमों के रूप में जो प्रमुख साहित्य हमें आज प्राप्त हैं, वह अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर द्वारा भाषित और उनके प्रमुख शिष्यों- गणधरों द्वारा संग्रथित हैं। आचार्य भद्रबाहु ने लिखा है- "अर्हत् अर्थ भाषित करते हैं। गणधर धर्मशासन या धर्मसंघ के हितार्थ निपुणतापूर्वक सूत्ररूप में उसका ग्रथन करते हैं / यो सूत्र का प्रवर्तन होता है / "3 ___ इसका तात्पर्य यह हुआ कि भगवान महावीर ने जो भाव अपनी देशना में व्यक्त किये, वे गणधरों द्वारा शब्दबद्ध किये गये। आगमों की भाषा वेदों की भाषा प्राचीन संस्कृत है, जिसे छन्दस् या वैदिकी कहा जाता है / बौद्धपिटक पाली में हैं, जो मागधी प्राकृत पर आधृत है / जैन आगमों की भाषा अर्द्धमागधी प्राकृत है / अर्हत् इसी में अपनी धर्मदेशना देते हैं। समवायांग सूत्र में लिखा है "भगवान् अर्द्धमागधी भाषा में धर्म का आख्यान करते हैं / भगवान् द्वारा भाषित अर्द्धमागधी भाषा आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृप-रेंगने वाले जीव आदि सभी की भाषा 1. प्राप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः / उपचारादाप्तवचनं च ॥-प्रमाणनयतत्त्वालोक 4.1,2 / 2. प्रत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं / सासणस्स हियट्ठाए, तो सुत्तं पवत्तेइ ।।आवश्यकनियुक्ति 92 / [ 14 ] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में परिणत हो जाती है। उनके लिए हितकर, कल्याणकर तथा सुखकर होती है।'' आचारांगचूर्णि में भी इसी प्राशय का उल्लेख है। वहाँ कहा गया है कि स्त्री, बालक वृद्ध, अनपढ़--सभी पर कृपा कर सब प्राणियों के प्रति समदर्शी महापुरुषों ने अर्द्धमागधी भाषा में सिद्धान्तों का उपदेश किया / अर्द्धमागधी प्राकृत का एक भेद है। दशवकालिक वृत्ति में भगवान् के उपदेश का प्राकृत में होने का उल्लेख करते हुए पूर्वोक्त जैसा ही भाव व्यक्त किया गया है "चारित्र की कामना करने वाले बालक, स्त्री, वृद्ध, मूर्ख--अनपढ़-सभी लोगों पर अनुग्रह करने के लिए तत्त्वद्रष्टाओं ने सिद्धान्त की रचना प्राकृत में की / " अर्द्धमागधी भगवान् महावीर का युग एक ऐसा समय था, जब धार्मिक जगत् में अनेक प्रकार के आग्रह बद्धमूल थे। उनमें भाषा का आग्रह भी एक था / संस्कृत धर्म-निरूपण की भाषा मानी जाती थी। संस्कृत का जन-साधारण में प्रचलन नहीं था। सामान्य जन उसे समझ नहीं सकते थे / साधारण जनता में उस समय बोलचाल में प्राकृतों का प्रचलन था। देश-भेद से उनके कई प्रकार थे, मागधी. अर्द्धमागधी. शौरसेनी, पैशाची तथा महाराष्ट्री प्रमुख थीं। पूर्व भारत में अर्द्धमागधी और मागधी तथा पश्चिम में शौरसेनी का प्रचलन था / उत्तर-पश्चिम पैशाची का क्षेत्र था / मध्य देश में महाराष्ट्री का प्रयोग होता था / शौरसेनी और मागधी के बीच के क्षेत्र में अर्द्धमागधी का प्रचलन था। यों अर्द्धमागधी, मागधी और शौरसेनी के बीच की भाषा सिद्ध होती है / अर्थात् इसका कुछ रूप मागधी जैसा और कुछ शौरसेनी जैसा है, अर्द्धमागधी-आधी मागधी ऐसा नाम पड़ने में सम्भवतः यही कारण रहा हो। मागधी के तीन मुख्य लक्षण हैं। वहाँ श, ष, स-तीनों के लिए केवल तालव्य श का प्रयोग होता है। र के स्थान पर ल पाता है। अकारान्त संज्ञाओं में प्रथमा एक वचन उपयोग होता है / अर्द्धमागधी में इन तीन में लगभग आधे लक्षण मिलते हैं / तालव्य श का वहाँ बिलकुल प्रयोग नहीं होता / अकारान्त संज्ञाओं में प्रथमा एक वचन में ए का प्रयोग अधिकांश होता है / र के स्थान पर ल का प्रयोग कहीं-कहीं होता है। अर्द्धमागधी की विभक्ति-रचना में एक विशेषता और है, वहाँ सप्तमी विभक्ति में ए और म्मि के साथ-साथ अंसि प्रत्यय का भी प्रयोग होता है जैसे-नयरे नयरम्मि, नयरंसि / नवांगी टीकाकार प्राचार्य अभयदेव सूरि ने औपपातिकसूत्र में जहाँ भगवान महावीर की देशना के वर्णन के प्रसंग में अर्द्धमागधी भाषा का उल्लेख हुआ है, वहाँ अर्द्धमागधी को ऐसी भाषा 1. भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ / सावि य णं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसि सव्वेसिं प्रारियमणारियाणं दुप्पय-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खि-सरी सिवाणं अप्पणो हिय-सिव-सुहयभासत्ताए परिणमइ / -समवायांगसूत्र 34. 22. 23 / 2. बालस्त्रीवृद्धमूर्खाणां नृणां चारित्रकाक्षिणाम् / अनुग्रहार्थ तत्त्वज्ञ: सिद्धान्त: प्राकृतः कृतः / / -दशवकालिक वृत्ति पृष्ठ 223 / [15] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के रूप में व्याख्यात किया है, जिसमें मागधी में प्रयुक्त होने वाले ल और स का कहीं-कहीं प्रयोग तथा प्राकृत का अधिकांशतः प्रयोग था / ' व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र की टीका में भी उन्होंने इसी प्रकार उल्लेख किया है कि अर्द्धमागधी में कुछ मागधी के तथा कुछ प्राकृत के लक्षण पाये जाते हैं। आचार्य अभयदेव ने प्राकृत का यहाँ सम्भवतः शौरसेनी के लिए प्रयोग किया है / उनके समय में शौरसेनी प्राकृत का अधिक प्रचलन रहा हो। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृतव्याकरण में अर्द्धमागधी को आर्ष [ऋषियों की भाषा कहा है। उन्होंने लिखा है कि पार्षभाषा पर व्याकरण के सब नियम लागू नहीं होते, क्योंकि उसमें बहुत से विकल्प हैं / इसका तात्पर्य यह हुआ कि अर्द्धमागधी में दूसरी प्राकृतों का भी मिश्रण है। एक दूसरे प्राकृत वैयाकरण मार्कण्डेय ने अर्द्धमागधी के सम्बन्ध में उल्लेख किया है कि वह शौरसेनी के बहुत निकट है अर्थात् उसमें शौरसेनी के बहुत लक्षण प्राप्त होते हैं। इसका भी यही आशय है कि बहुत से लक्षण शौरसेनी के तथा कुछ लक्षण मागधी के मिलने से यह अर्द्धमागधी कहलाई। क्रमदीश्वर ने ऐसा उल्लेख किया है कि अर्द्धमागधी में मागधी और महाराष्ट्री का मिश्रण है / इसका भी ऐसा ही फलित निकलता है कि अर्द्धमागधी में मागधी के अतिरिक्त शौरसेनी का भी मिश्रण रहा है और महाराष्ट्री का भी रहा है। निशीथणि में अर्द्धमागधी के सम्बन्ध में उल्लेख है कि वह मगध के आधे भाग में बोली जाने वाली भाषा थी तथा उसमें अट्ठाईस देशी भाषाओं का मिश्रण था / इन वर्णनों से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्द्धमागधी उस समय प्राकृत-क्षेत्र की सम्पर्क-भाषा (Lingua-Franca) के रूप में प्रयुक्त थी, जो बाद में भी कुछ शताब्दियों तक चलती रही। कुछ विद्वानों के अनुसार अशोक के अभिलेखों की मूल भाषा यही थी, जिसको स्थानीय रूपों में रूपान्तरित किया गया था। भगवान् महावीर ने अपने उपदेश का माध्यम ऐसी ही भाषा को लिया, जिस तक जनसाधारण की सीधी पहुँच हो / अर्द्धमागधी में यह वात थी। प्राकृतभाषी क्षेत्रों के बच्चे, बूढ़े, स्त्रियाँ, शिक्षित, अशिक्षित-सभी उसे समझ सकते थे। 1. अद्धमागहाए भासाए त्ति रसोर्लशौ मागध्यामित्यादि यन्मागधभाषालक्षणं तेनापरिपूर्णा प्राकृतभाषालक्षणबहुला अर्द्धमागधीत्युच्यते। -उववाई सुत्र सटीक पृष्ठ 224-25 / (श्रीयुक्त राय धनपतिसिंह बहादुर प्रागम संग्रह जैन बुक सोसायटी, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित) 2. आर्ष--ऋषीणामिदमार्षम् / आर्ष प्राकृतं बहुलं भवति / तदपि यथास्थान दर्शयिष्यामः / आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते / / ---सिद्धहेम शब्दानुशासन 8.1.31 3. भाषाविज्ञान : डॉ. भोलानाथ तिवारी पृष्ठ 178 / (प्रकाशक--किताब महल, इलाहाबाद. 1961 ई.) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग-साहित्य गणधरों द्वारा भगवान् का उपदेश निम्नांकित बारह अंगों के रूप में संग्रथित हुआ 1. आचार, 2. सूत्रकृत्, 3. स्थान, 4. समवाय, 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति, 6. ज्ञातृधर्मकथा, 7. उपासकदशा, 8. अन्तकृद्दशा, 9. अनुत्तरौपपातिकदशा, 10. प्रश्नव्याकरण, 11. विपाक, 12. दृष्टिवाद / प्राचीनकाल में शास्त्र-ज्ञान को कण्ठस्थ रखने की परम्परा थी / वेद, पिटक और आगम-- ये तीनों ही कण्ठस्थ-परम्परा से चलते रहे। उस समय लोगों की स्मरणशक्ति, दैहिक संहनन, बल उत्कृष्ट था। आगम-संकलन : प्रथम प्रयास __भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग 560 वर्ष पश्चात् तक आगम-ज्ञान की परम्परा यथावत रूप में गतिशील रही। उसके बाद एक विघ्न हना / मगध में बारह वर्ष का दुष्काल पड़ा। यह चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन-काल की घटना है। जैन श्रमण इधर-उधर बिखर गये / अनेक क कवलित हो गये / जैन संघ को आगम-ज्ञान की सुरक्षा की चिन्ता हुई। दुर्भिक्ष समाप्त होने पर पाटलिपुत्र में पागमों को व्यवस्थित करने हेतु स्थूलभद्र के नेतृत्व में जैन साधुओं का एक सम्मेलन आयोजित हुआ। इसमें ग्यारह अंगों का संकलन किया गया। बारहवां अंग दृष्टिवाद किसी को भी स्मरण नहीं था / दृष्टिवाद के ज्ञाता केवल भद्रबाह थे। वे उस समय नेपाल में महाप्राणध्यान की साधना में लगे हुए थे। उनसे वह ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया गया / दृष्टिवाद के चवदह पूर्वो में से दस पूर्व तक का अर्थ सहित ज्ञान स्थूलभद्र प्राप्त कर सके / चार पूर्वो का केवल पाठ उन्हें प्राप्त हुम्रा / अागमों के संकलन का यह पहला प्रयास था / इसे आगमों की प्रथम वाचना या पाटलिपुत्रवाचना कहा जाता है। यों आगमों का संकलन तो कर लिया गया पर उन्हें सुरक्षित बनाये रखने का क्रम वही कण्ठाग्रता का ही रहा / यहाँ यह ज्ञातव्य है कि वेद जहाँ व्याकरणनिष्ठ संस्कृत में निबद्ध थे, जैन आगम लोक-भाषा में निर्मित थे, जो व्याकरण के कठिन नियमों से नहीं बन्धी थी, इसलिए आनेवाले समय के साथ-साथ उनमें भाषा की दृष्टि से कुछ-कुछ परिवर्तन भी स्थान पाने लगा / वेदों में ऐसा सम्भव नहीं हो सका / इसका एक कारण और था, वेदों की शब्द-रचना को यथावत् रूप में बनाये रखने के लिए उनमें पाठ के संहितापाठ, पदपाठ, क्रमपाठ, जटापाठ तथा धनपाठ---ये पाँच रूप रखे गये, जिनके कारण किसी भी मन्त्र का एक भी शब्द इधर से उधर नहीं हो सकता / आगमों के साथ ऐसी बात सम्भव नहीं थी। द्वितीय प्रयास भगवान महावीर के निर्वाण के 827-840 वर्ष के मध्य आगमों को सुव्यवस्थित करने का एक और प्रयत्न हुआ / उस समय भी पहले जैसा एक भयानक दुष्काल पड़ा था, जिसमें भिक्षा न मिलने के कारण अनेक जैन मनि परलोकवासी हो गये। प्रागमों के अभ्यास का क्रम यथावत् रूप में चालू नहीं रहा / इसलिए वे विस्मृत होने लगे। दुर्भिक्ष समाप्त होने पर आर्य स्कन्दिल के नेतृत्व [ 17 ] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में मथुरा में साधुओं का सम्मेलन हुआ। जिन जिन को जैसा स्मरण था, संकलित कर आगम सुव्यवस्थित किये गये। इसे माथुरी वाचना कहा जाता है / आगम-संकलन का यह दूसरा प्रयास था / इसी समय के आसपास सौराष्ट्र के अन्तर्गत बलभी में नागार्जुन सूरि के नेतृत्व में भी साधुओं का वैसा ही सम्मेलन हुआ, जिसमें आगम-संकलन का प्रयास हुआ। यह उपर्युक्त दूसरे प्रयत्न या वाचना के अन्तर्गत ही आता है / वैसे इसे वलभी की प्रथम वाचना भी कहा जाता है। तृतीय प्रयास अब तक वही कण्ठस्थ क्रम ही चलता रहा था। आगे, इसमें कुछ कठिनाई अनुभव होने लगी। लोगों की स्मृति पहले से दुर्बल हो गई, दैहिक संहनन भी वैसा नहीं रहा / अतः उतने विशाल ज्ञान को स्मृति में बनाये रखना कठिन प्रतीत होने लगा / आगम विस्मृत होने लगे। अतः पूर्वोक्त दूसरे प्रयत्न के पश्चात् भगवान् महावीर के निर्वाण के 980 या 993 वर्ष के बाद वलभी में देवधिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में पुनः श्रमणों का सम्मेलन हुअा ! सम्मेलन में उपस्थित श्रमणों के समक्ष पिछली दो वाचनाओं का सन्दर्भ विद्यमान था। उस परिपार्श्व में उन्होंने अपनी स्मृति के अनुसार आगमों मुख्य आधार के रूप में उन्होंने माथरी वाचना को रखा। विभिन्न श्रमण-संघों में प्रवृत्त पाठान्तर, वाचना-भेद आदि का समन्वय किया। इस सम्मेलन में आगमों को लिपिबद्ध किया गया, ताकि आगे उनका एक सुनिश्चित रूप सबको प्राप्त रहे / प्रयत्न के बावजूद जिन पाठों का समन्वय संभव नहीं हुआ, वहाँ वाचनान्तर का संकेत किया गया। बारहवां अंग दृष्टिवाद संकलित नहीं किया जा सका, क्योंकि वह श्रमणों को उपस्थित नहीं था। इसलिए उसका विच्छेद घोषित कर दिया गया। जैन आगमों के संकलन के प्रयास में यह तीसरी या अन्तिम वाचना थी। इसे द्वितीय वलभी वाचना भी कहा जाता है। वर्तमान में उपलब्ध जैन आगम इसी बाचना में संकलित आगमों का रूप हैं। उपलब्ध आगम जैनों की श्वेताम्बर-परम्परा द्वारा मान्य हैं। दिगम्बर-परम्परा में इनकी प्रामाणिकता स्वीकृत नहीं है। वहाँ ऐसी मान्यता है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के 683 वर्ष पश्चात् अंग-साहित्य का विलोप हो गया / महावीर-भाषित सिद्धान्तों के सीधे शब्द-समवाय के रूप में वे किसी ग्रन्थ को स्वीकार नहीं करते / उनकी मान्यतानुसार ईसा प्रारंभिक शती में धरसेन नामक आचार्य को दृष्टिवाद अंग के पूर्वगत ग्रन्थ का कुछ अंश उपस्थित था। वे गिरनार पर्वत की चन्द्रगुफा में रहते थे। उन्होंने वहाँ दो प्रज्ञाशील मुनि पुष्पदन्त और भूतबलि को अपना ज्ञान लिपिबद्ध करा दिया। यह षट्खण्डागम के नाम से प्रसिद्ध है। दिगम्बर-परम्परा में इनका आगमवत् अादर है। दोनों मुनियों ने लिपिबद्ध षट्खण्डागम ज्येष्ठ शुक्ला पञ्चमी को संघ के समक्ष प्रस्तुत किये / उस दिन काश में आने का महत्त्वपूर्ण दिन माना गया। उसकी श्रत-पञ्चमी के नाम से प्रसिद्धि हो गई / श्रुत-पञ्चमी दिगम्बर-सम्प्रदाय का एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक पर्व है। ऊपर जिन आगमों के सन्दर्भ में विवेचन किया गया है, श्वेताम्बर-परम्परा में उनकी संख्या के सम्बन्ध में ऐकमत्य नहीं है। उनकी 84, 45 तथा ३२-यों तीन प्रकार की संख्याएं मानी जाती हैं। श्वेताम्बर मन्दिर-मार्गी सम्प्रदाय में 84 और 45 की संख्या की भिन्न-भिन्न रूप में मान्यता है। श्वेताम्बर स्थानकवासी तथा तेरापंथी जो अमूर्तिपूजक सम्प्रदाय हैं, में 32 की संख्या स्वीकृत है, जो इस प्रकार है :--- [18] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 अंग-प्राचार, सूत्रकृत्, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाक / 12 उपांग--प्रौपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरयावली, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णि दशा। 4 छेद-व्यवहार, बृहत्कल्प, निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध / 4 मूल-दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी, अनुयोगद्वार / 1 आवश्यक / कुल 32 यों ग्यारह अंग तथा इक्कीस अंगबाह्य कुल बत्तीस होते हैं। चार अनुयोग व्याख्याक्रम, विषयगत भेद आदि की दृष्टि से आर्यरक्षित सूरि ने आगमों को चार भागों में वर्गीकृत किया, जो अनुयोग कहलाते हैं / ये इस प्रकार हैं१. चरणकरणानुयोग--इसमें आत्मविकास के मूलगुणाचार, व्रत, सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम, वैयावृत्य, ब्रह्मचर्य,तप, कषाय-निग्रह आदि तथा उत्तरगुण-पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, प्रतिमा, इन्द्रिय-निग्रह, प्रतिलेखन, गुप्ति तथा अभिग्रह आदि का विवेचन है / 2. धर्मकथानुयोग–इसमें दया, दान, शील, क्षमा, आर्जब, मार्दव आदि धर्म के अंगों का विवेचन __ है। इसके लिए विशेष रूप से प्राख्यानों या कथानकों का आधार लिया गया है / 3. गणितानुयोग-इसमें गणितसम्बन्धी या गणित पर प्राधृत वर्णन की मुख्यता है। 4. द्रव्यानुयोग----इसमें जीव, अजीव आदि छह द्रव्यों या नौ तत्त्वों का विस्तृत व सूक्ष्म विवेचनविश्लेषण है। पूर्वोक्त 32 आगमों का इन 4 अनुयोगों में इस प्रकार समावेश किया जा सकता है : चरणकरणानुयोग में आचारांग तथा प्रश्नव्याकरण ये दो अंगसूत्र, दशवैकालिक-यह एक मूलसूत्र, निशोथ, व्यवहार, बृहत्कल्प एवं दशाश्रुतस्कंध -ये चार छेदसूत्र तथा आवश्यक यों कुल आठ सूत्र आते हैं। धर्मकथानुयोग में ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा तथा विपाक ये पांच अंगसूत्र, औपपातिक, राजप्रश्नीय, निरयावली, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका व वृष्णिदशा ये सात उपांगसूत्र एवं उत्तराध्ययन-यह एक मूलसूत्र यों कुल तेरह सूत्र आते हैं। गणितानुयोग में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति तथा सूर्यप्रज्ञप्ति-ये तीन उपांगसूत्र आते हैं। द्रव्यानुयोग में सूत्रकृत्, स्थान, समवाय तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति-ये चार अंगसूत्र, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना--ये दो उपांगसूत्र एवं नन्दी व अनुयोगद्वार, ये दो मूलसूत्र-यों कुल पाठ सूत्र आते हैं। [ 19] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासकदशा प्रस्तुत विवेचन के परिपार्श्व में उपासकदशा धर्मकथानुयोग का भाग है। इसके नामसे प्रकट है, इसमें उपासकों या श्रावकों के कथानक हैं / जैनधर्म में साधना की दृष्टि से श्रमण-धर्म तथा श्रमणोपासक-धर्म के रूप में दो प्रकार से विभाजन किया गया है। श्रमण शब्द साधु या सर्वत्यागी संयमी के अर्थ में प्रयुक्त है। श्रमण के लिए आत्मसाधना ही सर्वस्व है। दैहिक जीवन का निर्वाह होता है, यह एक बात है पर साधना की कीमत पर श्रमण वैसा नहीं कर सकता / शरीर चला जाए, यह उसे स्वीकार होता है पर साधना में जरा भी आंच आए, यह वह किसी भी दशा में स्वीकार नहीं करता। यही कारण है कि उसकी व्रताराधना-संयमपालन में विकल्प का स्थान नहीं है / जिस दिन वह श्रमण-जीवन में आता है, “सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि" अर्थात् आजसे सभी सावद्य-पापसहित योगों-मानसिक, वाचिक व कायिक प्रवत्तियों का त्याग करता हूँ, इस संकल्प के साथ आता है। वह मन, वचन, काय-इन तीनां योगों तथा कृत, कारित, अनुमोदित–इन तीनों करणों द्वारा हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह से सर्वथा विरत हो जाता है। वह न कभी हिंसा करता है, न करवाता है, न अनुमोदन करता है / ऐसा वह मन से सोचता नहीं, वचन से बोलता नहीं। सभी व्रतों पर यही क्रम लागू होता है / अपवाद या चिक़ल्पशून्य होने से यहाँ व्रत महाव्रतों की संज्ञा ले लेते हैं। महर्षि पतञ्जलि ने भी उन यमों या व्रतों को जिनमें जाति, देश, काल, समय आदि की सीमा नहीं होती, जो सार्वभौम सब अवस्थाओं में पालन करने-योग्य होते हैं अर्थात् जहाँ किसी भी प्रकार का अपवाद स्वीकृत नहीं है, महाव्रत कहा है।' गृही उपासक का साधनाक्रम महावतों की समग्र, परिपूर्ण या निरपवाद आराधना हर किसी के लिए शक्य नहीं है। कुछ ही दृढचेता, प्रात्मबली और संस्कारी पुरुष ऐसे होते हैं, जो इसे साध सकने में समर्थ हों। महाव्रतों की साधना की अपेक्षा हलका, सुकर एक और मार्ग है, जिसमें साधक अपनी शक्ति के अनुसार ससीम रूप में व्रत स्वीकार करता है / ऐसे साधक के लिए जैन शास्त्रों में श्रमणोपासक शब्द का व्यवहार है। श्रमण और उपासक----ये दो शब्द इसमें हैं। उपासक का शाब्दिक अर्थ उप-समीप बैठने वाला है। जो श्रमण की सन्निधि में बैठता है अर्थात श्रमण से सद ज्ञान तथा व्रत स्वीकार करता है, उसके महाव्रतमय जीवन से अनुप्राणित होकर स्वयं भी साधना या उपासना के पथ पर आरूढ होता है, वह श्रमणोपासक है। उपासना या आराधना के सधने का मार्ग यही है / केवल कुछ पढ़ लेने से, सुन लेने से जीवन बदल जाय, यह संभव नहीं होता। साधनामय, महाव्रतमय-उच्च साधनामय जीवन का सान्निध्य, दर्शन-व्यक्ति के मन में एक लगन और टीस पैदा करते हैं, उस ओर बढ़ने की। अतः गृही साधक के लिए जो श्रमणोपासक शब्द का प्रयोग हुआ, वह वास्तव में बड़ा अर्थपूर्ण है। ऐसे ही सन्दर्भ में छान्दोग्योपनिषद् में बड़ी सुन्दर व्याख्या है / वहाँ लिखा है---- 1. जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना: सार्वभौमा महाव्रतम् ।-पातञ्जलयोगदर्शन साधनपाद 31 . 2. उप-समीपे, आस्ते--इत्युपासकः / [20] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “साधनोद्यत व्यक्ति में जब बल जागरित होता है, वह उठता है अर्थात् भीतरी तैयारी करता है। उठकर परिचरण करता है-आत्मबल संजोकर उस ओर गतिमान् होता है। फिर वह गुरु के समीप बैठता है, उनका जीवन देखता है, उनसे [धर्म-तत्त्व का] श्रवण करता है, सुने हुए पर मनन करता है, उबुद्ध होता है और जीवन में तदनुरूप प्राचरण करता है, ऐसा होने पर ज्ञात को आचरित कर वह विज्ञाता-विशिष्ट ज्ञाता कहा जाता है।" उपनिषत्कार ने साधना के फलित होने का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बहुत ही सुन्दर विश्लेषण किया है। श्रमणोपासक की भी भूमिका लगभग ऐसी ही होती है। केवल श्रमण के पास बैठने से वह श्रमणोपासक नहीं बन जाता, न वह सुनने मात्र से ही वैसा हो जाता है, श्रमणोपासकत्व का तो यथार्थ क्रियान्वयन तब होता है, जब वह असत् से विरत होता है, सत् में अनुरत होता है। जैन पारिभाषिक शब्दावली में वह सम्यक् ज्ञानपूर्वक सावध का प्रत्याख्यान करता है, व्रत स्वीकार करता है। श्रमणोपासक के लिए एक दूसरा शब्द श्रावक है। यह शब्द 'श्रु' धातु से बना है। श्रावक का अर्थ सुननेवाला है। यहाँ श्रावक-सुननेवाला लाक्षणिक शब्द है / श्रमण का उपदेश सुन लेने से वह श्रोता तो होता है पर श्रावक नहीं हो जाता / उसे श्रावक संज्ञा तभी प्राप्त होती है, जब वह व्रत अंगीकार करता है। श्रावक के व्रत : एक मनोवैज्ञानिक क्रम जैनधर्म में श्रमणोपासक या श्रावक के व्रत-स्वीकार का क्रम भी बड़ा वैज्ञानिक है। वह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह का स्वीकार तो करता है पर सीमित रूप में / अर्थात् अपने में जितना आत्मबल और सामर्थ्य संजो पाता है, तदनुरूप कुछ अपवादों के साथ वह इन व्रतों को ग्रहण करता है। यों श्रावक द्वारा स्वीकार किये जाने वाले व्रत श्रमण के व्रतों से परिपालन की दष्टि से न्युन या छोटे होते हैं, इसलिए उन्हें अणव्रत कहा जाता है। व्रत अपने प्रा नहीं होता / महत या अणु विशेषण व्रत के साथ पालक की क्षमता या सामर्थ्य के कारण लगते हैं। जैसा ऊपर कहा गया है, जहाँ साधक अपने आत्मबल में कमी या न्यूनता नहीं देखता, वह सम्पूर्ण रूप में, सर्वथा व्रत-पालन में उद्यत रहता है। यह महान कार्य है। इसीलिए उसके व्रत महाव्रत की संज्ञा पा लेते हैं। सीमा और अपवादों के साथ जहाँ साधक व्रत का पालन करता है, वहाँ उस द्वारा व्रत का पालन-अनुसरण न्यून या छोटा है, उस कारण व्रत के साथ अणु जुड़ जाता है / एक बहुत बड़ी विशेषता जैनधर्म की यह है कि श्रावकों के व्रतों में अपवादों का कोई इत्थंभूत एक रूप नहीं है। एक ही अहिंसाबत अनेक अाराधकों द्वारा अनेक प्रकार के अपवादों के साथ स्वीकार किया जा सकता है। विभिन्न व्यक्तियों की क्षमताएं, सामर्थ्य विविध प्रकार का होता है। उत्साह, आत्मबल, पराक्रम एक जैसा नहीं होता। अनगिनत व्यक्तियों में वह अपने-अपने क्षयोपशम के अनुरूप अनगिनत प्रकार का हो सकता है। अतएव अपवाद स्वीकार करने में व्यक्ति या अण 1. स यदा बली भवति, अथ उत्थाता भवति, उत्तिष्ठन् परिचरिता भवति, परिचरन् उपसत्ता भवति, उपसीदन् द्रष्टा भवति, श्रोता भवति, मन्ता भवति, बोद्धा भवति, कर्ता भवति, विज्ञाता भवति / / -छान्दोग्योपनिषद् 7.8.1 [21] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अपना स्वातन्त्र्य है। उस पर अपवाद बलात् आरोपित नहीं किये जा सकते / इससे कम, अधिकसभी तरह की शक्ति वाले साधनोत्सुक व्यक्तियों को साधना में आने का अवसर मिल जाता है / फिर धीरे-धीरे साधक अपनी शक्ति को बढ़ाता हुआ आगे बढ़ता जाता है / अपवादों को कम करता जाता है / वैसा करते-करते वह श्रमणोपासक की भूमिका में श्रमणभूत-श्रमणसदृश तक बन सकता है / यह गहरा मनोवैज्ञानिक तथ्य है / आगे बढ़ना, प्रगति करना जैसा अप्रतिबद्ध और निर्द्वन्द्वः मानस से सधता है, वैसा प्रतिबद्ध और निगृहीत मानस से नहीं सध सकता / यह अतिशयोक्ति नहीं है कि गृही की साधना में जैन धर्म की यह पद्धति निःसन्देह बेजोड़ है / अतिचार-वर्जन आदि द्वारा उसकी मनोवैज्ञानिकता और गहरी हो जाती है, जिससे व्रती जीवन का एक सार्वजनीन पवित्र रूप निखार पाता है। उपासकदशा : प्रेरक विषयवस्तु उपासकदशा अंगसूत्रों में एकमात्र ऐसा सूत्र है, जिसमें सम्पूर्णतया श्रमणोपासक या श्रावकजीवन की चर्चा है / भगवान महावीर के समसामयिक आनन्द, कामदेव, चुलनीपिता, सुरादेव, चुल्लशतक, कुडकौलिक, सकडालपुत्र, महाशतक, नन्दिनीपिता तथा शालिहीपिता--इन दस श्रमणोपासकों के जीवन का इसमें चित्रण है / भगवान् महावीर के ये प्रमुख श्रावक थे। समृद्ध जीवन: ऐहिक भी : पारलौकिक भी उपासकदशा के पहले अध्ययन में आनन्द नामक श्रावक के उपासनामय जीवन का लेखाजोखा है। विविध प्रसंगों में पाये वर्णन से स्पष्ट है कि तब भारत की प्राथिक स्थिति हुत अच्छी थी। आनन्द तथा प्रस्तुत सूत्र में वर्णित अन्य श्रावकों के वैभव के जो आँकड़े दिये हैं, वे सहसा कपोलकल्पित-से लगते हैं पर वस्तुस्थिति वैसी नहीं है / वास्तव में विशालभूमि, बृहत् पशुधन, अपेक्षाकृत कम जनसंख्या आदि के कारण 'कुछ एक' वैसे विशिष्ट धनी भी होते थे। धन की मूल्यवत्ता अक्सर स्वर्णमुद्राओं में की जाती थी। ऐसा लगता है, उस समय के समृद्धिशाली जनों का मानस उत्तरोत्तर सम्पत्ति बढ़ाते रहने की लालसा में अपनी निश्चिन्तता खोना नहीं चाहता था / ऐसी वद्धि में उनका विश्वास नहीं था, जो कभी सब कुछ ही विलुप्त कर दे / इसलिए यहाँ वणित दसों श्रमणोपासकों के सुरक्षित निधि (Reserve fund) के रूप में उनकी पूजी का तृतीयांश पृथक रखा रहता था। घर के परिवार के उपयोग हेतु दैनन्दिन सामान, साधन, सामग्री आदि में भी अपनी सम्पत्ति का तृतीयांश वे लगाये रहते थे। वहाँ उपयोगिता, सुविधा तथा शान या प्रतिष्ठा का भाव भी था / दान, भोग और नाश-धन की इन तीनों गतियों से वे अभिज्ञ थे, इसलिए समुचित भोग में भी उनकी रुचि थी। तृतीयांश व्यापार में लगा रहता था / व्यापार में कदाचित् हानि भी हो जाए, सारी पूजी चली जाए तो भी उनका प्रशस्त एवं प्रतिष्ठापन्न व्यवस्थाक्रम टूटता नहीं था। इसलिए उनके जीवन में एक निश्चितता और अनाकलता का भाव था। तभी यह सम्भव हो सका कि उन्होंने श्रमण भगवान महावीर के दर्शन और सान्निध्य का लाभ प्राप्त कर अपना जीवन भोग से त्याग की ओर मोड़ दिया। आत्मप्रेरणा से अनुप्राणित होकर व्यक्ति जब त्यागमय जीवन स्वीकार करता है तो उसे जैसे भोग में अानन्द प्राता था. त्याग में आनन्द आने लगता है और विशेषता यह है कि यह प्रानन्द [ 22 ] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवित्र, स्वस्थ एवं श्रेयस्कर होता है / सहसा आश्चर्य होता है, आनन्द तथा दूसरे श्रमणोपासकों के अत्यन्त समृद्धि और सुखसुविधामय जीवन को एक ओर देखते हैं, दूसरी ओर यह देखते हैं, जब वे त्याग के पथ पर आगे बढ़ते हैं तो उधर इतने तन्मय हो जाते हैं कि भोग स्वयं छूटते जाते हैं / देह अस्थि-कंकाल बन जाता है, पर वे परम परितुष्ट और प्रहृष्ट रहते हैं / त्याग के रस की अनुभूति के बिना यह कभी सम्भव नहीं हो पाता / एक अद्भुत घटना : सत्य की गरिमा आनन्द के जीवन की एक घटना बहुत ही महत्वपूर्ण है / तपश्चरण एवं साधना के फलस्वरूप अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से आनन्द अवधिज्ञानी हो जाता है / भगवान् महावीर के प्रमुख अन्तेवासी गौतम से अवधिज्ञान की सीमा के सम्बन्ध में हुए वार्तालाप में एक विवादास्पद प्रसंग बन जाता है / भगवान् महावीर प्रानन्द के मन्तव्य को ठीक बतलाते हैं / गौतम आनन्द के पास आकर क्षमा-याचना करते हैं / बड़ा उद्बोधक प्रसंग यह है / आनन्द एक गृही साधक था। गौतम भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरों में सबसे मुख्य थे / पर, कितनी ऋजुता और अहंकारशून्यता का भाव उनमें था / वे प्रसन्नतापूर्वक अपने अनुयायी-अपने उपासक से क्षमा मांगते हैं। जैनदर्शन का कितना ऊँचा आदर्श यह है, व्यक्ति बड़ा नहीं, सत्य बड़ा है। सत्य के प्रति हर किसी को अभिनत होना ही चाहिए। इससे फलित और निकलता है, साधना के मार्ग में एक गृही भी बहुत आगे बढ़ सकता है क्योंकि साधना के उत्कर्ष का आधार आत्मपरिणामों की विशुद्धता है। उसे जो जितना साध ले, वह उतना ही ऊर्ध्वगमन कर सकता है। साधना की कसौटी श्रेयांसि बहुविघ्नानि-श्रेयस्कर कार्यों में अनेक विघ्न आते ही हैं, अक्सर यह देखते हैं, पढ़ते हैं / प्रस्तुत आगम के दस उपासकों में से छह के जीवन में उपसर्ग या विघ्न आये / उनमें से चार अन्ततः विघ्नों से विचलित हुए पर तत्काल सम्हल गये। दो सर्वथा अविचल और अडोल रहे / उपसर्ग अनुकूल-प्रतिकूल या मोहक-ध्वंसक-दोनों प्रकार के ही होते हैं / दूसरे अध्ययन का प्रसंग है, श्रमणोपासक कामदेव पोषधशाला में साधनारत था / एक देव ने उसे विचलित करने के लिए उसके शरीर के टुकड़े-टकड़े कर डाले / उसके पुत्रों की नृशंस हत्या कर डाली पर वह दढचेता उपासक तिलमात्र भी विचलित नहीं हा / यद्यपि यह दे की विक्रियाजन्य माया थी पर कामदेव को तो यथार्थ भासित हो रही थी। मनुष्य किसी भी कार्य में तब तक सुदृढ रह सकता है, जब तक उसके सामने मौत का भय न आए। पर, कामदेव ने दैहिक विध्वंस की परवाह नहीं की / तब देव ने उसके हृदय के कोमलतम अंश का संस्पर्श किया / पिता को पुत्रों से बहुत प्यार होता है। जिनके पुत्र नहीं होता, वे उसके लिए तड़फते रहते हैं / कामदेव के सामने उसके देखतेदेखते तीनों पुत्रों की हत्या कर दी गई पर वह आत्मबली साधक निष्प्रकम्प रहा / तभी तो भगवान महावीर ने साधु-साध्वियों के समक्ष एक उदाहरण के रूप में उसे प्रस्तुत किया / जो भीषण विघ्नबाधाओं के बावजूद धर्म में सुदृढ बना रहता है, वह निश्चय ही औरों के लिए आदर्श है। 23 ] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरे अध्ययन में चुलनीपिता का प्रसंग है / चुलनीपिता को भी ऐसे ही विघ्न का सामना करना पड़ा / पुत्रों की हत्या से तो वह अविचल रहा पर देव ने जब उसकी पूजनीया माँ की हत्या की धमकी दी तो वह विचलित हो गया / माँ के प्रति रही अपनी ममता वह जीत नहीं सका / वह तो अध्यात्म की ऊँची साधना में था, जहाँ ऐसी ममता बाधा नहीं बननी चाहिए, पर बनी / चुलनीपिता भूल का प्रायश्चित्त कर शुद्ध हुआ। __ चौथे अध्ययन में श्रमणोपासक सुरादेव का कथानक है / उसकी साधना में भी विघ्न आया। पुत्रों की हत्या से उपसर्गकारी देव ने जब उसे अप्रभावित देखा तो उसने उसके शरीर में भीषण सोलह रोग उत्पन्न कर देने की धमकी दी। मनुष्य मौत को स्वीकार कर सकता है, पर अत्यन्त भयानक रोगों से जर्जर देह उसके लिए मौत से कहीं अधिक भयावह बन जाती है, सुरादेव के साथ भी यही घटित हुआ / उसका व्रत भग्न हो गया। उसने आत्म-परिष्कार किया। पांचवें अध्ययन में चुल्लशतक सम्पत्ति-नाश की धमकी से व्रत-च्युत हुआ / कुछ लोगों के लिए धन पुत्र, माता, प्राण-इन सबसे प्यारा होता है / वे और सब सह लेते हैं पर धन के विनाश की अाशंक त अातुर तथा प्राकूल बना देता है / चल्लशतक तीनो पूत्रीको हत्या तक चुप रहा पर पालभिका [नगरी की गली-गली में उसकी सम्पत्ति बिखेर देने की बात से वह कांप गया। सातवें अध्ययन में सकडालपुत्र का कथानक है / वह भी पुत्रों की हत्या तक तो अविचल रहा पर उसकी पत्नी अग्निमित्रा जो न केवल गृहस्वामिनी थी, उसके धार्मिक जीवन में अनन्य सहयोगिनी भी थी, की हत्या की धमकी जब सामने आई तो वह हिम्मत छोड़ बैठा। यहाँ एक बात विशेष महत्त्वपूर्ण है / व्यक्ति अपने मन में रही किसी दुर्बलता के कारण एक बार स्थानच्युत होकर पुनः आत्मपरिष्कार कर, प्रायश्चित कर, शुद्ध होकर ध्येयनिष्ठ बन जाय तो वह भूल फिर नहीं रहती। भूल होना असंभव नहीं है पर भूल हो जाने पर उसे समझ लेना, उसके लिए अन्तर-खेद अनुभव करना, फिर अपने स्वीकृत साधना-पथ पर गतिमान् हो जाना----यह व्यक्तित्व की उच्चता का चिह्न है / छनों उपासकों के भूल के प्रसंग इसी प्रकार के हैं। जीवन में अवशिष्ट रही ममता, आसक्ति आदि के कारण उनमें विचलन तो आया पर वह टिक नहीं पाया। आठवें अध्ययन में श्रमणोपासक महाशतक के सामने एक विचित्र अनुकूल विघ्न आता है। उसकी प्रमुख पत्नी रेवती, जो घोर मद्य-मांस-लोलुप-और कामुक थी, पोषधशाला में पोषध और ध्यान में स्थित पति को विचलित करना चाहती है। एक अोर त्याग का तीव्र ज्योतिर्मय सूर्य था, दूसरी ओर पाप की कालिमामयी तमिस्रा / त्याग की ज्योति को ग्रसने के लिए कालिमा खूब झपटी पर वह सर्वथा अकृतकार्य रही। रेवती महाशतक को नहीं डिगा सकी। पर, एक छोटी-सी भूल महाशतक से तब बनी। रेवती की दुश्चेष्टाओं से उसके मन में क्रोध का भाव पैदा हुआ / उसे अवधिज्ञान प्राप्त था। रेवती की सात दिन के भीतर भीषण रोग, पीडा एवं वेदना के साथ होने वाली मृत्यु की भविष्यवाणी उसने अपने अवधिज्ञान के सहारे कर दी / मृत्यु के भय से रेवती अत्यन्त मर्माहत और भयभीत हो गई / भविष्यवाणी यद्यपि सर्वथा सत्य थी पर सत्य भी सब स्थितियों में व्यक्त किया जाए, यह वांछनीय नहीं है। जो सत्य दूसरों के मन में भय और आतंक उत्पन्न कर दे, वक्ता को वह बोलने में विशेष विचार तथा संकोच करना होता है। इसलिए भगवान् महावीर ने [ 24 ] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने प्रमुख अन्तेवासी गौतम को भेजकर महाशतक को सावधान किया / महाशतक पुनः आत्मस्थ हुआ। छठे अध्ययन का चरितनायक कुण्डकौलिक एक तत्त्वनिष्णात श्रावक के रूप में चित्रित किया गया है। एक देव और कुण्डकौलिक के बीच नियतविाद तथा पुरुषार्थवाद पर चर्चा होती है। कुण्डकौलिक के न्यायपूर्ण और युक्तियुक्त प्रतिपादन से देव निरुत्तर हो जाता है / भगवान् महावीर विज्ञ कुण्डकौलिक का नाम श्रमण-श्रमणियों के समक्ष एक उदाहरण के रूप में उपस्थित कुण्डकौलिक का जीवन श्रावक-श्राविकाओं के लिए तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ने हेतु एक प्रेरणास्पद उदाहरण है। यथार्थ को ओर रुझान उपासकदशा के दसों अध्ययनों के चरितनायकों का लौकिक जीवन अत्यन्त सुखमय था। उन्हें सभी भौतिक सुख-सुविधाएँ प्रचुर और पर्याप्त रूप में प्राप्त थीं / यदि यही जीवन का प्राप्य होता तो उनके लिए और कुछ करणीय रह ही नहीं जाता। क्यों वे अपने प्राप्त सुखों को घटातेघटाते बिलकुल मिटा देते ? पर वे विवेकशील थे। भौतिक सुखों की नश्वरता को जानते थे / अतः जीवन का यथार्थ प्राप्य, जिसे पाए बिना और सब कुछ पा लेना अन्तर्विडम्बना के अतिरिक्त और कुछ होता नहीं, को प्राप्त करने की मानव में जो एक अव्यक्त उत्कण्ठा होती है, वह उन सबमें तत्क्षण जाग उठती है, ज्यों ही उन्हें भगवान महावीर का सान्निध्य प्राप्त होता है। जागरित उत्कण्ठा जब क्रियान्विति के मार्ग पर आगे बढ़ी तो उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई और उन साधकों के जीवन में एक ऐसा समय आया, जब वे देहसुख को मानो सर्वथा भूल गये / त्याग में, आत्मस्वरूप के अधिगम में अपने आपको उन्होंने इतना खो दिया कि अत्यन्त कृश और क्षीण होते जाते अपने शरीर की भी उन्हें चिन्ता नहीं रही / भोग का त्याग में यह सुखद पर्यवसान था / साधारणतया जीवन में ऐसा सध पाना बहुत कठिन लगता है / सुख-सुविधा और अनुकूलता के वातावरण में पला मानव उन्हें छोड़ने की बात सुनते ही घबरा उठता है। पर, यह दुर्बलचेता पुरुषों की बात है। उपनिषद् के ऋषि ने 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः' यह जो कहा है, बड़ा मार्मिक है / बलहीन-अन्तर्बलरहित व्यक्ति आत्मा को उपलब्ध नहीं कर सकता। पर, बलशील-अन्तःपराक्रमशाली पुरुष वह सब सहज ही कर डालता है,जिससे दुर्बल जन काँप उठते हैं / सामाजिक दायित्व से मुक्ति : अवकाश मनुष्य जीवन भर अपने पारिवारिक, सामाजिक तथा लौकिक दायित्वों के निर्वाह में ही लगा रहे, भारतीय चिन्तनधारा में यह स्वीकृत नहीं है। वहाँ यह वाञ्छनीय है कि जब पुत्र घर का, परिवार का, सामाजिक सम्बन्धों का दायित्व निभाने योग्य हो जाएँ, व्यक्ति अपने जीवन का अन्तिम भाग आत्मा के चिन्तन, मनन, अनुशीलन आदि में लगाए / वैदिकधर्म में इसके लिए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास-यों चार आश्रमों का क्रम है / ब्रह्मचर्याश्रम विद्याध्ययन और योग्यतासंपादन का काल है / गृहस्थाश्रम सांसारिक उत्तरदायित्व-निर्वाह का समय है / वानप्रस्थाश्रम गृहस्थ और संन्यास के बीच का काल है, जहाँ व्यक्ति लौकिक आसक्ति से क्रमशः दूर होता हुआ संन्यास के निकट पहुँचने का प्रयास करता है / 'ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत्' ऐसा वैदिकधर्म [25] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जो शास्त्र-वचन है, उसका आशय ब्रह्मचर्याश्रम द्वारा ऋषिऋण, गृहस्थाश्रम द्वारा पितृऋण तथा वानप्रस्थाश्रम द्वारा देवऋण अपाकृत कर चुकाकर मनुष्य अपना मन मोक्ष में लगाए / अर्थात् सांसारिक वाञ्छाओं से सर्वथा पृथक् होकर अपना जीवन मोक्ष की आराधना में लगा दे। जैनधर्म में ऐसी आश्रम-व्यवस्था तो नहीं है पर श्रावक-जीवन में क्रमश: मोक्ष की ओर आगे बढ़ने का सुव्यवस्थित मार्ग है / श्रावक-प्रतिमाएँ इसका एक रूप है, जहाँ गृही साधक उत्तरोत्तर मोक्षोन्मुखता, तितिक्षा और संयत जीवन-चर्या में गतिमान् रहता है। भगवान् महावीर के ये दसों श्रावक विवेकशील थे / भगवान् से उन्होंने जो पाया, उसे सुनने तक ही सीमित नहीं रखा, जो उन सब द्वारा तत्काल श्रावक-व्रत स्वीकार कर लेने से प्रकट है। उन्होंने मन ही मन यह भाव भी संजोए रखा कि यथासमय लौकिक दायित्वों, सम्बन्धों और आसक्तियों से मुक्त होकर वे अधिकांशतः धर्म की आराधना में अपने को जोड़ दें / आनन्द के वर्णन में उल्लेख है कि भगवान् महावीर से व्रत ग्रहण कर वह 14 वर्ष तक उस ओर उत्तरोत्तर प्रगति करता गया। १५वें वर्ष में एक रात उसके मन में विचार पाया कि अब उसके पुत्र योग्य हो गये हैं / अब उसे पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों से अवकाश ले लेना चाहिए। उस समय के लोग बडे दढनिश्चयी थे / सद विचार को क्रियान्वित करने में वे विलम्ब नहीं करते थे / आनन्द ने नन्द ने भी विलम्ब नहीं किया। दूसरे दिन उसने अपने पारिवारिकों, मित्रों तथा नागरिकों को दावत दी, अपने विचार से सब को अवगत कराया और उन सब के साक्ष्य में अपने बड़े पुत्र को पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्व सौंपा / बहुत से लोगों को दावत देने में प्रदर्शन की बात नहीं थी / उसके पीछे एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है / समाज के मान्य तथा सम्भ्रान्त व्यक्तियों के बीच उत्तरदायित्व सौंपने का एक महत्त्व था। उन सबकी उपस्थिति में पुत्र द्वारा दायित्व स्वीकार करना भी महत्त्वपूर्ण था / यो विधिवत् दायित्व स्वीकार करने वाला उससे मुकरता नहीं / बहुत लोगों का लिहाज, उनके प्रति रही श्रद्धा, उनके साथ के सुखद सम्बन्ध उसे दायित्व-निर्वाह की प्रेरणा देते रहते हैं। जैसा आनन्द ने किया, वैसा ही अन्य नौ श्रमणोपासकों ने किया / अर्थात् उन्होंने भी सामहिक भोज के साथ अनेक सम्भ्रान्त जनों की उपस्थिति में अपने-अपने पत्रों को सामाजिक व पारिवारिक कार्यों के संवहन में अपने-अपने स्थान पर नियुक्त किया। बहुत सुन्दर चिन्तन तथा तदनुरूप आचरण उनका था। इस दृष्टि से भारत का प्राचीन काल बहुत ही उत्तम और स्पृहणीय था / महाकवि कालिदास ने अपने सुप्रसिद्ध महाकाव्य रघुवंश में भगवान् राम के पूर्वज सूर्यवंशी राजाओं का वर्णन करते हुए लिखा है-- 'सूर्यवंशी राजा बचपन में विद्याध्ययन करते थे, यौवन में सांसारिक सुख भोगते थे, वृद्धावस्था में मुनिवृत्ति-मोक्षमार्ग का अवलम्बन करते थे और अन्त में योग या समाधिपूर्वक देहत्याग करते थे।" 1. शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् / वार्धक्ये मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजान् / / -रघुवंश सर्ग 1 [26] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेक का तकाजा है, व्यक्ति एक पशु या साधारण जन की मौत क्यों मरे / उसे योग या समाधिपूर्वक मरना चाहिए / वह पशु नहीं है, मननशील मानव है। इन दसों उपासकों ने ऐसा ही किया / इन दसों की मृत्यु-समाधिमय मृत्यु पवित्र और उत्तम मृत्यु थी। वहाँ मरण शोक नहीं, महोत्सव बन जाता है / समाधिपूर्वक देह-त्याग निश्चय ही भरण-महोत्सव है। पर, इसके अधिकारी आत्मबली पुरुष हो होते हैं, जिनका जीवन विभाव से स्वभाव की ओर मुड़ जाता है / सामाजिक स्थिति दसों श्रमणोपासकों के पास गोधनों का प्राचुर्य था। इससे प्रकट है कि गोपालन का उन दिनों भारत में काफी प्रचलन था / इतनी गायें रखने वाले के पास कृषिभूमि भी उसी अनुपात में होनी चाहिए / आनन्द की कृषिभूमि 500 हल परिमाण बतलाई गई है। गाय दूध, दही तथा घृत के उपयोग का पशु तो था ही, उसके बछडे बैलों के रूप में खेती के, सामान ढोने के तथा रथ आदि के वाहन खींचने के उपयोग में प्राते थे। उस समय के जन-जीवन में वास्तव में गाय और बैल का बड़ा महत्व था / उन दिनों लोगों का जीवन बड़ा व्यवस्थित था। हर कार्य का अपना विधिक्रम और व्यवस्थाक्रम था। भगवान महावीर के दर्शन हेतु शिवानन्दा आदि के जाने का जब प्रसंग पाता है, वहाँ धार्मिक उत्तम यान का उल्लेख है, जो बैलों द्वारा खींचा जाता था। वह एक विशेष रथ था, जिसका धार्मिक कार्यों हेतु जाने में सवारी के लिए उपयोग होता था। आनन्द ने श्रावक-व्रत ग्रहण करते समय खाद्य, पेय, परिधेय, भोग, उपभोग आदि का जो परिमाण किया, उससे उस समय के रहन-सहन पर काफी प्रकाश पड़ता है। अभ्यंगन-विधि के परिमाण में शतपाक एवं सहस्रपाक तैलों का उल्लेख है। इससे यह प्रकट होता है कि तब आयुर्वेद काफी विकसित था / औषधियों से बहुत प्रकार के गुणकारी, बहुमूल्य तैल तैयार किये जाते थे। ___ खानपान, रहन-सहन आदि बहुत परिमार्जित थे। प्रानन्द दतौन के लिए हरी मुलैठी का परिमाण करता है: मस्तक, केश आदि धोने के लिए दधिया प्रांवले का और उबटनों में गेहं आदि के आटे के साथ सौगन्धित पदार्थ मिलाकर तैयार की गई पीठी का परिमाण करता है। विशिष्ट लोग देह पर चन्दन, कुकुम आदि का लेप भी करते थे। लोगों में आभूषण धारण करने की भी रुचि थी। बड़े लोग संख्या में कम पर बहुमूल्य आभूषण पहनते थे / पुरुषों में अंगूठी पहनने का विशेष रिवाज़ था / आनन्द ने अपनी नामाङ्कित अंगठी के रूप में ग्राभषण-परिमाण किया था। रथ में जतने वाले बैलों को भी चांदी के गहने पहनाते थे। चांदी की घण्टियां गले में बांधते थे। उन्हें सुन्दर रूप में सजाते थे। सातवें अध्ययन में अग्निमित्रा के धार्मिक यान का जहाँ वर्णन आया है, उससे यह प्रकट होता है / भोजन के बाद सुपारी, पान, पान के मसाले प्रादि सेवन करने की भी लोगों में प्रवृत्ति थी। प्रस्तुत ग्रन्थ में वणित दस श्रावकों में से नौ के एक-एक पत्नी थी। महाशतक के तेरह पत्नियां थी। उससे यह प्रकट होता है कि उस समय बहुपत्नीप्रथा का भी कहीं कहीं प्रचलन था। पितृगृह से कन्याओं को विवाह के अवसर पर सम्पन्न घरानों में उपहार के रूप में चल, अचल [27] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पत्ति देने का रिवाज था, जिस पर उन्हीं [पुत्रियों का अधिकार रहता। महाशतक की सभी पत्नियों को वैसी सम्पत्ति प्राप्त थी। जहाँ अनेक पत्नियाँ होती, वहाँ सौतिया डाह भी होता, जो महाशतक की प्रमुख पत्नी रेवती के चरित्र से प्रकट है / उसने अपनी सभी सौतों की हत्या करवा डाली और उनके हिस्से की सम्पत्ति हड़प ली। प्रायः प्रत्येक नगर के बाहर उद्यान होता जहाँ सन्त-महात्मा ठहरते। ऐसे उद्यान लोगों के सार्वजनिक उपयोग के लिए होते। छठे और सातवें अध्ययन में सहस्राम्रवन-उद्यान का उल्लेख है। ऐसा प्रतीत होता है, ऐसे उद्यान भी उन दिनों रहे हों, जहाँ आम के हजार पेड़ लगे हों। यह सम्भव भी है क्योंकि जिन प्रदेशों का प्रसंग है, वहाँ अाम की बहुतायत से पैदावार होती थी, आज भी होती है। ध्यान, चिन्तन, मनन तथा आराधना के लिए शान्त स्थान चाहिए। अतः श्रमणोपासक विशेष उपासना हेतु पोषधशालाओं का उपयोग करते / इसके अतिरिक्त ध्यान एवं उपासना के लिए वे वाटिकाओं के रूप में अपने व्यक्तिगत शान्त वातावरणमय स्थान भी रखते / छठे और सातवें अध्ययन में कुण्डकौलिक और सकडालपुत्र द्वारा अपनी अशोक वाटिकाओं में जाकर धर्मोपासना करने का उल्लेख है / श्रमणोपासक अानन्द के व्रतग्रहण के सन्दर्भ में उपभोग-परिभोग-परिमाणवत के अतिचारों के अन्तर्गत 15 कर्मादानों का वर्णन है, जो श्रावक के लिए अनाचरणीय हैं / वहाँ जिन कामों का निषेध है, उनसे उस समय प्रचलित व्यवसाय, व्यापार आदि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। कर्मादानों में पाँचवाँ स्फोटन-कर्म है। इसमें खाने खोदना, पत्थर फोड़ना आदि का समावेश है / इससे प्रकट होता है कि खनिज व्यवसाय उन दिनों प्रचलित था / समृद्ध व्यापारी ऐसे कार्यों के ठेके लेते रहे हों, उन्हें करवाने की व्यवस्था करते रहे हों / / हाथी-दाँत, हड्डी, चमड़े आदि का व्यापार भी तब चलता था, जो दन्त-वाणिज्यसंज्ञक छठे कर्मादान से व्यक्त है। दास-प्रथा का तब भारत में प्रचलन था। दसवाँ कर्मादान केश-वाणिज्य इसका सूचक है। केश-वाणिज्य में गाय, भैंस, बकरी, भेड़, ऊँट, घोड़े आदि जीवित प्राणियों की खरीद-विक्री के साथ-साथ दास-दासियों की खरीद-बिक्री का धन्धा भी शामिल था। सम्पत्ति में चतुष्पद प्राणियों के साथ-साथ द्विपद प्राणियों की भी गिनती होती थी। द्विपदों में मुख्यतः दास-दासी आते थे। इस काम को कर्मादान के रूप में स्वीकार करने का यह प्राशय है कि एक श्रावक दास-प्रथा के कुत्सित काम से बचे, मनुष्यों का क्रय-विक्रय न करे। इससे यह भी ध्वनित होता है, जैन परम्परा दास-प्रथा के विरुद्ध थी। उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि जैन आगम न केवल जैनधर्म के सिद्धान्त, आचार, रीतिनीति आदि के ज्ञान हेतु ही पढ़ने आवश्यक हैं वरन् अब से ढाई हजार वर्ष पूर्व के भारतीय समाज के व्यापक अध्ययन की दृष्टि से भी उनका अनुशीलन आवश्यक और उपयोगी है। वास्तव में प्राकृत जैन आगम तथा पालि त्रिपिटक ही उस काल से सम्बद्ध ऐसा साहित्य है, जिसमें जन-जीवन के सभी अंगों का वर्णन, विवेचन हुा / यह ऐसा साहित्य नहीं है, जिसमें केवल राजन्यवर्ग या [ 28 ] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिजात्यवर्ग का स्तवन या गुणकीर्तन हुआ हो। इसमें किसान, मजदूर, चरवाहे, व्यापारी, स्वामी, सेवक, राजा, मन्त्री, अधिकारी आदि समाज के सभी छोटे-बड़े वर्गों का यथार्थ चित्रण हुया है। भाषा, शैली जैसा ऊपर सूचित किया गया है, जैन आगम अर्द्धमागधी प्राकृत में हैं, जिस पर महाराष्ट्री का काफी प्रभाव है। इसलिए डॉ. हर्मन जैकोबी ने तो जैन आगमों की भाषा को जैन महाराष्ट्री की संज्ञा भी दे दी थी पर उसे मान्यता प्राप्त नहीं हुई। उपासकदशा में व्यवहृत अर्द्धमागधी में महाराष्ट्री की 'य' श्रुति का काफी प्रयोग देखा जाता है। जैसे उदाहरणार्थ इसमें 'सावग' और 'सावय' ये दोनों प्रकार के रूप आये हैं / भाषा सरल, प्राञ्जल और प्रवाहमय है। वर्णन में सजीवता है / कई वर्णन तो बड़े ही मार्मिक और अन्तःस्पर्शी हैं। उदाहरणार्थ दूसरे अध्ययन में श्रमणोपासक कामदेव को विचलित करने के लिए उपसर्गकारी देव का वर्णन है / देव के पिशाच-रूप का जो वर्णन वहाँ हुआ है; वह पाश्चर्य, भय और जुगुप्सा–तीनों का सजीव चित्र उपस्थित करता है। वहाँ उल्लेख है, उसके कानों में कुण्डलों के स्थान पर नेवले लटक रहे थे, वह गिरगिटों और चूहों की माला पहने था, उसने अपनी देह पर दुपट्टे की तरह सांपों को लपेट रखा था, उसका शरीर पाँच रंगों के बहविध केशों से ढंका था / कितनी विचित्र कल्पना यह है / और भी विस्मयकर अनेक विशेषण वहाँ हैं / __ जैसी कि आगमों की शैली है, एक ही बात कई बार पुनरावृत्त होती रहती है। जैसे किसी ने किसी से कुछ सुना, यदि उसे अन्यत्र इसे' कहना हो तो वह सारी की सारी बात दुहरायेगा। प्रस्तुत आगम में अनेक स्थानों पर ऐसा हुआ है। ___ अनावश्यक अति विस्तार से बचने के लिए आगमों में सर्वसामान्य वर्णनों के लिए 'जाव' 'द्वारा संकेत कर दिया जाता है. जिसके अनुसार अन्य प्रागमों से वह वर्णन ले लिया जाता है / शताब्दियों तक कण्ठान-विधि से आगमों को सुरक्षित रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक प्रतीत हुआ / सामान्यत: राजा, श्रेष्ठी, सार्थवाह, नगर, उद्यान, चैत्य, सरोवर आदि का वर्णन प्राय: एक जैसा होता है। अतः इनके लिए वर्णन का एक विशेष स्वरूप (Standard) मान लिया गया, जिसे साधारणतया सभी राजाओं, श्रेष्ठियों, सार्थवाहों, नगरों, उद्यानों, चैत्यों, सरोवरों आदि के लिए उपयोग में लिया जाता रहा / प्रस्तुत आगम में भी ऐसा ही हुआ है / हिन्दी अनुवाद सहित आगमप्रकाशन भारत में कतिपय जैन आगमों का मूल तथा सटीक रूप में समय-समय पर प्रकाशन होता रहा है। राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद के साथ बत्तीसों आगमों का सबसे पहला प्रकाशन अब से लगभग छह दशक पूर्व दक्षिण हैदराबाद में हुआ / इनका संपादन तथा अनुवाद लब्धप्रतिष्ठ आगम-विद्वान् समादरणीय मुनि श्री अमोलकऋषिजी महाराज ने किया। तब के समय और स्थिति को देखते हुए निश्चय ही यह एक महत्त्वपूर्ण कार्य था / तबसे पूर्व हिन्दी भाषी जनों को आगम पढ़ने का अवसर ही प्राप्त नहीं था। इन आगमों का सभी जैन सम्प्रदायों के मुनियों और श्रावकों ने उपयोग किया। श्रुत-सेवा का वास्तव में यह एक श्लाघनीय कार्य था / आज वे आगम अप्राप्य (Out of Print) हैं / [ 29] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..बत्तीसों आगमों के संपादन, अनुवाद एवं प्रकाशन का दूसरा प्रयास लगभग, उसके दो दशक बाद जैन शास्त्राचार्य पूज्य श्री घासीलाल जी महाराज द्वारा करांची से चालू हुआ। वर्षों के परिश्रम से वह अहमदाबाद में सम्पन्न हुआ / उन्होंने स्वरचित संस्कृत टीका तथा हिन्दी एवं गुजराती अनुवाद के साथ सम्पादन किया। वे भी आज सम्पूर्ण रूप में प्राप्त नहीं हैं। फुटकर रूप में आगमप्रकाशन कार्य सामान्यतः गतिशील रहा / वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रथम आचार्य आगम-वाङमय के महान् अध्येता, प्रबुद्ध मनीषी पूज्य आत्माराम जी महाराज द्वारा कतिपय आगमों का संस्कृत-छाया, हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या के साथ सम्पादन किया गया, जो वास्तव में बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ / आज वे सब आगम भी प्राप्त नहीं हैं। जैन श्वेताम्बर तेरापंथ की ओर से भी आगमप्रकाशन का कार्य चल रहा है। विस्तृत विवेचन, टिप्पणी आदि के साथ कतिपय आगम प्रकाश में आये हैं। सभी प्रयास जो हुए हैं, हो रहे हैं, अभिनन्दनीय हैं। प्राज को आवश्यकता हिन्दी जगत् में वर्षों से आज की प्रांजल भाषा तथा अधुनातन शैली में हिन्दी अनुवाद के साथ आगमप्रकाशन की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी। देश का हिन्दी-भाषी क्षेत्र बहुत विशाल है / हिन्दीभाषा में कोई साहित्य देने का अर्थ है कोटि कोटि मानवों तक उसे पहुँचाना / जैन आगम केवल विद्वद्भोग्य नहीं हैं, जन-जन के लिए उनकी महनीय उपयोगिता है। आज के समस्यासंकुल युग में, जब मानव को शान्ति का मार्ग चाहिए, वे और भी उपयोगी हैं / जन-जन के लिए वे उपयोगी हो सकें, इस हेतु मूलग्राही भावबोधक अनुवाद और जहाँ अपेक्षित हो, सरल रूप में संक्षिप्त विवेचन के साथ आगमों का प्रकाशन हिन्दी-जगत् के लिए आज की अनुपेक्षणीय आवश्यकता है। जैन जगत् के सुप्रसिद्ध विद्वान् एवं लेखक, पण्डितरत्न, वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ के युवाचार्य पूज्य श्री मधुकर मुनिजी महाराज के मन में बहुत समय से यह बात थी। उन्हीं की आध्यात्मिक प्रेरणा की यह फल-निष्पत्ति है कि ब्यावर [राजस्थान] में आगम प्रकाशन समिति का परिगठन हुआ, जिसने यह स्तुत्य कार्य सहर्ष, सोत्साह स्वीकार कर लिया / अागम-संपादन, अनुवाद त्वरापूर्वक गतिशील है / सहभागित्व पिछले कुछ वर्षों से श्रद्धेय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी महाराज से मेरा श्रद्धा एवं सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध है। उनके निश्छल, निर्मल, सरल व्यक्तित्व की मेरे मन पर एक छाप है। वे वरिष्ठ विद्वान् तो हैं ही, साथ ही साथ विद्वानों एवं गुणियों का बड़ा आदर करते हैं। मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ कि मुझे उनका हार्दिक अनुग्रह एवं सात्विक स्नेह प्राप्त है / आगमों के संपादन एवं अनुवादकार्य में पूज्य युवाचार्य श्री ने मुझे भी स्मरण किया। पिछले तीस वर्षों से भारतीय विद्या (Indology) और विशेषतः प्राकृत तथा जैन विधा (Jainology) के क्षेत्र में अध्ययन, अनुसन्धान, लेखन, अध्यापन आदि के सन्दर्भ में कार्यरत रहा हूँ। यह मेरी आन्तरिक अभिरुचि का विषय है, व्यवसाय नहीं। अतः मुझे प्रसन्नता का अनुभव हुआ / मेड़ता निवासी मेरे अनन्य मित्र युवा साधक एवं साहित्यसेवी श्रीमान् जतनराजजी मेहता, जो आगम प्रकाशन समिति के महामन्त्री मनोनीत [ 30 ] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए, ने भी मुझे विशेष रूप से प्रेरित किया। श्रुत की सेवा का सुन्दर अवसर जान, मैंने उधर उत्साह दिखाया / सातवें अंग उपासकदशा का कार्य मेरे जिम्मे पाया। मैंने उपासकदशा का कार्य हाथ में लिया। सम्पादन, अनुवाद, विवेचन पहला कार्य पाठ-सम्पादन का था। मैंने उपासकदशा के निम्नाङ्कित संस्करण हस्तगत किये 1. उपासकदशासूत्रम्-सम्पादक, डॉ० एम० ए० रुडोल्फ हानले / प्रकाशक-बंगाल एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता / प्रथम संस्करण : 1890 ई० / 2. श्रीमद् अभयदेवाचार्यविहितविवरणयुतं श्रीमद् उपासकदशांगम् / प्रकाशक-आगमोदय समिति, महेसाणा, प्रथम संस्करण 1920 ई० / 3. उपासकदशांगसूत्रम्-वृत्तिरचयिता-जैनशास्त्राचार्य पूज्य श्री घासीलालजी महाराज / प्रकाशक-श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन संघ, कराची / प्रथम संस्करण: 1936 ई० / 4. श्री उपासकदशांगसूत्र-अनुवादक-जैनधर्मदिवाकर आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज / प्रकाशक-प्राचार्य श्री आत्माराम जैन प्रकाशन समिति, लुधियाना / प्रथम संस्करण : 1964 ई०। 5. उपासकदशांगसूत्रम् - अनुवादक-वी० घीसूलाल पितलिया। प्रकाशक-अ० भा० साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ, सैलाना [मध्यप्रदेश] / प्रथम संस्करण : 1977 ई० / 6. उवासगदसामो-श्रीमद् अभयदेव सूरि विरचित मूल अने टीकाना अनुवाद सहित [लिपि-देवनागरी, भाषा-गुजराती] अनुवादक अने प्रकाशक-पं० भगवानदास हर्षचन्द्र / प्रथम संस्करण : वि० सं० 1992 ई०, जैनानन्द पुस्तकालय, गोपीपुरा, सूरत। 7. अंगसुत्ताणि-३. सम्पादक मुनि नथमलजी / प्रकाशक जैन विश्व भारती, लाडनू। प्रथम संस्करण : सं० 2031 / 8. उपासकदशांग-अनुवादक, सम्पादक-डॉ० जीवराज घेलाभाई दोशी, अहमदाबाद __ [देवनागरी लिपि, गुजराती भाषा] / 9. उपासकदशासूत्र--सम्पादक, अनुवादक-बाल-ब्रह्मचारी पं० मुनि श्री अमोलक ऋषिजी महाराज / प्रकाशक- हैदराबाद-सिकंदराबाद जैन संध, हैदराबाद [दक्षिण] / वीराब्द 2442-2446 ई० / इन सब प्रतियों का मिलान कर, भिन्न-भिन्न प्रतियों की उपयोगी पूरकता का उपयोग कर [31] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रुटिरहित एवं प्रामाणिक पाठ ग्रहण करने का प्रयास किया गया है / संख्याक्रम, पैरेग्राफ, विरामचिह्न प्रादि के रूप में विभाजन, सुव्यवस्थित उपस्थापन का पूरा ध्यान रखा गया है। प्राकृत अपने युग की जीवित भाषा थी। जीवित भाषा में विविध स्थानीय उच्चारण-भेद से एक ही शब्द के एकाधिक उच्चारण बोलचाल में रहते संभावित हैं, जैसे नगर के लिए नयर, गयरदोनों ही रूप सम्भव हैं / प्राचीन प्रतियों में भी दोनों ही प्रकार के रूप मिलते हैं। यों जिन-जिन शब्दों के एकाधिक रूप हैं, उनको उपलब्ध प्रतियों की प्रामाणिकता के आधार पर उसी रूप में रखा गया है। 'जाव' से सूचित पाठों के सम्बन्ध में ऐसा क्रम रखा गया है 'जाब' से संकेतित पाठ को पहली बार तो सम्बद्ध पूरक आगम से लेकर यथावत् रूप में कोष्ठक में दे दिया गया है, आगे उसी पाठ का सूचक 'जाव' जहाँ-जहाँ आया है, वहाँ पाद-टिप्पण में उस पिछले सूत्र का संकेत कर दिया गया है, जहाँ वह पाठ उद्धृत है / प्रायः प्रकाशित संस्करणों में 'जाव' से सूचित पाठ को कोष्ठक आदि में उद्धृत करने का क्रम नहीं रहा है। विस्तार से बचने के लिए संभवतः ऐसा किया गया हो। अधिक विस्तार न हो वाञ्छित है पर यह भी आवश्यक है कि 'जाव' द्वारा अमुक विषय का जो वर्णन अभीप्सित है, उससे पाठक अवगत हों / उसे उपस्थित किये बिना पाठकों को पठनीय विषय का पूरा ज्ञान नहीं हो पाता / अतः 'जाव' से सूचित पाठ की सर्वथा उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए / हाँ, इतना अवश्य है, एक ही 'जाव' के पाठ को जितने स्थानों पर वह आया हो, सर्वत्र देना वाञ्छित नहीं है / इससे ग्रन्थ का अनावश्यक कलेवर बढ़ जाता है / 'जाव' से सूचित पाठ इतना अधिक हो जाता है कि पढ़ते समय पाठकों को मूल पाठ स्वायत्त करने में भी कठिनाई होती है। हिन्दी अनुवाद में भाषा का क्रम ऐसा रखा गया है, जिससे पाठक मूल पाठ के बिना भी उसको स्वतन्त्र रूप से पढ़े तो एक जैसा प्रवाह बना रहे / प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ में उसका सार-संक्षेप में दिया गया है, जिसमें अध्ययनगत विषय का संक्षिप्त विवरण है। जिन सूत्रों में वर्णित विषयों की विशेष व्याख्या अपेक्षित हुई, उसे विवेचन में दिया गया है / यह ध्यान रखा गया है, विवेचन में अनावश्यक विस्तार न हो, आवश्यक बात छूटे नहीं / प्रस्तुत आगम के सम्पादन, अनुवाद एवं विवेचन में अनिश पाठ मास तक किये गये श्रम की यह फलनिष्पत्ति है / इस बीच परम श्रद्धेय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी महाराज तथा वयोवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध मनीषी विद्वद्वर पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल की ओर से मुझे सतत स्फूतिप्रद प्रेरणाएं प्राप्त होती रहीं, जिससे मेरा उत्साह सर्वथा वृद्धिंगत होता रहा / मैं हृदय से आभारी हूँ। इस कार्य में प्रारम्भ से ही मेरे साहित्यिक सहकर्मी प्रबुद्ध साहित्यसेवी श्री शंकरलालजी पारीक, लाडनू कार्य के समापन पर्यन्त सहयोगी रहे हैं / प्रेस के लिए पाण्डुलिपियाँ तैयार करने में उनका पूरा साथ रहा / [32] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-वाङमय के अनुरागी, अध्यात्म व संयम में अभिरुचिशील, सहस्राब्दियों पूर्व के भारतीय जीवन के जिज्ञासु सुधी जन यदि प्रस्तुत ग्रन्थ से कुछ भी लाभान्वित हुए तो मैं अपना श्रम सार्थक मानूगा। कैवल्यधाम, सरदारशहर [राजस्थान] दिनांक 9-4-80 -डॉ. छगनलाल शास्त्री एम० ए० [हिन्दी संस्कृत, प्राकृत तथा जैनोलोजी] पी-एच० डी०, काव्यतीर्थ, विद्यामहोदधि भू० पू० प्रवक्ता-~-इन्स्टीट्यूट ऑफ प्राकृत, जैनोलोजी एण्ड अहिंसा, वैशाली [बिहार [33] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पहला अध्ययन पृष्ठ शीर्षक 1. सार : संक्षेप 2. जम्बू की जिज्ञासा : सुधर्मा का उत्तर 3. अानन्द गाथापति 4. वैभव 5. सामाजिक प्रतिष्ठा 6. शिवनन्दा 7. कोल्लाक सन्निवेश 8. भगवान् महावीर का समवसरण 9. आनन्द द्वारा वन्दना 10. धर्म-देशना 11. प्रानन्द की प्रतिक्रिया 12. व्रतग्रहण [क] अहिंसाव्रत [ख] सत्य-व्रत [ग] अस्तेय-व्रत [घ] स्वदार-सन्तोष [3] इच्छा-परिणाम [च] उपभोग-परिभोग-परिमाण [छ] अनर्थ-दण्ड-विरमण 13. अतिचार [क] सम्यक्त्व के अतिचार [ख] अहिंसा-व्रत के अतिवार [ग] सत्य-व्रत के अतिचार [घ] अस्तेय-व्रत के अतिचार [3] स्वदारसन्तोष-व्रत के अतिचार [च] इच्छा-परिमाण-व्रत के अतिचार [छ] दिग्वत के अतिचार [ज] उपभोग-परिभोग-परिमाण-व्रत के अतिचार [झ] अनर्थदण्ड-विरमण के अतिचार WWW.W . MWWWWWWWWWro 0.0 00. 00 Name Www.1964GGGGM A [34] K Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अ] सामायिक-व्रत के अतिचार [8] देशावकाशिक-व्रत के अतिचार [8] पोषधोपवास-व्रत के अतिचार . [ड] यथासंविभाग-व्रत के अतिचार [6] मरणान्तिक संलेखना के अतिचार 14. प्रानन्द द्वारा अभिग्रह 15. आनन्द का भविष्य 16. आनन्द : अवधिज्ञान 6Ncxxxx KRWWW. दूसरा अध्ययन 1. सार : संक्षेप 2. श्रमणोपासक कामदेव 3. देव द्वारा पिशाच के रूप में उपसर्ग 4. हाथी के रूप में उपसर्ग 5. सर्प के रूप में उपसर्ग 6. देव का पराभव : हिंसा पर अहिंसा की विजय 7. भगवान् महावीर का पदार्पण : कामदेव द्वारा वन्दन-नमन 8. भगवान् द्वारा कामदेव की वर्धापना 9. कामदेव : स्वर्गारोहण 100 101 तीसरा अध्ययन 103 0 107 1. सार : संक्षेप 2. श्रमणोपासक चुलनीपिता 3. उपसर्गकारी देव : प्रादुर्भाव 4. पुत्रवध की धमकी 5. चुलनीपिता की निर्भीकता 6. बड़े पुत्र की हत्या 7. मंझले व छोटे पुत्र की हत्या 8. मातृवध की धमकी 9. चुलनीपिता का क्षोभ : कोलाहल 10. माता का आगमन : जिज्ञासा 11. चुलनीपिता का उत्तर 12. चुलनीपिता द्वारा प्रायश्चित्त 13. जीवन का उपासनामय अन्त orror or or or or or 0 0 जल 66 0 0 0 110 113 [35] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अध्ययन 117 119 1. सार : संक्षेप 2. श्रमणोपासक सुरादेव 3. देव द्वारा पुत्रों की हत्या 4. भीषण व्याधियों की धमकी 5. सुरादेव का क्षोभ 6. जीवन का उपसंहार wor or or or or 90 our पांचवां अध्ययन . 1. सार : संक्षेप 2. श्रमणोपासक चुल्लशतक 3. देव द्वारा विघ्न 4. सम्पत्ति-विनाश की धमकी 5. विचलन : प्रायश्चित्त 6. दिव्य गति 123 125 125 126 127 127 छठा अध्ययन 1. सार : संक्षेप 2. श्रमणोपासक कुडकौलिक 3. अशोकवाटिका में ध्यान-निरत 4. देव द्वारा नियतिवाद का प्रतिपादन 5. कुडकौलिक का प्रश्न 6. देव का उत्तर 7. कूडकौलिक द्वारा खण्डन 8. देव की पराजय 9. भगवान् द्वारा कुडकोलिक की प्रशंसा : श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रेरणा 10. शान्तिमय देहावसान 129 131 132 132 133 134 بسم الله الله 136 सातवां अध्ययन 1. सार : संक्षेप 2. आजीविकोपासक सकडालपुत्र 3. सम्पत्ति : व्यवसाय 4. देव द्वारा सूचना 5. सकडालपुत्र की कल्पना 138 142 143 144 148 [36] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 xxcxx 3 rx r rur or 164 ___ 6. भगवान महावीर का सान्निध्य 7. सकडालपुत्र पर प्रभाव 8. भगवान् का कुभकारापण में पदार्पण 9. नियतिवाद पर चर्चा 10. बोधिलाभ 11. संकडालपुत्र एवं अग्निमित्रा द्वारा ब्रत-ग्रहण 12. भगवान् का प्रस्थान 13. गोशालक का आगमन 14. सकडालपुत्र द्वारा उपेक्षा 15. गोशालक द्वारा भगवान् का गुण-कीर्तन 16. गोशालक का कूभकारापण में प्रागमन 17. निराशापूर्ण गमन 18. देवकृत उपसर्ग 19. अन्तःशुद्धि : आराधना : अन्त आठवां अध्ययन 1. सार : संक्षेप 2. श्रमणोपासक महाशतक 3. पत्नियां : उनकी सम्पत्ति 4. महाशतक द्वारा वतसाधना 5. रेवती की दुर्लालसा 6. रेवती की मांस-मद्य-लोलुपता 7. महाशतक : अध्यात्म की दिशा में 8. महाशतक को डिगाने हेतु रेवती का कामुक उपक्रम 9. महाशतक की उत्तरोत्तर बढ़ती साधना 10. अामरण अनशन 11. अवधिज्ञान का प्रादुर्भाव 12. रेवती द्वारा पुन : असफल कुचेष्टा 13. महाशतक द्वारा रेवती का दुर्गतिमय भविष्य-कथन 14. रेवती का दुःखमय अन्त 15. गौतम द्वारा भगवान् का प्रेरणा-सन्देश 16. महाशतक द्वारा प्रायश्चित्त [ 37 ] 174 175 176 178 IS 0 0 0 15 181 183 185 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां अध्ययन 187 1. सार : संक्षेप 2. गाथापति नन्दिनीपिता 3. व्रत-पाराधना 4. साधनामय जीवन : अवसान 188 188 188 दसवां अध्ययन 1. सार : संक्षेप 2. गाथापति सालिहीपिता 3. सफल साधना उपसंहार संग्रह-गाथाएं परिशिष्ट 1 : शब्दसूची परिशिष्ट 2 : प्रयुक्त-ग्रन्थ-सूची 191 194 199 225 O0 [ 38 | Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमगणहर-सिरिसुहम्मसामिविरइयं सत्तमं अंग उवासगदसाओ पञ्चमगणधर-श्रीसुधर्म-स्वामि-विरचितं सप्तमम् अङ्गम् उपासकदशा Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासकदशांगसूत्र प्रथम अध्ययन सार-संक्षेप घटना तब की है, जब भगवान् महावीर सदेह विद्यमान थे, अपनी धर्म-देशना से जन-मानस में अध्यात्म का संचार कर रहे थे / उत्तर बिहार के एक भाग में, जहां लिच्छवियों का गणराज्य था, वाणिज्यग्राम नामक नगर था / वह लिच्छवियों की राजधानी वैशाली के पास ही था। बनियागाँव नामक आज भी एक गाँव उस भूमि में है / सम्भवतः वाणिज्यग्राम का ही वह अवशेष हो। वाणिज्यग्राम में आनन्द नामक एक सद्गृहस्थ निवास करता था। वह बहुत सम्पन्न, समृद्ध और वैभवशाली था। ऐसे जनों के लिए जैन आगम-साहित्य में गाथापति शब्द का प्रयोग हुआ है। करोड़ों सुवर्ण-मुद्राओं में सम्पत्ति, धन, धान्य, भूमि, गोधन इत्यादि की जो प्रचुरता आनन्द के यहाँ थी, उसके आधार पर आज के मूल्यांकन में वह अरबपति की स्थिति में पहुँचता था। कृषि उसका मुख्य व्यवसाय था / उसके यहाँ दस-दस हजार गायों के चार गोकुल थे। गाथापति आनन्द समृद्धिशाली होने के साथ-साथ समाज में बहुत प्रतिष्ठित था, सभी वर्ग के लोगों द्वारा सम्मानित था। बहुत बुद्धिमान् था, व्यवहार-कुशल था, मिलनसार था, इसलिए सभी लोग अपने कार्यों में उससे परामर्श लेते थे। सभी का उसमें अत्यधिक विश्वास था, इसलिए अपनी गोपनीय बात भी उसके सामने प्रकट करने में किसी को संकोच नहीं होता था / यों वह सुख, समृद्धि, सम्पन्नता और प्रतिष्ठा का जीवन जी रहा था। उसकी धर्मपत्नी का नाम शिवनन्दा था। वह रूपवती, गुणवती एवं पति-परायण थी / अपने पति के प्रति उसमें असीम अनुराग, श्रद्धा और समर्पण था। आनन्द के पारिवारिक जन भी सम्पन्न और सुखी थे / सब आनन्द को आदर और सम्मान देते थे। आनन्द के जीवन में एक नया मोड़ पाया / संयोगवश श्रमण भगवान महावीर अपने पादविहार के बीच वाणिज्यग्राम पधारे। वहाँ का राजा जितशत्रु अपने सामन्तों, अधिकारियों और पारिवारिकों के साथ भगवान के दर्शन के लिए गया / अन्यान्य सम्भ्रान्त नागरिक और धर्मानुरागी जन भी पहुँचे / आनन्द को भी विदित हुआ। उसके मन में भी भगवान् के दर्शन की उत्सुकता जागी। वह कोल्लाक सन्निवेश-स्थित दूतीपलाश चैत्य में पहुंचा, जहाँ भगवान् विराजित थे। कोल्लाक सन्निवेश वाणिज्यग्राम का उपनगर था। अानन्द ने भक्तिपूर्वक भगवान् को वन्दननमन किया। भगवान् ने धर्म-देशना दी। जीव, अजीव आदि तत्वों का बोध प्रदान किया, अनगारश्रमण-धर्म तथा अगार-गृहि-धर्म या श्रावक-धर्म की व्याख्या की। आनन्द प्रभावित हुआ / उसने भगवान् से पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत-यों श्रावक के बारह व्रत स्वीकार किए / अब तक जीवन हिंसा, भोग एवं परिग्रह आदि की दृष्टि से अमर्यादित था, उसने उसे मर्यादित एवं सीमित बनाया / असीम लालसा और तृष्णा को नियमित, नियन्त्रित Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उपासकदशांगसूत्र किया / फलतः उसका खान-पान, रहन-सहन, वस्त्र, भोगोपभोग सभी पहले की अपेक्षा बहुत सीमित, सादे हो गए। आनन्द एक विवेकशील और अध्यवसायी पुरुष था / वैसे सादे, सरल और संयमोन्मुख जीवन में वह सहज भाव से रम गया। अानन्द ने सोचा, मैंने जीवन में जो उद्बोध प्राप्त किया है, अपने प्राचार को तदनुरूप ढाला है, अच्छा हो, मेरी सहमिणी शिवनन्दा भी वैसा करे। उसने घर आकर अपनी पत्नी से कहादेवानुप्रिये ! तुम भी भगवान् के दर्शन करो, वन्दन करो, बहुत अच्छा हो, गृहि-धर्म स्वीकार करो। आनन्द व्यक्ति की स्वतन्त्रता का मूल्य समझता था, इसलिए उसने अपनी पत्नी पर कोई . दबाव नहीं डाला, अनुरोधमात्र किया। शिवनन्दा को अपने पति का अनुरोध अच्छा लगा। वह भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित हुई, धर्म सुना। उसने भी बड़ी श्रद्धा और उत्साह के साथ श्रावक-व्रत स्वीकार किए / भगवान् महावीर कुछ समय बाद वहाँ से विहार कर गए। . आनन्द का जीवन अब और भी सुखी था / वह धर्माराधनापूर्वक अपने कार्य में लगा रहा / चौदह वर्ष व्यतीत हो गए / एक बार की बात है, आनन्द सोया था, रात के अन्तिम पहर में उसकी नींद टूटी / धर्म-चिन्तन करते हुए वह सोचने लगा जिस सामाजिक स्थिति में मैं हूँ, अनेक विशिष्ट जनों से सम्बन्धित होने के कारण धर्माराधना में यथेष्ट समय दे नहीं पाता / अच्छा हो, अब मैं सामाजिक और लौकिक दायित्वों से मुक्ति ले लू और अपना जीवन धर्म की आराधना में अधिक से अधिक लगाऊं / उसका विचार निश्चय में बदल गया / दूसरे दिन उसने एक भोज आयोजित किया। आरिवारिक जनों को ग्रामन्त्रित किया. भोजन कराया. सत्कार किया। अपना निश्चय सबके सामने प्रकट किया। अपने बड़े पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपा, सामाजिक दायित्व एवं सम्बन्धों को भली भाँति निभाने की शिक्षा दी। उसने विशेष रूप से उस समय उपस्थित जनों से कहा कि अब वे उसे गृहस्थ-सम्बन्धी किसी भी काम में कुछ भी न पूछे / यों अानन्द ने सहर्ष कौटुम्बिक और सामाजिक जीवन से अपने को पृथक् कर लिया / वह साधु जैसा जीवन बिताने को उद्यत हो गया। आनन्द कोल्लाक सन्निवेश में स्थित पोषधशाला में धर्मोपासना करने लगा / उसने क्रमश: श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं की उत्तम एवं पवित्र भावपूर्वक आराधना की। उग्र तपोमय जीवन व्यतीत करने से उसका शरीर सूख गया, यहाँ तक कि शरीर की नाड़ियाँ दिखाई देने लगीं। एक बार की बात है, रात्रि के अन्तिम पहर में धर्म-चिन्तन करते हुए आनन्द के मन में विचार आया--यद्यपि अब भी मुझ में आत्म-बल, पराक्रम, श्रद्धा और संवेग की कोई कमी नहीं, पर शारीरिक दृष्टि से मैं कृश एवं निर्बल हो गया हूँ। मेरे लिए श्रेयस्कर है, मैं अभी भगवान महावीर विद्यमानता में अन्तिम मारणान्तिक संलेखना स्वीकार कर लें। जीवन भर के लिए अन्न-जल का त्याग कर दूं, मृत्यु की कामना न करते हुए शान्त चित्त से अपना अन्तिम समय व्यतीत करू / ___आनन्द एक दृढचेता पुरुष था। जो भी सोचता, उसमें विवेक होता, आत्मा की पुकार होती। फिर उसे कार्य-रूप में परिणत करने में वह विलम्ब नहीं करता / उसने जैसा सोचा, तदनुसार सबेरा होते ही आमरण अनशन स्वीकार कर लिया। ऐहिक जीवन की सब प्रकार की इच्छाओं और Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [5 प्रथम अध्ययन : सार-संक्षेप] आकर्षणों से वह सर्वथा ऊँचा उठ गया। जीवन और मरण दोनों की आकांक्षा से अतीत बन वह आत्म-चिन्तन में लीन हो गया / धर्म के निगूढ चिन्तन और आराधन में संलग्न आनन्द के शुभ एवं उज्ज्वल परिणामों के कारण अवधिज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम हुआ, उसको अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया। भगवान् महावीर विहार करते हुए पधारे, वाणिज्यग्राम के बाहर दूतीपलाश चैत्य में ठहरे / लोग धर्म-लाभ लेने लगे / भगवान् के प्रमुख शिष्य गौतम तब निरन्तर बेले-बेले का तप कर रहे थे। वे एक दिन भिक्षा के लिए वाणिज्यग्राम में गए। जब वे कोल्लाक सन्निवेश के पास पहुँचे, उन्होंने आनन्द के आमरण अनशन के सम्बन्ध में सुना। उन्होंने सोचा, अच्छा हो मैं भी उधर हो आऊँ / वे पोषधशाला में आनन्द के पास आए / आनन्द का शरीर बहुत क्षीण हो चुका था। अपने स्थान से इधर-उधर होना उसके लिए शक्य नहीं था / उसने आर्य गौतम से अपने निकट पधारने की प्रार्थना की, जिससे वह यथाविधि उन्हें वन्दन कर सके / गौतम निकट पाए / आनन्द ने सभक्ति वन्दन किया और एक प्रश्न भी किया--भन्ते ! क्या गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है ? गौतम ने कहा-पानन्द ! हो सकता है। तब आनन्द बोला-भगवन् ! मैं एक गृहि-श्रावक की भूमिका में हूं, मुझे भी अवधिज्ञान हुआ है। मैं उसके द्वारा पूर्व की ओर लवणसमुद्र में पांच सौ योजन तक तथा अधोलोक में लोलुपाच्युत नरक तक जानता हूँ, देखता हूँ। इस पर गौतम बोले-~-आनन्द ! गृहस्थ को अवधिज्ञान हो सकता है, पर इतना विशाल नहीं। इसलिए तुम से जो यह असत्य भाषण हो गया है, उसकी आलोचना करो, प्रायश्चित्त करो। आनन्द बोला--भगवन् ! क्या जिन-प्रवचन में सत्य और यथार्थ भावों के लिए भी अालोचना की जाती है ? गौतम ने कहा-पानन्द ! ऐसा नहीं होता / तब आनन्द बोला-भगवन् ! जिन-प्रवचन में यदि सत्य और यथार्थ भावों की आलोचना नहीं होती तो आप ही इस सम्बन्ध में आलोचना कीजिए। अर्थात् मैंने जो कहा है, वह असत्य नहीं है / गौतम विचार में पड़ गए। इस सम्बन्ध में भगवान् से पूछने का निश्चय किया। वे भगवान् के पास आए। उन्हें सारा वृत्तान्त सुनाया और पूछा कि आलोचना और प्रायश्चित्त का भागी कौन है ? भगवान् ने कहा—गौतम ! तुम ही आलोचना करो और आनन्द से क्षमा याचना भी। आनन्द ने ठीक कहा है / गौतम पवित्र एवं सरलता साधक थे। उन्होंने भगवान् महावीर का कथन विनयपूर्वक स्वीकार किया और सरल भाव से अपने दोष की आलोचना की, प्रानन्द से श्रमा-याचना की। आनन्द अपने उज्ज्वल आत्म-परिणामों में उत्तरोत्तर दृढ और दृढतर होता गया। एक मास की संलेखना के उपरान्त उसने समाधि-मरण प्राप्त किया। देह त्याग कर वह सौधर्म देवलोक के सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशानकोण में स्थित अरुण विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ। प्रथम अध्ययन का यह संक्षिप्त सारांश है / Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन गाथापति प्रानन्द जम्मू की जिज्ञासा : सुधर्मा का उत्तर 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था / वण्णओ। पुण्णभद्दे चेइए / वण्णओ। - उस काल--वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय--जब आर्य सुधर्मा विद्यमान थे, चम्पा नामक नगरी थी, पूर्णभद्र नामक चैत्य था। दोनों का वर्णन औपपातिकसूत्र से जान लेना चाहिए। विवेचन ... यहाँ काल और समय—ये दो शब्द आये हैं। साधारणतया ये पर्यायवाची हैं। जैन पारिभाषिक दृष्टि से इनमें अन्तर भी है। काल वर्तना-लक्षण सामान्य समय का वाचक है और समय काल के सूक्ष्मतम-सबसे छोटे भाग का सूचक है / पर, यहाँ इन दोनों का इस भेद-मूलक अर्थ के साथ प्रयोग नहीं हुआ है / जैन आगमों की वर्णन-शैली की यह विशेषता है, वहाँ एक ही बात प्रायः अनेक पर्यायवाची, समानार्थक या मिलते-जुलते अर्थ वाले शब्दों द्वारा कही जाती है। भाव को स्पष्ट रूप में प्रकट करने में इससे सहायता मिलती है / पाठकों के सामने किसी घटना, वृत्त या स्थिति का एक बहुत साफ शब्द-चित्र उपस्थित हो जाता है। यहाँ काल का अभिप्राय वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे पारे के अन्त से है तथा समय उस युग या काल का सूचक है, जब आर्य सुधर्मा विद्यमान थे। यहाँ चम्पा नगरी तथा पूर्णभद्र चैत्य का उल्लेख हुया है। दोनों के आगे 'वग्णयो' शब्द आया है। जैन आगमों में नगर, गांव, उद्यान आदि सामान्य विषयों के वर्णन का एक स्वीकृत रूप है / उदाहरणार्थ, नगरी के वर्णन का जो सामान्य क्रम है, वह सभी नगरियों के लिए काम में आ जाता है / औरों के साथ भी ऐसा ही है। लिखे जाने से पूर्व जैन आगम मौखिक परम्परा से याद रखे जाते थे। याद रखने में सुविधा की दृष्टि से संभवतः यह शैली अपनाई गई हो / वैसे नगर, उद्यान आदि साधारणतया लगभग सदृश होते ही हैं। 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्ज-सुहम्मे समोसरिए, जाव जम्बू समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्ज-सहम्मे नाम थेरे जाति-संपण्णे, कल-संपण्णे, बल-संपण्णे, रूव-संपण्णे, विणय-संपण्णे, नाण-संपण्णे, दंसण-संपण्णे, चरित्त-संपण्णे, लज्जा-संपण्णे, लाघव-संपण्णे, ओयंसी, तेयंसी, वच्चंसी, जसंसी, जिय-कोहे, जिय-माणे, जिय-माए, जिय-लोहे, जिय-णिद्दे, जिइंदिए, जियपरीसहे, जीवियास-मरण-भय-विप्पमुक्के, तव-प्पहाणे, गुण-प्पहाणे, करण-प्पहाणे, चरण-प्पहाणे, निग्गह-प्पहाणे, निच्छय-प्पहाणे, अज्जव-प्पहाणे, मद्दव-प्पहाणे, लाघव-प्पहाणे, खंति-प्पहाणे, गुत्तिप्पहाणे, मुत्ति-प्पहाणे, विज्जा-प्पहाणे, मंत-प्पहाणे, बंभ-प्पहाणे, वेय-प्पहाणे, नय-प्पहाणे, नियमप्पहाणे, सच्च-प्पहाणे, सोय-प्पहाणे, नाण-प्पहाणे, दंसण-प्पहाणे, चरित्त-प्पहाणे, ओराले, घोरे, घोर-गुणे, घोर-तवस्सी, घोर-बंभचेरवासी, उच्छूढ-सरीरे संखित्त-विउल-तेउ-लेस्से, चउद्दस-पुन्वी, Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन: गाथापति आनन्द] चउनाणोवगए, पंचहि अणगार-सएहि सद्धि संपरिवुडे, पुवाणुपुस्वि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे, सुहं सुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नपरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छई। चंपानयरोए बहिया पुण्णभद्दे चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ, ओपिण्हिता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्ज-सुहम्मस्स थेरस्स जेठे अंतेवासी अज्ज-जंबू नाम अणगारे कासव-गोत्तेणं सत्तुस्सेहे, सम-चउरंस-संठाण-संठिए, वइर-रिसह-णाराय-संघयणे, कणग-पुलगनिघस-पम्ह-गोरे, उग्ग-तवे, दित्त-तवे, तत्त-तवे, महा-तवे, ओराले, घोरे, घोर-गुणे, घोर-तवस्सी, घोर-बंभचेरवासी, उच्छूढ-सरीरे, संखित्त-विउ-तेउल-लेस्से, अज्ज-सुहम्मस्स थेरस्त अदूरसामंते उड्ढंजाणू, अहोसिरे, झाण-कोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / तए णं से अज्ज-जंबू नामं अणगारे जाय-सड्ढे, जाय-संसए, जाय-कोऊहल्ले, उप्पण्ण-सड्ढे, उप्पण्ण-संसए, उप्पण्ण-कोऊहल्ले संजाय-सड्ढे, संजाय-संसए, संजाय-कोऊहल्ले, समुप्पण्ण-सड्ढे, समुप्पण्ण-संसए, समुप्पण्ण-कोऊहल्ले उट्ठाए उठेइ, उठेता जेणेव अज्ज-सुहम्मे थेरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अज्ज-सुहम्मं थेरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता पच्चासण्णे गाइद्रे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे * अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे / ) पज्जुवासमाणे एवं वयासी-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव (आइगरेणं, तित्थगरेणं, सयंसंबुद्धेणं, पुरिसुत्तमेणं, पुरिससोहेणं, पुरिसवरपुडरीएणं, पुरिसवरगंधहत्थिएणं,लोगुत्तमेणं लोगनाहेणं, लोग-पईवेणं, लोग-पज्जोयगरेणं, अभयदएणं, सरणदएणं चक्खुदएणं, मग्गदएणं, जीवदएणं, बोहिदएणं धम्मदएणं, धम्म-देसएणं धम्म-नायगेणं, धम्मसारहिणा, धम्म-वर-चाउरत-चक्कट्टिणा,* अप्पडिहय-वर-नाण-दसणधरेणं वियदृछउमेणं जिणेणं, जाणएणं, बुद्धेणं, बोहएणं, मुत्तेणं, मोयगेणं, तिण्णणं, तारएणं, सिव-मयल-मरुय-मणंत-मक्खय-मव्वाबाहमपुणरावत्तयं सासयं ठाणमुवगएणं, सिद्धिगइ-नामधेज्ज ठाणं) संपत्तेणं / छट्ठस्स अंगस्स नायाधम्मकहाणं अयमठे पण्णत्ते सत्तमस्स णं भंते ! अंगस्स उवासगदसाणं समणेणं जाव' संपत्तेणं के अट्ठे पण्णते? एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव' संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता / तं जहा आणंदे कामदेवे य, गाहावइ-चुलणीपिया। सुरादेवे चुल्लसयए, गाहाबइ-कुडकोलिए। सद्दालपुत्ते महासयए, नंदिणीपिया सालिहीपिया / / जइ णं भंते ! समणणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते ! समणेणं जाव' संपत्तेणं के अछे पण्णते? 1-2-3-4 इसी सूत्र में पूर्व वणित के अनुरूप / * इससे आगे किसी-किसी प्रति में 'दीवो ताणं सरणगई पइठा' यह पाठ अधिक उपलब्ध होता है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उपासकदशांगसूत्र उस समय आर्य सुधर्मा [श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी, जाति-सम्पन्न-उत्तम निर्मल मातृपक्षयुक्त, कुल-सम्पन्न-उत्तम निर्मल पितृपक्षयुक्त, बल-सम्पन्न-उत्तम दैहिक शक्तियुक्त, रूप-सम्पन्न-रूपवान् सर्वांग सुन्दर, विनय-सम्पन्न, ज्ञान-सम्पन्न, दर्शन-सम्पन्न, चारित्र-सम्पन्न, लज्जा-सम्पन्न, लाघव-सम्पन्न-हलके-भौतिक पदार्थ और कषाय आदि के भार से रहित, ओजस्वी, तेजस्वी, वचस्वी-प्रशस्त भाषी अथवा वर्चस्वी-वर्चस् या प्रभाव युक्त, यशस्वी, क्रोधजयी, मानजयी, मायाजयी, लोभजयी, निद्राजयी, इन्द्रियजयी, परिषहजयी-कष्टविजेता, जीवन की इच्छा और मृत्यु के भय से रहित, तप-प्रधान, गुण-प्रधान-संयम आदि गुणों की विशेषता से युक्त, करण-प्रधान-आहार-विशुद्धि आदि विशेषता सहित, चारित्र-प्रधान-उत्तम चारित्रसम्पन्न- दशविध यति-धर्मयुक्त, निग्रह-प्रधान राग आदि शत्रुओं के निरोधक, निश्चय-प्रधान-सत्य तत्त्व के निश्चित विश्वासी या कर्म-फल की निश्चितता में प्राश्वस्त, आर्जव-प्रधान-सरलतायुक्त, मार्दव-प्रधान-मृदुतायुक्त, लाघव-प्रधान–प्रात्मलीनता के कारण किसी भी प्रकार के भार से रहित या स्फति-शील, शान्ति-प्रधान-क्षमाशील, गुप्ति-प्रधानमानसिक, वाचिक तथा कायिक प्रवृत्तियों के गोपक-विवेकपूर्वक उनका उपयोग करनेवाले, मुक्तिप्रधान--कामनाओं से छूटे हुए या मुक्तता की ओर अग्रसर, विद्या-प्रधान-ज्ञान की विविध शाखाओं के पारगामी, मंत्र-प्रधान-सत मंत्र, चिन्तना या विचारणायूक्त, ब्रह्मचर्य-प्रधान, वेद-प्रधानवेद ग्रादि लौकिक, लोकोत्तर शास्त्रों के ज्ञाता, नय-प्रधान-नैगम आदि नयों के ज्ञाता, नियमप्रधान—नियमों के पालक, सत्य-प्रधान, शौच-प्रधान-आत्मिक शुचिता या पवित्रतायुक्त, ज्ञानप्रधान-ज्ञान के अनुशीलक, दर्शन-प्रधान-क्षायिक सम्यक्त्वरूप विशेषता से युक्त, चारित्र-प्रधानचारित्र की परिपालना में निरत, उराल-प्रबल-साधना में सशक्त, घोर-अद्भुत शक्ति-सम्पन्न, घोरगुण --परम उत्तम, जिन्हें धारण करने में अद्भुत शक्ति चाहिए, ऐसे गुणों के धारक, घोरतपस्वी-उग्र तप करने वाले, घोरब्रह्मचर्यवासी—कठोर ब्रह्मचर्य के पालक, उत्क्षिप्त-शरीर-दैहिक सार-संभाल या सजावट आदि से रहित, विशाल तेजोलेश्या अपने भीतर समेटे हुए, चतुर्दश पूर्वधरचौदह पूर्व-ज्ञान के धारक, चार–मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्याय ज्ञान से युक्त स्थविर आर्य सुधर्मा, पांच सौ श्रमणों से संपरिवृत--घिरे हुए पूर्वानुपूर्व–अनुक्रम से आगे बढ़ते हुए, एक गांव से दूसरे गांव होते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए, जहाँ चम्पा नगरी थी, पूर्णभद्र चैत्य था, पधारे। पूर्णभद्र चैत्य चम्पा नगरी के बाहर था, वहाँ भगवान् यथाप्रतिरूप-समुचित–साधुचर्या के अनुरूप आवास-स्थान ग्रहण कर ठहरे, संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए रहे। उसी समय की बात है, आर्य सुधर्मा के ज्येष्ठ अन्तेवासी आर्य जम्बू नामक अनगार, जो काश्यप गोत्र में उत्पन्न थे, जिनकी देह की ऊंचाई सात हाथ थी, जो समचतुरस्रसंस्थान-संस्थितदेह के चारों अंशों की सुसंगत, अंगों के परस्पर समानुपाती, सन्तुलित और समन्वित रचना-युक्त शरीर के धारक थे, जो वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन—सुदढ़ अस्थिबंधयुक्त विशिष्ट देह-रचनायुक्त थे, कसौटी पर अंकित स्वर्ण-रेखा की आभा लिए हुए कमल के समान जो गौरवणं थे, जो उग्र तपस्वी थे, दीप्त तपस्वी कर्मों को भस्मसात् करने में अग्नि के समान प्रदीप्त तप करने वाले थे, तप्त तपस्वीजिनकी देह पर तपश्चर्या की तीव्र झलक थी, जो महातपस्वी, प्रबल, घोर, घोर-गुण, घोर-तपस्वी, घोर-ब्रह्मचारी, उत्क्षिप्त-शरीर एवं संक्षिप्त-विपुल-तेजोलेश्य थे, स्थविर आर्य सुधर्मा के न अधिक दूर, Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] न अधिक निकट संस्थित हो, घुटने ऊंचे किये, मस्तक नीचे किए, ध्यान की मुद्रा में, संयम और तप से प्रात्मा को भावित करते हुए अवस्थित थे। तब आर्य जम्बू अनगार के मन में श्रद्धापूर्वक इच्छा पैदा हुई, संशय---अनिर्धारित अर्थ में शंका-जिज्ञासा एवं कुतूहल पैदा हुआ। पुनः उनके मन में श्रद्धा का भाव उमड़ा, संशय उभरा, कुतूहल समुत्पन्न हुया / वे उठे, उठकर जहाँ स्थविर आर्य सुधर्मा थे, आए / पाकर स्थविर आर्य सुधर्मा को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, वंदन-नमस्कार किया। वैसा कर भगवान् के न अधिक समीप, न अधिक दूर शुश्रूषा-सुनने की इच्छा रखते हुए, प्रणाम करते हुए, विनयपूर्वक सामने हाथ जोड़े हुए, उनकी पर्युपासना-अभ्यर्थना करते हुए बोले-भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर ने [जो आदिकर--सर्वज्ञता प्राप्त होने पर पहले पहल श्रुत-धर्म का शुभारम्भ करने वाले, तीर्थकर--श्रमण-श्रमणी-श्रावक-श्राविका रूप चविध धर्म-तीर्थ के संस्थापक, स्वयंसंबद्ध किसी बाह्य निमित्त या सहायता के बिना स्वयं बोध प्राप्त, विशिष्ट अतिशयों से सम्पन्न होने के कारण पुरुषोत्तम, शूरता की अधिकता के कारण पुरुषसिंह, सर्व प्रकार की मलिनता से रहित होने से पुरुषवरपुंडरीक-पुरुषों में श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान, पुरुषों में श्रेष्ठ गंधहस्ती के समान, लोकोत्तम, लोकनाथ-जगत् के प्रभु, लोक-प्रतीप-लोक-प्रवाह के प्रतिकूलगामी-अध्यात्म-पथ पर गतिशील, अथवा लोकप्रदीप अर्थात् जनसमूह को प्रकाश देने वाले, लोक-प्रद्योतकर-लोक में धर्म का उद्योत फैलानेवाले, अभयप्रद, शरणप्रद, चक्षुःप्रद–अन्तर्-चक्षु खोलने वाले, मार्गप्रद, संयम-जीवन तथा बोधि प्रदान करने वाले, धर्मप्रद, धर्मोपदेशक, धर्मनायक, धर्म-सारथि, तीन ओर महासमुद्र तथा एक ओर हिमवान् की सीमा लिये विशाल भूमण्डल के स्वामी चक्रवर्ती की तरह उत्तम धर्म-साम्राज्य के सम्राट्, प्रतिघात विसंवाद या अवरोध रहित उत्तम ज्ञान व दर्शन के धारक, घातिकर्मों से रहित, जिन-राग-द्वेषविजेता, ज्ञायक-राग आदि भावात्मक सम्बन्धों के ज्ञाता अथवा ज्ञापक-राग आदि को जीतने का पथ बताने वाले, बुद्ध-बोधयुक्त, बोधक-बोधप्रद, मुक्त-बाहरी तथा भीतरी ग्रन्थियों से छूटे हुए, मोचक मुक्तता के प्रेरक, तीर्ण-संसार-सागर को तैर जाने वाले, तारक-संसा जाने की प्रेरणा देने वाले, शिव-मंगलमय, अचल-स्थिर, अरुज्–रोग या विघ्न रहित, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध-बाधा रहित, पुनरावर्तन रहित सिद्धि-गति नामक शाश्वत स्थान के समीप पहुंचे हुए हैं, उसे संप्राप्त करने वाले हैं,] छठे अंग नायाधम्मकहाओ का जो अर्थ बतलाया, वह मैं सुन चुका हूँ / भगवान् ने सातवें अंग उपासकदशा का क्या अर्थ व्याख्यात किया ? - आर्य सुधर्मा बोले-जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने सातवें अंग उपासकदशा के दस अध्ययन प्रज्ञप्त किये-बतलाए, जो इस प्रकार हैं 1. आनन्द, 2. कामदेव, 3. गाथापति चुलनीपिता, 4. सुरादेव, 5. चुल्लशतक, 6. गाथापति कुडकौलिक, 7. सद्दालपुत्र, 8. महाशतक, 9. नन्दिनीपिता, 10. शालिहीपिता / जम्बू ने फिर पूछा-भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर ने सातवें अंग उपासकदशा के जो दस अध्ययन व्याख्यात किए, उनमें उन्होंने पहले अध्ययन का क्या अर्थ-तात्पर्य कहा? विवेचन सामान्य वर्णन के लिए जैन आगमों में 'वण्णओ' द्वारा सूचन किया जाता है, जिससे अन्यत्र Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [उपासकवांगसूत्र वर्णित अपेक्षित प्रसंग को प्रस्तुत स्थान पर ले लिया जाता है। उसी प्रकार विशेषणात्मक वर्णन, विस्तार आदि के लिए 'जाव' शब्द द्वारा संकेत करने का भी जैन आगमों में प्रचलन है / संबंधित वर्णन को दूसरे प्रागमों से, जहां वह आया हो, गृहीत कर लिया जाता है। यहां भगवान् महावीर और सुधर्मा और जंबू के विशेषणात्मक वर्णन 'जाव' शब्द से सूचित हुए हैं। ज्ञातृधर्मकथा, औपपातिक तथा राजप्रश्नीय सूत्र से ये विशेषणमूलक वर्णन यहां आकलित किए गए हैं। जैसा पहले सूचित किया गया है, संभवत: जैन आगमों की कंठस्थ परम्परा की सुविधा के लिए यह शैली स्वीकार की गई हो। प्रानन्द गाथापति 3. एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं बाणियगामे नामं नयरे होत्था। वण्णओ। तस्स वाणियगामस्स बहिया उत्तर-पुरथिमे दिसी-भाए दूइपलासए नामं चेइए / तत्थ मं वाणियगामे नयरे जियसत्तू राया होत्या / वण्णओ। तत्थ णं वाणियगामे आणंदे नाम गाहावई परिवसइ-अड्ढे जाव (दित्ते, वित्त विच्छिण्ण-विउल-भवण-सयणासण-जाण-वाहणे, बहु-धण-जायरूव-रयए, आओगपओग-संपउत्ते, विच्छड्डिय-पउर-भत्त-पाणे, बहु-दासी-दास-गो-महिस-गवेलगपप्पभूए बहु-जणस्स) अपरिभूए। आर्य सुधर्मा बोले-जम्बू ! उस काल-वर्तमान अवपिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय-जब भगवान महावीर विद्यमान थे, वाणिज्यग्राम नामक नगर था। उस नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा में ईशान कोण में दूतीपलाश नामक चैत्य था। जितशत्रु नामक वहां का राजा था। वहां वाणिज्यग्राम में प्रानन्द नामक गाथापति सम्पन्न गृहस्थ रहता था। प्रानन्द धनाढय दीप्त-दीप्तिमान-प्रभावशाली, सम्पन्न, भवन, शयन-अोढने-बिछौने के वस्त्र, प्रासन-बैठने के उपकरण, यान-माल-असबाब ढोने की गाड़ियां एवं वाहन सवारियां आदि विपुल साधन-सामग्री तथा सोना, चांदी, सिक्के आदि प्रचुर धन का स्वामी था। आयोग-प्रयोग-संप्रवृत्त-व्यावसायिक दृष्टि से धन के सम्यक् विनियोग और प्रयोग में निरत-नीतिपूर्वक द्रव्य के उपार्जन में संलग्न था। उसके यहां भोजन कर चुकने के बाद भी खाने पीने के बहुत पदार्थ बचते थे। उसके घर में बहुत से नौकर, नौकरानियां, गायें, भैंसें, बैल, पाड़े, भेड़ें, बकरियां आदि थीं।] लोगों द्वारा अपरिभूतअतिरस्कृत था—इतना रौबीला था कि कोई उसका तिरस्कार या अपमान करने का साहस नहीं कर पाता था। विवेचन इस प्रसंग में गाहावई [गाथापति शब्द विशेष रूप से विचारणीय है। यह विशेषत: जैन साहित्य में ही प्रयुक्त है / गाहा+बई इन दो शब्दों के मेल से यह बना है। प्राकृत में 'गाहा' आर्या छन्द के लिए भी आता है और घर के अर्थ में भी प्रयुक्त है। इसका एक अर्थ प्रशस्ति भी है / धन, धान्य, समृद्धि, वैभव आदि के कारण बड़ी प्रशस्ति का अधिकारी होने से भी एक सम्पन्न, समृद्ध गृहस्थ के लिए इस शब्द का प्रयोग टीकाकारों ने माना है। पर, गाहा का अधिक संगत अर्थ घर ही प्रतीत होता है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अध्ययन : आनन्द गाथापति] [11 इस प्रसंग से ऐसा प्रकट होता है कि खेती तथा गो-पालन का कार्य तब बहुत उत्तम माना जाता था / समृद्ध गृहस्थ इसे रुचिपूर्वक अपनाते थे। वैभव 4. तस्स णं आणंदस्स गाहावइस्स चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ निहाण-पउताओ, चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ बुद्धि-पउत्ताओ; चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ पवित्थर-पउत्ताओ, चत्तारि वया, दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था। __ आनन्द गाथापति का चार करोड़ स्वर्ण खजाने में रक्खा था, चार करोड़ स्वर्ण व्यापार में लगा था, चार करोड़ स्वर्ण घर के वैभव-धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद आदि साधन-सामग्री में लगा था / उसके चार व्रज-गोकुल थे / प्रत्येक गोकुल में दस हजार गायें थीं। विवेचन यहां प्रयुक्त हिरण्ण [हिरण्य-स्वर्ण का अभिप्राय उन सोने के सिक्कों से है, जो उस समय प्रचलित रहे हों / सोने के सिक्कों का प्रचलन इस देश में बहुत पुराने समय से चला आ रहा है / भगवान महावीर के समय के पश्चात् भी भारत में सोने के सिक्के चलते रहे। विदेशी शासकों ने भारत में जो सोने का सिक्का चलाया उसे दीनार कहा जाता था / संस्कृत भाषा में 'दीनार' शब्द ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया गया / मुसलमान बादशाहों के शासन-काल में जो सोने का सिक्का चला, वह मोहर या अशरफी कहा जाता था। उसके बाद भारत में सोने के सिक्कों का प्रचलन बन्द हो गया। सामाजिक प्रतिष्ठा 5. से णं आणंदे गाहावई बहूणं राईसर-जाव (तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इन्भ-सेट्ठिसेणावह) सत्यवाहाणं बहुसु कज्जेसु य कारणेसु य मंतेसु य कुडुबेसु य गुज्झसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे सयस्स वि य णं कुडुबस्स मेढी, पमाणं, आहारे, आलंबणं, चक्खू, मेढीभूए जाव (पमाणभूए, आहारभूए, आलंबणभूए, चक्षुभूए) सव्व-कज्जवड्ढावए यावि होत्था। आनन्द गाथापति बहुत से राजा-मांडलिक नरपति, ईश्वर-ऐश्वर्यशाली एवं प्रभावशील पुरुष [तलवर--राज-सम्मानित विशिष्ट नागरिक, मांडविक या माडंबिक-जागीरदार भूस्वामी कौटुम्बिक-बड़े परिवारों के प्रमुख, इभ्य-वैभवशाली, श्रेष्ठी सम्पत्ति और सुव्यवहार से प्रतिष्ठाप्राप्त सेठ, सेनापति] तथा सार्थवाह-अनेक छोटे व्यापारियों को साथ लिए देशान्तर में व्यवसाय करने वाले समर्थ व्यापारी-इन सबके अनेक कार्यों में, कारणों में, मंत्रणाओं में, पारिवारिक समस्याओं में, गोपनीय बातों में, एकान्त में विचारणीय-सार्वजनिक रूप में अप्रकटनीय विषयों में, किए गए निर्णयों में तथा परस्पर के व्यवहारों में पूछने योग्य एवं सलाह लेने योग्य व्यक्ति था। वह सारे परिवार का मेढि-मुख्य-केन्द्र, प्रमाण स्थिति-स्थापक-प्रतीक, प्राधार, आलंबन, चक्षु-मार्गदर्शक, मेढिभूत [प्रमाणभूत, आधारभूत, आलंबनभूत चक्षुभूत] तथा सर्व-कार्य-वर्धापक-सब प्रकार के कार्यों को आगे बढ़ाने वाला था। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपर्क 12] [उपासकदशांगसूत्र विवेचन . यहां प्रयुक्त 'तलवर' आदि शब्द उस समय के विशिष्ट जनों के रूप को प्रकट करते हैं। यह विशेषता विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित थी / आर्थिक, व्यापारिक, शासनिक, व्यावहारिक तथा लोक सभी विशेषताओं का संकेत इन शब्दों में प्राप्त होता है, जिनका उस समय के समाज में महत्त्व और आदर था / आनन्द के व्यापक, प्रभावशाली और आदरणीय व्यक्तित्व का इस प्रसंग से स्पष्ट परिचय प्राप्त होता है / वह इतना उदार, गंभीर और ऊंचे विचारों का व्यक्ति था कि सभी प्रकार के विशिष्ट जन अपने कार्यों में उसे पूछना, उससे सलाह लेना उपयागी मानते थे। - इस प्रसंग में एक दूसरी महत्त्व की बात यह है, जो आनन्द के पारिवारिक जीवन की एकता, पारस्परिक निष्ठा और मेल पर प्रकाश डालती है / आनन्द सारे परिवार का केन्द्र-बिन्दु था तथा परिवार के विकास और संवर्धन में तत्पर रहता था। आनन्द के लिए मेढि की उपमा यहां काफी महत्त्वपूर्ण है / मेढि उस काष्ठ-दंड को कहा जाता है, जिसे खलिहान के बीचोंबीच गाड़ कर, जिससे बांधकर बैलों को अनाज निकालने के लिए चारों ओर धुमाया जाता है। उसके सहारे बैल गतिशील रहते हैं / परिवार में यही स्थिति आनन्द की थी। शिवनन्दा 6. तस्स णं आणंदस्स गाहावइस्स सिवानंदा नामं भारिया होत्था, अहीण-जाव (पडिपण्ण-पंचिदिय-सरीरा. लक्खण-बंजण-गणोववेया, माणम्माणप्पमाण-पडिपुण्ण-सजाय-सव्वंगसुंदरंगी, ससि-सोमाकार-कंत-पिय-दसणा) सुरुवा / आणंदस्स गाहावइस्स इट्ठा, आणंदेणं गाहावइणा सद्धि अणुरत्ता, अविरत्ता, इठे जाव (सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे) पंचविहे माणुस्सए काम-भोए पच्चणुभवमाणी विहरइ। आनन्द गाथापति की शिवनन्दा नामक पत्नी थी, [उसके शरीर की पांचों इन्द्रियां अहीनप्रतिपूर्ण-रचना की दृष्टि से अखंडित, सम्पूर्ण, अपने-अपने विषयों में सक्षम थीं, वह उत्तम लक्षण--- सौभाग्यसूचक हाथ की रेखाएं आदि, व्यंजन-उत्कर्षसूचक तिल, मसा आदि चिह्न तथा गुण-शील, सदाचार, पातिव्रत्य आदि से युक्त थी / दैहिक फैलाव, वजन, ऊंचाई, आदि की दृष्टि से वह परिपूर्ण, श्रेष्ठ तथा सर्वांगसुन्दरी थी। उसका आकार-स्वरूप चन्द्र के समान सौम्य तथा दर्शन कमनीय था] / ऐसी वह रूपवती थी। प्रानन्द गाथापति की वह इष्ट—प्रिय थी। वह अानन्द गाथापति के प्रति अनुरक्त-अनुरागयुक्त-अत्यन्त स्नेहशील थी। पति के प्रतिकूल होने पर भी वह कभी विरक्त-अनुरागशून्य-रुष्ट नहीं होती थी। वह अपने पति के साथ इष्ट-प्रिय [शब्द, स्पर्श, रस, रूप तथा गन्धमूलक] पांच प्रकार के सांसारिक काम-भोग भोगती हुई रहती थी। विवेचन प्रस्तुत प्रसंग में नारी के उस प्रशस्त स्वरूप का संक्षेप में बड़ा सुन्दर चित्रण है, जिसमें सौन्दर्य और शील दोनों का समावेश है / इसी में नारी की परिपूर्णता है। यहां प्रयुक्त 'अविरक्त' विशेषण पति के प्रति पत्नी के समर्पण-भाव तथा नारी के उदात्त व्यक्तित्व का सूचक है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अध्ययन : आनन्द गाथापति]. [13 कोल्लाक सन्निवेश 7. तस्स णं वाणियगामस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसी-भाए एत्थ णं कोल्लाए नामं सन्निवेसे होत्था / रिद्ध-स्थिमिय जाव (समिद्धे, पमुइय-जण-जाणवये, आइण्ण-जण-मणुस्से, हलसय-सहस्स-संकिट्ठ-विकिट्ठ-लट्ठ-पण्णत्त-सेउसीमे, कुक्कुड-संडेय-गाम-पउरे, उच्छु-जव-सालि-कलिये, गो-महिस-गवेलग-प्पभूये, आयारवन्त-चेइय-जुवइ-विविह-सणिविट्ठ-बहुले, उक्कोडिय-गाय-गंठिभेय-भड-तक्कर-खंडरक्खरहिये, खेमे, णिरुबद्दवे, सुभिक्खे, वीसत्थसुहावासे, अणेग-कोडि-कुडुंबियाइण्णणिव्वुय-सुहे, नड-नट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलंबय-कहग-पवग--लासग-आइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्लतुबवोणिय-अणेग-तालायराणुचरिये, आरामुज्जाण-अगड-तलाग-दीहिय-वप्पिणि-गुणोववेये, नंदणवणसन्निभ-प्पगासे, उम्विद्ध-विउल-गंभीर-खाय-फलिहे, चक्क-गय-भुसुदि-ओरोह-सग्धि-जमल-कवाडघण-दुप्पवेसे, धणु-कुडिल-वंक-पागार-परिविखत्ते, कविसीसय वट्ट-रइय-संठिय-विरायमाणे, अट्टालयचरिय-दार-गोपुर-तोरण-उष्णय-सुविभत्त-रायमग्गे, छेयायरिय-रइय-दढ-फलिह-इंदकोले, विणिवणिच्छेत्त-सिप्पियाइण्ण-निव्वुयसुहे, सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-पणियावण-विविह-वत्थु-परिमंडिये, सुरम्मे, नरवइ-पविइण्ण-महिवइ-पहे, अणेगवर-तुरग-मत्तकुजर-रह-पहकर-सीय-संदमाणीयाइण्णजाण-जुग्गे, विमउल-णवणलिणिसोभियजले, पंडुरवरभवण-सण्णिमहिये उत्ताणणयणपेच्छणिज्जे,) पासादीए, दरिसणिज्जे, अभिरूवे, पडिरूवे। वाणिज्यग्राम के बाहर उत्तर-पूर्व दिशाभाग--ईशान कोण में कोल्लाकनामक सन्निवेश-- उपनगर था / वह वैभवशाली, सुरक्षित एवं समृद्ध था / वहां के नागरिक और जनपद के अन्य भागों से पाए व्यक्ति वहां आमोद-प्रमोद के प्रचुर साधन होने से प्रमुदित रहते थे, लोगों की वहां घनी आबादी थी, सैकड़ों, हजारों हलों से जुती उसकी समीपवर्ती भूमि सहजतया सुन्दर मार्ग-सीमा सी लगती थी, वहां मर्गों और यवा सांडों के बहुत से समह थे. उसके आसपास की भमि 1, जौ और धान के पौधों से लहलहाती थी, वहां गायों, भैसों और भेड़ों की प्रचुरता थी, वहां सुन्दर शिल्पकला युक्त चैत्यों और युवतियों के विविध सन्निवेशों-पण्य तरुणियों के पाड़ों--टोलों का बाहुल्य था, वह रिश्वतखोरों, गिरहकटों, बटमारों, चोरों, खंड-रक्षकों—चुगी वसूल करनेवालों से रहित, सुखशान्तिमय एवं उपद्रवशून्य था, वहां भिक्षुकों को भिक्षा सूखपूर्वक प्राप्त होती थी, इसलिए वहां निवास करने में सब सुख मानते थे, आश्वस्त थे / अनेक श्रेणी के कौटुम्बिक-पारिवारिक लोगों की घनी बस्ती होते हुए भी वह शान्तिमय था, नट-नाटक दिखाने वाले, नर्तक-नाचने वाले, जल्ल–कलाबाज-रस्सी आदि पर चढ़कर कला दिखाने वाले, मल्ल---पहलवान, मौष्टिक-मुक्केबाज, विडंबक---विदूषक-मसखरे, कथक---कथा कहने वाले, प्लवक-उछलने या नदी आदि में तैरने का प्रदर्शन करने वाले, लासक-वीर रस की गाथाएं या रास गाने वाले, आख्यायक-शुभअशुभ बताने वाले, लंख-बांस के सिरे पर खेल दिखाने वाले, मंख-चित्रपट दिखा कर आजीविका चलाने वाले, तूणइल्ल-तूण नामक तन्तु-वाद्य बजाकर आजीविका करने वाले, तुब-वीणिक-तुबवीणा या पूगी बजाने वाले, तालाचर-ताली बजाकर मनोविनोद करने वाले आदि अनेक जनों से वह सेवित था। आराम-क्रीडा-वाटिका, उद्यान-बगीचे, कुएं, तालाब, बावड़ी, जल के छोटेछोटे बांध–इनसे युक्त था, नन्दनवन सा लगता था, वह ऊंची, विस्तीर्ण और गहरी खाई से युक्त था, चक्र, गदा भुसु डि–पत्थर फेंकने का एक विशेष शस्त्र--- गोफिया, अवरोध अन्तर्-प्राकार-- Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] [उपासकदशांगसूत्र शत्रु-सेना को रोकने के लिए परकोटे जैसा भीतरी सुदृढ़ आवरक साधन, शतघ्नी-महायष्टि या महाशिला, जिसके गिराए जाने पर सैकड़ों व्यक्ति दब-कुचलकर मर जाएं, और द्वार के छिद्र रहित कपाटयुगल के कारण जहां प्रवेश कर पाना दुष्कर था, धनुष जैसे टेढे परकोटे से वह घिरा हा था, उस परकोटे पर गोल आकार के बने हुए कपिशीर्षकों से वह सुशोभित था, उसके राजमार्ग, अट्टालक परकोटे के ऊपर निर्मित आश्रय-स्थानों-गुमटियों, चरिक-परकोटे के मध्य बने हुए आठ हाथ चौड़े मार्गों, परकोटे में बने हुए छोटे द्वारों.-बारियों, गोपुरों-नगर-द्वारों, तोरणद्वारों से सुशोभित और सुविभक्त थे, उसकी अर्गला और इन्द्रकील-गोपुर के किवाड़ों के आगे जड़े हुए नुकीले भाले जैसी कीलें, सुयोग्य शिल्पाचार्यों -निपुण शिल्पियों द्वारा निर्मित थीं, विपणिहाट-मार्ग, वणिक्-क्षेत्र व्यापार-क्षेत्र, बाजार आदि के कारण तथा बहुत से शिल्पियों, कारीगरों के आवासित होने के कारण वह सुख-सुविधापूर्ण था, तिकोने स्थानों, तिराहों, चौराहों चत्वरों-जहां चार से अधिक रास्ते मिलते हों, ऐसे स्थानों, बर्तन आदि की दूकानों तथा अनेक प्रकार की वस्तुओं से परिमंडित सुशोभित और रमणीय था / राजा की सवारी निकलते रहने के कारण उसके राजमार्गों पर भीड़ लगी रहती थी, वहां अनेक उत्तम घोड़े, मदोन्मत्त हाथी, रथ-समूह, का-पर्देदार पालखियां, स्यन्दमानिका-पुरुष-प्रमाण पालखियां, यान-- गाड़ियां तथा युग्य-- पुरातन कालीन गोल्ल देश में सुप्रसिद्ध दो हाथ लम्बे-चौड़े डोली जैसे यान-इनका जमघट लगा रहता था। वहां खिले हुए कमलों से शोभित जल वालेजलाशय थे, सफेदी किए हुए उत्तम भवनों से वह सुशोभित, अत्यधिक सुन्दरता के कारण निनिमेष नेत्रों से प्रेक्षणीय,] चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप—मनोज्ञ-मन को अपने में रमा लेनेवाला तथा प्रतिरूप-मन में बस जाने वाला था। 8. तत्य णं कोल्लाए सन्निवेसे आणंदस्स गाहावइस्स बहुए मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधिपरिजणे परिवसइ, अड्ढे जाव' अपरिभूए। वहां कोल्लाक सन्निवेश में आनन्द गाथापति के अनेक मित्र, ज्ञातिजन-समान आचार-विचार के स्वजातीय लोग, निजक-माता, पिता, पुत्र, पुत्री आदि, स्वजन-बन्धु-बान्धव आदि, सम्बन्धी-- श्वशुर, मातुल आदि, परिजन–दास, दासी आदि निवास करते थे, जो समृद्ध एवं सुखी थे। भगवान् महावीर का समवसरण 9. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव (आइगरे, तित्थगरे, सयंसंबुद्ध, पुरिसुत्तमे, पुरिस-सीहे, पुरिस-वर-पुंडरीए, पुरिस-वर-गंधहत्थीए, अभयदए, चक्खुदए, मग्गदए, सरणदए, जीवदए, दीवोत्ताणं, सरण-गई-पइट्ठा, धम्म-वर-चाउरंत-चक्कबट्टी अप्पडिहयवर-नाण-दसणधरे, विअट्ट-च्छउमे, जिणे, जाणए, तिण्णे, तारए, मुत्ते, मोयए, बुद्धे, बोहए, सव्वष्णू, सव्वदरिसी, सिवमयलमरुअमणंतमक्खयमवाबाहमपुणरावत्तयं, सिद्धि-गइ-नामधेयं ठाणं संपाविउकामे, अरहा, जिणे, केवली, सत्तहत्थुस्सेहे, समचउरंस--संठाण-संठिए, वज्ज-रिसहनाराय-संघयणे, अणुलोमवाउवेगे, कंक-गहणे, कवोय-परिणामे, सउणि-पोस-पिट्ठेतरोरु--- परिणए, पउमुप्पल-गंध-सरिस -निस्सास-सुरभि-वयणे, छवी, निरायंक-उत्तम पसत्थ१. देखें सूत्र-संख्या 3 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अध्ययन : आनन्द गाथापति] [15 अइसेय-निरुवम-पले, जल्ल-मल्ल-कलंक-सेय-रय-दोस-वज्जिय-सरीरे, निरुवलेबे, छाया-उज्जोइर्यगमंगे, घण-निचिय-सुबद्ध-लक्खणुनय-कूडागार-निभ-पिडियग्गसिरए, सामलि–बोंडघण-निचिय-फोडिय-मिउ-विसय--पसत्य-सुहम-लक्खण--सुगंध-सुंदर -- भुयमोयग--- भिंग-नील---कज्जल-पहिठ्ठ-भमर-गण-निद्ध-निकुरंब निचिय-कुचिय-पयाहिणावत्तमुद्ध-सिरए, दाडिम-पुप्फ-पकास-तवणिज्ज-सरिस-निम्मल-सुणिद्ध-केसंत-केसभूमी, घण-निचिय-छत्तागारुत्तमंगदेसे, णिवण-सम-लट्ठ-मट्ठ-चंदद्ध-सम-णिडाले, उडुवइ-- पडिपुण्ण-सोम-वदणे, अल्लीण-पमाणजुत्त-सवणे, सुस्सवणे, पीण-मंसल कवोल देसभाए, आणामिय-चाव-रुइल-किण्हन्भ-राइ-तणु-कसिण-णिद्ध-भमुहे, अवदालिय-पुंडरीय–णयणे, कोयासिय-धवल-पत्तलच्छे, गरुलायत-उज्ज-तुग---णासे, उवचिय-सिलप्पवाल-बिंबफलसण्णिभाधरोटे, पंडुर-ससि-सयल-विमल-निम्मल-संख-गोक्खीर-फेण-कुद-दग-रयमणालिया-धवल--दंत-सेढी, अखंड-दंते, अप्फूडिय-दंते, अविरल-दंते, सुणिद्ध-दंते, सुजाय-दंते, एग-दंत--सेढीविव-अणेग-दंते,हुयवह-णिद्धंत-धोय-तत्त-तवणिज्ज-रत्ततल-तालु-जोहे,अवट्टिय. सुविभत्त-चित्त-मंसू, मंसल-संठिय-पसत्थ-सद्ल-विउल हणुए, चउरंगुल-सुप्पमाण-कंबु-वर —सरिस-ग्गीवे, वर--महिस-वराह-सीह-सदूलउसभ–नाग-वर-पडिपुण्ण-विउलक्खंधे, जुग-सन्निभ--पीण रइय-पीवर-पउ?--संठिय-सुसिलिट्ठ-विसिटु-घण-थिर-सुबद्धसंधि-पुर-वर-फलिह-वट्टिय-भुए, भुय-ईसर-विउल--भोग-आदान-फलिह-उच्छूट-दोह-बाहू, रत्त तलोवइय---मउय-मंसल-सुजाय- लक्षण-पसत्य-अच्छिद्द-जाल-पाणी, पोवर-कोमल-वरंगुली, आयंबतंब-तलिण-सुइ-रुइल-णिद्ध-णक्खे, चंद-पाणि-लेहे, सूरपाणि-लेहे, संख-पाणि-लेहे,चक्कपाणि-लेहे, दिसा-सोत्थिय-पाणि-लेहे, चंद-सूर-संख-चक्क-दिसा-सोत्थिय-पाणि लेहे, कणग--सिला तलुज्जल–पसत्थ- समतल-उवचिय-विच्छिण्ण-पिहुल-वच्छे, सिरिवच्छं--- कियवच्छे, अकरंडुय-कणग-रुइय-निम्मल-सुजाय-निरुवय--देहधारी, अट्ठसहस्स--पडिपुण्णवरपरिस-लक्खणधरे, सण्णय-पासे,संगय-पासे, सदर-पासे, सजाय-पासे,मिय-माइय-पीण-रइयपासे, उज्जुय-सम-सहिय-जच्च-तणु-कसिण-णिद्ध-आइज्ज-लडह-रमणिज्ज-रोम-राई, झसविहग-सुजाय-पीण-कुच्छी, झसोयरे, सुइ–करणे, पउम–वियड–णाभे, गंगावत्तकपयाहिणावत्त-तरंग-भंगुर-रवि-किरण-तरुण-बोहिय-अकोसायंत-पउम-गंभीर-बियड-णाभे, साय--सोणंद-मुसल-दप्पण-णिकरिय-वर-कणग-च्छरु-सरिस-वर-वइर-वलिअ-मज्झे पमुइयवर-तुरय-सीह-वर-बट्टिय-कडी, वरतुरग-सुजाय-गुज्झ-देशे, आइणहउच्च-णिरुवलेवे, वर-वारण-तुल्ल-विक्कम-विलसिय-गई, गय-ससण-सुजाय-सन्निभोरू, समुग्ग-णिमग्ग-गूढ-जाणू, एणी--कुरुविंदावत्त -चट्टाणुपुटध-जंधे, संठिय-सुसिलिट्ठ-गूढ-गुप्फे, सुपइट्ठिय-कुम्म चारु--चलणे, अणुपुब्वसुसंहयंगुलीए, उण्णय-तणु-तंब-णिद्ध-णक्खे, रत्तुप्पल-पत- मउअ-सुकुमाल कोमल-तले, अट्ठसहस्स-वर-पुरिस-लक्खणधरे, नग-नगर-मगर-सागर-चक्कंक-वरंक-मंगलंकय-चलणे, विसिट्ठरूवे, हुयवह-निळूम जलिय-तडि-तडिय-तरुण-रवि-किरण-सरिस-तेए, अणासवे, अममे, अकिंचणे, छिन्न-सोए, निरुवलेवे, ववगय-पेम-राग-दोस-मोहे, निग्गंथस्स पवयणस्स देसए, सत्थ-नायगे, पइट्ठावए, समणग-पई, समण-विद-परिअट्टए चउत्तीस-बुद्ध -वयणातिसेसपत्ते, पणतीस-सच्च-वयणातिसेसपत्ते, आगास-गएणं चक्केणं, आगास-गएणं छत्तेणं, आगास-गयाहिं सेय-चामराहि, आगास-फलिआगएणं, सपायपीढणं, सीहासणेणं, धम्मज्झएणं पुरओ पढिज्जमाणेणं, चउद्दसहि समण-सहस्सीहि, Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16] अंजा [उपासकदशांगसूत्र छत्तीसाए अज्जिया-सहस्सोहिं सद्धि संपरिवुडे, पुवाणुपुन्वि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे) समोसरिए। परिसा निग्गया। कूणिए राया जहा, तहा जियसत्तू निग्गच्छइ। निग्गच्छित्ता जाव (जेणेव दूइपलासए चेइए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्ताईए तित्थयरातिसेसे पासइ, पासित्ता आभिसेक्कं हत्यि-रयणं ठवेइ, ठवित्ता आभिसेक्काओ हत्थिरयणाओ पच्चोरुहइ, आभिसेक्काओ हत्थि-रयणाओ पच्चोरुहिता अवहट्ट पंच-राय-ककुहाई, तं जहा खग्गं, छत्तं उप्फेसं, वाहणाओ, बालवीयणं, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव, उवागच्छइ, उवागच्छिता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, तं जहा–सच्चित्ताणं दवाणं विउसरणयाए, अच्चित्ताणं दवाणं अविउसरणयाए, एगसाडियं उत्तरासंगं करणेणं, चक्खुफासे ल-पग्गहेणं, मणसो एगत्त-भाव-करणेणं समणं भगवं महावीरं तिक्खत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ, तं जहा-काइआए, वाइआए, माणसिआए। काइआए ताव संकुइयग्गहत्थ-पाए, सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ, वाइआए.--.-जं जं भगवं वागरेइ, तं तं एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते ! से जहेयं तुब्भे वदह, अपडिकूलमाणे पज्जुवासइ, माणसियाए महया संवेगं जणइत्ता तिव्व-धम्माणुराग-रत्ते) पज्जुवासइ / उस समय श्रमण-घोर तप या साधना रूप श्रम में निरत, भगवान् आध्यात्मिक ऐश्वर्यसम्पन्न, महावीर-उपद्रवों तथा विघ्नों के बीच साधना-पथ पर वीरतापूर्वक अविचल भाव से गतिमान् [आदिकर—अपने युग में धर्म के आद्य प्रवर्तक, तीर्थकर साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध धर्म-तीर्थ-धर्मसंघ के प्रतिष्ठापक, स्वयं संबुद्ध-स्वयं-बिना किसी अन्य निमित्त के बोध-प्राप्त, पुरुषोत्तम पुरुषों में उत्तम, पुरुष सिंह-आत्मशौर्य में पुरुषों में सिंह-सदृश, पुरुषवरपंडरीक-मनष्यों में रहते हए कमल की तरह निर्लेप-आसक्तिशुन्य, पुरुषवर-गंधहस्ती-पुरुषों में उत्तम गन्धहस्ती के सदश-जिस प्रकार गन्धहस्ती के पहंचते ही सामान्य हाथी भाग जाते हैं, उसी प्रकार किसी क्षेत्र मे जिनके प्रवेश करते ही दुर्भिक्ष, महामारी आदि अनिष्ट दूर हो जाते थे, अर्थात् अतिशय तथा प्रभावपूर्ण उत्तम व्यक्तिव के धनी, अभयप्रदायक सभी प्राणियों के लिए अभयप्रदसंपूर्णतः अहिंसक होने के कारण किसी के लिए भय उत्पन्न नहीं करने वाले, चक्षु-प्रदायक आन्तरिक नेत्र सद्ज्ञान देने वाले, मार्ग-प्रदायक सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप साधना-पथ के उद्बोधक, शरणप्रद–जिज्ञासु तथा मुमुक्षु जनों के लिए आश्रयभूत, जीवनप्रद आध्यात्मिक जीवन के संबल, दीपक सदृश समस्त वस्तुओं के प्रकाशक अथवा संसार-सागर में भटकते जनों के लिए द्वीप के समान प्राश्रयस्थान, प्राणियों के लिए आध्यात्मिक उद्बोधन के नाते शरण, गति एवं आधारभूत, चार अन्त-सीमा युक्त पृथ्वी के अधिपति के समान धार्मिक जगत् के चक्रवर्ती, प्रतिघात-बाधा या आवरण रहित उत्तम ज्ञान, दर्शन आदि के धारक, व्यावृत्तछद्मा-अज्ञान शादि शावरण रूप छद्म से अतीत, जिन-राग आदि के जेता, ज्ञायक-राग आदि भावात्मक सम्बन्धों के ज्ञाता अथवा ज्ञापक-राग आदि को जीतने का पथ बताने वाले, तीर्ण----संसार-सागर को पार कर जानेवाले, तारक-संसार-सागर से पार उतारने वाले, मुक्त-बाहरी और भीतरी ग्रंथियों से Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अध्ययन : गाथापति आनन्द] [17 छूटे हुए, मोचक-दूसरों को छुड़ाने वाले, बुद्ध-बोद्धव्य-जानने योग्य का बोध प्राप्त किये हुए, बोधक-औरों के लिए बोधप्रद, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव-कल्याणमय, अचल-स्थिर, निरुपद्रव, अन्तरहित, क्षयरहित, बाधारहित, अपुनरावर्तन-जहाँ से फिर जन्म-मरण रूप संसार में आगमन नहीं होता, ऐसी सिद्धि-गति--सिद्धावस्था नामक स्थिति पाने के लिए संप्रवृत्त, अर्हत्-- पूजनीय, रागादिविजेता, जिन, केवली-केवलज्ञान युक्त, सात हाथ की दैहिक ऊंचाई से युक्त, समचौरस-संस्थान-संस्थित, वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन-अस्थिबन्ध युक्त, देह के अन्तर्वर्ती पवन के उचित वेग-गतिशीलता से युक्त, कंक पक्षी की तरह निर्दोष गुदाशय युक्त, कबूतर की तरह पाचनशक्ति युक्त, उनका अपान-स्थान उसी तरह निर्लेप था जैसे पक्षी का, पीठ और पेट के बीच के दोनों पार्श्व तथा जंघाएं सपरिणत-सन्दर-सुगठित थीं, उनका मख पद्म-कमल अथवा पद्म नामक सगन्धित द्रव्य तथा उत्पल-नील कमल या उत्पलकुष्ट नामक सुगन्धित द्रव्य जैसी सुरभिमय निःश्वास से युक्त था, छवि-उत्तम छविमान्-उत्तम त्वचा युक्त, नीरोग, उत्तम, प्रशस्त, अत्यन्त श्वेत मांस युक्त, जल्लकठिनाई से छूटने वाला मैल, मल्ल- आसानी से छूटनेवाला मैल, कलंक—दाग, धब्बे, स्वेदपसीना तथा रज-दोष-मिट्टी लगने से विकृति-वजित शरीर युक्त, अतएव निरुपलेप-अत्यन्त स्वच्छ, दीप्ति से उद्योतित प्रत्येक अंगयुक्त, अत्यधिक सघन, सुबद्ध स्नायुबंध सहित, उत्तम लक्षणमय पर्वत के शिखर के समान उन्नत उनका मस्तक था, बारीक रेशों से भरे सेमल के फल के फटने से निकलते हुए रेशों जैसी कोमल, विशद, प्रशस्त, सूक्ष्म, श्लक्ष्ण-मुलायम, सुरभित, सुन्दर, भुजमोचक, नीलम, भिंग नील, कज्जल प्रहृष्ट-सुपुष्ट भ्रमरवृन्द जैसे चमकीले काले, घने, घुघराले, छल्लेदार केश उनके मस्तक पर थे, जिस त्वचा पर उनके बाल उगे हुए थे, वह अनार के फूल तथा सोने के समान दीप्तिमय, लाल, निर्मल और चिकनी थी, उनका उत्तमांग-मस्तक का ऊपरी भाग सघन, भरा हुआ और छत्राकार था, उनका ललाट निर्वण-फोड़े-फुन्सी आदि के घाव-चिह्न से रहित, समतल तथा सुन्दर एवं शुद्ध अर्द्ध चन्द्र के सदश भव्य था, उतका मुख पूर्ण चन्द्र के समान सौम्य था, उनके कान मुख के साथ सुन्दर रूप में संयुक्त और प्रमाणोपेत-समुचित प्राकृति के थे, इसलिए वे बड़े सुन्दर लगते थे, उनके कपोल मांसल और परिपुष्ट थे, उनकी भौंहें कुछ खांचे हुए धनुष के समान सुन्दर-टेढ़ी, काले बादल की रेखा के समान कृश-पतली, काली एवं स्निग्ध थीं, उनके नयन खिले हुए पुडरीक-सफेद कमल के समान थे, उनकी आंखें पद्म-कमल की तरह विकसित धवल तथा पत्रल-बरौनी युक्त थीं, उनकी नासिका गरुड़ की तरह-गरुड़ की चोंच की तरह लम्बी, सीधी और उन्नत थी, संस्कारित या सुघटित मूगे की पट्टी-जैसे या बिम्ब फल के सदृश उनके होठ थे, उनके दांतों की श्रेणी निष्कलंक चन्द्रमा के टुकड़े, निर्मल से भी निर्मल शंख, गाय के दूध, फेन, कुंद के फूल, जलकण और कमलनाल के समान सफेद थी, दांत अखंड, परिपूर्ण, अस्फुटित--सुदृढ, टूट-फूट रहित, अविरल-परस्पर सटे हुए, सुस्निग्ध-चिकने-आभामय सुजात—सुन्दराकार थे, अनेक दांत एक दन्त-श्रेणी की तरह प्रतीत होते थे, जिह्वा और तालु अग्नि में तपाये हुए और जल से धोये हुए स्वर्ण के समान लाल थे, उनकी दाढ़ी-मूछ अवस्थित-कभी नहीं बढ़ने वाली, सुविभक्त बहुत हलकी-सी तथा अद्भुत सुन्दरता लिए हुए थी, ठुड्डी मांसल-सुगठित, सुपुष्ट, प्रशस्त तथा चीते की तरह विपुल-विस्तीर्ण थी, ग्रीवा--गर्दन चार अंगुल प्रमाण-- चार अंगुल चौड़ी तथा उत्तम शंख के समान त्रिबलियुक्त एवं उन्नत थी, उनके कन्धे प्रबल भैसे, सूअर, सिंह, चीते, सांड के तथा उत्तम हाथी के कन्धों जैसे परिपूर्ण एवं विस्तीर्ण थे, उनकी भुजाएं युग-गाड़ी के जुए अथवा यूप-यज्ञ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [उपासकदशांगसूत्र स्तम्भ--खूटे की तरह गोल और लम्बे, सुदृढ़, देखने में आनन्दप्रद, सुपुष्ट कलाइयों से युक्त, सुश्लिष्ट-सुसंगत, विशिष्ट, घन-ठोस, स्थिर, स्नायुनों से यथावत् रूप में सुबद्ध तथा नगर की अर्गला—आगल के समान गोलाई लिए हुई थीं, इच्छित वस्तु प्राप्त करने के लिए नागराज के फैले हुए विशाल शरीर की तरह उनके दीर्घ बाहु थे, उनके पाणि-कलाई से नीचे के हाथ के भाग उन्नत, कोमल, मांसल तथा सुगठित थे, शुभ लक्षणों से युक्त थे, अंगुलियाँ मिलाने पर उनमें छिद्र दिखाई नहीं देते थे, उनके तल-हथेलियाँ ललाई लिए हुए थीं, हाथों की अंगुलियाँ पुष्ट और सुकोमल थीं, उनके नख तांबे की तरह कुछ-कुछ ललाई लिए हुए, पतले, उजले, रुचिर-देखने में रुचिकर, स्निग्ध, सुकोमल थे, उनकी हथेली में चन्द्र, सूर्य, शंख, चक्र, दक्षिणावर्त स्वस्तिक की शुभ रेखाएं थीं, उनका वक्षस्थल-सीना स्वर्ण-शिला के तल के समान उज्ज्वल, प्रशस्त, समतल, उपचित-मांसल, विस्तीर्ण-चौड़ा, पृथुल—विशाल] था, उस पर श्रीवत्स–स्वस्तिक का चिह्न था, देह की मांसलता या परिपुष्टता के कारण रीढ़ की हड्डी नहीं दिखाई देती थी, उनका शरीर स्वर्ण के समान कान्तिमान्, निर्मल, सुन्दर, निरुपहत-रोग-दोष-वजित था, उसमें उत्तम पुरुष के 1008 लक्षण पूर्णतया विद्यमान थे, उनकी देह के पार्श्व भाग-पसवाड़े नीचे की ओर क्रमशः संकड़े, देह के प्रमाण के अनुरूप, सुन्दर, सुनिष्पन्न, अत्यन्त समुचित परिमाण में मांसलता लिए हुए मनोहर थे, उनके वक्ष और उदर पर सीधे, समान, संहित—एक दूसरे से मिले हुए, उत्कृष्ट कोटि के, सूक्ष्म-हलके, काले, चिकने, उपादेय-उत्तम, लावण्यमय, रमणीय बालों की पंक्ति थी, उनके कुक्षि-प्रदेश-उदर के नीचे के दोनों पार्श्व मत्स्य और पक्षी के समान सुजात--सुनिष्पन्न-सुन्दर रूप में रचित तथा पीनपरिपुष्ट थे, उनका उदर मत्स्य के जैसा था, उनके उदर का करण–प्रान्त्र-समूह शुचि-स्वच्छ-निर्मल था, उनकी नाभि कमल की तरह विकट---गूढ़, गंगा के भंवर की तरह गोल, दाहिनी ओर चक्कर काटती हुई तरंगों की तरह घुमावदार, सुन्दर, चमकते हुए सूर्य की किरणों से विकसित होते कमल के समान खिली हुई थी तथा उनकी देह का मध्यभाग त्रिकाष्ठिका, मूसल व दर्पण के हत्थे के मध्यभाग के समान, तलवार की मूठ के समान तथा उत्तम वज्र के समान गोल और पतला था, प्रमुदितरोग, शोकादि रहित-स्वस्थ, उत्तम घोड़े तथा उत्तम सिंह की कमर के समान उनकी कमर गोल घेराव लिए थी, उत्तम घोड़े के सुनिष्पन्न गुप्तांग की तरह उनका गुह्य भाग था, उत्तम जाति के अश्व की तरह उनका शरीर 'मलमूत्र' विसर्जन की अपेक्षा से निर्लेप था, श्रेष्ठ हाथी के तुल्य पराक्रम और गम्भीरता लिए उनकी चाल थी, हाथी की सूड की तरह उनकी दोनों जंघाएं सुगठित थीं, उनके घटने डिब्बे के ढक्कन की तरह निगूढ़ थे--मांसलता के कारण अनुन्नत-बाहर नहीं निकले हुए थे, उनकी पिण्डलियाँ हरिणी की पिण्डलियों, कुरुविन्द घास तथा कते हुए सूत की गेंढी की तरह क्रमश: उतार सहित गोल थी, उनके टखने सुन्दर, सुगठित और निगूढ थे, उनके चरण—पैर सुप्रतिष्ठितसुन्दर रचनायुक्त तथा कछुवे की तरह उठे हुए होने से मनोज्ञ प्रतीत होते थे, उनके पैरों की अंगुलियाँ क्रमशः प्रानुपातिक रूप में छोटी-बड़ी एवं सुसंहत-सुन्दर रूप में एक दूसरे से सटी हुई थीं, पैरों के नख उन्नत, पतले, तांबे की तरह लाल, स्निग्ध-चिकने थे, उनकी पगथलियाँ लाल कमल के पत्ते के समान मृदुल, सुकुमार तथा कोमल थीं, उनके शरीर में उत्तम पुरुषों के 1008 लक्षण प्रकट थे, उनके चरण पर्वत, नगर, मगर, सागर तथा चक्र रूप उत्तम चिह्नों और स्वस्तिक आदि मंगल-चिह्नों से अंकित थे, उनका रूप विशिष्ट असाधारण था, उनका तेज अग्नि की नि म ज्वाला, विस्तीर्ण विद्युत तथा अभिनव सूर्य की किरणों के समान था, वे प्राणातिपात आदि आस्रव-रहित, ममता Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द [19 रहित थे, अकिंचन थे, भव-प्रवाह को उच्छिन्न कर चुके थे-जन्म-मरण से अतीत हो चुके थे निरुपलेप----द्रव्य-दृष्टि से निर्मल देहधारी तथा भाव-दृष्टि से कर्मबन्ध के हेतु रूप उपलेप से रहित थे, प्रेम, राग, द्वेष और मोह का नाश कर चुके थे, निर्ग्रन्थ--प्रवचन के उपदेष्टा, धर्म-शासन के नायक-शास्ता, प्रतिष्ठापक तथा श्रमण-पति थे, श्रमणवृन्द से घिरे हुए थे, जिनेश्वरों के चौंतीस बुद्ध-अतिशयों से तथा पैतीस सत्य-वचनातिशयों से युक्त थे, आकाशगत चक्र, छत्र तीन], आकाशगत चंवर, आकाश के समान स्वच्छ स्फटिक से बने पादपीठ सहित सिंहासन, धर्मध्वज-ये उनके आगे चल रहे थे, चौदह हजार साधु तथा छत्तीस हजार साध्वियों से संपरिवृत-घिरे हुए थे, आगे से आगे चलते हुए, एक गांव से दूसरे गांव होते हुए सुखपूर्वक विहार करते हुए, भगवान् वाणिज्यग्राम नगर में दूतीपलाश चैत्य में पधारे। ठहरने के लिए यथोचित स्थान ग्रहण किया, संयम व तप से आत्मा को अनुभावित करते हुए विराजमान हुए-टिके, परिषद् जुड़ी, राजा जितशत्रु राजा कूणिक की तरह भगवान के दर्शन, वन्दन के लिए निकला, [दूतीपलाश चैत्य में पाया / आकर भगवान् के न अधिक दूर न अधिक निकट---समुचित स्थान पर रुका / तीर्थकरों के छत्र आदि अतिशयों को देख कर अपनी सवारी के प्रमुख उत्तम हाथी को ठहराया, हाथी से नीचे उतरा, उतर कर तलवार, छत्र, मुकुट, चंवर-इन राज-चिह्नों को अलग किया, जूते उतारे / भगवान् महावीर जहां थे वहां आया / प्राकर, सचित्त--पदार्थों का व्युत्सर्जन-अलग करना, अचित्तअजीव पदार्थों का अव्युत्सर्जन–अलग न करना अखण्ड--अनसिले वस्त्र--का उत्तरासंग-उत्तरीय की तरह कन्धे पर डाल कर धारण करना, धर्म-नायक पर दृष्टि पड़ते ही हाथ जोड़ना, मन को एकाग्र करना—इन पांच नियमों के अनुपालनपूर्वक राजा जितशत्रु भगवान् के सम्मुख गया। भगवान् को तीन बार आदक्षिण--प्रदक्षिणा कर वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना, नमस्कार कर कायिक, वाचिक, मानसिक रूप से पर्युपासना की। कायिक पर्युपासना के रूप में हाथ-पैरों को संकुचित किए हुएसिकोड़े हुए, शुश्रूषा-सुनने की इच्छा करते हुए, नमन करते हुए भगवान् की ओर मुह किये, विनय से हाथ जोड़े हुए स्थित रहा / वाचिक पर्युपासना के रूप में जो-जो भगवान् बोलते थे, उसके लिए यह ऐसा ही है भन्ते ! यही तथ्य है भगवन् ! यही सत्य है प्रभो ! यही सन्देह-रहित है स्वामी ! यही इच्छित है भन्ते ! यही प्रतीच्छित स्वीकृत है, प्रभो ! यही इच्छित-प्रतीच्छित है भन्ते ! जैसा आप कह रहे हैं ! इस प्रकार अनुकूल वचन बोलता रहा / मानसिक पर्युपासना के रूप में अपने में अत्यन्त संवेग-मुमुक्षु भाव उत्पन्न करता हुआ तीव्र धर्मानुराग से अनुरक्त रहा। आनन्द द्वारा वन्दन 10. तए णं से आणंदे गाहावई इमोसे कहाए लट्ठ समाणे--एवं खलु समणे जाव (भगवं महावीरे पुब्वाणुपुन्दि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे इहमागए, इह संपत्ते, इह समोसढे, इहेव वाणियगामस्स नयरस्स बहिया दूइपलासए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे) विहरइ, तं महप्फलं जाव (खलु भो! देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं णाम-गोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमण-बंदण-णमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए ! एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ? तं गच्छामि णं देवाणुप्पिया! समणं भगवं महावीरं वदामि णमंसामि सक्कारेमि सम्मामि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] [उपासकदशांगसूत्र एवं संपेहेइ, संपेहित्ता हाए, सुद्धप्पाबेसाई मंगलाई वत्थाई पवर-परिहिए, अप्पमहग्याभरणालंकिय-सरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता सकोरेण्ट-मल्ल-दामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं मणुस्स-वग्गुरा-परिक्खित्ते पाय-विहारचारेणं वाणियग्गामं नयरं मज्झं मोणं निग्गच्छद, निग्गच्छित्ता जेणामेव दूइपलासे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ नमसइ जाव' पज्जुवासइ / तब प्रानन्द गाथापति को इस वार्ता से-प्रसंग से नगर के प्रमुख जनों को भगवान् की वन्दना के लिए जाते देख कर ज्ञात हुआ, श्रमण भगवान् महावीर [यथाक्रम आगे से आगे विहार करते हुए, ग्रामानुग्नाम विचरण करते हुए–एक गांव से दूसरे गांव का स्पर्श करते हुए यहां आए हैं, संप्राप्त हुए हैं, समवसृत हुए हैं-पधारे हैं / यहीं वाणिज्यग्राम नगर के बाहर दूतीपलाश चैत्य में यथोचित स्थान में टिके हैं,] संयम और तपपूर्वक आत्म-रमण में लीन हैं। इसलिए मैं उनके दर्शन का महान् फल प्राप्त करू / [ऐसे अर्हत् भगवान् के नाम, गोत्र का सुनना भी बहुत बड़ी बात है, फिर अभिगमनसम्मुख जाना, वन्दना, नमन, प्रतिपृच्छा—जिज्ञासा करना उनसे पूछना, पर्युपासना करना-इनका तो कहना ही क्या ? सद्गुण-निष्पन्न, सद्धर्ममय एक सुवचन का श्रवण भी बहुत बड़ी बात है; फिर विपुल–विस्तृत अर्थ के ग्रहण की तो बात ही क्या ? इसलिए अच्छा हो, मैं जाऊं और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन करू, नमन करू, सत्कार करू तथा सम्मान करू / भगवान् कल्याण हैं, मंगल हैं, देव हैं, तीर्थ-स्वरूप हैं, इनकी पर्युपासना करू / ] आनन्द के मन में यों विचार पाया। उसने स्नान किया, शुद्ध तथा सभा-योग्य मांगलिक वस्त्र अच्छी तरह पहने। थोड़े से किन्तु बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत किया, अपने घर से निकला, निकल कर कुरंट-पुष्पों की माला से युक्त छत्र धारण किये हुए, पुरुषों से घिरा हुआ, पैदल चलता हुआ, वाणिज्य ग्राम नगर के बीच में से गुजरा, जहां दूतीपलाश चैत्य था, भगवान् महावीर थे, वहां पहुंचा। पहुंचकर तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वन्दन किया नमस्कार किया, पर्युपासना की। धर्म-देशना 11. तए णं समणे भगवं महावीरे आणंदस्स गाहावइस्स तोसे य महइ-महालियाए परिसाए जाव धम्म-कहा (इसि-परिसाए, मुणि-परिसाए, जइ-परिसाए, देव-परिसाए, अणेग-सयाए, अणेग-सयवंदाए, अणेय-सय-वंद-परिवाराए, ओहबले,अइबले, महब्बले, अपरिमिय-बल-धीरिय-तेय-माहप्पकंतिजुत्ते, सारद-नवत्थणिय-महुर-गंभीर-कोंच-णिग्धोस-दुदुभिस्सरे, उरे वित्थडाए, कंठेऽवट्ठियाए, सिरे समाइण्णाए, अगर-लाए, अमम्मणाए, सव्वक्खर सण्णिवाइयाए, पुण्णरत्ताए, सव्वभासाणुगामिणीए सरस्सईए, जोयणणीहारिणा सरेणं अद्धमागहाए भासाए भासति, अरिहा धर्म परिकहेइ तेसि सम्वेसि आरियमणारियाणं अगिलाए धम्ममाइक्खइ / सा वि य णं अद्धमागहा भासा तेसि सव्वेसि आरियमणारियाणं अप्पणो सभासाए परिणमइ / तं जहा-अस्थि लोए, अत्थि अलोए, एवं जीवा, अजीवा, बंधे, मोक्खे, पुण्णे, पावे, आसवे, संवरे, वेयणा, णिज्जरा, अरिहंता, चक्कबट्टी, बलदेवा, वासुदेवा, नरगा, नेरइया, तिरक्खजोणिया, तिरिखजोणिणीओ, माया, पिया, रिसयो, देवा, देवलोया, सिद्धी, सिद्धा, परिणिव्वाणं, परिणिव्वुया, अस्थि पाणाइवाए, मुसावाए, अदिण्णादाणे, 1. देखें सूत्र-संख्या 2 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [21 मेहुणे परिग्गहे / अत्यि कोहे, माणे, माया, लोभे जाव (पेज्जे, दोसे, कलहे, अब्भक्खाणे, पेसुन्ने, परपरिवाए अरइरई, मायामोसे,) मिच्छा-दंसण-सल्ले, अत्थि पाणाइवाय-वेरमणे, मुसावाय-वेरमणे, अविण्णादाण-वेरमणे, मेहण-वेरमणे, परिग्गह-बेरमणे जाव मिच्छा-वंसण-सल्ल-विवेगे / सव्वं अस्थिभावं अस्थित्ति बयति, सव्वं णस्थि-भावं णस्थित्ति वयति, सुचिण्णा कम्मा सुचिण्ण-फला भवंति, दुच्चिण्णा कम्मा दुच्चिण्णफला भवंति, फुसइ पुग्ण-पावे, पच्चायति जीवा, सफले कल्लाण-पावए। धम्ममाइक्खइ-इणमेव निग्गंथे पावयणे सच्चे, अणुत्तरे, केवलिए, संसुद्ध, पडिपुण्णे, याउए, सल्लकत्तणे, सिद्धिमग्गे, मुत्तिमग्गे णिज्जाणमग्गे, णिन्वाणमग्गे, अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीण-मग्गे / इहट्ठिया जीवा सिझंति बुझंति मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेति / एगच्चा पुण एगे भयंतारो पुव-कम्मावसेसेण अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, महिड्डिएसु जाव महासुक्खेसु दूरंगइएसु चिरPिइएसु / तेणं तत्थ देवा भवंति महिड्डिया जाव चिरछिइया हार-विराइयवच्छा जाव पभासेमाणा, कप्पोवगा गतिकल्लाणा ठिइकल्लाणा आगमेसि भद्दा जाव पडिख्वा तमाइक्खइ। एवं खलु चहिं ठाणेहि जीवा रइयत्ताए कम्मं पकरेंति, रइयत्ताए कम्म पकरेत्ता गेरइएसु उववति , तं जहा- महारंभयाए, महापरिग्गयाए, पंचिदियवहेणं, कुणिमाहारेणं / एवं एएणं अभिलावेणं तिरिक्ख-जोणिएसु माइल्लयाए, णियडिल्लयाए, अलियक्यणेणं, उक्कंचणाए, वंचणयाए / मणुस्सेसु पगइभद्दयाए, पगइविणीययाए, साणुक्कोसयाए अमच्छरियाए / देवेसु सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, अकामणिज्जराए, बालतवो-कम्मेणं / तमाइक्खइ जह णरगा गम्मंति, जे गरगा जाय-वेयणा गरए। सारीर-माणसाइं, दुक्खाई तिरिक्खजोणीए // माणुस्सं च अणिच्चं, वाहि-जरा-मरण-वेयणा-परं / देवे य देवलोए, देवति देव-सोक्खाई॥ परगं तिरिक्खजोणि, माणुसभावं च देवलोगं च / सिद्धे य सिद्ध-वसहि, छज्जीवणियं परिकहेइ // जह जीवा बज्झति, मुच्चंति जह य परिकिलिस्संति / जह दुक्खाणं अंतं, करेंति केई य अपडिबद्धा // अट्ट-वुहट्टिय-चित्ता, जह जीवा दुक्ख-सागरमुर्वेति / जह वेरग्गमुवगया, कम्म-समुग्गं विहार्डेति // जह रागेण कडाणं, कम्माणं पावओ फल-विवागो। जह य परिहीणकम्मा, सिद्धा सिद्धालयमुर्वेति // तमेव धम्मं दुविहं आइक्खइ, तं जहा–अगार-धम्मं अणगार-धम्मं च / अणगार-धम्मो ताव इह खलु सव्वओ सम्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पचयइ, सव्वाओ पाणाइबायाओ वेरमणं, सव्वाओ मसा-वायाओ वेरमणं. सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं. वेरमणं, सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं, सव्वाओ राइ-भोयणाओ वेरमणं / अयमाउसो ! अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते, एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्रिए निग्गंथे वा निग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [उपासकदशांगसूत्र अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ, तं जहा-पंच अणुव्वयाई, तिणि गुणब्वयाई, चत्तारि सिक्खावयाई। पंच अणुव्वयाइं तं जहा थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं, थूलाओ अदिण्णादाणाओ बेरमणं, सदारसंतोसे, इच्छापरिमाणे / तिष्णि गुणध्वयाइं तं जहा अणत्थदंडवेरमणं, दिसिव्वयं, उवभोग-परिभोगपरिमाणं / चत्तारि सिक्खावयाई तं जहा-~सामाइयं देसावगासियं, पोसहोववासे, अतिहि-संविभागे, अपच्छिमा-मारणंतिया-संलेहणा-सूसणाराहणा, अयमाउसो ! अगार-सामाइए धम्मे पण्णत्ते एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्ठिए समणोबासए वा समणोवासिया वा बिहरमाणे आणाए आराहए भवइ / तए णं सा महइमहालिया मणूसपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म हट्ठ-तट्ठा चित्तमाणंदिया, पोइमणा, परमसोमणस्सिया, हरिसवस-विसप्पमाण-हियया उट्ठाए, उ8इ उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं तिवखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदई णमंसइ, बंदित्ता णमंसित्ता अत्थेगइआ मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइए / अत्थेगइया पंचाणुव्वइयं सतसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवण्णा / अवसेसा णं परिसा समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी सुयक्खाए ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे, एवं सुपण्णत्ते, सुभासिए, सुविणोए, सुभाविए, अणुत्तरे ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे / धम्म णं आइक्खमाणा तुम्भं उवसमं आइक्खह / उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खह / विवेग आइक्खमाणा वेरमणं आइक्खह / वेरमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह / णस्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए / किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं ! एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्भूआ तामेव दिसं पडिगया) राया य गओ तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने आनन्द गाथापति तथा महती परिषद् को धर्मोपदेश किया। [भगवान् महावीर की धर्मदेशना सुनने को उपस्थित परिषद् में ऋषि-द्रष्टा-अतिशय ज्ञानी साधु, मुनि- मौनी या वाक्संयमी साधु, यति–चारित्र के प्रति अति यत्नशील श्रमण, देवगण तथा सैकड़ों-सैकड़ों श्रोताओं के समूह उपस्थित थे।] ___ अोघ बली [अव्यवच्छिन्न या एक समान रहने वाले बल के धारक, अतिबली-अत्यधिक बल-सम्पन्न, महाबली,-प्रशस्त बलयुक्त, अपरिमित-असीम वीर्य-आत्मशक्तिजनित बल, तेज, महत्ता तथा कांतियुक्त, शरत्काल के नतन मेघ के गर्जन, क्रौंच पक्षी के निर्घोष तथा नगाड़े की ध्वनि के समान मधुर गम्भीर स्वर युक्त भगवान महावीर ने हृदय में विस्तृत होती हुई, कंठ में अवस्थित होती हुई तथा मूर्धा में परिव्याप्त होती सुविभक्त अक्षरों को लिए हुए-पृथक्-पृथक् स्व-स्व स्थानीय उच्चारणयुक्त अक्षरों सहित, अस्पष्ट उच्चारण वजित या हकलाहट से रहित, सुव्यक्त अक्षरसन्निपात-वर्ण-संयोग–वर्णों की व्यवस्थित शृखला लिए हुए, पूर्णता तथा स्वर-माधुरीयुक्त, श्रोताओं की सभी भाषाओं में परिणत होने वाली वाणी द्वारा एक योजन तक पहुँचने वाले स्वर में, अर्द्धमागधी भाषा में धर्म का परिकथन किया। उपस्थित सभी प्रार्य-अनार्य जनों को अग्लान भाव से—बिना परिश्रान्त हुए धर्म का आख्यान किया। भगवान् द्वारा उद्गीर्ण अर्द्धमागधी भाषा उन सभी आर्यों और अनार्यों की भाषाओं में परिणत हो गई। भगवान ने जो धर्मदेशना दी, वह इस प्रकार है Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [23 लोक का अस्तित्व है, अलोक का अस्तित्व है। इसी प्रकार जीव, अजीव, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, अहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, नरक, नैरयिक, तिर्यंचयोनि, तिर्यंचयोनिक जीव, माता, पिता, ऋषि, देव, देवलोक, सिद्धि, सिद्ध, परिनिर्वाण-कर्मजनित प्रावरण के क्षीण होने से आत्मिक स्वस्थता-परम शान्ति, परिनिर्वृत्त--परिनिर्वाण युक्त व्यक्ति इनका अस्तित्व है। प्राणातिपात--हिंसा, मृषावाद-असत्य, अदत्तादान–चोरी, मैथुन और परिग्रह हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, [प्रेम-अप्रकट माया व लोभजनित प्रिय या रोचक भाव, द्वेष-अव्यक्त मान व क्रोध जनित अप्रिय या अप्रीति रूप भाव, कलह-लड़ाई-झगड़ा, अभ्याख्यान मिथ्या दोषारोपण, पैशुन्य-चुगली अथवा पीठ पीछे किसी के होते-अनहोते दोषों का प्रकटीकरण, परपरिवाद निन्दा, रति-मोहनीय कर्म के उदय के परिणाम-स्वरूप असंयम में सुख मानना, रुचि दिखाना, अरति-मोहनीय कर्म के उदय के परिणाम स्वरूप संयम में अरुचि रखना, मायामृषा--- माया या छलपूर्वक झूठ बोलना,] यावत् मिथ्यादर्शन शल्य है। प्राणातिपात-विरमण-हिंसा से विरत होना, मृषावादविरमण--असत्य से विरत होना, अदत्तादानविरमण-चोरी से विरत होना, मैथुनविरमण-मैथुन से विरत होना, परिग्रहविरमणपरिग्रह से विरत होना, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य विवेक-मिथ्या विश्वास रूप कांटे का यथार्थ ज्ञान होना और त्यागना यह सब है सभी अस्तिभाव-अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से अस्तित्व का अस्ति रूप से और सभी नास्तिभाव-पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से नास्तित्व का नास्ति रूप से प्रतिपादन करते हैं / सूचीर्ण-सुन्दर रूप में--प्रशस्त रूप में संपादित दान, शील तप आदि कर्म सचीर्ण-उत्तम फल देने वाले हैं तथा दुश्चीर्ण-अप्रशस्त पापमय कर्म अशभ-द:खमय फल देने वाले हैं / जीव पुण्य तथा पाप का स्पर्श करता है, बन्ध करता है। जीव उत्पन्न होते हैं-संसारी जीवों का जन्म-मरण है / कल्याण-शुभ कर्म, पाप-अशुभ कर्म फलयुक्त हैं, निष्फल नहीं होते। प्रकारान्तर से भगवान् धर्म का प्राख्यान-प्रतिपादन करते हैं-यह निर्ग्रन्थप्रवचन, जिनशासन अथवा प्राणी की अन्तर्वर्ती ग्रन्थियों को छुड़ाने वाला प्रात्मानुशासनमय उपदेश सत्य है, अनुत्तर--सर्वोत्तम है, केवल-अद्वितीय है अथवा केवली-सर्वज्ञ द्वारा भाषित है, संशुद्धअत्यन्त शुद्ध, सर्वथा निर्दोष है, प्रतिपूर्ण--प्रवचन-गुणों में सर्वथा परिपूर्ण है, नैयायिक-न्याय-संगत है प्रमाण से अबाधित है तथा शल्य-कर्तन-माया आदि शल्य-कांटों का निवारक है, यह सिद्धि-कृतार्थता या सिद्धावस्था प्राप्त करने का मार्ग-उपाय है, मुक्ति---कर्म रहित अवस्था या निर्लोभता का मार्ग-हेतु है, निर्याण-पुनः नहीं लौटाने वाले जन्म-मरण के चक्र में नहीं गिराने वाले गमन का मार्ग है, निर्वाण-सकल संताप-रहित अवस्था प्राप्त करने का पथ है, अवितथसद्भूतार्थ-वास्तविक, अविसन्धि-विच्छेदरहित तथा सब दुःखों को प्रहीण-सर्वथा क्षीण करने का मार्ग है। इसमें स्थित जीव सिद्धि-सिद्धावस्था प्राप्त करते हैं अथवा अणिमा आदि महती सिद्धियों को प्राप्त करते हैं, बुद्ध-ज्ञानी केवल-ज्ञानी होते हैं, मुक्त-भवोपग्राही-जन्म-मरण में लाने वाले कर्माश में रहित हो जाते हैं, परिनिर्वृत होते हैं—कर्मकृत संताप से रहित परम शान्तिमय हो जाते हैं तथा सभी दुःखों का अन्त कर देते हैं / एकार्चा-जिनके एक ही मनुष्यभव धारण करना बाकी रहा है, ऐसे भदन्त-कल्याणान्वित अथवा निर्ग्रन्थ प्रवचन के भक्त पूर्व कर्मों के बाकी रहने से किन्हीं देवलोकों में देव के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे देवलोक महद्धिक Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] [उपासकदशांगसूत्र विपुल ऋद्धियों से परिपूर्ण, अत्यन्त सुखमय दूरगतिक-दूर गति से युक्त एवं चिरस्थितिकलम्बी स्थिति वाले होते हैं। वहाँ देव रूप में उत्पन्न वे जीव अत्यन्त ऋद्धि-सम्पन्न तथा चिर स्थिति दीर्घ आयुष्य युक्त होते हैं। उनके वक्षस्थल हारों से सुशोभित होते हैं, वे अपनी दिव्य प्रभा से दसों दिशाओं को प्रभासित-उद्योतित करते हैं। वे कल्पोपग देवलोक में देव-शय्या से युवा के रूप में उत्पन्न होते हैं / वे वर्तमान में उत्तम देवगति के धारक तथा भविष्य में भद्र-कल्याणनिर्वाण रूप अवस्था को प्राप्त करने वाले होते हैं, असाधारण रूपवान् होते हैं। भगवान् ने आगे कहा-जीव चार स्थानों कारणों से-नैरयिक-नरकयोनि का आयुष्य बन्ध करते हैं, फलत: वे विभिन्न नरकों में उत्पन्न होते हैं। वे स्थान या कारण इस प्रकार हैं-१. महाप्रारम्भ-घोर हिंसा के भाव व कर्म, 2. महापरिग्रह--अत्यधिक संग्रह के भाव व वैसा आचरण, 3. पंचेन्द्रिय-वध-मनुष्य, तिर्यंचपशु पक्षी आदि पांच इन्द्रियों वाले प्राणियों का हनन तथा 4. मांस-भक्षण / इन कारणों से जीव तिर्यंचयोनि में उत्पन्न होते हैं.--१. मायापूर्ण निकृति-छलपूर्ण जालसाजी, 2. अलीक वचन-असत्य भाषण, 3. उत्कंचनता-झूठी प्रशंसा या खुशामद अथवा किसी मूर्ख व्यक्ति को ठगने वाले धूर्त का समीपवर्ती विचक्षण पुरुष के संकोच से कुछ देर के लिए निश्चेष्ट रहना या अपनी धूर्तता को छिपाए रखना, 4. वंचनता--प्रतारणा या ठगी। इन कारणों से जीव मनुष्ययोनि में उत्पन्न होते हैं 1. प्रकृति-भद्रता-स्वाभाविक भद्रता-भलापन, जिससे किसी को भीति या हानि की आशंका न हो, 2. प्रकृति-विनीतता-स्वाभाविक विनम्रता, 3. सानुक्रोशता-सदयता, करुणाशीलता तथा 4. अमत्सरता-ईर्ष्या का अभाव / इन कारणों से जीव देवयोनि में उत्पन्न होते हैं 1. सरागसंयम-राग या आसक्तियुक्त चारित्र अथवा राग के क्षय से पूर्व का चारित्र, 2. संयमासंयम-देशविरति-श्रावकधर्म, 3. अकाम-निर्जरा-मोक्ष की अभिलाषा के बिना या विवशतावश कष्ट सहना, 4. बाल-तप-मिथ्यात्वी या अज्ञानयुक्त अवस्था में तपस्या / तत्पश्चात्-जैसे नरक में जाते हैं, जो नरक हैं और वहाँ नैरयिक जैसी वेदना पाते हैं तथा तिर्यंचयोनि में गये हुए जीव जैसा शारीरिक और मानसिक दुःख प्राप्त करते हैं उसे भगवान् बताते हैं / मनुष्य जीवन अनित्य है, उसमें व्याधि, वृद्धावस्था, मृत्यु और वेदना के प्रचुर कष्ट हैं। देवलोक में देव दैवी ऋद्धि और दैवी सुख प्राप्त करते हैं / इस प्रकार प्रभु ने नरक, नरकावास, तिर्यञ्च, तिर्यञ्च के आवास, मनुष्य, मनुष्य लोक, देव, देवलोक, सिद्ध, सिद्धालय, एवं छह जीवनिकाय का विवेचन किया। जिस प्रकार जीव बंधते हैं-कर्म-बन्ध करते हैं, मुक्त होते हैं, परिक्लेश पाते हैं, कई अप्रतिबद्ध-अनासक्त व्यक्ति दु:खों का अन्त करते हैं, पीडा, वेदना व आकुलतापूर्ण चित्तयुक्त जीव दुःख-सागर को प्राप्त करते हैं, वैराग्य-प्राप्त जीव कर्म-दल को ध्वस्त करते हैं, रागपूर्वक किये गए कर्मों का फलविपाक पापपूर्ण होता है, कर्मों से सर्वथा रहित होकर जीव सिद्धावस्था प्राप्त करते हैं-यह सब [भगवान् ने] आख्यात किया / आगे भगवान् ने बतलाया-धर्म दो प्रकार का है-आगर-धर्म और अनगार-धर्म / अनगार-धर्म में साधक सर्वतः सर्वात्मना--सम्पूर्ण रूप में, सर्वात्मभाव से सावध कार्यों का परित्याग Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [25 करता हुआ मुडित होकर, गृहवास से अनगार दशा-मुनि-अवस्था में प्रवाजित होता है। वह सम्पूर्णतः प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह तथा रात्रि-भोजन से विरत होता है / / भगवान् ने कहा-आयुष्मन् ! यह अनगारों के लिए समाचरणीय धर्म कहा गया है / इस धर्म की शिक्षा अभ्यास या आचरण में उपस्थित-प्रयत्नशील रहते हुए निर्ग्रन्थ -साधु या निर्ग्रन्थी –साध्वी प्राज्ञा [अर्हत्-देशना] के आराधक होते हैं / भगवान ने अगारधर्म 12 प्रकार का बतलाया-५ अणुव्रत, 3 गुणव्रत तथा 4 शिक्षाव्रत / 5 अणव्रत इस प्रकार हैं--१. स्थल-मोटे तौर पर. अपवाद रखते हए प्राणातिपात से निवत्त होना, 2. स्थूल मृषावाद से निवृत्त होना, 3. स्थूल अदत्तादान से निवृत्त होना 4. स्वदारसंतोष अपनी परिणीता पत्नी तक मैथुन की सीमा, 5. इच्छा--परिग्रह की इच्छा का परिमाण या सीमाकरण / 3 गुणव्रत इस प्रकार हैं-१.अनर्थदंड-विरमण--आत्मा के लिए अहितकर या प्रात्मगुणघातक निरर्थक प्रवृत्ति का त्याग, 2. दिग्वत-विभिन्न दिशाओं में जाने के सम्बन्ध में मर्यादा या सीमाकरण, 3. उपभोग-परिभोग-परिमाण-उपभोग जिन्हें अनेक बार भोगा जा सके, ऐसी वस्तुएं जैसे वस्त्र आदि तथा परिभोग जिन्हें एक ही बार भोगा जा सके जैसे भोजन आदि–इनका परिमाण-सीमाकरण / 4 शिक्षाव्रत इस प्रकार हैं-१. सामायिक-समता या समत्वभाव की साधना के लिए एक नियत समय [न्यूनतम एक मुहूर्त--४८ मिनट में किया जाने वाला अभ्यास, 2. देशावकासिक-नित्य प्रति अपनी प्रवृत्तियों में निवृत्ति-भाव की वृद्धि का अभ्यास 3. पोषधोपवास-अध्यात्म-साधना में अग्रसर होने के हेतु यथाविधि आहार, अब्रह्मचर्य आदि का त्याग तथा 4. अतिथि-संविभाग--जिनके आने की कोई तिथि नहीं, ऐसे अनिमंत्रित संयमी साधक या सार्मिक बन्धुओं को संयमोपयोगी एवं जीवनोपयोगी अपनी अधिकृत सामग्री का एक भाग आदरपूर्वक देना, सदा मन में ऐसी भावना बनाए रखना कि ऐसा अवसर प्राप्त हो। तितिक्षापूर्वक अन्तिम मरण रूप संलेखना-तपश्चरण, आमरण अनशन की आराधनापूर्वक देहत्याग श्रावक की इस जीवन की साधना का पर्यवसान है, जिसकी एक गृही साधक भावना लिए रहता है। भगवान् ने कहा---प्रायुष्मन् ! यह गृही साधकों का आचरणीय धर्म है / इस धर्म के अनुसरण में प्रयत्नशील होते हुए श्रमणोपासक-श्रावक या श्रमणोपासिका-श्राविका प्राज्ञा के आराधक होते हैं। __ तब वह विशाल मनुष्य-परिषद् श्रमण भगवान् महावीर से धर्म सुनकर, हृदय में धारण कर, हृष्ट-तुष्ट-अत्यन्त प्रसन्न हुई, चित्त में आनन्द एवं प्रीति का अनुभव किया, अत्यन्त सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसित-हृदय होकर उठी, उठकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा, वन्दन-नमस्कार किया, वन्दन-नमस्कार कर उसमें से कई गृहस्थ-जीवन का परित्याग कर मुडित होकर, अनगार या श्रमण के रूप में प्रवजित-दीक्षित हुए / कइयों ने पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाक्त रूप बारह प्रकार का गृहि-धर्म-श्रावक-धर्म स्वीकार किया। शेष परिषद् ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन किया, नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर कहाभगवन् ! आप द्वारा सुप्राख्यात—सुन्दर रूप में कहा गया, सुप्रज्ञप्त-उत्तम रीति से समझाया गया, सुभाषित-हृदयस्पर्शी भाषा में प्रतिपादित किया गया, सुविनीत-शिष्यों में सुष्ठ रूप में विनियोजित Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26] [उपासकदशांगसूत्र -~-अन्तेवासियों द्वारा सहज रूप में अंगीकृत, सुभावित-प्रशस्त भावों से युक्त निर्ग्रन्थ-प्रवचन-- धर्मोपदेश, अनुत्तर–सर्वश्रेष्ठ है। आपने धर्म की व्याख्या करते हुए उपशम-क्रोध आदि के निरोध का विश्लेषण किया। उपशम की व्याख्या करते हुए विवेक-बाह्य ग्रन्थियों के त्याग का स्वरूप समझाया। विवेक की व्याख्या करते हुए आपने विरमण-विरति या निवृत्ति का निरूपण किया। विरमण की व्याख्या करते हुए आपने पाप-कर्म न करने की विवेचना की। दूसरा कोई श्रमण या ब्राह्मण नहीं है, जो ऐसे धर्म का उपदेश कर सके। इससे श्रेष्ठ धर्म के उपदेश की तो बात ही कहां? यों कहकर वह परिषद् जिस दिशा से आई थी, उसी ओर वापस लौट गई। राजा भी लौट गया / आनन्द की प्रतिक्रिया 12. तए णं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हतुट्ट जाव (चित्तमाणंदिए पीइ-मणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए उट्ठाए उट्ठइ, उ?त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंबइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता) एवं वयासी सद्दहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं, भंते ! निग्गंथं पावयणं, रोएमि णं, भंते ! निरगंथं पावयणं, एवमेयं, भंते ! तहमेयं, भंते ! अवितहमेयं, भंते ! इच्छियमेयं, भंते ! पडिच्छियमेयं, भंते ! इच्छिय-पडिच्छियमेयं, भंते ! से जहेयं तुम्भे वयह त्ति कटु, जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-सेटि-सेणावई-सत्यवाहप्पभिइआ मुण्डा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया, नो खलु अहं तहा संचाएमि मुडे जाव (भवित्ता अगाराओ अणगारियं) पन्वइत्तए। अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त-सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहि-धम्म पडिवज्जिस्सामि / अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / तब आनन्द गाथापति श्रमण भगवान महावीर से धर्म का श्रवण कर हर्षित व परितुष्ट होता हुया यावत् [चित्त में आनन्द एवं प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ, अत्यन्त सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसितहृदय होकर उठा, उठकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर] यों बोला-भगवन् ! मुझे निर्ग्रन्थ-प्रवचन में श्रद्धा है, विश्वास है / निर्ग्रन्थ-प्रवचन मुझे रुचिकर हैं / वह ऐसा ही है, तथ्य है, सत्य है, इच्छित है, प्रतीच्छित [स्वीकृत] है, इच्छित-प्रतीच्छित है। यह वैसा ही है, जैसा आपने कहा। देवानुप्रिय ! जिस प्रकार आपके पास अनेक राजा, ऐश्वर्यशाली, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठी, सेनापति एवं सार्थवाह आदि मुडित होकर, गृह-वास का परित्याग कर अनगार के रूप में प्रवजित हुए, मैं उस प्रकार मुडित होकर [गृहस्थ-जीवन का परित्याग कर अनगारधर्म में प्रव्रजित होने में असमर्थ हूं, इसलिए आपके पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत मूलक बारह प्रकार का गृहीधर्म--श्रावक-धर्म ग्रहण करना चाहता हूं। प्रानन्द के यों कहने पर भगवान् ने कहा-देवानुप्रिय ! जिससे तुमको सुख हो, वैसा ही करो, पर विलम्ब मत करो। व्रत-ग्रहण अहिंसा व्रत 13. तए णं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए तप्पढमयाए थूलगं Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [27 पाणाइवायं पच्चक्खाइ, जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा। तब अानन्द गाथापति ने श्रमण भगवान् महावीर के पास प्रथम या मुख्य स्थूल प्राणातिपात - स्थूल हिंसा का प्रत्याख्यान परित्याग किया, इन शब्दों में---- मैं जीवन पर्यन्त दो करण-कृत व कारित अर्थात् करना, कराना तथा तीन योग-मन, वचन एवं काया से स्थूल हिंसा का परित्याग करता हूँ, अर्थात् मैं मन से, वचन से तथा शरीर से स्थूल हिंसा न करूगा और न कराऊंगा। सत्य व्रत 14. तयाणंतरं च णं थूलगं मुसावायं पच्चक्खाइ, जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा। तदनन्तर उसने स्थूल मृषावाद-असत्य का परित्याग किया, इन शब्दों में मैं जीवन भर के लिए दो करण और तीन योग से स्थूल मृषावाद का परित्याग करता हूँ अर्थात् मैं मन से, वचन से तथा शरीर से न स्थूल असत्य का प्रयोग करूंगा और न कराऊंगा। अस्तेय व्रत 15. तयाणंतरं च णं थूलग अदिग्णादाणं पच्चक्खाइ, जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा। उसके बाद उसने स्थूल अदत्तादान-चोरी का परित्याग किया। इन शब्दों में मैं जीवन भर के लिए दो करण और तीन योग से स्थूल चोरी का परित्याग करता हूं अर्थात् मैं मन से, वचन से तथा शरीर से न स्थूल चोरी करूगा न कराऊंगा। स्वदार-सन्तोष 16. तयाणंतरं च णं सवार-संतोसिए परिमाणं करेइ, नन्नस्थ एक्काए सिवनंदाए भारियाए, अवसेसं सव्वं मेहुणविहिं पच्चक्खामि / फिर उसने स्वदारसन्तोष व्रत के अन्तर्गत मैथुन का परिमाण किया / इन शब्दों में अपनी एकमात्र पत्नी शिवनन्दा के अतिरिक्त अवशेष समग्र मैथुनविधि का परित्याग करता हूं। इच्छा-परिमाण 17. तयाणंतरं च णं इच्छा-विहि-परिमाणं करेमाणे हिरण्णसुवग्णविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ चहिं हिरण्णकोडोहिं निहाणपउत्ताहि, चहिं बुट्टिपउत्ताहि, चहि पवित्यर-पउत्ताहि, अवसेसं सव्वं हिरण्णसुबणविहिं पच्चक्खामि / Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] [उपासकदशांगसूत्र तब उसने इच्छाविधि-परिग्रह का परिमाण करते हुए स्वर्ण-मुद्राओं के विषय में इस प्रकार सीमाकरण किया निधान-निहित चार करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं, व्यापार-प्रयुक्त चार करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं तथा घर व घर के उपकरणों में प्रयुक्त चार करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं के अतिरिक्त मैं समस्त स्वर्ण-मुद्राओं का परित्याग करता हूं। 18. तयाणंतरं च णं चउप्पयविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्य चउहि वहि दस गोसाहस्सिएणं वएणं, अवसेसं सव्वं चउप्पयविहि पच्चक्खामि / फिर उसने चतुष्पद-विधि---चौपाए पशुरूप संपत्ति के संबंध में परिमाण किया दस-दस हजार के चार गोकुलों के अतिरिक्त मैं बाकी सभी चौपाए पशुओं के परिग्रह का परित्याग करता हूं। 19. तयाणंतरं च णं खेत्तवत्थुविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ पंचर्चाह हलसहि नियत्तणसइएणं हलेणं अवसेसं सव्वं खेत्तवत्थुविहिं पच्चक्खामि / फिर उसने क्षेत्र-वास्तु-विधि का परिमाण किया-सौ निवर्तन [भूमि के एक विशेष माप] के एक हल के हिसाब से पांच सौ हलों के अतिरिक्त मैं समस्त क्षेत्र--बास्तुविधि का परित्याग करता हूं। विवेचन खेत [क्षेत्र] का अर्थ खेत या खेती करने की भूमि अर्थात खुली उघाड़ी भूमि है। प्राकृत का 'वत्थु' शब्द संस्कृत में 'वस्तु' भी हो सकता है, 'वास्तु' भी / वस्तु का अर्थ चीज अर्थात् बर्तन, खाट, टेबल, कुर्सी, कपड़े आदि रोजाना काम में आनेवाले उपकरण हैं। वास्तु का अर्थ भूमि, बसने की जगह, मकान या आवास है / यहाँ 'वत्थु' का तात्पर्य गाथापति आनन्द की मकान आदि संबंधी भूमि __ अानन्द की खेती की जमीन के परिमाण के सन्दर्भ में यहाँ 'नियत्तण-सइएण' [निवर्तनशतिकेन पद का प्रयोग करते हुए सौ निवर्तनों की एक इकाई को एक हल की जमीन कहा गया है, जिसे आज की भाषा में बीघा कहा जा सकता है।। प्राचीन काल में 'निवर्तन' भूमि के एक विशेष माप के अर्थ में प्रयुक्त रहा है। बीस बांस या दो सौ हाथ लम्बी-चौड़ी [2004 200 = 4000 वर्ग हाथ] भूमि को निवर्तन कहा जाता था।' 20. तयाणंतरं च णं सगडविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्य पंहि सगडसएहि दिसायत्तिएहि, पहिं सगड-सएहि संवाहणिपहि, अवसेसं सव्वं सगडविहिं पच्चक्खामि / तत्पश्चात् उसने शकटविधि-गाड़ियों के परिग्रह का परिमाण किया पांच सौ गाड़ियां दिग्---यात्रिक-बाहर यात्रा में, व्यापार आदि में प्रयुक्त तथा पांच सौ 1. संस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी : सर मोनियर विलियम्स, पृष्ठ 560 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [29 गाड़ियां घर संबंधी माल-असबाव ढोने आदि में प्रयुक्त के सिवाय मैं सब गाड़ियों के परिग्रह का परित्याग करता हूं। 21. तयाणंतरं च णं वाहणविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ चर्हि वाहणेहि दिसायत्तिह, चर्हि वाहणेहि संवाहणिएहि, अवसेसं सव्वं वाहणविहिं पच्चक्खामि / फिर उसने वाहनविधि--जलयान रूप परिग्रह का परिमाण किया चार वाहन दिग्-यात्रिक तथा चार गृह-उपकरण के संदर्भ में प्रयुक्त के सिवाय मैं सब प्रकार के वाहन रूप परिग्रह का परित्याग करता हूं। उपभोग-परिभोग-परिमाण 22. तयाणंतरं च णं उवभोगपरिभोगविहिं पच्चक्खाएमाणे, उल्लणियाविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्य एगाए गंध-कासाईए, अवसेसं सव्वं उल्लणियाविहि पच्चक्खामि / फिर उसने उपभोग-परिभोग-विधि का प्रत्याख्यान करते हुए भीगे हुए शरीर को पोंछने में प्रयुक्त होने वाले अंगोछे-तौलिए आदि का परिमाण किया मैं सुगन्धित और लाल-एक प्रकार के अंगोछे के अतिरिक्त बाकी सभी अंगोछे रूप परिग्रह का परित्याग करता हूं। 23. तयाणंतरं च णं दंतवणविहिपरिमाणं करेइ / नन्नत्थ एगेणं अल्ल-लट्ठीमहुएणं, अवसेसं दंतवणविहिं पच्चक्खामि / तत्पश्चात् उसने दतौन के संबंध में परिमाण किया--.. हरि मुलहठी के अतिरिक्त मैं सब प्रकार के दतौनों का परित्याग करता हूं। 24. तयाणंतरं च णं फलविहिपरिमाणं करेइ / नन्नत्थ एगेणं खीरामलएणं, अवसेसं फलविहिं पच्चक्खामि। तदनन्तर उसने फलविधि का परिमाण कियामैं क्षीर आमलक-दूधिया आंवले के सिवाय अवशेष फल-विधि का परित्याग करता हैं। विवेचन यहाँ फल-विधि का प्रयोग खाने के फलों के सन्दर्भ में नहीं है, प्रत्युत नेत्र मस्तक आदि के शोधन-प्रक्षालन के काम में आने वाले शुद्धिकारक फलों से है / प्रांवले की इस कार्य में विशेष उपयोगिता है / क्षीर आमलक या दूधिया आंवले का तात्पर्य उस कच्चे मुलायम आँवले से है, जिसमें गुठली नहीं पड़ी हो और जो दूध की तरह मीठा हो / यहाँ फलविधि का प्रयोग बाल, मस्तक आदि के शोधन--प्रक्षालन के काम में आनेवाले Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30] [उपासकदशांगसूत्र शुद्धिकारक फलों के उपयोग के अर्थ में है। आंवले की इस कार्य में विशेष उपादेयता है। बालों के लिए तो वह बहुत ही लाभप्रद है, एक टॉनिक है / आंवले में लोहा विशेष मात्रा में होता है। अतः बालों की जड़ को मजबूत बनाए रखना, उन्हें काला रखना उसका विशेष गुण है। बालों में लगाने के लिए बनाए जाने वाले तैलों में प्रांवले का तैल मुख्य है / यहाँ प्रांवले में क्षीर आमलक या दूधिया आंवले का जो उल्लेख पाया है, उसका भी अपना विशेष प्राशय है / क्षीर आमलक का तात्पर्य उस मुलायम, कच्चे प्रांवले से है, जिसमें गुठली नहीं पड़ी हो, जो विशेष खट्टा नहीं हो, जो दूध जैसा मिठास लिए हो / अधिक खट्टे प्रांवले के प्रयोग से चमड़ी में कुछ रूखापन आ सकता है। जिनकी चमड़ी अधिक कोमल होती है, विशेष खट्ट पदार्थ के संस्पर्श से वह फट सकती है / क्षीर आमलक के प्रयोग में यह आशंकित नहीं है। ___ यहाँ फल शब्द खाने के रूप में काम में आनेवाले फलों की दृष्टि से नहीं है, प्रत्युत वृक्ष, पौधे आदि पर फलने वाले पदार्थ की दृष्टि से है / वृक्ष पर लगता है, इसलिए प्रांवला फल है, परन्तु वह फल के रूप में नहीं खाया जाता / उसका उपयोग विशेषतः औषधि, मुरब्बा, चटनी, अचार आदि * में होता है। आयुर्वेद की काष्ठादिक औषधियों में आंवले का मुख्य स्थान है / आयुर्वेद के ग्रन्थों में इसे फल-वर्ग में न लेकर काष्ठादिक औषधि-वर्ग में लिया गया है। भावप्रकाश में हरीतक्यादि वर्ग में प्रांवले का वर्णन आया है। वहाँ लिखा है--- "आमलक, धात्री, त्रिष्वफला और अमृता-ये प्रांवले के नाम हैं / आंवले के रस, गुण एवं विपाक आदि हरीतकी-हरड़ के समान होते हैं / आंवला विशेषत: रक्त-पित्त और प्रमेह का नाशक, शुक्रवर्धक एवं रसायन है / रस के खट्टेपन के कारण यह वातनाशक है, मधुरता और शीतलता के कारण यह पित्त को शान्त करता है, रूक्षता और कसैलेपन के कारण यह कफ को मिटाता है।" __ चरकसंहिता चिकित्सास्थान के अभयामलकीय रसायनपाद में आंवले का वर्णन है / वहाँ लिखा है “जो गुण हरीतकी के हैं, प्रांवले के भी लगभग वैसे ही हैं / किन्तु प्रांवले का वीर्य हरीतकी से भिन्न है / अर्थात् हरीतकी उष्णवीर्य है, आंवला शीतवीर्य / हरीतकी के जो गुण बताए गए हैं, उन्हें देखते, हरीतकी तथा तत्सदृश गुणयुक्त प्रांवला अमृत कहे गये हैं।"२ 1. त्रिष्वामलकमाख्यातं धात्री त्रिष्बफलाऽमृता। हरीतकीसमं धात्री-फलं किन्तु विशेषतः // रक्तपित्तप्रमेहघ्नं परं वृष्यं रसायनम् / हन्ति वातं तदम्लत्वात् पित्तं माधुर्यशैत्यतः / / कर्फ रूक्षकषायत्वात् फलं धान्यास्त्रिदोष जित् / ---भावप्रकाश हरीतक्यादि वर्ग 37-39 / / 2. तान गुणांस्तानि कर्माणि विद्यादामलकेष्वपि / यान्युक्तानि हरीतक्या वीर्यस्य तु विपर्ययः / / प्रतश्चामृतकल्पानि विद्यात्कर्मभिरीदृशैः / हरीतकीनां शस्यानि भिषगामलकस्य च // ---चरकसंहिता चिकित्सास्थान 1 / 35-36 / / For Private & Personal use only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द [31 चरकसंहिता में वाततपिक एवं कुटीप्रावेशिक के रूप में काय-कल्प चिकित्सा का उल्लेख है / कुटीप्रावेशिक को अधिक प्रभावशाली बतलाते हुए वहाँ विस्तार से वर्णन है।' इस चिकित्सा में शोधन के लिए हरीतकी तथा पोषण के लिए प्रांवले का विशेष रूप से उपयोग होता है। इन्हें रसायन कहा गया है / आचार्य चरक ने रसायन के सेवन से दीर्घ आयु, स्मृतिबुद्धि, तारुण्य-जवानी, कान्ति, वर्ण-प्रोजमय दैहिक आभा, प्रशस्त स्वर, शरीर-बल, इन्द्रिय-बल आदि प्राप्त होने का उल्लेख किया है / __ आंवले से च्यवनप्राश, ब्राह्मरसायन, आमलकरसायन आदि पौष्टिक औषधियों के रूप में अनेक अवलेह तैयार किए जाते हैं / अस्तु / अानन्द यदि फलों के सन्दर्भ में अपवाद रखता तो वह बिहार का निवासी था, बहुत सम्भव है, फलों में आम का अपवाद रखता, जैसे खाद्यान्नों में बासमती चावलों में उत्तम कलम जाति के चावल रखे / आम तो फलों का राजा माना जाता है और बिहार में सर्वोत्तम कोटि का तथा अनेक जातियों का होता है / अथवा उस प्रदेश में तो और भी उत्तम प्रकार के फल होते हैं, उनमें से और कोई रखता / वस्तुत: जैसा ऊपर कहा गया है, आनन्द ने आंवले का खाने के फल की दृष्टि से अपवाद नहीं रखा, मस्तक, नेत्र, बाल आदि की शुद्धि के लिए ही इसे स्वीकार किया। यह वर्णन भी ऐसे ही सन्दर्भ में है। इससे पहले के तेईसवें सत्र में आनन्द ने हरी मलैठी के अतिरिक्त सब प्रकार के दतौनों का परित्याग किया. इससे प्रागे पच्चीसवें सत्र में शतपाक तथा सहस्रपाक तैलों के अतिरिक्त मालिश के सभी तैलों का सेवन न करने का नियम किया। उसके बाद छब्बीसवें सूत्र में सुगन्धित गन्धाटक के सिवाय सभी उबटनों का परित्याग किया। यहाँ खाने के फल का प्रसंग ही संगत नहीं है। यह तो सारा सन्दर्भ दतौन, स्नान, मालिश, उबटन आदि देह-शुद्धि से सम्बद्ध कार्यों से जुड़ा है / __ अब एक प्रश्न उठता है, क्या आनन्द ने खाने के किसी भी फल का अपवाद नहीं रखा ? हो सकता है, उसने अपवाद नहीं रखा हो / सामान्यतः सचित्त रूप में सभी फलों को अस्वीकार्य माना हो। इस सम्बन्ध में डा. रुडोल्फ हार्नले ने भी चर्चा की है। उन्होंने भी इसी तरह का संकेत दिया है। 25 तयाणंतरं च णं अन्भंगणविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ सयपागसहस्सपाहि तेल्लेहि अवसेसं अब्भंगणविहिं पच्चक्खामि / उसके बाद उसने अभ्यंगन-विधि का परिमाण किया 1. चरकसंहिता-चिकित्सास्थान 1 / 16-27 / / 2. दीर्घमायुः स्मृति मेधामारोग्यं तरुणं वयः / प्रभावर्णस्वरौदार्य देहेन्द्रियबलं परम् // वासिद्धि प्रणति कान्ति लभते ना रसायनात् / लाभोपायो हि शस्तानां रसादीनां रसायनम् / / चरकसंहिता-चिकित्सास्थान 1 / 7-8 / / 3. Uvasagadasao, Lecture I Pages 15, 16 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] [उपासकदशांगसूत्र शतपाक तथा सहस्रपाक तैलों के अतिरिक्त मैं और सभी अभ्यंगनविधि--मालिश के तैलों का परित्याग करता हूं। विवेचन शतपाक या सहस्रपाक तैल कोई विशिष्ट मूल्यवान् तैल रहे होंगे, जिनमें बहुमूल्य औषधियां पड़ी हों / प्राचार्य अभयदेव सूरि द्वारा वृत्ति में इस संबंध में किए गए संकेत के अनुसार शतपाक तैल रहा हो, जिसमें 100 प्रकार के द्रव्य पड़े हों, जो सौ दफा पकाया गया हो अथवा जिसका मूल्य सौ कार्षापण रहा हो / कार्षापण प्राचीन भारत में प्रयुक्त एक सिक्का था / वह सोना, चांदी व तांबा-इनका अलग-अलग तीन प्रकार का होता था। प्रयुक्त धातु के अनुसार वह स्वर्ण-कार्षापण रजत-कापिण या ताम्र-कार्षापण कहा जाता रहा था। स्वर्ण-कार्षापण का वजन 16 मासे, रजतकार्षापण का वजन 16 पण [तोल विशेष] और ताम्र-कार्षापण का वजन 80 रत्ती होता था।' __ सौ के स्थान पर जहाँ यह क्रम सहस्र में आ जाता है, वहाँ वह तैल सहस्रपाक कहा जाता है। 26. तयाणंतरं च णं उबट्टणविहिपरिमाणं करेइ / नन्नत्थ एकेणं सुरहिणा गंघट्टएणं, अवसेसं उच्चट्टणविहिं पच्चक्खामि / इसके बाद उसने उबटन-विधि का परिमाण किया एक मात्र सुगन्धित गंधाटक---गेहूँ आदि के आटे के साथ कतिपय सौगन्धिक पदार्थों को मिला कर तैयार की गई पीठी के अतिरिक्त अन्य सभी उबटनों का मैं परित्याग करता हूं। 27. तयाणंतरं च णं मज्जणविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्य अहिं उट्टिएहि उदगस्स घहिं अवसेसं मज्जणविहिं पच्चक्खामि / उसके बाद उसने स्नान-विधि का परिमाण किया -पानी के आठ औष्ट्रिक-ऊंट के आकार के घड़े, जिनका मुह ऊंट की तरह संकड़ा, गर्दन लम्बी और आकार बड़ा हो, के अतिरिक्त स्नानार्थ जल का परित्याग करता हूं। 28. तयाणंतरं च णं वयविहिपरिमाणं करेइ / नन्नत्थ एगेणं खोम-जुयलेणं, अवसेसं वत्थविहि पच्चक्खामि / तब उसने वस्त्रविधि का परिमाण कियासूती दो वस्त्रों के सिवाय मैं अन्य वस्त्रों का परित्याग करता हूं। 29. तयाणंतरं च णं विलेवविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्य अगर-कुकुम-चंदणमादिहि अवसेसं विलेवणविहिं पच्चक्खामि / __ तब उसने विलेपन-विधि का परिमाण किया-- 1. संस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी–सर मोनियर विलियम्स, पृ. 176 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गायापति आनन्द ] [33 अगर, कुकुम तथा चन्दन के अतिरिक्त मैं सभी विलेपन-द्रव्यों का परित्याग करता हूं। . 30. तयाणंतरं च णं पुप्फविहिपरिमाणं करेइ / नन्नत्थ एगेणं सुद्ध-पउमेणं, मालइ-कुसुमदामेणं वा अवसेसं पुप्फविहिं पच्चक्खामि / इसके पश्चात् उसने पुष्प-विधि का परिमाण किया मैं श्वेत कमल तथा मालती के फूलों की माला के सिवाय सभी प्रकार के फूलों के धारण करने का परित्याग करता हूं। 31. तयाणंतरं च णं आभरणविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्य मट्ठ-कण्णेज्जएहि नाममुद्दाए य, अवसेसं आभरणविहिं पच्चक्खामि / तब उसने अाभरण-विधि का परिमाण किया___ मैं शुद्ध सोने के अचित्रित-सादे कुडल और नामांकित मुद्रिका--अंगूठी के सिवाय सब प्रकार के गहनों का परित्याग करता हूं। 32. तयाणंतरं च णं धूवविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ अगरुतुरुक्कधूवमादिहि, अवसेसं धूवविहिं पच्चक्खामि / तदनन्तर उसने धूपनविधि का परिमाण कियाअगर, लोबान तथा धूप के सिवाय मैं सभी धूपनीय वस्तुओं का परित्याग करता हूं। 33. तयाणंतरं च णं भोयणविहिपरिमाणं करेमाणे, पेज्जविहिपरिमाणं करेइ / नन्नस्थ एगाए कट्ठपेज्जाए, अवसेसं पेज्ज-विहिं पच्चक्खामि / तत्पश्चात् उसने भोजन-विधि के परिमाण के अन्तर्गत पेय-विधि का परिमाण किया__ मैं एक मात्र काष्ठ पेय-मूग का रसा अथवा घी में तले हुए चावलों से बने एक विशेष पेय के अतिरिक्त अवशिष्ट सभी पेय पदार्थों का परित्याग करता हूं। 34. तयाणंतरं च णं भक्खविहिपरिमाणं करेइ / नन्नत्य एगेहि घयपुग्णेहि खण्डखज्जएहि वा, अवसेसं भक्खविहिं पच्चक्खामि / उसके अनन्तर उसने भक्ष्य-विधि का परिमाण किया-- मैं घयपुण्ण [घृतपूर्ण]-घेवर, खंडखज्ज [खण्डखाद्य] खाजे, इन के सिवाय और सभी पकवानों का परित्याग करता हूं। 35. तयाणंतरं च णं ओदणविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ कलमसालि-ओदणेणं, अवसेसं ओदण-विहिं पच्चक्खामि / तब उसने प्रोदन विधि का परिमाण किया Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] [उपासकदशांगसूत्र कलम जाति के धान के चावलों के सिवाय मैं और सभी प्रकार के चावलों का परित्याग करता हूं। विवेचन उत्तम जाति के बासमती चावलों का संभवतः कलम एक विशेष प्रकार है / आनन्द विदेहउत्तर बिहार का निवासी या / आज की तरह तब भी संभवतः वहाँ चावल ही मुख्य भोजन था। यही कारण है कि खाने के अनाजों के परिमाण के सन्दर्भ में केवल ओदनविधि का ही उल्लेख पाया है, जिसका आशय है विभिन्न चावलों में एक विशेष जाति के चावल का अपवाद रखते हुए अन्यों का परित्याग करना / इससे यह अनुमान होता है कि तब वहाँ गेहूँ आदि का खाने में प्रचलन नहीं था या बहुत ही कम था। 36. तयाणंतरं च णं सूवविहिपरिमाणं करेइ / नन्नत्य कलायसूवेण वा, मुग्ग-माससूवेण वा, अवसेसं सूवविहिं पच्चक्खामि / तत्पश्चात् उसने सूपविधि का परिमाण--दाल के प्रयोग का सीमाकरण कियामटर, मूग और उडद की दाल के सिवाय मैं सभी दालों का परित्याग करता हूँ। 37. तयाणंतरं च णं घयविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ सारइएणं गोघयमंडेणं. अवसेसं धविहिं पच्चक्खामि / उसके बाद उसने घृतविधि का परिमाण किया--- शरद् ऋतु के उत्तम गो-घृत के सिवाय मैं सभी प्रकार के घृत का परित्याग करता हूं। विवेचन ___ अानन्द ने खाद्य, पेय, भोग्य, उपभोग्य तथा सेव्य-जिन-जिन वस्तुओं का अपवाद रखा, अर्थात् अपने उपयोग के लिए जिन वस्तुओं को स्वीकार किया, उन-उन वर्णनों को देखने से प्रतीत होता है कि उपादेयता, उत्तमता, प्रियता आदि की दृष्टि से उसने बहुत विज्ञता से काम लिया / अत्यन्त उपयोगी, स्वास्थ्य-वर्द्धक, हितावह एवं रुचि-परिष्कारक पदार्थ उसने भोगोपभोग में रखे / प्रस्तुत सूत्र के अनुसार प्रानन्द ने घृतों में केवल शरद् ऋतु के गो-घत सेवन का अपवाद रखा / इस सन्दर्भ में एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या प्रानन्द वर्ष भर शरद-ऋतु के ही गो-धृत का सेवन करता था ? उसने ताजे घी का अपवाद क्यों नहीं रखा? , वास्तव में बात यह है, रस-पोषण की दृष्टि से शरद् ऋतु का छहों ऋतुओं में असाधारण महत्त्व है / आयुर्वेद के अनुसार शरद् ऋतु में चन्द्रमा की किरणों से अमृत [जीवनरस] टपकता है। इसमें अतिरंजन नहीं है / शरद् ऋतु वह समय है, जो वर्षा और शीत का मध्यवर्ती है / इस ऋतु में वनौषधियों [जड़ी-बूटियों में, बनस्पतियों में, वृक्षों में, पौधों में, घास-पात में एक विशेष रस-संचार होता है। इसमें फलने वाली वनस्पतियां शक्ति-वर्द्धक, उपयोगी एवं स्वादिष्ट होती हैं / शरद् ऋतु का गो-घृत स्वीकार करने के पीछे बहुत संभव है, आनन्द की यही भावना रही हो / इस समय का Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [35 घास चरने वाली के धृत में गुणात्मकता की दृष्टि से विशेषता रहती है / आयुर्वेद यह भी मानता है कि एक वर्ष तक का पुराना घृत परिपक्व घृत होता है / यह स्वास्थ्य की दृष्टि से विशेष लाभप्रद एवं पाचन में हल्का होता है / ताजा घृत पाचन में भारी होता है। भाव-प्रकाश में घृत के सम्बन्ध में लिखा है- “एक वर्ष व्यतीत होने पर घत की संज्ञा प्राचीन हो जाती है / वैसा घृत त्रिदोष नाशक होता है--वात, पित्त कफ-तीनों दोषों का समन्वायक होता है / वह मूर्छा, कुष्ट, विष-विकार, उन्माद, अपस्मार तथा तिमिर [आँखों के आगे अंधेरी आना] इन दोषों का नाशक है।" भाव-प्रकाश के इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि एक वर्ष तक घृत अखाद्य नहीं होता। वह उत्तम खाद्य है / पोषक के साथ-साथ दोषनाशक भी है / यदि घृत को खूब गर्म करके छाछ आदि निकाल कर छान कर रखा जाय तो एक वर्ष तक उसमें दुर्गन्ध, दुःस्वाद आदि विकार उत्पन्न नहीं होते। औषधि के रूप में तो घृत जितना पुराना होता है, उतना ही अच्छा माना गया है / भावप्रकाश में लिखा है-- "घृत जैसे-जैसे अधिक पुराना होता है, वैसे-वैसे उसके गुण अधिक से अधिक बढ़ते जाते हैं।” कल्याणकघृत, महाकल्याणकघृत, लशुनाद्यघृत, पंचगव्यघृत, महापंचगव्यघृत, ब्राह्मीघृत, आदि जितने भी आयुर्वेद में विभिन्न रोगों को चिकित्सा हेतु धृत सिद्ध किए जाते हैं, उन में प्राचीन गो-घृत का ही प्रयोग किया जाता है, जैसे ब्राह्मीघृत के सम्बन्ध में चरक-संहिता में लिखा है ___ "ब्राह्मी के रस, वच, कूठ और शंखपुष्पी द्वारा सिद्ध पुरातन गो-धृत ब्राह्मीघृत कहा जाता है। यह उन्माद, अलक्ष्मी-कान्ति-विहीनता, अपस्मार तथा पाप-देह-कलुषता-इन रोगों को नष्ट करता है / "3 इस परिपार्श्व में चिन्तन करने से यह स्पष्ट होता है कि आनन्द वर्ष भर शरद् ऋतु के गोघृत का ही उपयोग करता था। आज भी जिनके यहाँ गोधन की प्रचुरता है, वर्ष भर घृत का संग्रह रखा जाता है / एक विशेष बात और है, वर्षा आदि अन्य ऋतुओं का धृत टिकाऊ भी नहीं होता, शरद् ऋतु का ही घृत टिकाऊ होता है / इस टिकाऊपन का खास कारण गाय का आहार है, जो शरद् ऋतु में अच्छी परिपक्वता और रस-स्निग्धता लिए रहता है। 1. वर्षादूर्वं भवेदाज्यं पुराणं तत् त्रिदोषनुत् / मूळकूष्टविषोन्मादापस्मारतिमिरापहम् / / ___-भावप्रकाश, घृतवर्ग 15 2. यथा यथाऽखिलं सपि: पुराणमधिकं भवेत् / तथा तथा गुणैः स्वः स्वैरधिकं तदुदाहृतम् / / -भावप्रकाश, घृतवर्ग 16 3. ब्राह्मीरसवचाकुष्ठशङ्खपुष्पीभिरेव च / पुराणं घृतमुन्मादालक्ष्म्यपस्मारपाप्मजित् // ...चरकसंहिता, चिकित्सास्थान 10.24 4. किन्हीं मनीषी ने दिन के विभाग विशेष को 'शरद' माना है और उस विभाग विशेष में निष्पन्न धी को 'शारदिक' घृत माना है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उपासकदशांगसूत्र 38. तयाणंतरं च णं सागविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्य वत्थुसाएण वा, तुबसाएण वा, सुत्थियसाएण वा, मंडुक्कियसाएण वा, अवसेसं सावविहिं पच्चक्खामि / तदनन्तर उसने शाकविधि का परिमाण किया बथुआ, लौकी, सुआपालक तथा भिडी-इन सागों के सिवाय और सब प्रकार के सागों का परित्याग करता हूं। 39. तयाणंतरं च णं माहुरयविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ एगेणं पालंगामहरएणं, अवसेसं माहुरयविहिं पच्चवखामि / / तत्पश्चात् उसने माधुरकविधि का परिमाण किया मैं पालंग माधुरक-शल्लकी [वृक्ष-विशेष] के गोंद से बनाए मधुर पेय के सिवाय अन्य सभी मधुर पेयों का परित्याग करता हूं।' 40. तयाणंतरं च णं जेमणविहिपरिमाणं करेइ / नन्नत्य सेहंबदालियंबेहि, अवसेसं जेमणविहिं पच्चक्खामि। उसके बाद उसने व्यंजनविधि का परिमाण किया__ मैं कांजी बड़े तथा खटाई पड़े मूग आदि की दाल के पकौड़ों के सिवाय सब प्रकार के व्यंजनों-चटकीले पदार्थों का परित्याग करता हूं। 41. तयाणंतरं च णं पाणियविहिपरिमाणं करेइ / नन्नत्थ एगेणं अंतलिक्खोदएणं, अवसेसं पाणियविहिं पच्चक्खामि / तत्पश्चात् उसने पीने के पानी का परिमाण किया मैं एक मात्र आकाश से गिरे--वर्षा के पानी के सिवाय अन्य सब प्रकार के पानी का परित्याग करता हूं। 42. तयाणंतरं च -णं मुहवासविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्य पंच-सोगंधिएणं तंबोलेणं, अवसेसं मुहवासविहिं पच्चक्खामि / तत्पश्चात् उसने मुखवासविधि का परिमाण किया पांच सुगन्धित वस्तुओं से युक्त पान के सिवाय मैं मुख को सुगन्धित करने वाले बाकी सभी . पदार्थों का परित्याग करता हूं। विवेचन __ वृत्तिकार प्राचार्य अभयदेव सूरि ने पांच सुगन्धित वस्तुओं में इलायची, लौंग, कपूर, दालचीनी तथा जायफल का उल्लेख किया है / ऐसा प्रतीत होता है, समृद्ध जन पान में इनका प्रयोग करते रहे हैं / सुगन्धित होने के साथ साथ स्वास्थ्य की दृष्टि से भी ये लाभकर हैं / 1. परम्परागत-अर्थ की अपेक्षा से माधुरकविधि का अर्थ ·फल विधि है जिसमें फल के साथ मेवे भी गर्भित हैं और पालंग का अर्थ लताजनित ग्राम है। किन्हीं ने इसका अर्थ खिरणी (रायण-फल) भी किया है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [37 अनर्थवण्ड-विरमण 43. तयाणंतरं च णं चउन्विहं अणट्ठादंडं पच्चक्खाइ। तं जहा- अवज्माणापरियं, पमायायरियं, हिंसप्पयाणं, पावकम्मोवएसे / तत्पश्चात् उसने चार प्रकार के अनर्थदण्ड-अपध्यानाचरित, प्रमादाचरित, हिंस्र-प्रदान तथा पापकर्मोपदेश का प्रत्याख्यान किया। विवेचन बिना किसी उद्देश्य के जो हिंसा की जाती है, उसका समावेश अनर्थदण्ड में होता है। यद्यपि हिंसा तो हिंसा ही है, पर जो लौकिक दृष्टि से आवश्यकता या प्रयोजनवश की जाती है, उसमें तथा निरर्थक की जाने वाली हिंसा में बड़ा भेद है। आवश्यकता या प्रयोजनवश हिंसा करने को जब व्यक्ति बाध्य होता है तो उसकी विवशता देखते उसे व्यावहारिक दृष्टि से क्षम्य भी माना जा सकता है पर जो प्रयोजन या मतलब के बिना हिंसा आदि का आचरण करता है, वह सर्वथा अनुचित है। इसलिए उसे अनर्थदंड कहा जाता है / वृत्तिकार आचार्य अभयदेव सूरि ने धर्म, अर्थ तथा काम रूप प्रयोजन के बिना किये जाने वाले हिंसापूर्ण कार्यों को अनर्थदंड कहा है / अनर्थदंड के अन्तर्गत लिए गए अपध्यानाचरित का अर्थ है-दुश्चिन्तन / दुश्चिन्तन भी एक प्रकार से हिंसा ही है / वह आत्मगुणों का घात करता है / दुश्चिन्तन दो प्रकार का है-पार्तध्यान तथा रौद्रध्यान / अभीप्सित वस्तु, जैसे धन-सम्पत्ति, संतति, स्वस्थता आदि प्राप्त न होने पर एवं दारिद्रय, रुग्णता, प्रियजन का विरह आदि अनिष्ट स्थितियों के होने पर मन में जो क्लेशपूर्ण विकृत चिन्तन होता है, वह प्रार्तध्यान है। क्रोधावेश, शत्रु-भाव और वैमनस्य आदि से प्रेरित होकर दूसरे को हानि पहुँचाने आदि की बात सोचते रहना रौद्रध्यान है / इन दोनों तरह से होने वाला दुश्चिन्तन अपध्यानाचरित रूप अनर्थदंड है। प्रमादाचरित-अपने धर्म, दायित्व व कर्तव्य के प्रति अजागरूकता प्रमाद है। ऐसा प्रमादी व्यक्ति अक्सर अपना समय दूसरों की निन्दा करने में, गप्प मारने में, अपने बड़प्पन की शेखी बघारते रहने में, अश्लील बातें करने में बिताता है / इनसे संबंधित मन, वचन तथा शरीर के विकार प्रमादाचरित में आते हैं। हिंस्र-प्रदान--हिंसा के कार्यों में साक्षात् सहयोग करना, जैसे चोर, डाक तथा शिकारी आदि को हथियार देना, आश्रय देना तथा दूसरी तरह से सहायता करना / ऐसा करने से हिंसा को प्रोत्साहन और सहारा मिलता है, अतः यह अनर्थदंड है। पापकर्मोपदेश औरों को पाप-कार्य में प्रवृत्त होने में प्रेरणा, उपदेश या परामर्श देना। उदाहरणार्थ, किसी शिकारी को यह बतलाना कि अमुक स्थान पर शिकार-योग्य पशु-पक्षी उसे बहुत प्राप्त होंगे, किसी व्यक्ति को दूसरों को तकलीफ देने के लिए उत्तेजित करना, पशु-पक्षियों को पीडित करने के लिए लोगों को दुष्प्रेरित करना-इन सबका पाप-कमोपदेश में समावेश है। अनर्थदंड में लिए गए ये चारों प्रकार के दुष्कार्य ऐसे हैं, जिनका प्रत्येक धर्मनिष्ठ, शिष्ट व Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] [उपासकदशांगसूत्र सभ्य नागरिक को परित्याग करना चाहिए। अध्यात्म-उत्कर्ष के साथ-साथ उत्तम और नैतिक नागरिक जीवन की दृष्टि से भी यह बहुत ही आवश्यक है / अतिचार सम्यक्त्व के अतिचार 44. इह खलु आणंदा ! इ समणे भगवं महावीरे आणंदं समणोवासगं एवं वयासी-एवं खलु, आणंदा ! समणोवासएणं अभिगयजीवजीवेणं जाव (उवलद्धपुण्णपावेणं, आसव-संवर-निज्जर-किरियाअहिगरण-बंध-मोक्ख-कुसलेणं, असहेज्जेणं, देवासुर-णाग-सुवण्णजक्ख-रक्खस-किण्णर-किंपुरिस-गरुलगंधब्व-महोरगाइएहि देवगणेहि निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जेणं) सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा / तं जहा–संका, कंखा, विइगिच्छा, परपासंडपसंसा, परपासंडसंथवे। __ भगवान् महावीर ने श्रमणोपासक आनन्द से कहा-आनन्द ! जिसने जीव, अजीव आदि पदार्थों के स्वरूप को यथावत् रूप में जाना है, [पुण्य और पाप का भेद समझा है, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध तथा मोक्ष को भलीभाँति समझा है, जो किसी दूसरे की सहायता का अनिच्छुक है, देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गन्धर्व, महोरग आदि देवताओं द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन से अनतिक्रमणीय है--विचलित नहीं किया जा सकता है] उसको सम्यक्त्व के पांच प्रधान अतिचार जानने चाहिए और उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे अतिचार इस प्रकार हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, पर-पाषंड-प्रशंसा तथा पर-पाषंड-संस्तव / विवेचन __ व्रत स्वीकार करना उतना कठिन नहीं है, जितना दृढता से पालन करना / पालन करने में व्यक्ति को क्षण-क्षण जागरूक रहना होता है / बाधक स्थिति के उत्पन्न होने पर भी अविचल रहना होता है / लिये हुए व्रतों में स्थिरता बनी रहे, उपासक के मन में कमजोरी न आए, इसके लिए अतिचार-वर्जन के रूप में जैन साधना-पद्धति में बहुत ही सुन्दर उपाय बतलाया गया है। अतिचार का अर्थ व्रत में किसी प्रकार की दुर्बलता, स्खलना या आंशिक मलिनता पाना है। यदि अतिचार को उपासक लांघ नहीं पाता तो वह अतिचार अनाचार में बदल जाता है। अनाचार का अर्थ है, व्रत का टूट जाना / इसलिए उपासक के लिए आवश्यक है कि वह अतिचारों को यथावत् रूप में समझे तथा जागरूकता और आत्मबल के साथ उनका वर्जन करे। उपासक के लिए सर्वाधिक महत्त्व की वस्तु है सम्यक्त्व-यथार्थ तत्त्वश्रद्धान- सत्य के प्रति सही प्रास्था / यदि उपासक सम्यक्त्व को खो दे तो फिर आगे बच ही क्या पाए? अास्था में सत्य का स्थान जब असत्य ले लेगा तो सहज ही पाचरण में, जीवन में विपरीतता पल्लवित होगी। इसलिए भगवान् महावीर ने श्रमणोपासक आनन्द को सबसे पहले सम्यक्त्व के अतिचार बतलाए और उनका आचरण न करने का उपदेश दिया। सम्यक्त्व के पांच अतिचारों का संक्षेप में विवेचन इस प्रकार हैशंका-सर्वज्ञ द्वारा भाषित आत्मा, स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप, बन्ध, मोक्ष प्रादि तत्त्वों में सन्देह Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] होना शंका है। मन में सन्देह उत्पन्न होने पर जब आस्था डगमगा जाती है, विश्वास हिल जाता है तो उसे शंका कहा जाता है / शंका होने पर जिज्ञासा का भाव हलका पड़ जाता है। संशय जिज्ञासामूलक है / विश्वास या आस्था को दृढ करने के लिए व्यक्ति जब किसी तत्त्व या विषय के बारे में स्पष्टता हेतु और अधिक जानना चाहता है, प्रश्न करता है, उसे शंका नहीं कहा जाता, क्योंकि उससे वह अपना विश्वास दृढ से दृढतर करना चाहता है। जैन आगमों में जब भगवान महावीर के साथ प्रश्नोत्तरों का क्रम चला है, वहाँ प्राश्निक के मन में संशय उत्पन्न होने की बात कही गई है / भगवान् महावीर के प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गौतम के प्रश्न तथा भगवान के उत्तर सारे पागम वाङमय में बिखरे पड़े हैं / जहाँ गौतम प्रश्न करते हैं, वहाँ सर्वत्र उनके मन के संशय उत्पन्न होने का उल्लेख है। साथ ही साथ उन्हें परम श्रद्धावान् भी कहा गया है / गौतम का संशय जिज्ञासा-मूलक था। एक सम्यक्त्वी के मन में श्रद्धापूर्ण संशय होना दोष नहीं है, पर उसे अश्रद्धामूलक शंका नहीं होनी चाहिए / कांक्षा-साधारणतया इसका अर्थ इच्छा को किसी ओर मोड़ देना या झुकना है। प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ बाहरी दिखावे या आडम्बर या दूसरे प्रलोभनों से प्रभावित होकर किसी दूसरे मत की ओर झुकना है / बाहरी प्रदर्शन से सम्यक्त्वी को प्रभावित नहीं होना चाहिए। विचिकित्सा--मनुष्य का मन बड़ा चंचल है / उसमें तरह-तरह के संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं। कभी-कभी उपासक के मन में ऐसे भाव भी उठते हैं-वह जो धर्म का अनुष्ठान करता है, तप आदि का आचरण करता है, उसका फल होगा या नहीं ? ऐसा सन्देह विचिकित्सा कहा गया है / मन में इस प्रकार का सन्देहात्मक भाव पैदा होते ही मनुष्य की कार्य-गति में सहज ही शिथिलता आ जाती है, अनुत्साह बढ़ने लगता है। कार्य-सिद्धि में निश्चय ही यह स्थिति बड़ी बाधक है / सम्यक्त्वी को इससे बचना चाहिए। पर-पाषंड-प्रशंसा-भाषा-विज्ञान के अनुसार किसी शब्द का एक समय जो अर्थ होता है, आगे चलकर भिन्न परिस्थितियों में कभी-कभी वह सर्वथा बदल जाता है / यही स्थिति 'पाषंड' शब्द के साथ है। आज प्रचलित पाखंड या पाखंडी शब्द इसी का रूप है पर तब और अब के अर्थ में सर्वथा भिन्नता है / भगवान महावीर के समय में और शताब्दियों तक पाषंडी शब्द अन्य मत के व्रतधारक अनुयायियों के लिए प्रयुक्त होता रहा / आज पाखड शब्द निन्दामूलक अर्थ में है। ढोगों को पाखडी ता है। प्राचीन काल में पाषंड शब्द के साथ निन्दावाचकता नहीं जुड़ी थी। अशोक के शिलालेखों में भी अनेक स्थानों पर इस शब्द का अन्य मतावलम्बियों के लिए प्रयोग हुआ है। पर-पाषंड-प्रशंसा सम्यक्त्व का चौथा अतिचार है, जिसका अभिप्राय है, सम्यक्त्वी को अन्य मतावलम्वी का प्रशंसक नहीं होना चाहिए / यहाँ प्रयुक्त प्रशंसा, व्यावहारिक शिष्टाचार के अर्थ में नहीं है, तात्त्विक अर्थ में है / अन्य मतावलम्बी के प्रशंसक होने का अर्थ है, उसके धामिक सिद्धान्तो का सम्मान / यह तभी होता है, जब अपने अभिमत सिद्धान्तों में विश्वास की कमी आ जाय / इसे दूसरे शब्दों में कहा जाय तो यह विश्वास में शिथिलता होने का द्योतक है / सोच समझ कर अ किये गए विश्वास पर व्यक्ति को दृढ रहना ही चाहिए / इस प्रकार के प्रशंसा आदि कार्यों से निश्चय ही विश्वास की दृढता व्याहत होती है। इसलिए यह संकीर्णता नहीं है, आस्था की पुष्टि का एक उपयोगी उपाय है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40] [उपासकदशांगसूत्र पर-पाषंड-संस्तव-संस्तव का अर्थ घनिष्ठ सम्पर्क या निकटतापूर्ण परिचय है। परमतावम्बी पाषंडियों के साथ धार्मिक दृष्टि से वैसा परिचय अथवा सम्पर्क उपासक के लिए उपादेय नहीं है / इससे उसकी आस्था में विचलन पैदा होने की आशंका रहती है। अहिंसा-व्रत अतिचार 45. तयाणंतरं च णं थूलगस्स पाणाइवायवेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा / तं जहाँ-बंधे, बहे, छवि-च्छेए, अइभारे, भत्त-पाण-वोच्छए। इसके बाद श्रमणोपासक को स्थूल-प्राणातिपातविरमण व्रत के पांच प्रमुख अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे इस प्रकार हैं बन्ध, वध, छविच्छेद, अतिभार, भक्त-पान-व्यवच्छेद / विवेचन बन्ध- इसका अर्थ बांधना है / पशु आदि को इस प्रकार बांधना, जिससे उनको कष्ट हो, बन्ध में आता है / व्याख्याकारों ने दास आदि को बांधने की भी चर्चा की है। उन्हें भी इस प्रकार बांधना, जिससे उन्हें कष्ट हो, इस अतिचार में शामिल है। दास आदि को बांधने का उल्लेख भारत के उस समय की ओर संकेत करता है, जब दास और दासी पशु तथा अन्यान्य अधिकृत सामग्री की तरह खरीदे-बेचे जाते थे / स्वामी का उन पर पूर्ण अधिकार होता था। पशुओं की तरह वे जीवन भर के लिए उनकी सेवा करने को बाध्य होते थे। शास्त्रों में बन्ध दो प्रकार के बतलाए गए हैं-एक अर्थ-बन्ध तथा दूसरा अनर्थ-बन्ध / किसी प्रयोजन या हेतु से बांधना अर्थ-बन्ध में आता है, जैसे किसी रोग की चिकित्सा के लिए बांधना पड़े या किसी आपत्ति से बचाने के लिए बांधना पड़े। प्रयोजन या कारण के बिना बांधना अनर्थ-बन्ध है, जो सर्वथा हिंसा है / यह अनर्थ-दंड-विरमण नामक आठवें व्रत के अन्तर्गत अनर्थ-दंड में जाता है। प्रयोजनवश किए जाने वाले बन्ध के साथ क्रोध, क्रूरता, द्वेष जैसे कलुषित भाव नहीं होने चाहिए। यदि होते हैं तो वह अतिचार है। व्याख्याकारों ने अर्थ-बन्ध को सापेक्ष और निरपेक्ष-दो भेदों में बांटा है। सापेक्षबन्ध वह है, जिससे छूटा जा सके, उदाहरणार्थ-कहीं आग लग जाय, वहाँ पशु बंधा हो, वह यदि हलके रूप में बंधा होगा तो वहाँ से छट कर बाहर जा सकेगा / ऐसा बन्ध अतिचार में नहीं आता। पर वह बन्ध, जिससे भयजनक स्थिति उत्पन्न होने पर प्रयत्न करने पर भी छूटा न जा सके, निरपेक्ष बन्ध है / वह अतिचार में आता है / क्योंकि छूट न पाने पर बंधे हुए प्राणी को घोर कष्ट होता है, उसका मरण भी हो सकता है। वध- साधारणतया वध का अर्थ किसी को जान से मारना है। पर यहाँ वध इस अर्थ में प्रयुक्त नहीं है / क्योंकि किसी को जान से मारने पर तो अहिंसा व्रत सर्वथा खंडित ही हो जाता है। वह तो अनाचार है / यहाँ वध घातक प्रहार के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, ऐसा प्रहार जिससे प्रहृत व्यक्ति के अंग, उपांग को हानि पहुँचे / छविच्छेद-~छवि का अर्थ सुन्दरता है। इसका एक अर्थ अंग भी किया जाता है / छविच्छेद का तात्पर्य किसी की सुन्दरता, शोभा मिटा देने अर्थात् अंग-भंग कर देने से है / किसी का कोई अंग Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ; प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [41 काट डालने से वह सहज ही छविशून्य हो जाता है / क्रोधावेश में किसी का अंग काट डालना इस अतिचार में शामिल है / मनोरंजन के लिए कुत्ते आदि पालतू पशुत्रों की पूछ, कान आदि काट देना भी इस अतिचार में आता है। अतिभार-पशु, दास आदि पर उनकी ताकत से ज्यादा बोझ लादना अतिभार में आता है। आज की भाषा में नौकर, मजदूर, अधिकृत कर्मचारी से इतना ज्यादा काम लेना, जो उसकी शक्ति से बाहर हो, अतिभार ही है / भक्त-पान-व्यवच्छेद- इसका अर्थ खान-पान में बाधा या व्यवधान डालना है। जैसे अपने आश्रित पशु को यथेष्ट चारा एवं पानी समय पर नहीं देना, भूखा-प्यासा रखना / यही बात दासदासियों पर भी लागू होती है। उनकी भी खान-पान की व्यवस्था में व्यवधान या विच्छेद पैदा करना, इस अतिचार में शामिल है। आज के युग की भाषा में अपने नौकरों तथा कर्मचारियों आदि को समय पर वेतन न देना, वेतन में अनुचित रूप में कटौती कर देना, किसी की आजीविका में बाधा पैदा कर देना, सेवकों तथा आश्रितों से खूब काम लेना, पर उसके अनुपात में उचित व पर्याप्त भोजन न देना, वेतन न देना, इस अतिचार में शामिल है / ऐसा करना बुरा कार्य है, जनता के जीवन के साथ खिलवाड़ है। इन अतिचारों में पशुओं की विशेष चर्चा पाने से स्पष्ट है कि तब पशु-पालन एक गृहस्थ के जीवन का आवश्यक भाग था। घर, खेती तथा व्यापार के कार्यों में पशु का विशेष उपयोग था। आज सामाजिक स्थितियाँ बदल गई हैं। निर्दयता, क्रूरता, अत्याचार आदि अनेक नये रूपों में उभरे हैं। इसलिए धर्मोपासक को अपनी दैनन्दिन जीवन-चर्या को बारीकी से देखते हुए इन अतिचारों के मूल भाव को ग्रहण करना चाहिए और निर्दयतापूर्ण कार्यों का वर्जन करना चाहिए। सत्यव्रत के अतिचार 46. तयाणंतरं च णं थूलगस्स मुसावायवेरमणस्स पंच अइयारा जाणियव्या न समायरियव्वा / तं जहा–सहसा-अब्भक्खाणे, रहसा-अभक्खाणे, सदारमंतभेए, मोसोवएसे, कूडलेहकरणे। तत्पश्चात् स्थूल मृषावादविरमण व्रत के पांच अतिचारों को जानना, चाहिए, उनका आचरण - नहीं करना चाहिए / वे इस प्रकार हैं सहसा-अभ्याख्यान, रहस्य-अभ्याख्यान, स्वदारमंत्रभेद, मृषोपदेश, कूटलेखकरण। . विवेचन सहसा-अभ्याख्यान--किसी पर एकाएक बिना सोचे-समझे झूठा आरोप लगा देना / रहस्य-अभ्याख्यान-किसी के रहस्य-गोपनीय बात को प्रकट कर देना / स्वदारमंत्रभेद-अपनी पत्नी की गुप्त बात को बाहर प्रकट कर देना। मृषोपदेश—किसी को गलत राय या असत्यमूलक उपदेश देना / कूटलेखकरण-खोटा या झूठा लेख लिखना, दूसरे को ठगने या धोखा देने के लिए झूठे, जाली कागजात तैयार करना / Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] [उपासकदशांगसूत्र सहसा अभ्याख्यान-सहसा का अर्थ एकाएक है। जब कोई बात बिना सोचे-विचारे भावुकतावश झट से कही जाती है, वहाँ इस शब्द का प्रयोग होता है / ऐसा करने में विवेक के बजाय भावावेश अधिक काम करता है / सहसा अभ्याख्यान का अर्थ है किसी पर एकाएक बिना सोचे-विचारे दाषारोपण करना / यदि यह दोषारोपण दुर्भावना, विचार और संक्लेशपूर्वक होता है तो अतिचार नहीं रहता, अनाचार हो जाता है / वहाँ उपासक का व्रत भग्न हो जाता है / सहसा बिना विचारे ऐसा करने में कुछ हलकापन है / पर, उपासक को रोष या भावावेशवश भी इस प्रकार किसी पर दोषारोपण नहीं करना चाहिए / इससे व्रत में दुर्बलता या शिथिलता आती है / रहस्य-अभ्याख्यान-रहस् का अर्थ एकान्त है। उसी से रहस्य शब्द बना है, जिसका भाव एकान्त की बात या गुप्त बात है। रहस्य-अभ्याख्यान का अभिप्राय किसी गुप्त बात को अचानक प्रकट कर देना है / उपासक के लिए यह करणीय नहीं है। ऐसा करने से उसके व्रत में शिथिलता आती है / रहस्य-अभ्याख्यान का एक और अर्थ भी किया जाता है, तदनुसार किसी पर रहस्य-गुप्त रूप में षड्यंत्र आदि करने का दोषारोपण इसका तात्पर्य है / जैसे कुछ व्यक्ति एकान्त में बैठे अापस में बातचीत कर रहे हों। कोई मन में सशंक होकर एकाएक उन पर आरोप लगा दे कि वे अमुक षड्यन्त्र र रहे हैं। इसका भी इस अतिचार में समावेश है। यहाँ भी यह ध्यान देने योग्य है कि जब तक सहसा, अचानक या बिना विचारे ऐसा किया जाता है तभी तक यह अतिचार है / यदि मन में दुर्भावनापूर्वक सोच-विचार के साथ ऐसा आरोप लगाया जाता है तो वह अनाचार हो जाता है, व्रत खंडित हो जाता है। ___ स्वदारमंत्रभेद-वैयक्तिकता, पारिवारिकता तथा सामाजिकता की दृष्टि से व्यक्ति के संबंध एवं पारस्परिक बातें भिन्नता लिए रहती हैं / कुछ बातें ऐसी होती हैं, जो दो ही व्यक्तियों तक सीमित रहती हैं ; कुछ ऐसी होती हैं, जो सारे समाज में प्रसारित की जा सकती हैं। वैयक्तिक संबंधों में पति संबंध सबसे अधिक घनिष्ठ। उनकी अपनी गप्त मंत्रणाएं, विचारणाएं आदि भी होती हैं / यदि पति अपनी पत्नी की ऐसी किसी गुप्त बात को, जो प्रकटनीय नहीं है, प्रकट कर दे तो वह स्वदार-मंत्र-भेद अतिचार में आता है। व्यावहारिक दृष्टि से भी ऐसा करना उचित नहीं है। जिसकी बात प्रकट की जाती है, अपनी गोपनीयता को उद्घाटित जान उसे दुःख होता है, अथवा अपनी दुर्बलता को प्रकटित जान उसे लज्जित होना पड़ता है / मृषोपदेश -झूठी राय देना या झूठा उपदेश देना मृषोपदेश में आता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-एक ऐसी बात जिसकी सत्यता, असत्यता, हितकरता, अहितकरता आदि के विषय में व्यक्ति को स्वयं ज्ञान नहीं है, पर वह है वास्तव में असत्य। उसकी वह दूसरों को राय देता है, वैसा करने का उपदेश देता है, यह इस अतिचार में आता है। एक ऐसा व्यक्ति है, जो किसी बात की असत्यता या हानिप्रदता जानता है, पर उसके बावजूद वह औरों को वैसा करने की प्रेरणा करता है, उपदेश देता है तो यह अनाचार है। इसमें व्रत भग्न हो जाता है। क्योंकि वहाँ प्रेरणा या उपदेश करने वाले की नीयत सर्वथा अशुद्ध है / एक ऐसी स्थिति होती है, जिसमें एक व्यक्ति किसी असत्य या अहितकर बात को भी सत्य या हितकर मानता है। हित-बुद्धि से दूसरे को उधर प्रवृत्त करता है। बात तो वस्तुतः असत्य है, पर उस व्यक्ति की नीयत अशुद्ध नहीं है, इसलिए यह दोष अतिचार या अनाचार कोटि में नहीं पाता। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] कूटलेखकरण--झूठे लेख या दस्तावेज लिखना, झूठे हस्ताक्षर करना आदि कूटलेखकरण में आते हैं। ऐसा करना अतिचार तभी है, यदि उपासक असावधानी से, अज्ञानवश या अनिच्छापूर्वक ऐसा करता है / यदि कोई जान-बूझ कर दूसरे को धोखा देने के लिए जाली दस्तावेज तैयार करे, जाली मोहर या छाप लगाए, जाली हस्ताक्षर करे तो वह अनाचार में चला जाता है और व्रत खंडित हो जाता है। अस्तेय-वत के अतिचार 47. तयाणंतरं च णं थलगस्स अदिग्णादाणवेरमणस्स पंच अइयारा जाणियन्वा न समायरियव्वा / तं जहा-तेणाहडे, तक्करप्पओगे, विरुद्ध-रज्जाइक्कमे, कूडतुल्लकूडमाणे, तप्पडिरूवगववहारे। तदनन्तर स्थूल अदत्तादानविरमण-व्रत के पाँच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे इस प्रकार हैं स्तेनाहृत, तस्करप्रयोग, विरुद्धराज्यातिक्रम, कूटतुलाकूटमान, तत्प्रतिरूपकव्यवहार / विवेचन __ स्तेनाहृत--स्तेन का अर्थ चोर होता है, प्राहृत का अर्थ उस द्वारा चुरा कर लाई हुई वस्तु है / ऐसी वस्तु को लेना, खरीदना, रखना। तस्करप्रयोग-अपने व्यावसायिक कार्यों में चोरों का उपयोग करना। विरुद्धराज्यातिक्रम—विरोधवश अपने देश से इतर देशों के शासकों द्वारा प्रवेश निषेध की निर्धारित सीमा लांघना, दूसरे राज्यों में प्रवेश करना / इसका एक दूसरा अर्थ भी किया जाता है, जिसके अनुसार राज्य-विरुद्ध कार्य करना इसके अन्तर्गत आता है। कूटतुलाकूटमान--तोलने और मापने में झूठ का प्रयोग अर्थात् देने में कम तोलना या मापना, लेने में ज्यादा तोलना या मापना। तत्प्रतिरूपकव्यवहार-इसका शब्दार्थ कूट-तुला-कूटमान जैसा व्यवहार है, अर्थात् व्यापार में अनैतिकता व असत्याचरण करना-जैसे अच्छी वस्तु में घटिया वस्तु मिला देना, नकली को असली बतलाना आदि / स्वदारसन्तोष व्रत के अतिचार 48. तयाणंतरं च णं सदार-संतोसिए पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा / तं जहा-इत्तरियपरिग्गहियागमणे, अपरिग्गहियागमणे, अणंगकीडा, परविवाहकरणे, कामभोगतिव्वाभिलासे। तदनन्तर स्वदारसंतोष-व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे अतिचार इस प्रकार हैं--- ___ इत्वरिकपरिगृहीतागमन, अपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीडा, पर-विवाहकरण तथा कामभोगतीवाभिलाष / Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44) [उपासकदशांगसूत्र विवेचन इत्वरिकपरिगृहीतागमन--इत्वरिक का अर्थ अस्थायी, अल्पकालिक या चला जाने वाला है। जो स्त्री कुछ समय के लिए किसी पुरुष के साथ रहती है और फिर चली जाती है, पर जितने समय रहती है, उसी की पत्नी के रूप में रहती है और किसी पुरुष के साथ उसका यौन सम्बन्ध नहीं रहता, उसे इत्वरिका कहा जाता था। यों कुछ समय के लिए पत्नी के रूप में परिगृहीत या स्वीकृत स्त्री के साथ सहवास करना / इत्वरिका का एक अर्थ अल्पवयस्का भी किया गया है / तदनुसार छोटी आयु की पत्नी के साथ सहवास करना / ये इस व्रत के अतिचार हैं / ये हीन कामुकता के द्योतक हैं / इससे अब्रह्मचर्य को प्रोत्साहन मिलता है। अपरिगृहीतागमन-अपरिगृहीता का तात्पर्य उस स्त्री से है, जो किसी के भी द्वारा पत्नी रूप में परिगृहीत या स्वीकृत नहीं है, अथवा जिस पर किसी का अधिकार नहीं है। इसमें वेश्या आदि का समावेश होता है / इस प्रकार की स्त्री के साथ सहवास करना इस व्रत का दूसरा अतिचार है / ये दोनों अतिचार अतिक्रम आदि की अपेक्षा से समझने चाहिए, अर्थात् अमुक सीमा तक ही ये अतिचार हैं। उस सीमा का उल्लंघन होने पर अनाचार बन जाते हैं।' अनंग-क्रीडा-कामावेशवश अस्वाभाविक काम-क्रीडा करना / इसके अन्तर्गत समलैंगिक संभोग, अप्राकृतिक मैथुन, कृत्रिम कामोपकरणों से विषय-वासना शान्त करना आदि समाविष्ट हैं / चारित्रिक दृष्टि से ऐसा करना बड़ा हीन कार्य है। इससे कुत्सित काम और व्यभिचार को पोषण मिलता है / यह इस व्रत का तीसरा अतिचार है। पर-विवाह-करण-जैनधर्म के अनुसार उपासक का लक्ष्य ब्रह्मचर्य-साधना है। विवाह तत्त्वतः आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन की दुर्बलता है। क्योंकि हर कोई संपूर्ण रूप में ब्रह्मचारी रह नहीं सकता / गृही उपासक का यह ध्येय रहता है कि वह अब्रह्मचर्य से उत्तरोत्तर अधिकाधिक मुक्त होता जाय और एक दिन ऐसा आए कि वह सम्पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का प्राराधक बन जाय / अतः गहस्थ को ऐसे कार्यों से बचना चाहिए, जो ब्रह्मचर्य के प्रतिगामी हों / इस दृष्टि से इस अतिचार की परिकल्पना है / इसके अनुसार दूसरों के वैवाहिक संबंध करवाना इस अतिचार में आता है / एक गृहस्थ होने के नाते अपने घर या परिवार के लड़के-लड़कियों के विवाहों में तो उसे सक्रिय और प्रेरक रहना ही होता है और वह अनिवार्य भी है, पर दूसरों के बैवाहिक संबंध करवाने में उसे उत्सुक और प्रयत्नशील रहना ब्रह्मचर्य-साधना की दृष्टि से उपयुक्त नहीं है / वैसा करना इस व्रत का चौथा अतिचार है / किन्हीं-किन्हीं प्राचार्यों ने अपना दूसरा विवाह करना भी इस अतिचार में ही माना है। व्यावहारिक दृष्टि से भी दूसरों के इन कार्यों में पड़ना ठीक नहीं है / उदाहरणार्थ, कहीं कोई व्यक्ति किन्हीं के वैवाहिक संबंध करवाने में सहयोगी है, वह संबंध हो जाय / संयोगवश उस संबंध का निर्वाह ठीक नहीं हो, अथवा अयोग्य संबंध हो जाय तो संबंध करवाने वाले को भी उलाहना सहना होता है / संबंधित लोग प्रमुखतः उसी को कोसते हैं कि इसके कारण यह अवांछित और दु:खद सम्बन्ध हुा / व्रती श्रावक को इससे बचना चाहिए। 1. अतिचारता चास्यातिक्रमादिभिः / अभयदेवकृतटीका / Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [45 काम-भोगतीवाभिलाष-नियंत्रित और व्यवस्थित काम-सेवन मानव की आत्म-दुर्बलता के कारण होता है। उस आवश्यकता की पूर्ति तक व्रत दूषित नहीं होता है, परन्तु उसे काम की तीव्र अभिलाषा या उद्दाम वासना से ग्रस्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि उससे व्रत का उल्लंघन हो सकता है और मर्यादा भंग हो सकती है तथा अन्य अतिचारों-अनाचारों में प्रवृत्ति हो सकती है। तीव्र वैषयिक वासनावश कामोद्दीपक, बाजीकरण औषधि, मादक द्रव्य आदि के सेवन द्वारा व्यक्ति वैसा न करे / चारित्रिक दृष्टि से यह बहुत आवश्यक है / वैसा करना इस व्रत का पांचवां अतिचार है, जिससे उपासक को सर्वथा बचते रहना चाहिए। इच्छा-परिमाणवत के अतिचार 49. तयाणंतरं च णं इच्छा-परिमाणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियन्वा, न समायरियव्वा / तं जहा-खेत्त-वत्थु-पमाणाइक्कमे, हिरण्ण-सुवण्णपमाणाइक्कमे, दुपय-चउप्पयपमाणाइक्कमे, धण-धन्नपमाणाइक्कमे, कुवियपमाणाइक्कमे / श्रमणोपासक को इच्छा-परिमाण-व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे इस प्रकार हैं क्षेत्रवास्तु-प्रमाणातिक्रम, हिरण्यस्वर्ण-प्रमाणातिक्रम, द्विपद-चतुष्पद-प्रमाणातिक्रम, धनधान्य-प्रमाणातिक्रम, कुप्य-प्रमाणातिक्रम। विवेचन धन, वैभव, संपत्ति का सांसारिक जीवन में एक ऐसा आकर्षण है कि समझदार और विवेकशील व्यक्ति भी उसकी मोहकता में फंसा रहता है / इच्छा-परिमाण-व्रत उस मोहकता से छुटकारा दिलाने का मार्ग है / व्यक्ति सांपत्तिक संबंधों को क्रमश: सीमित करता जाय, यही इस व्रत का लक्ष्य है / इस व्रत के जो अतिचार बतलाए गए हैं, उनका सेवन न करना व्यक्ति को इच्छाओं के सीमाकरण की विशेष प्रेरणा देता है। क्षेत्र-वास्त-प्रमाणातिक्रम-क्षेत्र का अर्थ खेती करने की भूमि है। उपासक व्रत लेते समय जितनी भमि अपने लिए रखता है, उसका अतिक्रमण वह न करे / वास्तु वित्थ] का के मकान, बगीचे आदि हैं / व्रत लेते समय श्रावक इनकी भी सीमा करता है / इन सीमाओं को लांघ जाना इस व्रत का अतिचार है। हिरण्य-स्वर्ण-प्रमाणातिक्रम-व्रत लेते समय उपासक सोना, चांदी आदि बहुमूल्य धातुओं का अपने लिए सीमाकरण करता है, उस सीमाकरण को लांघ जाना इस व्रत का अतिचार है / मोहर, रुपया आदि प्रचलित सिक्के भी इसी में आते हैं। द्विपद-चतुष्पद-प्रमाणातिक्रम-द्विपद-दो पैर वाले--मनुष्य-दास-दासी, नौकर-- नौकरानियां तथा चतुष्पद-चार पैर वाले--पशु; व्रत स्वीकार करते समय इनके संदर्भ में किये गए सीमाकरण का लंघन करना इस अतिचार में शामिल है / जैसा कि पहले सूचित किया गया है, उन दिनों दास-प्रथा का इस देश में प्रचलन था इसलिए गाय, बैल, भैस आदि पशुओं की तरह दास, दासी भी स्वामी की सम्पत्ति होते थे। रक Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उपासकदशांगसूत्र धन-धान्यप्रमाणातिक्रम-मणि, मोती, हीरे, पन्ने आदि रत्न तथा खरीदने-बेचने की वस्तुओं को यहाँ धन कहा गया है / चावल, गेहूँ, जौ, चने आदि अनाज धान्य में आते हैं / धन एवं धान्य के परिमाण को लांघना इस व्रत का अतिचार है / / कुप्यप्रमाणातिक्रम-कूप्य का तात्पर्य घर का सामान है, जैसे कपड़े, खाट, आसन, बिछौने, फर्नीचर आदि / इस संबंध में की गई सीमा का लंघन इस व्रत का अतिचार है। यहाँ यह स्मरणीय है कि यह उल्लंघन जब अबुद्धिपूर्वक होता है, अर्थात् वास्तव में उल्लंघन तो होता हो किन्तु व्रतधारक ऐसा समझता हो कि उल्लंघन नहीं हो रहा है, तभी तक वह अतिचार है / जानबूझ कर मर्यादा का अतिक्रमण करने पर अनाचार हो जाता है / दिक्षित के अतिचार 50. तयाणंतरं च णं दिसिब्वयस्स पंच अइयारा जाणियब्वा, न समायरियव्वा / तं जहा--- उड्ढदिसिपमाणाइक्कमे, अहोदिसिपमाणाइक्कमे, तिरियदिसिपमाणाइक्कमे, खेतवुड्ढी, सइअंतरद्धा। तदनन्तर दिग्व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए। उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे इस प्रकार हैं ऊर्ध्वदिक्-प्रमाणातिक्रम, अधोदिक्-प्रमाणातिक्रम, तिर्यक्दिक्-प्रमाणातिक्रम, क्षेत्र-वृद्धि, स्मृत्यन्तर्धान। विवेचन ऊर्ध्वदिक-प्रमाणातिक्रम-ऊर्ध्व दिशा-ऊंचाई की ओर जाने को मर्यादा का अतिक्रमण, अधोदिक्-प्रमाणातिक्रम-नीचे की ओर कुए, खदान आदि में जाने की मर्यादा का अतिक्रमण, तिर्यकदिप्रमाणातिक्रम-तिरछी दिशाओं में जाने की मर्यादा का अतिक्रमण, क्षेत्र-वृद्धि-व्यापार, यात्रा प्रादि के लिए की गई क्षेत्रमर्यादा का अतिक्रमण, स्मृत्यन्तर्धान अपने द्वारा की गई दिशांत्रों आदि की मर्यादा को स्मृति में न रखना—ये इस व्रत के अतिचार हैं। व्रतग्रहण के प्रसंग में यद्यपि दिशाव्रत और शिक्षावतों के ग्रहण करने का उल्लेख नहीं है / तब भी इन व्रतों का ग्रहण समझ लेना चाहिए, क्योंकि पूर्व में आनन्द ने कहा है—'दुवालसविहं सावयधम्म पडिवज्जिस्सामि / ' आगे भी 'दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ' ऐसा पाठ आया है / टीकाकार ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा है--सामायिक आदि शिक्षाव्रत थोड़े काल के और अमुक समय करने योग्य होने से आनन्द ने उस समय ग्रहण नहीं किए। दिग्वत भी उस समय ग्रहण नहीं किया, क्योंकि उसकी विरति का अभाव है। उपभोग-परिभोग-परिमाण-व्रत के अतिचार 51. तयाणंतरं च णं उवभोगपरिभोगे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–भोयणओ य, कम्मओ य / तत्य णं भोयणओ समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियब्वा न समायरियव्या, तं जहा-सचित्ताहारे, सचित्तपडिवद्धाहारे, अप्पलिओसहिभक्खणया, दुप्पउलिओसहिभक्खणया, तुच्छोसहिभक्खणया। कम्मओ णं समणोवासएणं पण्णरस कम्मादाणाई जाणियव्वाइं, न समायरिब्वाइं, तं जहा-इंगालकम्मे, Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [47 वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, फोडीकम्मे, दंतवाणिज्जे, लक्खावाणिज्जे, रसवाणिज्जें, विसवाणिज्जे, केसवाणिज्जे, जंतपोलणकम्मे, निल्लंछणकम्मे, दवग्गिदावणया, सरदहतलायसोसणया, असईजणपोसणया। उपभोग-परिभोग दो प्रकार का कहा गया है भोजन की अपेक्षा से तथा कर्म की अपेक्षा से / भोजन की अपेक्षा से श्रमणोपासक को उपभोग-परिभोग व्रत के पांच अतिचारों को जानना उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-सचित्त आहार, सचित्तप्रतिबद्ध आहार, अपक्व-पोषधि-भक्षणता, दुष्पक्व-पोषधि-भक्षणता तथा तुच्छयोषधि-भक्षणता / कर्म की अपेक्षा से श्रमणोपासक को पन्द्रह कर्मादानों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे इस प्रकार हैं अंगारकर्म, वनकर्म, शकटकर्म, भाटीकर्म, स्फोटनकर्म, दन्तवाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, रसवाणिज्य, विषवाणिज्य, केशवाणिज्य, यन्त्रपीडनकर्म, निर्लाछनकर्म, दवाग्निदापन, सर-ह्रद-तडागशोषण तथा असती-जन-पोषण / विवेचन सचित्त आहार-सचित्त का अर्थ सप्राण या सजीव है। बिना पकाई या बिना उबाली हुई शाक-सब्जी, वनस्पति, फल, असंस्कारित अन्न, जल आदि सचित्त पदार्थों में हैं। यहाँ उनके खाने का प्रसंग है। ज्ञातव्य है कि श्रमणोपासक या श्रावक सचित्त वस्तुओं का सर्वथा त्यागी नहीं होता / ऐसा करना उसके लिए अनिवार्य भी नहीं है। वह अपनी क्षमता के अनुसार सचित्त वस्तुओं का त्याग करता है, एक सीमा करता है / कुछ का अपवाद रखता है, जिनका वह सेवन कर सकता है। जो मर्यादा उसने की है, असावधानी से यदि वह उसका उल्लंघन करता है तो यह सचित्त-आहार अतिचार में आ जाता है / यह असावधानी से सचित्त सम्बन्धी नियम का उल्लंघन करने की बात है, यदि जान-बूझ कर वह सचित्त-त्याग सम्बन्धी मर्यादा का खंडन करता है तो यह अनाचार हो जाता है, व्रत टूट जाता है / सचित्त-प्रतिबद्ध आहार-सचित्त वस्तु के साथ सटी हुई या लगी हुई वस्तु को खाना सचित्तप्रतिबद्ध आहार है, उदाहरणार्थ बड़ी दाख या खजूर को लिया जा सकता है। उनमें से प्रत्येक के दो भाग हैं-गुठली तथा गूदा या रस / गुठली सचित्त है, गूदा या रस अचित्त है, पर सचित्त से प्रतिबद्ध या संलग्न है / यह अतिचार भी उस व्यक्ति की अपेक्षा से है, जिसने सचित्त वस्तुओं की मर्यादा की है। यदि वह सचित्त-संलग्न का सेवन करता है तो उसकी मर्यादा भग्न होती है और यह अतिचार में आता है। __अपक्व-पोषधि-भक्षणता-पूरी न पकी हुई प्रोषधि, फल, चनों के छोले आदि खाना / पोषधि के स्थान पर 'प्रोदन' पाठ भी प्राप्त होता है। प्रोदन का अर्थ पकाए हुए चावल हैं, तदनुसार एक अर्थ होगा-कच्चे या अधपके चावल खाना। दुष्पक्व-पोषधि-भक्षणता-जो वनौषधियाँ, फल आदि देर से पकने वाले हैं, उन्हें पके जान कर पूरे न पके रूप में सेवन करना या बुरी रीति से-अतिहिंसा से पकाये गये पदार्थों का सेवन करना। जैसे छिलके समेत सेके हुए भट्ट, छिलके समेत बगारी हुई मटर की फलियाँ आदि; क्योंकि इस ढंग से पकाये हुए पदार्थों में त्रस जीवों की हिंसा भी हो सकती है।। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उपासकदशांगसूत्र तुच्छ-अोषधि-भक्षणता-जिन वनौषधियों या फलों में खाने योग्य भाग कम हो, निरर्थक या फेंकने योग्य भाग अधिक हो, जैसे गन्ना, सीताफल आदि, इनका सेवन करना / इसका दूसरा अर्थ यह भी है, जिनके खाने में अधिक हिंसा होती हो, जैसे खस-खस के दाने, शामक के दाने, चौलाई आदि का सेवन / इन अतिचारों की परिकल्पना के पीछे यही भावना है कि उपासक भोजन के सन्दर्भ में बहुत जागरूक रहे / जिह्वा-लोलुपता से सदा बचा रहे। जिह्वा के स्वाद को जीतना बड़ा कठिन है, इसीलिए उस ओर उपासक को बहुत सावधान रहना चाहिए। कर्मादान-कर्म और आदान, इस दो शब्दों से 'कर्मादान' बना है। आदान का अर्थ ग्रहण है / कर्मादान का आशय उन प्रवृत्तियों से है, जिनके कारण ज्ञानाबरण आदि कर्मों का प्रबल बन्ध होता है / उन कामों में बहुत अधिक हिंसा होती है। इसलिए श्रावक के लिए वे वर्जित हैं / ये कर्म सम्बन्धी अतिचार हैं / श्रावक को इनके त्याग की स्थान-स्थान पर प्रेरणा दी गई है / कहा गया है कि न वह स्वयं इन्हें करे, न दूसरों से कराए और न करने वालों का समर्थन करे / कर्मादानों का विश्लेषण इस प्रकार है-- __ अंगार-कर्म-अंगार का अर्थ कोयला है। अंगार-कर्म का मुख्य अर्थ कोयले बनाने का धंधा करना है। जिन कामों में अग्नि और कोयलों का बहुत ज्यादा उपयोग हो, वे काम भी इसमें आते हैं / जैसे--ईटों का भट्टा, चूने का भट्टा, सीमेंट का कारखाना आदि / इन कार्यों में घोर हिंसा होती है। वन-कर्म-वे धन्धे. जिनका सम्बन्ध वन के साथ है. वन-कर्म में आते हैं: जैसे--कटवा कर कराना. जंगल के वक्षों को काट कर लकडियाँ बेचना, जंगल काटने के ठेके लेना आदि / हरी वनस्पति के छेदन भेदन तथा तत्सम्बद्ध प्राणि-बध की दृष्टि से ये भी अत्यन्त हिंसा के कार्य हैं / आजीविका के लिए वन-उत्पादन-संवर्धन करके वृक्षों को काटना-कटवाना भी वन-कर्म हैं। शकट-कर्म-शकट का अर्थ गाड़ी है। यहाँ गाड़ी से तात्पर्य सवारी या माल ढोने के सभी तरह के वाहनों से है। ऐसे वाहनों को, उनके भागों या कल-पुर्जो को तैयार करना, बेचना आदि शकट-कर्म में शामिल है / आज की स्थिति में रेल, मोटर, स्कूटर, साइकिल, ट्रक, ट्रैक्टर आदि बनाने के कारखाने भी इसमें आ जाते हैं। भाटीकर्म भाटी का अर्थ भाड़ा है / बैल, घोड़ा, ऊँट, भैसा, खच्चर आदि को भाड़े पर देने का व्यापार। स्फोटनकर्म-स्फोटन का अर्थ फोड़ना, तोड़ना या खोदना है। खाने खोदने, पत्थर फोड़ने, कुए, तालाब तथा बावड़ी आदि खोदने का धन्धा स्फोटन-कर्म में आते हैं। दन्तवाणिज्य हाथी दांत का व्यापार इसका मुख्य अर्थ है। वैसे हड्डी, चमड़े आदि का व्यापार भी उपलक्षण से यहाँ ग्रहण कर लिया जाना चाहिए। लाक्षावाणिज्य-लाख का व्यापार / रसवाणिज्य-मदिरा आदि मादक रसों का व्यापार / वैसे रस शब्द सामान्यतः ईख एवं फलों के रस के लिए भी प्रयुक्त होता है, किन्तु यहाँ वह अर्थ नहीं है। .. शहद, मांस, चर्बी, मक्खन, दूध, दही, घी, तैल आदि के व्यापार को भी कई प्राचार्यों ने रसवाणिज्य में ग्रहण किया है। .. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] विषवाणिज्य-तरह-तरह के विषों का व्यापार / तलवार, छुरा, कटार, बन्दूक, धनुष, बाण, बारूद, पटाखे आदि हिंसक व घातक वस्तुओं का व्यापार भी विषवाणिज्य के अन्तर्गत, लिया जाता है। केशवाणिज्य-यहाँ प्रयुक्त केश शब्द लाक्षणिक है। केश-वाणिज्य का अर्थ दास, दासी, गाय, भैंस, बकरी, भेड़, ऊँट घोड़े आदि जीवित प्राणियों की खरीद-बिक्री प्रादि का धन्धा है। कुछ प्राचार्यों ने चमरी गाय की पूछ के बालों के व्यापार को भी इसमें शामिल किया है / इनके चंवर बनते हैं / मोर-पंख तथा ऊन का धन्धा केश-वाणिज्य में नहीं लिया जाता / चमरी गाय के बाल प्राप्त करने तथा मोर-पंख प्राप्त करने में खास भेद यह है कि बालों के लिए चमरी गाय को मारा जाता है, ऐसा किये बिना वे प्राप्त नहीं होते। मोर-पंख व ऊन प्राप्त करने में ऐसा नहीं है / मारे जाने के कारण को लेकर चमरी गाय के बालों का व्यापार इसमें लिया गया है। ___ यंत्रपीडनकर्म-तिल, सरसों, तारामीरा, तोरिया, मूगफली आदि तिलहनों से कोल्हू या घाणी द्वारा तैल निकालने का व्यवसाय / निलांछनकर्म बैल, भैसे आदि को नपुसक बनाने का व्यवसाय / दवाग्निदापन-वन में आग लगाने का धन्धा / यह प्राग अत्यन्त भयानक और अनियंत्रित होती है / उससे जंगल के अनेक जंगम-स्थावर प्राणियों का भीषण संहार होता है / सरहदतडागशोषण-सरोवर, झील, तालाब आदि जल-स्थानों को सुखाना। असती-जन-पोषण-व्यभिचार के लिए वेश्या आदि का पोषण करना, उन्हें नियुक्त करना / श्रावक के लिए वास्तव में निन्दनीय कार्य है। इससे समाज में दुश्चरित्रता फैलती है, व्यभिचार को बल मिलता है। आखेट हेतु शिकारी कुत्ते आदि पालना, चूहों के लिए बिल्लियाँ पालना--ये सब भी असतीजन-पोषण के अन्तर्गत आते हैं। अनर्थदण्ड-विरमण के अतिचार 52. तयाणंतरं च णं अणदुदंडवेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियन्वा, न समायरियव्वा, तंजहा–कंदप्पे, कुक्कुटूए, मोहरिए, संजुत्ताहिगरणे, उवभोगपरिभोगाइरित्ते।। उसके बाद श्रमणोपासक को अनर्थदंड-विरमण व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, संयुक्ताधिकरण तथा उपभोगपरिभोगातिरेक / विवेचन कन्दर्प-काम-वासना को भड़काने वाली चेष्टाएँ करना। कौत्कुच्य–बहुरूपियों की तरह भद्दी व विकृत चेष्टाएँ करना / मौखर्य--निरर्थक डींगें हांकना, व्यर्थ बातें बनाना, बकवास करना / Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50] [उपासकदशांगसूत्र संयुक्ताधिकरण-शस्त्र आदि हिंसामूलक साधनों को इकट्ठा करना। उपभोग-परिभोगातिरेक-उपभोग तथा परिभोग का अतिरेक-अनावश्यक वृद्धि–उपभोगपरिभोग संबंधी सामग्री तथा उपकरणों को बिना आवश्कता के संगृहीत करते जाना। ये इस व्रत के अतिचार हैं / सामायिक व्रत के अतिचार 53. तयाणंतरं च णं सामाइयस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियन्वा, न समायरियव्वा तंजहा~मणदुप्पणिहाणे, वयदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे, सामाइयस्स सइअकरणया, सामाइयस्स अणवट्टियस्स करणया / तत्पश्चात् श्रमणोपासक को सामायिक व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे इस प्रकार हैं--- मन-दुष्प्रणिधान, वचन-दुष्प्रणिधान, काय-दुष्प्रणिधान, सामायिक-स्मृति-अकरणता, सामायिक-अनवस्थित-करणता / विवेचन ___ मन-दुष्प्रणिधान यहाँ प्रणिधान का अर्थ ध्यान या चिन्तन है / दूषित चिन्तन मन-दुष्प्रणिधान कहा जाता है / सामायिक करते समय राग, द्वेष, ममता, आसक्ति संबंधी बातें मन में लाना, घरेलू समस्याओं की चिन्ता में व्यग्र रहना, यह सामायिक का अतिचार है। सामायिक का उद्देश्य जीवन में समता का विकास करना है, क्रोध, मान, माया, लोभ जनित विषमता को क्रमशः मिटाते जाना है। यों करते हुए शुद्ध प्रात्मस्वरूप में तन्मयता पाना सामायिक का चरम लक्ष्य है / जहाँ सामायिक का यह उद्देश्य बाधित होता है, वहाँ सामायिक एक पारम्परिक विधि के रूप में तो सधती है, उससे जीवन में जो उपलब्धि होनी चाहिए, हो नहीं पाती। इसलिए साधक के लिए यह अपेक्षित है कि वह अपने मन को पवित्र रखे, समता की अनुभूति करे, मानसिक दुश्चिन्तन से बचे। वचन-दुष्प्रणिधान-सामायिक करते समय वाणी का दुरुपयोग या मिथ्या भाषण करना, दूसरे के हृदय में चोट पहुँचाने वाली कठोर बात कहना, अध्यात्म के प्रतिकूल लौकिक बातें करना वचन-दुष्प्रणिधान है / सामायिक में जिस प्रकार मानसिक दुश्चिन्तन से बचना आवश्यक है, उसी प्रकार वचन के दुष्प्रयोग से भी बचना चाहिए / काय-दुष्प्रणिधान-मन और वचन की तरह सामायिक में देह भी व्यवस्थित, सावधान और सुसंयत रहनी चाहिए / देह से ऐसी चेष्टाएँ नहीं करनी चाहिए, जिससे हिंसा आदि पापों की आशंका हो / सामायिक-स्मृति-प्रकरणता-- वैसे तो सामायिक सारे जीवन का विषय है, जीवन की साधना है. पर अभ्यास-विधि के अन्तर्गत उसके लिए जैसा पहले सूचित हा है, 48 मिनिट का एक इकाई का समय रक्खा गया है। जब उपासक सामायिक में बैठे, उसे पूरी तरह जागरूक और सावधान रहना चाहिए, समय के साथ-साथ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वह सामायिक में है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [51 अर्थात् सामायिकोचित मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्तियों से उसे दूर नहीं हटना है। ये भूलें सामायिक का अतिचार हैं, जिसके मूल में प्रमाद, अजागरूकता या असावधानी है। सामायिक-अनवस्थित-करणता अवस्थित का अर्थ यथोचित रूप में स्थित रहना है। वैसे न करना अनवस्थितता है / सामायिक में कभी अनवस्थित-अव्यवस्थित नहीं रहना चाहिए / कभी सामायिक कर लेना कभी नहीं करना, कभी सामायिक के समय से पहले उठ जाना--यह व्यक्ति के अव्यवस्थित एवं अस्थिर जीवन का सूचक है। ऐसा व्यक्ति सामायिक साधना में तो असफल रहता ही है. अपने लौकिक जीवन में भी विकास नहीं कर पाता। सामायिक के नियत काल के पूर्ण हए बिना ही सामायिक व्रत पाल लेना-यह इस अतिचार का मुख्य प्राशय है। देशावकाशिक व्रत के अतिचार 54. तयाणंतरं च णं देसावगासियस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियब्वा, तंजहा-आणवणप्पओगे, पेसवणप्पओगे, सदाणुवाए, रूवाणुवाए, बहिया पोग्गलपक्खेवे। तदनन्तर श्रमणोपासक को देशावकाशिक व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं ग्रानयन-प्रयोग, प्रेष्य-प्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात तथा बहिःपुद्गल-प्रक्षेप / विवेचन देश और अवकाश इन दो शब्दों के मेल से देशावकाशिक शब्द बना है। देश का अर्थ यहाँ एक भाग है / अवकाश का अर्थ जाने या कोई कार्य करने की चेष्टा है। एक भाग तक अपने को सीमित रखना देशावकाशिक व्रत है / छठे दिक व्रत में दिशा संबंधी परिमाण या मर्यादा जीवन भर के लिए की जाती है, उसका एक दिन-रात के समय के लिए या न्यूनाधिक समय के लिए और अधिक कम कर लेना देशावकाशिक व्रत है / अवकाश का अर्थ निवृत्ति भी होता है। अतः अन्य व्रतों का भी इसी प्रकार हर रोज समय-विशेष के लिए जो संक्षेप किया जाता है, वह भी इस व्रत में आ जाता है। इसको और स्पष्ट यों समझा जाना चाहिए / जैसे एक व्यक्ति चौबीस घंटे के लिए यह मर्यादा करता है कि वह एक मकान से बाहर के पदार्थों का उपभोग नहीं करेगा, बाहर के कार्य संपादित नहीं करेगा, वह मर्यादित भूमि से बाहर जाकर पंचास्रवों का सेवन नहीं करेगा, यदि वह नियत क्षेत्र से बाहर के कार्य संकेत से अथवा दूसरे व्यक्ति द्वारा करवाता है, तो वह ली हुई मर्यादा का उल्लंघन करता है / यह देशावकाशिक व्रत का अतिचार है। यह उपासक की मानसिक चंचलता तथा व्रत के प्रति अस्थिरता का द्योतक है। इससे व्रत-पालन की वृत्ति में कमजोरी पाती है / व्रत का उद्देश्य नष्ट हो जाता है। इस व्रत के पांच अतिचारों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- आनयन-प्रयोग--जितने क्षेत्र की मर्यादा की है, उस क्षेत्र में उपयोग के लिए मर्यादित क्षेत्र के बाहर की वस्तुएं अन्य व्यक्ति से मंगवाना। प्रेष्य-प्रयोग--मर्यादित क्षेत्र से बाहर के क्षेत्र के कार्यों को संपादित करने हेतु सेवक, पारिवारिक व्यक्ति आदि को भेजना। शब्दानुपात-मर्यादित क्षेत्र से बाहर का कार्य सामने आ जाने पर, ध्यान में आ जाने पर, छींक कर, खाँसी लेकर या कोई और शब्द कर पड़ोसी आदि से संकेत द्वारा कार्य कराना / Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52] [उपासकदशांगसूत्र रूपानुपात मर्यादित क्षेत्र से बाहर का काम करवाने के लिए मुह से कुछ न बोलकर हाथ, अंगुली आदि से संकेत करना / बहिःपुद्गल-प्रक्षेप-मर्यादित क्षेत्र से बाहर का काम करवाने के लिए कंकड़ आदि फेंक कर दूसरों को इशारा करना।। ये कार्य करने से यद्यपि व्रत के शब्दात्मक प्रतिपालन में बाधा नहीं पाती पर व्रत की आत्मा निश्चय ही इससे व्याहत होती है / साधना का अभ्यास दृढता नहीं पकड़ता, इसलिए इनका वर्जन अत्यन्त आवश्यक है। लौकिक एषणा, आरम्भ आदि सीमित कर जीवन को उत्तरोत्तर आत्म-निरत बनाने में देशावकाशिक व्रत बहुत महत्त्वपूर्ण है / जैन दर्शन का तो अन्तिम लक्ष्य संपूर्ण रूप से प्रात्म-केन्द्रित होना है / अत्यन्त तीव्र और प्रशस्त आत्मबल वालों की तो बात और है, सामान्यतया हर किसी के लिए यह संभव नहीं कि वह एकाएक ऐसा कर सके, इसलिए उसे शनैः शनै एषणा, कामना और इच्छा का संवरण करना होता है / इस अभ्यास में यह व्रत बहुत सहायक है। पोषधोपवास-व्रत के अतिचार 55. तयाणंतरं च णं पोसहोववासस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियब्वा, न समायरियव्वा, तं जहा-अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहियसिज्जासंथारे, अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जियसिज्जासंथारे, अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहियउच्चारपासवणभूमी, अप्पमज्जियदुप्पमज्जियउच्चारपासवणभूमी, पोसहोववासस्स सम्म अणणुपालणया। तदनन्तर श्रमणोपासक को पोषधोपवास व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-~शय्या-संस्तारक, अप्रमाजित-दुष्प्रमाजित-शय्या-संस्तारक, अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-उच्चारप्रस्रवणभूमि, अप्रमार्जित-दुष्प्रमाजित-उच्चारप्रस्रवणभूमि तथा पोषधोपवास--सम्यक्-अननुपालन / विवेचन पोषधोपवास में पोषध एवं उपवास, ये दो शब्द हैं। पोषध का अर्थ धर्म को पोष या पुष्टि देने वाली क्रिया-विशेष है / उपवास 'उप' उपसर्ग और 'वास' शब्द से बना है / 'उप' का अर्थ समीप है / उपवास का शाब्दिक तात्पर्य आत्मा या आत्मगुणों के समीप वास या अवस्थिति है। प्रात्मगुणों का सामीप्य या सान्निध्य साधने के कुछ समय के लिए ही सही, बहिर्मुखता :निरस्त होती है। बहिर्मुखता या देहोन्मुखता में सबसे अधिक आवश्यक और महत्त्वपूर्ण भोजन है। साधक जब आत्म-तन्मयता में होता है तो भोजन आदि बाह्य वृत्तियों से सहज ही दूर हो जाता है। यह उपवास का तात्त्विक विवेचन है / व्यावहारिक दृष्टि से सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक अर्थात् चौबीस घंटे के लिए अशन, पान, खादिम, स्वादिम आहार का त्याग उपवास है / पोषध और उपवास रूप सम्मिलित साधना का अर्थ यह है कि उपवासी उपासक एक सीमित समय-चौबीस घंटे के लिए घर से संबंध तोड़ कर-लगभग साधुवत होकर एक निश्चित स्थान में निवास करता है। सोने, Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : माथापति आनन्द] [53 बैठने, शौच, लघु-शंका आदि के लिए भी स्थान निश्चित कर लेता है / आवश्यक, सीमित उपकरणों को साधु की तरह यतना या सावधानी से रखता है, जिससे हिंसा से बचा जा सके। श्रावक या उपासक के तीन मनोरथों में एक है—'कया णमहं मुडे भवित्ता पव्वइस्सामि'मेरे जीवन में वह अवसर कब आएगा, जब मैं मुडित होकर प्रव्रजित होऊंगा। इस मनोरथ या उच्च भावना के परिपोषण व विकास में यह व्रत सहायक है। श्रमण-साधना के अभ्यास का यह एक व्यावहारिक रूप है / जिस तरह एक श्रमण अपने जीवन की हर प्रवृत्ति में जागरूक और सावधान रहता है, उपासक भी इस व्रत में वैसा ही करता है। पोषधोपवास व्रत में सामान्यतः ये चार बातें मुख्य हैं [1] अशन, पान आदि खाद्य-पेय पदार्थों का त्याग, [2] शरीर की सज्जा, वेशभूषा, स्नान आदि का त्याग, [3] अब्रह्मचर्य का त्याग, [4] समग्र सावद्य सपाप कार्य-कलाप का त्याग। / वैसे पोषधोपवास चाहे जब किया जा सकता है, पर जैन परंपरा में द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी एवं चतुर्दशी विशिष्ट पर्व-तिथियों के रूप में स्वीकृत हैं। उनमें भी अष्टमी, चतुर्दशी और पाक्षिक विशिष्ट माना जाता है। पोषधोपवास के अतिचारों का स्पष्टीकरण निम्नांकित है अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-शय्यासंस्तार-शय्या का अर्थ पोषध करने का स्थान तथा संस्तार का अर्थ दरी, चटाई आदि सामान्य बिछौना है, जिस पर सोया जा सके / अनदेखे-भाले व लापरवाही से देखे-भाले स्थान व बिछौने का उपयोग करना। अप्रमाजित-दुष्प्रमार्जित-शय्या-संस्तार- प्रमाजित न किये हुए-बिना पूजे अथवा लापरवाही से पूजे स्थान एवं बिछौने का उपयोग करना / __ अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-उच्चार-प्रस्रवणभूमि-अनदेखे-भाले तथा लापरवाही से देखे-भाले शौच व लघुशंका के स्थानों का उपयोग करना। अप्रमाजित-दुष्प्रमाजित--उच्चार-प्रस्रवणभूमि-अनपूजे तथा लापरवाही से पूजे शौच एवं लघुशंका के स्थानों का उपयोग करना। पोषधोपवास-सम्यक्-अननुपालन-पोषधोपवास का भली-भाँति- यथाविधि पालन न करना / इन अतिचारों से उपासक को बचना चाहिए। यथासंविभाग-व्रत के अतिचार 56. तयाणंतरं च णं अहासंविभागस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियन्वा, तं जहा–सचित्त निक्खेवणया, सचित्तपेहणया, कालाइक्कमे, परववएसे, मच्छरिया। तत्पश्चात् श्रमणोपासक को यथासंविभाग-व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे इस प्रकार हैं-- सचित्तनिक्षेपणता, सचित्तपिधान, कालातिक्रम, परव्यपदेश तथा मत्सरिता / Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उपासकवांगसूत्र विवेचन यथा-संविभाग का अर्थ है, उचित रूप से अन्न, पान, वस्त्र आदि का विभाजन-मुनि अथवा चारित्र-सम्पन्न योग्य पात्र को / पात्र को इन स्वाधिकृत वस्तुओं में से एक भाग देना / इस व्रत का नाम अतिथिसंविभाग भी है, जिसका अर्थ है जिसके आने की कोई निश्चित तिथि या दिन नहीं, ऐसे साधु या संयमी अतिथि को अपनी वस्तुत्रों में से देना / .. गृहस्थ का यह बहुत ही उत्तम व आवश्यक कर्त्तव्य है / इससे उदारता को वृत्ति विकसित होती है, आत्म-गुण उजागर होते हैं / इस व्रत के जो पांच अतिचार माने गए हैं, उनके पीछे यही भावना है कि उपासक की देने की वृत्ति सदा सोत्साह बनी रहे, उसमें क्षीणता न आए। उन अतिचारों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है सचित्त-निक्षेपणता दान न देने की नीयत से अचित्त-निर्जीव-संयमी के लेने योग्य पदार्थों की सचित्त-सजीव धान्य आदि में रख देना अथवा लेने योग्य पदार्थों में सचित्त पदार्थ मिला देना / ऐसा करने से साधु उन्हें ग्रहण नहीं कर सकता। यह मुख से भिक्षा न देने की बात न कह कर भिक्षा न देने का व्यवहार से धूर्तता पूर्ण उपक्रम है। सचित्त-पिधान-दान न देने की भावना से सचित्त वस्तु से अचित्त वस्तु को ढक देना, ताकि संयमी उसे स्वीकार न कर सके। कालातिक्रम–काल या समय का अतिक्रम-उल्लंघन करना / भिक्षा का समय टाल कर भिक्षा देने की तत्परता दिखाना / समय टल जाने से आने वाला साधु या अतिथि भोजन नहीं लेता, क्योंकि तब तक उसका भोजन हो चुकता है / यह झूठा सत्कार है। ऐसा करने वाला व्यक्ति मन ही मन यह जानता है कि उसे भिक्षा या भोजन देना नहीं पड़ेगा, उसकी बात भी रह जायगी, यों कुछ लगे बिना ही सत्कार हो जायगा। परव्यपदेश न देने की नीयत से अपनी वस्तु को दूसरे की बताना। मत्सरिता-मत्सर या ईर्ष्यावश आहार आदि देना। ईर्ष्या का अर्थ यहां यह है-जैसे कोई व्यक्ति देखता है, अमुक ने ऐसा दान दिया है तो उसके मन में आता है, मैं उससे कम थोड़ा ही हूं मैं भी दू। ऐसा करने में दान की भावना नहीं है, अहंकार की भावना है। किन्हीं ने मत्सरिता का अर्थ कृपणता या कंजूसी किया है। तदनुसार दान देने में कंजूसी करना इस अतिचार में आता है। कहीं कहीं मत्सरिता का अर्थ क्रोध भी किया गया है, उनके अनुसार क्रोधपूर्वक भिक्षा या भोजन देना, यह अतिचार है। मरणान्तिक-संलेखना के अतिचार 57. तयाणंतरं च णं अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा-झूसणाराहणाए पंच अइयारा जाणियब्वा न समायरियव्वा, तं जहा इहलोगासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्पओगे।। तदनन्तर अपश्चिम-मरणांतिक-संलेषणा–जोषणाअाराधना के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे इस प्रकार हैं - Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अध्ययन : गाथापति आनन्द] इहलोक-प्राशंसाप्रयोग, परलोक-आशंसाप्रयोग, जीवित-आशंसाप्रयोग, मरण-आशंसाप्रयोग तथा काम-भोग-प्राशंसाप्रयोग / विवेचन जैनदर्शन के अनुसार जीवन का अन्तिम लक्ष्य है-आत्मा के सत्य स्वरूप की प्राप्ति / उस पर कर्मों के जो आवरण पाए हुए हैं, उन्हें क्षीण करते हुए इस दिशा में बढ़ते जाना, साधना की यात्रा है / देह उसमें उपयोगी है / सांसारिक कार्य जो देह से सधते हैं, वे तो प्रासंगिक हैं, आध्यात्मिक दृष्टि से देह का यथार्थ उपयोग, संवर तथा निर्जरामूलक धर्म का अनुसरण है। उपासक या साधक अपनी देह की परिपालना इसीलिए करता है कि वह उसके धर्मानुष्ठान में सहयोगी है / न कोई सदा युवा रहता है और न स्वस्थ, सुपुष्ट ही / युवा वृद्ध हो जाता है, स्वस्थ, रुग्ण हो ाता है और सपष्ट दर्बल / एक ऐसा समय आ जाता है, जब देह अपने निर्वाह के लिए स्वयं दूसरों का सहारा चाहने लगती है। रोग और दुर्बलता के कारण व्यक्ति धार्मिक क्रियाएं करने में असमर्थ हो जाता है। ऐसी स्थिति में मन में उत्साह घटने लगता है, कमजोरी आने लगती है, विचार मलिन होने लगते हैं, जीवन एक भार लगने लगता है। भार को तो ढोना पड़ता है। विवेकी साधक ऐसा क्यों करे ? जैनदर्शन वहां साधक को एक मार्ग देता है / साधक शान्ति एवं दृढ़तापूर्वक शरीर के संरक्षण का भाव छोड़ देता है। इसके लिए वह खान-पान का परित्याग कर देता है और एकान्त या पवित्र स्थान में आत्मचिन्तन करता हुआ भावों की उच्च भूमिका पर आरूढ हो जाता है। इस व्रत को संलेषणा कहा जाता है / वृत्तिकार अभयदेव सूरि ते संलेषणा का अर्थ शरीर एवं कषायों को कृश करना किया है / संलेषणा के आगे जोषणा और आराधना दो शब्द और हैं / जोषणा का अर्थ प्रीतिपूर्वक सेवन है। आराधना का अर्थ अनुसरण करना या जीवन में उतारना है अर्थात् संलेषणा-वत का प्रसन्नतापूर्वक अनुसरण करना / दो विशेषण साथ में और हैंअपश्चिम और मरणान्तिक / अपश्चिम का अर्थ है अन्तिम या आखिरी, जिसके बाद इस जीवन में और कुछ करना बाकी न रह जाय / मरणान्तिक का अर्थ है, मरण पर्यन्त चलने वाली प्राराधना / इस व्रत में जीवन भर के लिए आहार-त्याग तो होता ही है, साधक लौकिक, पारलौकिक कामनाओं को भी छोड़ देता है। उसमें इतनी आत्म-रति व्याप्त हो जाती है कि जीवन और मृत्यु की कामना से वह ऊंचा उठ जाता है / न उसे जीवन की चाह रहती है कि वह कुछ समय और जी ले और न मृत्यु से डरता है तथा न उसे जल्दी पा लेने के लिए आकुल-आतुर होता है कि देह का अन्त हो जाय, अाफत मिटे। सहज भाव से जब भी मौत आती है, वह उसका शान्ति से वरण करता है। आध्यात्मिक दृष्टि से कितनी पवित्र, उन्नत और प्रशस्त मन:स्थिति यह है / इस व्रत के जो अतिचार परिकल्पित किए गए हैं, उनके पीछे यही भावना है कि साधक की यह पुनीत वृत्ति कहीं व्याहत न हो जाय / अतिचारों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-इहलोक-ग्राशंसाप्रयोग-ऐहिक भोगों या सुखों को कामना, जैसे मैं मरकर राजा, समृद्धिशाली तथा सुखसंपन्न बनू / परलोक-आशंसाप्रयोग-परलोक-स्वर्ग में प्राप्त होने वाले भोगों की कामना करना, जैसे Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56] [उपासकदशांगसूत्र मैं मर कर स्वर्ग प्राप्त करू तथा वहां के अतुल सुख भोगू। जीवित-आशंसाप्रयोग-प्रशस्ति, प्रशंसा, यश, कीर्ति आदि के लोभ से या मौत के डर से जीने की कामना करना / मरण-आशंसाप्रयोग-तपस्या के कारण होनेवाली भूख, प्यास तथा दूसरी शारीरिक प्रतिकूलताओं को कष्ट मान कर शीघ्र मरने की कामना करना, यह सोच कर कि जल्दी ही इन कष्टों से छुटकारा हो जाय / कामभोग-प्राशंसाप्रयोग-ऐहिक तथा पारलौकिक शब्द, रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्शमूलक इन्द्रिय-सुखों को भोगने की कामना करना-ऐसी भावना रखना कि अमुक भोग्य पदार्थ * मुझे प्राप्त हों। इस अन्तिम साधना-काल में उपर्युक्त विचारों का मन में आना सर्वथा अनुचित है। इससे आन्तरिक पवित्रता बाधित होती है / जिस पुनीत और महान् लक्ष्य को लिए साधक साधना-पथ पर आरूढ होता है, इससे उस की पवित्रता घट जाती है। इसलिए साधक को इस स्थिति में बहुत ही जागरूक रहना अपेक्षित है। यों त्याग-तितिक्षा और अध्यात्म की उच्च भावना के साथ स्वयं मृत्यु को वरण करना जैन शास्त्रों में मृत्यु-महोत्सव कहा गया है / सचमुच यह बड़ी विचित्र और प्रशंसनीय स्थिति है। जहां एक ओर देखा जाता है, अनेक रोगों से जर्जर, अाखिरी सांस लेता हुअा भी मनुष्य जीना चाहता है, जीने के लिए कराहता है, वहां एक यह साधक है, जो पूर्ण रूप से समभाव में लीन होकर जीवनमरण की कामना से ऊपर उठ जाता है। नहीं समझने वाले कभी-कभी इसे आत्महत्या की संज्ञा देने लगते हैं। वे क्यों भूल जाते हैं, प्रात्म-हत्या क्रोध, दुःख, शोक, मोह आदि उग्र मानसिक आवेगों से कोई करता है, जिसे जीवन में कोई सहारा नहीं दीखता, सब ओर अंधेरा ही अंधेरा नजर आता है। यह आत्मा की कमजोरी का घिनौना रूप है / संलेखनापूर्वक आमरण अनशन तो आत्मा का हनन नहीं, उसका विकास, उन्नयन और उत्थान है, जहां काम, क्रोध, राग, द्वेष, मोह आदि से साधक बहुत ऊँचा उठ जाता है / प्रानन्द द्वारा अभिग्रह 58. तए णं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं सावय-धम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी नो खलु मे भंते ! कप्पइ अज्जप्पभिई अन्न-उत्थिए वा अन्न-उत्थियदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि चेइयाई वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा, पुदिव अणालत्तण आलवित्तए वा संलवित्तए वा, तेसि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा, नन्नत्थ रायाभिओगेणं, गणाभिओगेणं, बलाभिओगेणं, देवयाभिओगेणं, गुरुनिग्गहेणं, वित्तिकंतारेणं। कप्पइ मे समणे निग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुञ्छणेणं, पीढफलग-सिज्जा-संथारएणं, ओसह-भेसज्जेण य पडिलाभेमाणस्स विहरित्तए –त्ति कटु इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, अभिगिण्हित्ता पसिणाई पुच्छइ, पुच्छित्ता अट्ठाई आदियइ, आदित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदइ, वंदित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] अंतियाओ दुइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव वाणियग्गामे नयरे, जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता सिवनन्दं भारियं एवं वयासी-... एवं खलु देवाणुप्पिए ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते / से विय धम्मे मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए, तं गच्छ णं तुम देवाणुप्पिए ! समणं भगवं महावीरं वंदाहि जाव (णमंसाहि, सक्कारेहि, सम्माणेहि, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं ) पज्जुवासाहि, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जाहि / फिर आनन्द गाथापति ने श्रमण भगवान महावीर के पास पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षावतरूप वारह प्रकार का श्रावक-धर्म स्वीकार किया। स्वीकार कर भगवान् महावीर को वन्दनानमस्कार कर वह भगवान् से यों बोला भगवन् ! आज से अन्ययूथिक-निर्ग्रन्थ धर्म-संघ के अतिरिक्त अन्य संघों से सम्बद्ध पुरुष, उनके देव, उन द्वारा परिगृहीत स्वीकृत चैत्य- उन्हें वन्दना करना, नमस्कार करना, उनके पहले वोले बिना उत्तसे पालाप—संलाप करना, उन्हें धार्मिक दृष्टि से प्रशन---रोटी, भात ग्रादि अन्ननिर्मित खाने के पदार्थ, पान-पानी, दूध आदि पेय पदार्थ, खादिम-खाद्य-फल, मेवा आदि अन्नरहित खाने की वस्तुएं तथा स्वादिम–स्वाद्य--पान, सुपारी आदि मुखवास व मुख-शुद्धिकर चीजें प्रदान करना, अनुप्रदान करना मेरे लिए कल्पनीय धार्मिक दृष्टि से करणीय नहीं है अर्थात् ये कार्य मैं नहीं करूगा / राजा, गण-जन-समुदाय अथवा विशिष्ट जनसत्तात्मक गणतंत्रीय शासन, बलसेना या बली पुरुष, देव व माता-पिता आदि गुरुजन का आदेश या अाग्रह तथा अपनी आजीविका के संकटग्रस्त होने की स्थिति मेरे लिए इसमें अपवाद हैं अर्थात् इन स्थितियों में उक्त कार्य मेरे लिए करणीय हैं। श्रमणों, निर्ग्रन्थों को प्रासुक–अचित्त, एषणीय-~~उन द्वारा स्वीकार करने योग्य-निर्दोष, अशन, पान, खाद्य तथा स्वाद्य आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोञ्छन---रजोहरण या पैर पोंछने का वस्त्र, पाट, बाजोट, ठहरने का स्थान, बिछाने के लिए घास आदि, औषध-सूखी जड़ी-बूटी, भेषज-दवा देना मुझे कल्पता है--मेरे लिए करणीय है। प्रानन्द ने यों अभिग्रह--संकल्प स्वीकार किया / वैसा कर भगवान् से प्रश्न पूछे / प्रश्न पूछकर उनका अर्थ-समाधान प्राप्त किया। समाधान प्राप्त कर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार वंदना की। वंदना कर भगवान् के पास से, दूतीपलाश नामक चैत्य से रवाना हुआ। रवाना होकर जहां वाणिज्यग्राम नगर था, जहां अपना घर था, वहां पाया। आकर अपनी पत्नी शिवनन्दा को यों बोला--देवानुप्रिये ! मैंने श्रमण भगवान् के पास से धर्म सुना है / वह धर्म मेरे लिए इष्ट, अत्यन्त इष्ट और रुचिकर है / देवानुप्रिये ! तुम भगवान् महावीर के पास जाओ, उन्हें वंदना करो, [नमस्कार करो, उनका सत्कार करो, सम्मान करो, वे कल्याणमय हैं, मंगलमय हैं, देव हैं, ज्ञानस्वरूप हैं,] पर्युपासना करो तथा पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत-रूप बारह प्रकार का गृहस्थ-धर्म स्वीकार करो। विवेचन श्रावक के बारह व्रत, पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत के रूप में विभाजित हैं। अणुव्रत Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58] [उपासकदशांगसूत्र मू ल व्रत हैं / शिक्षाव्रत उनके पोषण, संवर्धन एवं विकास के लिए हैं। शिक्षा का अर्थ अभ्यास है। ये व्रत अणुव्रतों के अभ्यास या साधना में स्थिरता लाने में विशेष उपयोगी हैं। शाब्दिक भेद से इन सात [शिक्षा] व्रतों का विभाजन दो प्रकार से किया जाता रहा है। इन सातों को शिक्षावत तो कहा ही जाता है, जैसा पहले उल्लेख हुआ है, इनमें पहले तीन-अनर्थदण्डविरमण, दिग्वत, तथा उपभोग-परिभोगपरिमाण गुणव्रत और अन्तिम चार-सामायिक, देशावकाशिक, पोषधोपवास एवं अतिथिसंविभाग, शिक्षाव्रत कहे गये हैं। गुणव्रत कहे जाने के पीछे साधारणतया यही भाव है कि ये अणुव्रतों के गुणात्मक विकास में सहायक हैं अथवा साधक के चारित्रमूलक गुणों की वृद्धि करते हैं / अगले चार मुख्यतः अभ्यासपरक हैं, इसलिए उनके साथ 'शिक्षा' शब्द विशेषणात्मक दृष्टि से सहजतया संगत है। वैसे सामान्य रूप में गुणव्रत तथा शिक्षाबत दोनों ही अणुव्रतों के अभ्यास में सहायक हैं, इसलिए स्थूल रूप में सातों को जो शिक्षावत कहा जाता है, उपयुक्त ही है। सात शिक्षाव्रतों का जो क्रम औपपातिक सूत्र आदि में है, उसका यहाँ उल्लेख किया गया है / प्राचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में क्रम कुछ भिन्न है / तत्त्वार्थसूत्र में इन व्रतों का क्रम दिग, देश, अनर्थ-दंड-विरति, सामायिक, पोषधोपवास, उपभोग-परिभोग-परिमाण तथा अतिथि-संविभाग के रूप में है। वहाँ इन्हें शिक्षाव्रत न कह कर केवल यही कहा गया है कि श्रावक इन व्रतों से भी संपन्न होता है। किन्तु क्रम में किंचित् अन्तर होने पर भी तात्पर्य में कोई भेद नहीं है / आनन्द ने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण करने के पश्चात् जो विशेष संकल्प किया, उसके पीछे अपने द्वारा विवेक और समझपूर्वक स्वीकार किए गए धर्म-सिद्धान्तों में सुदढ एवं सस्थिर बने रहने की भावना है। अतएव वह धार्मिक दृष्टि से अन्य धर्म-संघों के व्यक्तियों से अपना सम्पर्क रखना नहीं चाहता ताकि जीवन में कोई ऐसा प्रसंग ही न आए, जिससे विचलन की आशंका हो / प्रश्न हो सकता है, जब आनन्द ने सोच-समझ कर धर्म के सिद्धान्त स्वीकार किये थे तो उसे यों शंकित होने की क्या आवश्यकता थी? साधारणतया बात ठीक लगती है, पर जरा गहराई में जाएं / मानव-मन बड़ा भावुक है। भावुकता कभी-कभी विवेक को प्रावृत कर देती है। फलतः व्यक्ति उसमें बह जाता है, जिससे उसकी सद् आस्था डगमगा सकती है / इसी से बचाव के लिए आनन्द का यह अभिग्रह है / इस सन्दर्भ में प्रयुक्त चैत्य शब्द कुछ विवादास्पद है। चैत्य शब्द अनेकार्थवाची है। सुप्रसिद्ध जैनाचार्य पूज्य श्री जयमलजी म. ने चैत्य शब्द के एक सौ बारह अर्थों की गवेषणा की। चैत्य शब्द के सन्दर्भ में भाषा-वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि किसी मृत व्यक्ति के जलाने के स्थान पर उसकी स्मृति में एक वृक्ष लगाने की प्राचीन काल में परम्परा रही है। भारतवर्ष से बाहर भी ऐसा होता रहा है। चिति या चिता के स्थान पर लगाए जाने के कारण वह वृक्ष 'चैत्य' कहा जाने लगा हो / आगे चलकर यह परम्परा कुछ बदल गई / वृक्ष के स्थान पर स्मारक 1. दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकपोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणाऽतिथिसं विभागवतसंपन्नश्च / -तत्त्वार्थसूत्र 7. 16 2. जयध्वज, पृष्ठ 573-76 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] के रूप में मकान बनाया जाने लगा। उस मकान में किसी लौकिक देव या यक्ष आदि की प्रतिमा स्थापित की जाने लगी / यों उसने एक देव-स्थान या मन्दिर का रूप ले लिया। वह चैत्य कहा जाने लगा। ऐसा होते-होते चैत्य शब्द सामान्य मन्दिरवाची भी हो गया। __ चैत्य का एक अर्थ ज्ञान भी है। एक अर्थ यति या साधु भी है / प्राचार्य कुदकुद ने 'अष्टप्राभूत' में चैत्य शब्द का इन अर्थों में प्रयोग किया है।' अन्य-यूथिक-परिगृहीत चैत्यों को वंदन, नमस्कार न करने का, उनके साथ पालाप-संलाप न करने का जो अभिग्रह आनन्द ने स्वीकार किया, वहाँ चैत्य का अर्थ उन साधुओं से लिया जाना चाहिए, जिन्होंने जैनत्व की प्रास्था छोड़कर पर-दर्शन की आस्था स्वीकार कर ली हो और पर-दर्शन के अनुयायियों ने उन्हें परिगृहीत या स्वीकार कर लिया हो। एक अर्थ यह भी हो सकता है, दूसरे दर्शन में आस्था रखने वाले वे साधु, जो जैनत्व की आस्था में आ गए हों, पर जिन्होंने अपना पूर्व वेश नहीं छोड़ा हो, अर्थात् वेश द्वारा अन्य यूथ या संध से संबद्ध हों / ये दोनों ही श्रावक के लिए वंदनीय नहीं होते / पहले तो वस्तुतः साधुत्वशून्य हैं ही, दूसरे-गुणात्मक दृष्टि से ठीक हैं, पर व्यवहार की दृष्टि से उन्हें वंदन करना समुचित नहीं होता। इससे साधारण श्रावकों पर प्रतिकूल असर होता है, मिथ्यात्व बढ़ने की आशंका बनी रहती है। जैसा ऊपर संकेत किया गया है, अन्य मतावलम्बी साधुओं को वन्दन, नमन आदि न करने की बात मूलतः आध्यात्मिक या धार्मिक दृष्टि से है। शिष्टाचार, सद्व्यवहार आदि के रूप में वैसा करना निषिद्ध नहीं है / जीवन में व्यक्ति को सामाजिक दृष्टि से भी अनेक कार्य करने होते हैं, जिनका आधार सामाजिक मान्यता या परम्परा होता है / 59. तए णं सा सिवनंदा भारिया आणंदेणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा जाव चित्तमाणंदिया, पीइमणा, परम-सोमणस्सिया, हरिसवसविसप्पमाहियया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु ‘एवं सामि !' ति आणंदस्स समणोवासगस्स एयमझें विणएण पडिसुणेइ। तए णं से आणंदे समणोवासए कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेता एवं वयासी-खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया ! लहुकरणजुत्तजोइयं, समखुर-वालिहाण-समलिहियसिंगरहिं जंबूणयामयकलावजुत्तपइविसिट्ठएहि रययामयघंट-सुत्तरज्जुग-बरकंचणखचिय-नत्थपग्गहोग्गहियरहिं नीलुप्पलकयामेलएहि पवरगोणजुवाणएहि नाणामणि-कणगघंटियाजालपरिगयं, सुजायजुगजुत्त-उज्जुगपसत्थ-सुविरइयनिम्मिय, पवरलक्खणोववेयं जुत्तामेव धम्मियं जाणप्पवरं उवट्ठवेह, उवट्ठवेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। तए णं ते कोडुबियपुरिसा आणंदेणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा ‘एवं सामि !' त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुर्णेति, पडिसुणेत्ता खिप्पामेव लहुकरणजुत्तजोइयं जाव धम्मियं जाणप्पवरं उबट्ठवेत्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति / तए णं सा सिवणंदा भारिया ण्हाया, कयबलिकम्मा, कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता, सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिया अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा चेडियाचक्कवाल१. बुद्धं जं बोहंतो अप्पाणं चेदयाइं अण्णं च / पंचमहव्वयसुद्धं णाणमयं जाण चेदिहरं / / Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उपासकदशांगसूत्र परिकिण्णा धम्मियं जाणप्पवरं दुरुहइ, दुरहित्ता वाणियगामं नयरं मज्झमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव दूइपलासए चेइए तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता चेडियाचक्कवालपरिकिण्णा जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, णमंसइ; वंदित्ता, णमंसित्ता णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहे विणएणं पंजलियडा) पज्जुवासइ / श्रमणोपासक अानन्द ने जब अपनी पत्नी शिवनन्दा से ऐसा कहा तो उसने हृष्ट-तुष्टअत्यन्त प्रसन्न होते हुए [चित्त में प्रानन्द एवं प्रीति का अनुभव करते हुए अतीव सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसित-हृदय हो,] हाथ जोड़े, सिर के चारों ओर घुमाए तथा अंजलि बांधे, 'स्वामी ऐसा ही अर्थात् आपका कथन स्वीकार है,' यों आदरपूर्ण शब्दों से पति को सम्बोधित-प्रत्युत्तरित करते हुए अपने पति आनन्द का कथन स्वीकृतिपूर्ण भाव से विनयपूर्वक सुना / तब श्रमणोपासक अानन्द ने अपने सेवकों को बुलाया और कहा-तेज चलने वाले, एक जैसे खुर, पूछ तथा अनेक रंगों से चित्रित सींगवाले, गले में सोने के गहने और जोत धारण किये, गले से लटकती चांदी की घंटियों सहित नाक में उत्तम सोने के तारों से मिश्रित पतली-सी सूत की नाथ से जुड़ी रास के सहारे वाहकों द्वारा सम्हाले हुए, नीले कमलों से बनी कलंगी से युक्त मस्तक वाले, दो युवा बैलों द्वारा खींचे जाते, अनेक प्रकार की मणियों और सोने की बहुत-सी घंटियों से युक्त, बढ़िया लकड़ी के एकदम सीधे, उत्तम और सुन्दर बने जुए सहित, श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त धार्मिक कार्यों में उपभोग में आने वाला यानप्रवर-श्रेष्ठ रथ शीघ्र ही उपस्थित करो, उपस्थित करके मेरी यह आज्ञा वापिस करो अर्थात् आज्ञानुसार कार्य हो जाने की सूचना दो। श्रमणोपासक आनन्द द्वारा यों कहे जाने पर सेवकों ने अत्यन्त प्रसन्न होते हुए विनयपूर्वक अपने स्वामी की आज्ञा शिरोधार्य की और जैसे शीघ्रगामी बैलों से युक्त यावत् धार्मिक उत्तम रथ के लिए आदेश दिया गया था, उपस्थित किया। आनन्द की पत्नी शिवनन्दा ने स्नान किया, नित्य-नैमित्तिक कार्य किये, कौतुक-देहसज्जा की दृष्टि से आंखों में काजल प्रांजा, ललाट पर तिलक लगाया, प्रायश्चित्त-दुःस्वप्नादि दोषनिवारण हेतु चन्दन, कुकुम, दधि, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया, शुद्ध, उत्तम, मांगलिक वस्त्र पहने, थोड़े से संख्या में कम पर बहुमूल्य आभूषणों से देह को अलंकृत किया / दासियों के समुह से घिरी वह धार्मिक उत्तम रथ पर सवार हुई / सवार होकर वाणिज्य ग्राम नगर के बीच से गुजरी, जहाँ दुतीपलाश चैत्य था, वहाँ पाई, प्राकर धार्मिक उत्तम रथ से नीचे उतरी, नीचे उतर कर दासियों के समूह से घिरी वहाँ गई जहाँ भगवान् महावीर विराजित थे / जाकर तीन बार आदक्षिणप्रदक्षिणा की, वन्दन नमस्कार किया, भगवान् के न अधिक निकट, न अधिक दूर सम्मुख अवस्थित हो, नमन करती हुई, सुनने की उत्कंठा लिए, विनयपूर्वक हाथ जोड़े, पर्युपासना करने लगी। 60. तए णं समणे भगवं महावीरे सिवनंदाए तोसे य महइ जाव' धम्मं कहेइ। तव श्रमण भगवान महावीर ने शिवनन्दा को तथा उपस्थित परिषद् [जन-समूह] को धर्म-देशना दी। 1. देखें सूत्र-संख्या 11 / Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द [61 61. तए णं सा सिवनंदा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठ जाव' गिहिधम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जिता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरुहइ दुरुहित्ता जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया / तब शिवनन्दा श्रमण भगवान महावीर से धर्म सुनकर तथा उसे हृदय में धारण करके अत्यन्त प्रसन्न हुई / उसने गहि-धर्म--श्रावकधर्म स्वीकार किया, स्वीकार कर वह उसी धार्मिक उत्तम रथ पर सवार हुई, सवार होकर जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा की ओर चली गई / आनन्द का भविष्य 62. भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-पहू णं भंते ! आणंदे समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे जाव' पन्वइत्तए? ___ नो तिण? सम?, गोयमा ! आणंदे णं समणोवासए बहूई वासाई समणोवासगपरियायं पाउणिहिइ, पाउणित्ता जाव (एक्कारस य उवासगपडिमाओ सम्मं कारणं फासित्ता मासियाए संलेहगाए अत्ताणं झूसित्ता, सर्द्धि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता, आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा) सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववन्जिहि / तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं आणंदस्स वि समणोवासगस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णता। गौतम ने भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और पूछा-भन्ते ! क्या श्रमणोपासक आनन्द देवानुप्रिय के-आपके पास मुडित एवं परिवजित होने में समर्थ है ? भगवान् ने कहा- गौतम ! ऐसा संभव नहीं है / श्रमणोपासक आनन्द बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक-पर्याय--- श्रावक-धर्म का पालन करेगा [उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का भली-भांति स्पर्श-अनुपालन करेगा, अन्ततः एक मास की संलेखना एवं साठ भोजन का---एक मास का अनशन पाराधित कर आलोचना प्रतिक्रमण-ज्ञात-अज्ञात रूप में प्राचरित दोषों की आलोचना कर समाधिपूर्वक यथासमय देह-त्याग करेगा।] वह सौधर्म-कल्प में-सौधर्म नामक देवलोक में अरुणाभ नामक विमान में देव के रूप में उत्पन्न होगा। वहां अनेक देवों की आयु-स्थिति चार पल्योपम काल का परिमाण विशेष] की होती है / श्रमणोपासक आनन्द की भी पायु-स्थिति चार पल्योपम की होगी। विवेचन यहाँ प्रयुक्त 'पल्योपम' शब्द एक विशेष, अति दीर्घ काल का द्योतक है / जैन वाङमय में इसका बहुलता से प्रयोग हुआ है / प्रस्तुत प्रागम में प्रत्येक अध्ययन में श्रावकों की स्वर्गिक कालस्थिति का सूचन करने के लिए इसका प्रयोग हुआ है। पल्य या पल्ल का अर्थ कुत्रा या अनाज का बहुत बड़ा कोठा है। उसके आधार पर या उसकी उपमा से काल-गणना की जाने के कारण यह कालावधि 'पल्योपम' कही जाती है। 1. देखें सूत्र-संख्या 12 / 2. देखें सूत्र– संख्या 12 / Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62] [उपासकदशांगसूत्र पल्योपम के तीन भेद हैं-१. उद्धार-पल्योपम, 2. अद्धा-पल्योपम, 3. क्षेत्र-पल्योपम / उद्धार-पल्योपम- कल्पना करें, एक ऐसा अनाज का बड़ा कोठा या कुआँ हो, जो एक योजन [चार कोस] लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा हो / एक दिन से सात दिन की आयु वाले नवजात यौगलिक शिशु के बालों के अत्यन्त छोटे टुकड़े किए जाएं, उनसे ठूस-ठूस कर उस कोठे या कुएं को अच्छी तरह दबा-दबा कर भरा जाय / भराव इतना सघन हो कि अग्नि उन्हें जला न सके, चक्रवर्ती की सेना उन पर से निकल जाय तो एक भी कण इधर से उधर न हो सके, गंगा का प्रवाह बह जाय तो उन पर कुछ असर न हो सके। यों भरे हुए कुए में से एक-एक समय में एक-एक बाल-खंड निकाला जाय / यों निकालते निकालते जितने काल में वह कुआँ खाली हो, उस काल-परिमाण को उद्धार-पल्योपम कहा जाता है / उद्धार का अर्थ निकालना है / बालों के उद्धार या निकाले जाने के आधार पर इसकी संज्ञा उद्धार-पल्योपम है / यह संख्यात समय-प्रमाण माना जाता है। उद्घार पल्योपम के दो भेद हैं सूक्ष्म एवं व्यावहारिक / उपर्युक्त वर्णन व्यावहारिक उद्धार-पल्योपम का है / सूक्ष्म उद्धार-पल्योपम इस प्रकार है व्यावहारिक उद्धार-पल्योपम में कुएं को भरने में यौगलिक शिशु के बालों के टुकड़ों की जो चर्चा पाई है, उनमें से प्रत्येक टुकड़े के असंख्यात अदृश्य खंड किए जाएँ। उन सूक्ष्म खंडों से पूर्ववणित कुआँ ठूस-ठूस कर भरा जाय / वैसा कर लिये जाने पर प्रतिसमय एक-एक खंड कुएं में से निकाला जाय, यों करते-करते जितने काल में वह माँ, बिलकुल खाली हो जाय, उस काल-अवधि को सूक्ष्म उद्धार-पल्योपम कहा जाता है। इसमें संख्यात-वर्ष-कोटि परिमाण-काल माना जाता है। अद्धा-पल्योपम-अद्धा देशी शब्द है, जिसका अर्थ काल या समय है। आगम के प्रस्तुत प्रसंग में जो पल्योपम का जिक्र आया है, उसका आशय इसी पल्योपम से है। इसकी गणना का क्रम इस प्रकार है–यौगलिक के बालों के टुकड़ों से भरे हुए कुएं में से सौ-सौ वर्ष में एक-एक टुकड़ा निकाला जाय / इस प्रकार निकालते-निकालते जितने काल में वह कुआँ बिलकुल खाली हो जाय, उस कालावधि को अद्धा-पल्योपम कहा जाता है / इसका परिमाण संख्यात वर्षकोटि है / अद्धा-पल्योपम भी दो प्रकार का होता है-सूक्ष्म और व्यावहारिक। यहां जो वर्णन किया गया है, वह व्यावहारिक अद्धा-पल्योपम का है। जिस प्रकार सूक्ष्म उद्धार-पल्योपम में यौगलिक शिशु के बालों के टुकड़ों के असंख्यात अदृश्य खंड किए जाने की बात है, तत्सदृश यहां भी वैसे ही असंख्यात अदृश्य केश-खंड़ों से वह कुआँ भरा जाय / प्रति सौ वर्ष में एक खंड निकाला जाए। यों निकालते निकालते जब कुआँ बिलकुल खाली हो जाय, वैसा होने में जितना काल लगे, वह सूक्ष्म अद्धा-पल्योपम कोटि में आता है / इसका काल-परिमाण असंख्यात वर्षकोटि माना गया है। क्षेत्र-पल्योपम--ऊपर जिस कुएं या धान के विशाल कोठे की चर्चा है, यौगलिक के बालखंडों से उपयंक्त रूप में दबा-दबा कर भर दिये जाने पर भी उन खंडों के बीच में आकाश-प्रदेश रिक्त स्थान रह जाते हैं। वे खंड चाहे कितने ही छोटे हों, अाखिर वे रूपी या मूर्त हैं, अाकाश अरूपी या अमूर्त है / स्थूल रूप में उन खंडों के बीच रहे आकाश-प्रदेशों की कल्पना नहीं का जा सकती, पर सूक्ष्मता से सोचने पर वैसा नहीं है। इसे एक स्थूल उदाहरण से समझा जा सकता है Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] कल्पना करें, अनाज के एक बहुत बड़े कोठे को कूष्मांडों-कुम्हड़ों से भर दिया गया / ' सामान्यतः देखने में लगता है, वह कोठा भरा हुआ है, उसमें कोई स्थान खाली नहीं है, पर यदि उसमें नीबू और भरे जाएं तो वे अच्छी तरह समा सकते हैं, क्योंकि सटे हुए कुम्हड़ों के बीच में स्थान खाली जो है। यों नींबुनों से भरे जाने पर भी सूक्ष्म रूप में और खाली स्थान रह जाता है, बाहर से वैसा लगता नहीं / यदि उस कोठे में सरसों भरना चाहें तो वे भी समा जाएं। सरसों भरने पर भी सूक्ष्म रूप में और स्थान खाली रहता है / यदि नदी के रजःकण उसमें भरे जाएं, तो वे भी समा सकते हैं। दूसरा उदाहरण दीवाल का है / चुनी हुई दीवाल में हमें कोई खाली स्थान प्रतीत नहीं होता पर उसमें हम अनेक खूटियाँ, कीलें गाड़ सकते हैं। यदि वास्तव में दीवाल में स्थान खाली नहीं होता तो यह कभी संभव नहीं था। दीवाल में स्थान खाली है, मोटे रूप में हमें मालूम नहीं पड़ता / अस्तु / क्षेत्र-पल्योपम की चर्चा के अन्तर्गत यौगलिक के बालों के खंडों के बीच-बीच में जो आकाशप्रदेश होने की बात है, उसे भी इसी दृष्टि से समझा जा सकता है। यौगलिक के बालों के खंडों को संस्पृष्ट करने वाले अाकाश-प्रदेशों में से प्रत्येक को प्रतिसमय निकालने की कल्पना की जाय / यों निकालते-निकालते जब सभी आकाश-प्रदेश निकाल लिये जाएं, कुआँ बिलकुल खाली हो जाय, वैसा होने में जितना काल लगे, उसे क्षेत्र-पल्योपम कहा जाता है / इसका काल-परिमाण असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी है। क्षेत्र-पल्योपम दो प्रकार का है-व्यावहारिक एवं सूक्ष्म / उपर्युक्त विवेचन व्यावहारिक क्षेत्र-पल्योपम का है। सूक्ष्म-क्षेत्र-पल्योपम इस प्रकार है :-कुएं में भरे यौगलिक के केश-खंडों से स्पृष्ट तथा अस्पृष्ट सभी आकाश--प्रदेशों में से एक-एक समय में एक-एक प्रदेश निकालने की र की जाय तथा यों निकालते-निकालते जितने काल में वह कनाँ समग्र आकाश-प्रदेशों से रिक्त हो जाय, वह कालपरिमाण सूक्ष्म-क्षेत्र-पल्योपम है / इसका भी काल-परिमाण असंख्यात उत्सर्पिणी-अवपिणी है / व्यावहारिक क्षेत्र-पल्योपम से इसका काल असंख्यात गुना अधिक होता है। अनुयोगद्वार सूत्र 138-140 तथा प्रवचन-सारोद्धारद्वार 148 में पल्योपम का विस्तार से विवेचन है। 63. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ बहिया जाव (वाणियगामाओ नयराओ दूइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं) विहरइ। तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर वाणिज्य ग्राम नगर के दूतीपलाश चैत्य से प्रस्थान कर एक दिन किसी समय अन्य जनपदों में विहार कर गए / 64. तए णं से आणंदे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव (उवलद्ध-पुण्णपावे आसवसंवरनिज्जरकिरियाअहिगरणबंधमोक्खकुसले, असहेज्जे, देवासुरणागसुवण्णजक्खरक्खसकिण्णर Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उपासकदशांगसूत्र किंपुरिसगरुलगंधब्वमहोरगाइएहि देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जे, निग्गंथे पावयणे णिस्संकिए, णिक्कंखिए, निवितिगिच्छे, लट्ठ, गहिय?, पुच्छिय?, अभिगयट्ठ, विणिच्छियट्ठ अद्धिमिजपेमाणुरागरत्ते, अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अट्ठ, अयं परम?; सेसे अण?, ऊसियफलिहे, अवंगुयदुवारे, चियत्तंतेउरपरघरदारप्पवेसे चाउद्दसट्ठमुद्दिठ्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेत्ता समणे निग्गथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकंबलपायछणेणं ओसहभेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढफलगसेज्जासंथारएणं) पडिलाभेमाणे विहरइ / तब प्रानन्द श्रमणोपासक हो गया / जिसने जीव, अजीव आदि पदार्थों के स्वरूप को अच्छी तरह समझ लिया था, [पुण्य और पाप का भेद जान लिया था, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण-जिसके आधार से क्रिया की जाए, बन्ध एवं मोक्ष को जो भली-भांति अवगत कर चुका था, जो किसी दूसरे की सहायता का अनिच्छुक आत्मनिर्भर था, जो देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि देवताओं द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन से अनतिक्रमणीय न विचलित किए जा सकने योग्य था, निर्ग्रन्थ-प्रवचन में जो निःशंक-शंका रहित, निष्कांक्ष-ग्रात्मोत्थान के सिवाय अन्य आकांक्षा-रहित, विचिकित्सा संशय रहित, लब्धार्थ धर्म के यथार्थ तत्त्व को प्राप्त किये हए, गहीतार्थ --उसे ग्रहण किये हए, पष्टार्थ-जिज्ञासा या प्रश्न द्वारा उसे स्थिर किये हुए, अभिगतार्थ-स्वायत्त किये हुए, विनिश्चितार्थ निश्चित रूप में आत्मसात् किए हुए था एवं जो अस्थि और मज्जा पर्यन्त धर्म के प्रति प्रेम व अनुराग से भरा था, जिसका यह निश्चित विश्वास था कि यह निग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ—प्रयोजनभूत है, यही परमार्थ है, इसके सिवाय अन्य अनर्थ---अप्रयोजनभूत हैं / 'ऊसिय-फलिहे' उठी हुई अर्गला है जिसकी, ऐसे द्वार वाला अर्थात् सज्जनों के लिये उसके द्वार सदा खुले रहते थे / अवंगुयदुवारे = खुले द्वार वाला अर्थात् दान के लिये उसके द्वार सदा खुले रहते थे / चियत्त का अर्थ है उन्होंने किसी के अन्तःपुर और पर-घर में प्रवेश को त्याग दिया था अथवा वह इतना प्रामाणिक था कि उसका अन्तःपुर में और परघर में प्रवेश भी प्रीति-जनक था, अविश्वास उत्पन्न करने वाला नहीं था / चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या तथा पूर्णिमा को जो [प्रानन्द] परिपूर्ण पोषध का अच्छी तरह अनुपालन करता हुआ, श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक-अचित्त या निर्जीव, एषणीय-उन द्वारा स्वीकार करने योग्य-निर्दोष, न,पान, खाद्य, स्वाद्य आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोञ्छन, औषध, भेषज, प्रातिहारिक-- लेकर वापस लौटा देने योग्य वस्तु, पाट, बाजोट, ठहरने का स्थान, बिछाने के लिए घास आदि द्वारा श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रतिलाभित करता हुआ] धार्मिक जीवन जी रहा था। 65. तए णं सा सिवनंदा भारिया समणोवासिया जाया जाव' पडिलाभमाणी विहरइ / आनन्द की पत्नी शिवनन्दा श्रमणोपासिका हो गई। यावत् [जिसे तत्वज्ञान प्राप्त था, श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रासुक और एषणीय पदार्थों द्वारा प्रतिलाभित करती हुई] धार्मिक जीवन जीने लगीं। 1. देखें सूत्र....संख्या 64 / Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [65 66. तए णं तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स उच्चावहि सीलव्वयगुणवेरमण-पच्चक्खाणपोसहोववाहि अप्पाणं भावमाणस्स चोहस संवच्छराई बइक्कताई। पण्णरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए, चितिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं वाणियगामे नयरे बहूणं राईसर जाव' सयस्स वि य णं कुडुबस्स जाव ( मेढी, पमाणं, ) आधारे, तं एएणं वक्खेवेणं अहं नो संचाएमि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म-पपत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। तं सेयं खलु ममं कल्लं जाव ( पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियाम्म अह पंडुरे पहाए रत्तासोगप्पगास-किसुय-सुयमुह-गुजद्धरागसरिसे, कमलागरसंडबोहए, उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा ) जलते विउलं असणपाणखाइमसाइमं जहा पूरणो, जाव ( उवक्खडावेत्ता, मित्त-नाइनियग-सयण-संबंधि-परिजणं आमंतेत्ता, तं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणं विउलेणं असण-पाणखाइम-साइमेणं वस्थगंधमल्लालंकारेण य सक्कारेत्ता, सम्माणेत्ता, तस्सेव मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरिजणस्स पुरओ) जेट्ट-पुत्तं कुडुबे ठवेत्ता, तं मित्त जाव (नाइनियगसयणसंबंधिपरिजणं ) जेटठपत्तं च आपच्छित्ता, कोल्लाए सन्निवेसे नायकलंसि पोसहसालं पडिलेहित्ता, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म-पत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं विउलं तहेव जिमिय-भुत्तुत्तरागए तं मित्त जावर विउलेणं पुप्फवस्थगंधमल्लालंकारेण य सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारित्ता, सम्माणित्ता तस्सेव मित्त जाव ( नाइनियगसयणसंबंधिपरिजणस्स ) पुरओ जेठ्ठपुत्तं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! अहं वाणियगामे बहूणं राईसर जहा चितियं जाय (एएणं वक्खेवेणं अहं नो संचाएमि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म-पत्ति उवसंपजिताणं) विहरित्तए / तं सेयं खलु मम इदाणि तुमं सयस्स कुडुम्बस्स मेढी, पमाणं, आहारे, आलंबणं ठवेत्ता जाव ( तं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणं तुमं च आपुच्छित्ता कोल्लाए सन्निवेसे नायकुलंसि पोसहसालं पडिलेहिता, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म-पत्ति उवसंपज्जिताणं) विहरित्तए / तदनन्तर श्रमणोपासक ग्रानन्द को अनेकविध शीलवत, गुणव्रत, विरमण-विरति, प्रत्याख्यान-त्याग, पोषधोपवास प्रादि द्वारा आत्म-भावित होते हुए प्रात्मा का परिष्कार और परिमार्जन करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए / जब पन्द्रहवां वर्ष आधा व्यतीत हो चुका था, एक दिन आधी रात के बाद धर्म-जागरण करते हुए प्रानन्द के मन में ऐसा अन्तर्भाव....चिन्तन, आन्तरिक मांग, मनोभाव या संकल्प उत्पन्न हुअा-वाणिज्यग्राम नगर में बहुत से मांडलिक नरपति, ऐश्वर्यशाली एवं प्रभावशील पुरुष आदि के अनेक कार्यों में मैं पूछने योग्य एवं सलाह लेने योग्य हूं, अपने सारे ब का मैं [ मेढि, प्रमाण तथा] आधार है / इस व्याक्षेप--कार्यबहलता या रुकावट के कारण मैं श्रमण भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति-धर्म-शिक्षा के अनुरूप प्राचार का सम्यक परिपालन नहीं कर पा रहा हूं। इसलिए मेरे लिए यही श्रेयस्कर है, मैं कल [रात बीत जाने पर, प्रभात हो जाने पर, नीले तथा अन्य कमलों के सुहावने रूप में खिल जाने पर, उज्ज्वल प्रभा एवं लाल 1. देखें सूत्र--संख्या 5 / 2. देखें सूत्र यही। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उपासकदशांगसूत्र अशोक, किंशुक, तोते की चोंच, घुघची के आधे भाग के रंग के सदृश लालिमा लिए हुए, कमल-वन को उद्बोधित-विकसित करने वाले, सहस्र-किरणयुक्त, दिन के प्रादुर्भावक सूर्य के उदित होने पर, अपने तेज से उद्दीप्त होने पर मैं पूरण' की तरह [बड़े परिमाण में अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य-आहार तैयार करवा कर मित्र-वृन्द, स्वजातीय लोग, अपने पारिवारिक जन, बन्धु-बान्धव, सम्बन्धि-जन तथा दास-दासियों को आमन्त्रित कर उन्हें अच्छी तरह भोजन कराऊंगा, वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ-इत्र आदि, माला तथा आभूषणों से उनका सत्कार करुंगा, सम्मान करुंगा एवं उनके सामने अपने ज्येष्ठ पुत्र को अपने स्थान पर नियुक्त करुंगा-कुटुम्ब का भार सौपूगा, अपने मित्र-गण [जातीय जन, पारिवारिक सदस्य, बन्धु-बान्धव, सम्बन्धी, परिजन] तथा ज्येष्ठ पुत्र को पूछ कर-उनकी अनुमति लेकर कोल्लाक-सग्निवेश में स्थित ज्ञातकुल की पोषध-शाला का प्रतिलेखन कर भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञति के अनुरूप प्राचार का परिपालन करुंगा। यों अानन्द ने ण- सम्यक चिन्तन किया। वैसा कर. दसरे दिन अपने मित्रों, जातीय जनों आदि को भोजन कराया / तत्पश्चात् उनका प्रचुर पुष्प, वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ, माला एवं आभूषणों से सत्कार किया, सम्मान किया / यों सत्कार-सम्मान कर, उनके समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को बुलाया। बुलाकर, जैसा सोचा था, वह सब तथा अपनी सामाजिक स्थिति एवं प्रतिष्ठा आदि समझाते हुए उसे कहा----पुत्र ! वाणिज्य ग्राम नगर में मैं बहुत से मांडलिक राजा, ऐश्वर्यशाली पुरुषों आदि से सम्बद्ध हूं, [इस व्याक्षेप के कारण, श्रमण, भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्मप्रज्ञप्ति के अनुरूप] समुचित धर्मोपासना कर नहीं पाता / अतः इस समय मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि तुमको अपने कुटुम्ब के मेढि, प्रमाण, आधार एवं आलम्बन के रूप में स्थापित कर मैं [मित्र-वृन्द, जातीय जन, परिवार के सदस्य, बन्धुबान्धव, सम्बन्धी, परिजन-इन सबको तथा तुम को पूछकर कोल्लाक-सनिवेश-स्थित ज्ञातकुल की पौषध-शाला का प्रतिलेखन कर, भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप] समुचित धर्मोपासना में लग जाऊं / 67. तए णं जेठ्ठपुत्ते आणंदस्स समणोवासगस्स 'तह त्ति एयमझें विणएणं पडिसुणेइ। तब श्रमणोपासक आनन्द के ज्येष्ठ पुत्र ने 'जैसी आपकी आज्ञा' यों कहते हुए अत्यन्त विनयपूर्वक अपने पिता का कथन स्वीकार किया। 68. तए णं से आणंदे समणोवासए तस्सेव मित्त जाव' पुरओ जेठ्ठपुत्तं कुडुम्बे ठवेइ, ठवित्ता एवं वयासी मा णं, देवाणुप्पिया ! तुब्भे अज्जप्पभिई केइ ममं बहुसु कज्जेसु जाव (य कारणेसु य मंतेसु य कुडुबेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य ) आपुच्छउ वा, पडिपुच्छउ वा, ममं अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवक्खडेउ वा उपकरेउ वा।। श्रमणोपासक अानन्द ने अपने मित्र-वर्ग, जातीय जन आदि के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटम्ब में अपने स्थान पर स्थापित किया उत्तर-दायित्व उसे सौंपा। वैसा कर उपस्थित जनों से उसने कहा-महानुभावो ! [देवानुप्रियो] आज से आप में से कोई भी मुझे विविध कार्यों [कारणों, मंत्रणाओं, पारिवारिक समस्याओं, गोपनीय बातों, एकान्त में विचारणीय विषयों, किए गए 1. देखिये--भगवती सूत्र / 2. देखें सूत्र-संख्या 66 / Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [67 निर्णयों तथा परस्पर के व्यवहारों के सम्बन्ध में न कुछ पूछे और न परामर्श ही करें, मेरे हेतु अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि आहार तैयार न करें और न मेरे पास लाएं। 69. तए णं से आणंदे समणोवासए जेठ्ठपुत्तं मित्तनाई आपुच्छइ, आपुच्छित्ता सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता वाणियगामं नयरं मझ-मझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छिता जेणेव कोल्लाए सन्निवेसे, जेणेव नायकुले, जेणेव पोसह-साला, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोसहसालं पमज्जइ, पमज्जित्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारयं संथरइ, संथरेता दब्भसंथारयं दुरुहइ, दुरुहिता पोसहसालाए पोसहिए दब्भसंथारोवगए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपत्ति उवसंपज्जिताणं विहरइ / फिर आनन्द ने अपने ज्येष्ठ पुत्र, मित्र-वृन्द, जातीय जन आदि की अनुमति ली। अनुमति लेकर अपने घर से प्रस्थान किया। प्रस्थान कर वाणिज्यग्राम नगर के बीच से गुजरा, जहां कोल्लाक सन्निवेश था, ज्ञातकुल एवं ज्ञातकुल की पोषधशाला थी, वहां पहुंचा / पहुंचकर पोषध-शाला का प्रमार्जन किया-सफाई की, शौच एवं लघुशंका के स्थान की प्रतिलेखना की। वैसा कर दर्भकुश का संस्तारक-बिछौना लगाया, उस पर स्थित हुआ, स्थित होकर पोषधशाला में पोषध स्वीकार कर श्रमण भगवान् महावीर के पास स्वीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति-धार्मिक शिक्षा के अनुरूप साधना-निरत हो गया। 70. तए णं से आणंदे समणोवासए उवासगपडिमाओ उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। पढम उवासगपडिमं अहासुत्तं, अहाकप्पं, अहामग्गं, अहातच्चं सम्मं काएणं फासेइ, पालेइ, सोहेइ, तीरेइ, कित्तेइ, आराहेइ। तदनन्तर श्रमणोपासक आनन्द ने उपासक-प्रतिमाएं स्वीकार की। पहली उपासक-प्रतिमा उसने यथाश्रुत-शास्त्र के अनुसार, यथाकल्प–प्रतिमा के आचार या मर्यादा के अनुसार, यथामार्ग -विधि या क्षायोपश मिक भाव के अनुसार, यथातत्त्व-सिद्धान्त या दर्शन-प्रतिमा के शब्द के तात्पर्य के अनुरूप भली-भांति सहज रूप में ग्रहण की, उसका पालन किया, अतिचार-रहित अनुसरण कर उसे शोधित किया अथवा गुरु-भक्तिपूर्वक अनुपालन द्वारा शोभित किया, तीर्ण कियाआदि से अन्त तक अच्छी तरह पूर्ण किया, कीर्तित किया सम्यक् परिपालन द्वारा अभिनन्दित किया, आराधित किया। 71. तए णं से आणंदे समणोवासए दोच्चं उवासगपडिम, एवं तच्चं, चउत्थं, पंचम, छठें, सत्तम, अट्ठमं, नवम, दसमं, एक्कारसमं जाव ( अहासुतं, अहाकप्पं, अहामग्गं, अहातच्चं सम्म काएणं फासेइ, पालेइ, सोहेइ, तीरेइ, कित्तेइ, ) आराहेइ / श्रमणोपासक आनन्द ने तत्पश्चात् दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी, छठी, सातवीं, पाठवीं, नौवीं, दसवीं तथा ग्यारहवीं प्रतिमा की आराधना की। [उनका यथाश्रुत, यथाकल्प, यथामार्ग एवं यथातत्त्व भली-भांति स्पर्श, पालन, शोधन तथा प्रशस्ततापूर्ण समापन किया / विवेचन प्रस्तुत सूत्र में आनन्द द्वारा ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं की आराधना का उल्लेख है। उपासक-प्रतिमा गृहस्थ साधक के धर्माराधन का एक उत्तरोत्तर विकासोन्मुख विशेष क्रम है, जहां आराधक विशिष्ट धार्मिक क्रिया के उत्कृष्ट अनुष्ठान में संलीन हो जाता है। प्रतिमा शब्द जहां Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68] [उपासक दशांगसूत्र प्रतीक या प्रतिबिम्ब आदि का वाचक है, वहाँ इसका एक अर्थ प्रतिमान या मापदण्ड भी है। साधक जहाँ किसी एक अनुष्ठान के उत्कृष्ट परिपालन में लग जाता है, वहाँ वह अनुष्ठान या प्राचार उसका मुख्य ध्येय हो जाता है / उसका परियालन एक आदर्श उदाहरण या मापदण्ड का रूप ले लेता है। अर्थात् वह अपनी साधना द्वारा एक ऐसी स्थिति उपस्थित करता है, जिसे अन्य लोग उस पाचार का प्रतिमान स्वीकार करते हैं / यह विशिष्ट प्रतिज्ञारूप है। साधक अपना आत्म-बल संजोये प्रतिमानों की आराधना में पहली से दूसरी, दूसरी से तीसरी, तीसरी से चौथी—यों क्रमशः उत्तरोत्तर आगे बढ़ता जाता है / एक प्रतिमा को पूर्ण कर जब वह आगे की प्रतिमा को स्वीकार करता है, तब स्वीकृत प्रतिमा के नियमों के साथ-साथ पिछली प्रतिमानों के नियम भी पालता रहता है / ऐसा नहीं होता, अगली प्रतिमा के नियम स्वीकार किये, पिछली के छोड़ दिये / यह क्रम अन्त तक चलता है। आचार्य अभयदेव सूरि ने अपनी वृत्ति में संक्षेप में इन ग्यारह प्रतिमाओं पर प्रकाश डाला है। एतत्संबंधी गाथाएं भी उद्धृत की हैं / उपासक को प्रतिमाओं का संक्षिप्त विश्लेषण इस प्रकार है 1. दर्शनप्रतिमा–दर्शन का अर्थ दृष्टि या श्रद्धा है / दृष्टि या श्रद्धा वह तत्त्व है, जो आत्मा के अभ्युदय और विकास के लिए सर्वाधिक आवश्यक है / दृष्टि शुद्ध होगी, सत्य में श्रद्धा होगी, तभी साधनोन्मुख व्यक्ति साधना-पथ पर सफलता से गतिशील हो सकेगा / यदि दृष्टि में विकृति, शंका, अस्थिरता आ जाय तो आत्म-विकास के हेतु किए जाने वाले प्रयत्न सार्थक नहीं होते। वैसे श्रावक साधारणतया सम्यकदृष्टि होता ही है, पर इस प्रतिमा में वह दर्शन या दृष्टि की विशेष आराधना करता है / उसे अत्यन्त स्थिर तथा अविचल बनाए रखने हेतु वीतराग देव, पंचमहाव्रतधर गुरु तथा वीतराग द्वारा निरूपित मार्ग पर वह दृढ विश्वास लिए रहता है, एतन्मूलक चिन्तन, मनन एवं अनुशीलन में तत्पर रहता है। ___ दर्शनप्रतिमा का पाराधक श्रमणोपासक सम्यक्त्व का निरतिचार पालन करता है। उसके प्रतिपालन में शंका, कांक्षा आदि के लिए स्थान नहीं होता / वह अपनी आस्था में इतना दृढ होता है कि विभिन्न मत-मतान्तरों को जानता हुआ भी उधर प्राकृष्ट नहीं होता। वह अपनी प्रास्था, श्रद्धा या निष्ठा को अत्यन्त विशुद्ध बनाए रहता है। उसका चिन्तन एवं व्यवहार इसी आधार पर चलता है। दर्शनप्रतिमा की आराधना का समय एक मास का माना गया है। 2. व्रतप्रतिमा-दर्शन-प्रतिमा की आराधना के पश्चात् उपासक व्रत-प्रतिमा की आराधना करता है। व्रत-प्रतिमा में वह पांच अणुव्रतों का निरतिचार पालन करता है और तीन गुणवतों का भी। चार शिक्षाव्रतों को भी वह स्वीकार करता है, किन्तु उनमें सामायिक और देशावकाशिक व्रत का यथाविधि सम्यक् पालन नहीं कर पाता / वह अनुकम्पा आदि गुणों से युक्त होता है / इस प्रतिमा की आराधना का काल-मान दो मास का है। 3. सामायिकप्रतिमा सम्यक् दर्शन एवं व्रतों की पाराधना करने वाला साधक सामायिकप्रतिमा स्वीकार कर प्रतिदिन नियमतः तीन बार सामायिक करता है / इस प्रतिमा में वह सामायिक Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [69 एवं देशावकाशिक व्रत का सम्यक् रूप में पालन करता है, पर अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या तथा पूर्णिमा आदि विशिष्ट दिनों में पोषधोपवास की भली-भांति अाराधना नहीं कर पाता। ___ तन्मयता एवं जागरूकता के साथ सामायिक व्रत को उपासना इस प्रतिमा का अभिप्रेत है। इसकी आराधना की अवधि तीन मास की है / 4. पोषधप्रतिमा प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय प्रतिमा से आगे बढ़ता हुआ आराधक पोषधप्रतिमा स्वीकार कर अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व-तिथियों पर पोषध-व्रत का पूर्णरूपेण पालन करता है / इस प्रतिमा की आराधना का समय चार मास है। 5. कायोत्सर्गप्रतिमा--कायोत्सर्ग का अर्थ काय या शरीर का त्याग है। शरीर तो यावज्जीवन साथ रहता है, उसके त्याग का अभिप्राय उसके साथ रही आसक्ति या ममता को छोड़ना है / कायोत्सर्ग-प्रतिमा में उपासक शरीर, वस्त्र आदि का ध्यान छोड़कर अपने को आत्म-चिन्तन में लगाता है / अष्टमी एवं चतुर्दशी के दिन रात भर कायोत्सर्ग या ध्यान की आराधना करता है। इस प्रतिमा की अवधि एक दिन, दो दिन अथवा तीन दिन से लेकर अधिक से अधिक पांच मास की है। इसमें रात्रि-भोजन का त्याग रहता है। दिन में ब्रह्मचर्य व्रत रखा जाता है। रात्रि में अब्रह्मचर्य का परिमाण किया जाता है। 6. ब्रह्मचर्यप्रतिमा-इसमें पूर्णरूपेण ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है। स्त्रियों से अनावश्यक मेलजोल, बातचीत, उनकी शृगारिक चेष्टाओं का अवलोकन आदि इसमें वजित है। उपासक स्वयं भी शृगारिक वेशभूषा व उपक्रम से दूर रखता है / इस प्रतिमा में उपासक सचित्त आहार का त्याग नहीं करता / कारणवश वह सचित्त का सेवन करता है। इस प्रतिमा की आराधना का काल-मान न्यूनतम एक दिन, दो दिन या तीन दिन तथा उत्कृष्ट छह मास हैं। / [इसमें जीवन-पर्यन्त ब्रह्मचर्य स्वीकार किये रहने का भी विधान है। 7. सचित्ताहारवर्जनप्रतिमा—पूर्वोक्त नियमों का परिपालन करता हुअा, परिपूर्ण ब्रह्मचर्य का अनुसरण करता हुआ उपासक इस प्रतिमा में सचित्त आहार का सर्वथा त्याग कर देता है, पर वह प्रारम्भ का त्याग नहीं कर पाता। इस प्रतिमा की आराधना का उत्कृष्ट काल सात मास का है / 8. स्वयं-प्रारम्भ-वर्जन-प्रतिमा--पूर्वोक्त सभी नियमों का पालन करते हुए इस प्रतिमा में उपासक स्वयं किसी प्रकार का आरम्भ या हिंसा नहीं करता / इतना विकल्प इसमें है आजीविका या निर्वाह के लिए दूसरे से प्रारम्भ कराने का उसे त्याग नहीं होता। इस प्रतिमा की आराधना की अवधि न्यूनतम एक दिन, दो दिन या तीन दिन तथा उत्कृष्ट पाठ मास है। 9. भृतक-प्रेष्यारम्भ-वर्जन-प्रतिमा-पूर्ववर्ती प्रतिमाओं के सभी नियमों का पालन करता Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70] [उपासकांगसूत्र हुमा उपासक इस प्रतिमा में प्रारम्भ का परित्याग कर देता है / अर्थात् वह स्वयं प्रारम्भ नहीं करता, औरों से नहीं कराता, किन्तु प्रारम्भ करने की अनुमति देने का उसे त्याग नहीं होता। __ अपने उद्देश्य से बनाए गए भोजन का वह परिवर्जन नहीं करता, उसे ले सकता है। इस प्रतिमा की आराधना की न्यूनतम अवधि एक दिन, दो दिन या तीन दिन है तथा उत्कृष्ट नौ मास है। 10. उद्दिष्ट-भक्त-वर्जन-प्रतिमा पूर्वोक्त नियमों का अनुपालन करता हुआ उपासक इस प्रतिमा में उद्दिष्ट—अपने लिए तैयार किए गए भोजन आदि का भी परित्याग कर देता है। वह अपने आपको लौकिक कार्यों से प्रायः हटा लेता है / उस सन्दर्भ में वह कोई आदेश या परामर्श नहीं देता / अमुक विषय में वह जानता है अथवा नहीं जानता----केवल इतना सा उत्तर दे सकता है / इस प्रतिमा का आराधक उस्तरे से सिर मुडाता है, कोई शिखा भी रखता है। इसकी आराधना की समयावधि न्यूनतम एक, दो या तीन दिन तथा उत्कृष्ट दस मास है। 11. श्रमणभूत-प्रतिमा--पूर्वोक्त सभी नियमों का परिपालन करता हुआ साधक इस प्रतिमा में अपने को लगभग श्रमण या साधु जैसा बना लेता है। उसकी सभी क्रियाएं एक श्रमण की यतना और जागरूकतापूर्वक होती हैं। वह साध जैसा वेश धारण करता है, वैसे ही पात्र, उपकरण आदि रखता है। मस्तक के बालों को उस्तरे से मुडवाता है, यदि सहिष्णुता या शक्ति हो तो लुचन भी कर सकता है / साधु की तरह वह भिक्षा-चर्या से जीवन-निर्वाह करता है। इतना अन्तर है--साधु हर किसी के यहाँ भिक्षा हेतु जाता है, यह उपासक अपने सम्बन्धियों के घरों में ही जाता है, क्योंकि तब तक उनके साथ उसका रागात्मक सम्बन्ध पूरी तरह मिट नहीं पाता। इसकी आराधना का न्यूनतम काल-परिमाण एक दिन, दो दिन या तीन दिन है तथा उत्कृष्ट ग्यारह मास है। इसे श्रमणभूत इसीलिए कहा गया है यद्यपि वह उपासक श्रमण की भूमिका में तो नहीं होता, पर प्रायः श्रमण-सदृश होता है। ___ 72. तए णं से आणंदे समणोवासए इमेणं एयारवेणं उरालेणं, विउलेणं पयत्तेणं, पग्गहिएणं तवोकम्मेणं सुक्के जाव (लुक्खे, निम्मंसे, अट्ठिचम्मावणद्धे, किडिकिडियाभूए, किसे) धमणिसंतए जाए। ___इस प्रकार श्रावक-प्रतिमा आदि के रूप में स्वीकृत उत्कृष्ट, विपुल साधनोचित प्रयत्न तथा तपश्चरण से श्रमणोपासक आनन्द का शरीर सूख गया, [रूक्ष हो गया, उस पर मांस नहीं रहा, हड्डियां और चमड़ी मात्र बची रहीं, हड्डियां आपस में भिड़-भिड़ कर अावाज करने लगीं,] शरीर में इतनी कृशता या क्षीणता आ गई कि उस पर उभरी हुई नाड़ियां दीखने लगीं। 73. तए णं तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स अन्नया कयाई पुव्य-रत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयं अज्झथिए-एवं खलु अहं इमेणं जाव (एयारवेणं, उरालेणं, विउलेणं, पयत्तेणं, पग्गहिएणं तवोकम्मेणं सुक्के, लुक्खे, निम्मंसे, अट्ठि-चम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए, किसे,) धमणिसंतए जाए। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गायापति आनन्द] [71 तं अस्थि ता मे उट्ठाणे, कम्मे, बले, वीरिए, पुरिसक्कारपरक्कमे, सद्धा, धिई, संवेगे / तं जाव ता मे अस्थि उटाणे सद्धा धिई संवेगे, जाव य मे धम्मायरिए, धम्मोवएसए, समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ, ताव ता मे सेयं कल्लं जाव' जलंते अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा-झूसणाझूसियस्स, भत्त-पाण-पडियाइविखयस्स कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए / एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं जाकर अपच्छिममारणंतिय जाव (संलेहणा-झूसणा-झूसिए, भत्त-पाण-पडियाइक्खिए,) कालं अणवकंखमाणे विहरइ। एक दिन आधी रात के बाद धर्मजागरण करते हए अानन्द के मन में ऐसा अन्तर्भाव या संकल्प उत्पन्न हुआ---[इस प्रकार श्रावक-प्रतिमा आदि के रूप में स्वीकृत उत्कृष्ट, विपुल साधनोचित प्रयत्न तथा तपश्चरण से मेरा शरीर सूख गया है, रूक्ष हो गया है, उस पर मांस नहीं रहा है, हड्डियां और चमड़ी मात्र बची रही हैं, हड्डियां आपस में भिड़-भिड़ कर अावाज करने लगी हैं,] शरीर में इतनी कृशता आ गई है कि उस पर उभरी हुई नाड़ियाँ दीखने लगी हैं। मुझ में उत्थान-धर्मोन्मुख उत्साह, कर्म-तदनुरूप प्रवृत्ति, बल-शारीरिक शक्ति-दृढता, वीर्य-पान्तरिक प्रोज, पूरुषाकार पराक्रम--पुरुषोचित पराक्रम या अन्तःशक्ति, श्रद्धा-धर्म के प्रति आस्था, धृति-सहिष्णुता, संवेग- मुमुक्षुभाव है / जब तक मुझमें यह सब है तथा जब तक मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, जिन-राग-द्वेष-विजेता, सुहस्ती श्रमण भगवान् महावीर विचरण कर रहे हैं, तब तक मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं कल सूर्योदय होने पर अन्तिम मारणान्तिक संलेखना स्वीकार कर ल, खान-पान का प्रत्याख्यान—परित्याग कर दू, मरण की कामना न करता हुआ, आराधनारत हो जाऊं-शान्तिपूर्वक अपना अन्तिम काल व्यतीत करू / आनन्द ने यों चिन्तन किया। चिन्तन कर दूसरे दिन सवेरे अन्तिम मारणान्तिक संलेखना स्वीकार की, खान-पान का परित्याग किया, मृत्यु की कामना न करता हुआ वह आराधना में लीन हो गया। 74. तए णं तस्स आणंदस समणोवासगस्स अन्नया कयाइ सुभेणं अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेसाहिं विसुज्झमाणीहि, तदावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ओहि-नाणे समुप्पन्ने। पुरस्थिमे णं लवण-समुद्दे पंच-जोयणसयाई खेत्तं जाणइ पासइ, एवं दक्खिणे णं पच्चस्थिमे ण य, उत्तरेणं जाव चुल्लहिमवंतं वासधरपव्वयं जाणइ, पासइ, उड्ढं जाव सोहम्मं कप्पं जाणइ पासइ, अहे जाव इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुयं नरयं चउरासीइवाससहस्सटिइयं जाणइ पासइ / तत्पश्चात् श्रमणोपासक अानन्द को एक दिन शुभ अध्यवसाय-मनःसंकल्प, शुभ परिणाम–अन्तः परिणति, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं--पुद्गल द्रव्य के संसर्ग से होने वाले आत्मपरिणामों या विचारों के कारण, अवधि-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से अवधि-ज्ञान उत्पन्न हो गया / फलतः वह पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में पांच-सौ, पांच-सौ योजन तक का लवण समुद्र का क्षेत्र, उत्तर दिशा में चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र, ऊर्ध्व दिशा में सौधर्म कल्प-प्रथम 1. देखें सूत्र संख्या 66 2. देखें सूत्र संख्या 66 3. भगवान महावीर का एक उत्कर्ष-सूचक विशेषण / Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72] [उपासकदशांगसूत्र देवलोक तक तथा अधोदिशा में प्रथम नारक-भूमि रत्नप्रभा में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति युक्त, लोलुपाच्युत नामक नरक तक जानने लगा, देखने लगा। विवेचन लेश्याएं-प्रस्तुत सूत्र में श्रमणोपासक आनन्द को अवधि-ज्ञान उत्पन्न होने के सन्दर्भ में शुभ अध्यवसाय तथा शुभ परिणाम के साथ-साथ विशुद्ध होती हुई लेश्याओं का उल्लेख है / लेश्या जैन दर्शन का एक विशिष्ट तत्त्व है, जिस पर बड़ा गहन विश्लेषण हुआ है। लेश्या का तात्पर्य पुद्गल द्रव्य के संसर्ग से होने वाले आत्मा के परिणाम या विचार हैं। प्रश्न हो सकता है, प्रात्मा चेतन है, पुद्गल जड़ है, फिर जड़ के संसर्ग से चेतन में परिणाम-विशेष का उद्भव कैसे संभव है ? यहाँ ज्ञातव्य है कि यद्यपि प्रात्मा जड़ से सर्वथा भिन्न है, पर संसारावस्था में उसका जड़ पुद्गल के साथ गहरा संसर्ग है / अतः पुद्गल-जनित परिणामों का जीव पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। जिन पुद्गलों से आत्मा के परिणाम प्रभावित होते हैं, उन पुद्गलों को द्रव्य-लेश्या कहा जाता है / आत्मा में जो परिणाम उत्पन्न होते हैं, उन्हें भाव-लेश्या कहा जाता है। ___ द्रव्य-लेश्या पुद्गलात्मक है, इसलिए उसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श स्वीकार किया गया है। द्रव्य-लेश्याओं के जो वर्ण माने गए हैं, लेश्याओं का नामकरण उनके आधार पर हुअा है / लेश्याएं छह हैं : कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या, कापोत-लेश्या, तेजो-लेश्या, पद्म-लेश्या तथा शुक्ल-लेश्या। कृष्णलेश्या का वर्ण काजल के समान काला, रस नीम से अनन्त गुना कटु, गन्ध मरे हुए सांप की गन्ध से अनन्त गुनी अनिष्ट तथा स्पर्श गाय की जिह्वा से अनन्त गुना कर्कश है। नीललेश्या का वर्ण नीलम के समान नीला, रस सौंठ से अनन्त गुना तीक्ष्ण, गन्ध एवं स्पर्श कृष्णलेश्या जैसे होते हैं। कापोतलेश्या का वर्ण कपोत -कबूतर के गले के समान, रस कच्चे आम के रस से अनन्त गुना तिक्त तथा गन्ध व स्पर्श कृष्ण व नील लेश्या जैसे होते हैं। तेजोलेश्या का वर्ण हिंगुल या सिन्दूर के समान रक्त, रस पके आम के रस से अनन्त गुना मधुर तथा गन्ध सुरभि-कुसुम की गन्ध से अनन्त गुनी इष्ट एवं स्पर्श मक्खन से अनन्त गुना सुकुमार होता है। पद्मलेश्या का रंग हरिद्रा-हल्दी के समान पीला, रस मधु से अनन्त गुना मिष्ट तथा गन्ध व स्पर्श तेजोलेश्या जैसे होते हैं। शुक्ललेश्या का वर्ण शंख के समान श्वेत, रस सिता--मिश्री से अनन्त गुना मिष्ट तथा गन्ध व स्पर्श तेजोलेश्या व पद्मलेश्या जैसे होते हैं / लेश्याओं का रंग भावों को प्रशस्तता तथा अप्रशस्तता पर आधृत है। कृष्णलेश्या अत्यन्त कलुषित भावों की परिचायक है। भावों का कालुष्य ज्यों ज्यों कम होता है, वर्गों में अन्तर होता जाता है / कृष्णलेश्या से जनित भावों की कलुषितता जब कुछ कम होती है तो नीललेश्या की स्थिति आ जाती है, और कम होती है तब कापोतलेश्या की स्थिति बनती है। कृष्ण, नील और कापोत Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] ये तीनों वर्ण अप्रशस्त भाव के सूचक हैं / इनसे अगले तीन वर्ग प्रशस्त भाव के सूचक हैं। पहली तीन लेश्याओं को अशुभ तथा अगली तीन को शुभ माना गया है। जैसे बाह्य वातावरण, स्थान, भोजन, रहन-सहन आदि का हमारे मन पर भिन्न-भिन्न प्रकार का असर पड़ता है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार के पुद्गलों का आत्मा पर भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रभाव होना अस्वाभाविक नहीं है / प्राकृतिक चिकित्सा-क्षेत्र में भी यह तथ्य सुविदित है / अनेक मनोरोगों की चिकित्सा में विभिन्न रंगों की रश्मियों का अथवा विभिन्न रंगों की शीशियों के जलों का उपयोग किया जाता है। कई ऐसे विशाल चिकित्सालय भी बने हैं। गुजरात में जामनगर का 'सोलेरियम' एशिया का इस कोटि का सुप्रसिद्ध चिकित्सा केन्द्र है। जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्यान्य भारतीय दर्शनों में भी अन्तर्भावों या आत्म-परिणामों के सन्दर्भ में अनेक रंगों की परिकल्पना है। उदाहरणार्थ. सांख्यदर्शन में सत्त्व. र तमस् ये तीन गुण माने गए हैं। तीनों के तीन रंगों की भी अनेक सांख्य-ग्रन्थों में चर्चा है। ईश्वरकृष्णरचित सांख्यकारिका की सुप्रसिद्ध टीका सांख्य-तत्व-कौमुदी के लेखक वाचस्पति मिश्र ने अपनी टीका के प्रारंभ में अजा-अन्य से अनुत्पन्न-प्रकृति को अजा-बकरी से उपमित करते हुए उसे लोहित, शुक्ल तथा कृष्ण बतलाया है।' लोहित-लाल, शुक्ल-सफेद और कृष्ण काला, ये सांख्यदर्शन में स्वीकृत रजस्, सत्त्व, तमस्-तीनों गुणों के रंग हैं। रजोगुण मन को रागरंजित या मोह-रंजित करता है, इसलिए वह लोहित है, सत्त्वगुण मन को निर्मल या मल रहित बनाता है, इसलिए वह शुक्ल है, तमोगुण अन्धकार-रूप है, ज्ञान पर प्रावरण डालता है, इसलिए वह कृष्ण है / लेश्याओं से सांख्यदर्शन का यह प्रसंग तुलनीय है। पतंजलि ने योगसूत्र में कर्मों को शुक्ल, कृष्ण तथा शुक्ल-कृष्ण (अशुक्लाकृष्ण)-तीन प्रकार का बतलाया है / कर्मों के ये वर्ण, उनकी प्रशस्तता तथा अप्रस्तता के सूचक हैं / ऊपर पुद्गलात्मक द्रव्य-लेश्या से आत्मा के प्रशस्त-अप्रशस्त परिणाम उत्पन्न होने की जो बात कही गई है, इसे कुछ और गहराई से समझना होगा। द्रव्य-लेश्या के साहाय्य से प्रात्मा में जो परिणाम उत्पन्न होते हैं, अर्थात् भाव-लेश्या निष्पन्न होती है, तात्त्विक दृष्टि से उनके दो कारण हैं-मोह-कर्म का उदय अथवा उसका उपशम, क्षय या क्षयोपशम / मोह-कर्म के उदय से जो भावलेश्याएं निष्पन्न होती हैं, वे अशुभ या अप्रशस्त होती हैं तथा मोह-कर्म के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से जो भाव-लेश्याएं होती हैं, वे शुभ या प्रशस्त होती हैं। कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या-~ये मोह-कर्म के उदय से होती हैं, इसलिए अप्रशस्त हैं। तेजोलेश्या, पद्मलेश्या एवं शुक्ललेश्या-ये उपशम. क्षय या क्षयोपशम से होती हैं, इसलिए शुभ या प्रशस्त हैं। प्रात्मा में एक ओर ग्रौदयिक, औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक भाव उद्भूत होते हैं, दूसरी ओर वैसे पुद्गल या 1. अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णा, वह्वीः प्रजाः सृजमानां नमामः / अजा ये तां जुषमाणां भजन्ते, जहत्येना भुक्तभोगां नुमस्तान् / 2. कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् / -पातंजलयोगसूत्र 4. 7 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74] - [उपासकदशांगसूत्र द्रव्य-लेश्याएं निष्पन्न होती हैं। इसलिए एकान्त रूप से न केवल द्रव्य-लेश्या भाव-लेश्या का कारण है और न केवल भाव-लेश्या द्रव्य-लेश्या का कारण है / ये अन्योन्याश्रित हैं / ऊपर द्रव्य-लेश्या से भाव-लेश्या या प्रात्म-परिणाम उद्भूत होने की जो बात कही गई है, वह स्थूल दृष्टि से है। द्रव्य-लेश्या और भाव-लेश्या की अन्योन्याश्रितता को आयुर्वेद के एक उदाहरण से समझा जा सकता है। प्रायुर्वेद में पित्त, कफ तथा वात-ये तीन दोष माने गए हैं। जब पित्त प्रकुपित्त होता है या पित्त का देह पर विशेष प्रभाव होता है तो व्यक्ति क्रुद्ध होता है, उत्तेजित हो जाता है। क्रोध एवं उत्तेजना से फिर पित्त बढ़ता है। कफ जब प्रबल होता है तो शिथिलता, तन्द्रा एवं आलस्य पैदा होता है। शिथिलता, तन्द्रा एवं आलस्य से पुनः कफ बढ़ता है / वात की प्रबलता चांचल्य-अस्थिरता व कम्पन पैदा करती है / चंचलता एवं अस्थिरता से फिर वात की वृद्धि होती है / यों पित्त आदि दोष तथा इनसे प्रकटित क्रोध आदि भाव अन्योन्याश्रित हैं। द्रव्य-लेश्या और भाव-लेश्या का कुछ इसी प्रकार का सम्बन्ध है। जैन वाङमय के अनेक ग्रन्थों में लेश्या का यथा-प्रसंग विश्लेषण हुया है। प्रज्ञापनासूत्र के 17 वें पद में तथा उत्तराध्ययनसूत्र के 34 वें अध्ययन में लेश्या का विस्तृत विवेचन है, जो पठनीय है। आधुनिक मनोविज्ञान के साथ जैनदर्शन का यह विषय समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक दृष्टि से अनुशीलन करने योग्य है / अस्तु / प्रस्तुत सूत्र में आनन्द के उत्तरोत्तर प्रशस्त होते या विकास पाते अन्तर्भावों का जो संकेत है, उससे प्रकट होता है कि आनन्द अन्तःपरिष्कार या अन्तर्मार्जन की भूमिका में अत्यधिक जागरूक था / फलतः उसकी लेश्याएं, आत्म-परिणाम प्रशस्त से प्रशस्ततर होते गए और उसको अवधि-ज्ञान उत्पन्न हो गया। आनन्द : अवधि-ज्ञान अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य-शक्ति प्रात्मा का स्वभाव है / कर्म आवरण है, जैनदर्शन के अनुसार वे पुद्गलात्मक हैं, मूर्त हैं / आत्म-स्वभाव को वे आवृत करते हैं / आत्मस्वभाव उनसे जितना, जैसा प्रावृत होता है, उतना अप्रकाशित रहता है। कर्मों के प्रावरण आत्मा के स्वोन्मुख प्रशस्त अध्यवसाय, उत्तम परिणाम, पवित्र भाव एवं तपश्चरण से जैसे-जैसे हटते जाते हैं-मिटते जाते हैं, वैसे-वैसे आत्मा का स्वभाव उद्भासित या प्रकट होता जाता है / ज्ञान को आवत करने वाले कर्म ज्ञानावरण कहे जाते हैं / जैनदर्शन में ज्ञान के पांच भेद हैं-मति-ज्ञान; श्रुत-ज्ञान, अवधि-ज्ञान, मन:-पर्याय-ज्ञान तथा केवल-ज्ञान / इनका आवरण या आच्छादन करने वाले कर्म-पुद्गल क्रमशः मति-ज्ञानावरण, श्रुत-ज्ञानाबरण, अवधि-ज्ञानावरण, मनःपर्याय-ज्ञानावरण तथा केवल-ज्ञानावरण कहे जाते हैं / इन आवरणों के हटने से ये पांचों ज्ञान प्रकट होते हैं / परोक्ष और प्रत्यक्ष के रूप में इनमें दो भेद हैं / प्रत्यक्षज्ञान किसी दूसरे माध्यम के बिना आत्मा द्वारा ही ज्ञेय को सीधा ग्रहण करता है / परोक्षज्ञान की ज्ञेय तक सीधी पहुँच नहीं होती। मति-ज्ञान और श्रुत-ज्ञान परोक्ष हैं, क्यों कि वहाँ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गायीपति आनन्द] मन और इन्द्रियों का सहयोग अपेक्षित है। वैसे स्थल रूप में हम किसी वस्तु को आँखों से देखते हैं, जानते हैं, उसे प्रत्यक्ष देखना कहा जाता है। पर वह केवल व्यवहार-भाषा है, इसलिए दर्शन में उसकी संज्ञा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है / निश्चय-दृष्टि से वह प्रत्यक्ष में नहीं आता क्योंकि ज्ञाता आत्मा और ज्ञेय पदार्थ में आँखों के माध्यम से वहाँ सम्बन्ध है, सीधा नहीं है। अवधि-ज्ञान, मनःपर्याय-ज्ञान और केवल-ज्ञान में इन्द्रिय और मन के साहाय्य की आवश्यकता नहीं होती / वहाँ ज्ञान की ज्ञेय तक सीधी पहुँच होती है। इसलिए ये प्रत्यक्ष-भेद में आते हैं / इनमें केवल-ज्ञान को सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है और अवधि व मन:पर्याय को विकल या अपूर्ण पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है क्योंकि इनसे ज्ञेय के सम्पूर्ण पर्याय नहीं जाने जा सकते। अवधि-ज्ञान वह अतीन्द्रिय ज्ञान है, जिसके द्वारा व्यक्ति द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की एक मर्यादा या सीमा के साथ मर्त या सरूप पदार्थों को जानता है। अवधि-ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम जैसा मन्द या तीव्र होता है, उसके अनुसार अवधि-ज्ञान की व्यापकता होती है। अवधि-ज्ञान के सम्बन्ध में एक विशेष बात और है---देव-योनि और नरक-योनि में वह जन्मसिद्ध है। उसे भव-प्रत्यय अवधि-ज्ञान कहा जाता है / इन योनियों में जीवों को जन्म धारण करते ही सहज रूप में योग्य या उपयुक्त क्षयोपशम द्वारा अवधि-ज्ञान उत्पन्न हो जाता है / इसका आशय यह है कि अवधि-ज्ञानावरण के क्षयोपशम हेतु उन्हें तपोमूलक प्रयत्न नहीं करना पड़ता / वैसा वहाँ शक्य भी नहीं है। __तप, व्रत, प्रत्याख्यान आदि निर्जरामूलक अनुष्ठानों द्वारा अवधि-ज्ञानावरण-कर्म-पुद्गलों के क्षयोपशम से जो अवधि-ज्ञान प्राप्त होता है, उसे गुण-प्रत्यय अवधि-ज्ञान कहा जाता है / वह मनुष्यों और तिर्यञ्चों में होता है / भव-प्रत्यय और गुण-प्रत्यय अवधि-ज्ञान में एक विशेष अन्तर यह हैभव-प्रत्यय अवधि-ज्ञान देव-योनि और नरक-योनि के प्रत्येक जीव को होता है; गुण-प्रत्यय अवधिज्ञान प्रत्यय द्वारा भी मनुष्यों और तिर्यञ्चों में सबको नहीं होता, किन्हीं-किन्हीं को होता है, जिन्होंने तदनुरूप योग्यता प्राप्त कर ली हो, जिनका अवधि-ज्ञानावरण का क्षयोपशम सधा हो / आनन्द अपने उत्कृष्ट प्रात्म-बल के सहारे, पवित्र भाव तथा प्रयत्नपूर्वक वैसी स्थिति अधिगत कर चुका था, उसके अवधि-ज्ञानावरण-कर्म-पुद्गलों का क्षयोपशम हो गया था, जिसकी फल-निष्पत्ति अवधि-ज्ञान में प्रस्फुटित हुई। प्रस्तुत सूत्र में श्रमणोपासक अानन्द द्वारा प्राप्त अवधि-ज्ञान के विस्तार की चर्चा करते हुए पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में लवणसमुद्र तथा उत्तर में चुल्लहिमवंत वर्षधर का उल्लेख आया है। इनका मध्यलोक से सम्बन्ध है। जैन भूगोल के अनुसार मध्यलोक में मनुष्य क्षेत्र ढाई द्वीपों तक विस्तृत है / मध्य में जम्बूद्वीप है, जो वृत्ताकार-गोल है, जिसका विष्कम्भ-व्यास एक लाख योजन है-जो एक लाख योजन लम्बा तथा एक लाख योजन चौड़ा है / जम्बूद्वीप में भरतवर्ष, हैमवतवर्ष, हरिवर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हैरण्यवतवर्ष तथा ऐरावत वर्ष-ये सात क्षेत्र हैं। इन सातों क्षेत्रों को अलग करने वाले पूर्व-पश्चिम लम्बे-हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी तथा शिखरी-ये छह वर्ष वर्षधर पर्वत हैं। जम्बद्वीप के चारों ओर लवणसमुद्र है। लवणसमुद्र का व्यास जम्बुद्वीप से दुगुना है / लवणसमुद्र के चारों ओर धातकीखण्ड नामक द्वीप है। उनका व्यास लवणसमुद्र से दुगुना है / धातकीखण्ड के चारों ओर कालोदधि नामक समुद्र है, जिसका विस्तार धातकीखण्ड से दुगुना है / कालोदधिसमुद्र के चारों तरफ पुष्करद्वीप है। इस द्वीप के बीच में मानुषोत्तर पर्वत है / Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " [उपासकदशांगसूत्र मनुष्यों का प्रावास वहीं तक है अर्थात् जम्बूद्वीप, धातकीखंड तथा प्राधा पुष्करद्वीप-इन ढाई द्वीपों में मनुष्य रहते हैं। श्रमणोपासक आनन्द को जो अवधि-ज्ञान उत्पन्न हुआ था, उससे वह जम्बूद्वीप के चारों ओर फैले लवणसमुद्र में पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण-इन तीन दिशाओं में पांच सौ योजन की दूरी तक देखने लग गया था / उत्तर में वह हिमवान् वर्षधर पर्वत तक देखने लग गया था। जम्बूद्वीप में वर्षधर पर्वतों में पहले दो-हिमवान् तथा महाहिमवान् हैं / प्रस्तुत सूत्र में हिमवान् के लिए चुल्लहिमवंत पद का प्रयोग हुआ है / चुल्ल का अर्थ छोटा है। महाहिमवान् की दृष्टि से हिमवान् के साथ यह विशेषण दिया गया है। ऊर्ध्वलोक में आनन्द द्वारा सौधर्म-कल्प तक देखे जाने का संकेत है। [ऊर्ध्व लोक में निम्नांकित देवलोक अवस्थित हैं सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत तथा नौ ग्रैवेयक एवं पांच अनुत्तर विमान—विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध / सौधर्म इन में प्रथम देवलोक है। अधोलोक में निम्नांकित सात नरक भूमियां हैं-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः-प्रभा एवं महातमःप्रभा। ये क्रमशः एक दूसरे के नीचे अवस्थित हैं। रत्नप्रभा भूमि में लोलुपाच्युत प्रथम नरक का एक ऊपरी विभाग है, जहाँ चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले नारक रहते हैं। तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे अध्याय में अधोलोक और मध्यलोक का तथा चौथे अध्याय में ऊर्ध्वलोक का वर्णन है / जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन है। __ श्रमणोपासक आनन्द के अवधिज्ञान का विस्तार उसके अवधि-ज्ञानावरण-कर्म-पुद्गलों के क्षयोपशम के कारण चारों दिशाओं में उपर्युक्त सीमा तक था। 75. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए, परिसा निग्गया जाव' पडिगया। उस काल-वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय भगवान् महावीर समवसृत हुए-पधारे / परिषद् जुड़ी, धर्म सुनकर वापिस लौट गई। __76. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूई नाम अणगारे गोयम-गोत्तेणं, सत्तुस्सेहे, समचउरंससंठाणसंठिए, वज्जरिसहनारायसंघयणे, कणगपुलगनिघसपम्हगोरे, उग्गतवे, दित्ततवे, तत्ततवे घोरतवे, महातवे, उराले, घोरगुणे, घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी, उच्छूढसरीरे, संखित्त-विउल-तेउ-लेस्से, छळं-छोणं अणिक्खित्तेणं तवो-कम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार, जिनकी देह की ऊंचाई सात हाथ थी, जो समचतुरस्त्र-संस्थान-संस्थित थे-देह के चारों 1. देखें सूत्र संख्या 11 // Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [77 अंशों की सुसंगत, अंगों के परस्पर समानुपाती, सन्तुलित और समन्वित रचनामय शरीर के धारक थे, जो वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन-सुदृढ अस्थि-बन्धयुक्त विशिष्ट-देह-रचनायुक्त थे, कसौटी पर खचित स्वर्ण-रेखा की आभा लिए हुए कमल के समान जो गौर वर्ण थे, जो उग्र तपस्वी थे, दीप्त तपस्वीकर्मों को भस्मसात् करने में अग्नि के समान प्रदीप्त तप करने वाले थे, तप्ततपस्वी—जिनकी देह पर तपश्चर्या की तीव्र झलक व्याप्त थी, जो कठोर एवं विपुल तप करने वाले थे, जो उराल-प्रबलसाधना में सशक्त, घोरगुण–परम उत्तम-जिनको धारण करने में अद्भुत शक्ति चाहिए-ऐसे गुणों के धारक, घोर तपस्वी-प्रबल तपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी--कठोर ब्रह्मचर्य के पालक, उत्क्षिप्तशरीरदैहिक सार-संभाल या सजावट से रहित थे, जो विशाल तेजोलेश्या अपने शरीर के भीतर समेटे हुए थे, बेले-बेले निरन्तर तप का अनुष्ठान करते हुए, संयमाराधना तथा तन्मूलक अन्यान्य तपश्चरणों द्वारा अपनी आत्मा को भावित–संस्कारित करते हुए विहार करते थे। 77. तए णं से भगवं गोयमे छट्ठक्खण-पारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बिइयाए पोरिसीए शाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियं अचवलं असंभंते मुहपत्ति पडिलेहेइ, पडिलेहिता भायण-वत्थाई पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता भायणवत्थाई पमज्जइ, पज्जित्ता भायणाई उग्गाहेइ, उग्गाहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए छठक्खमणपारणगंसि वाणियगामे नयरे उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाई घर-समुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया ! (मा पडिबंधं करेह।) बेले के पारणे का दिन था, भगवान् गौतम ने पहले पहर में स्वाध्याय किया, दूसरे पहर में ध्यान किया, तीसरे पहर में अत्वरित-जल्दबाजी न करते हुए, अचपल--- स्थिरतापूर्वक, असंभ्रान्त-अनाकुल भाव से-जागरूकतापूर्वक मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया, पात्रों और वस्त्रों का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन किया। पात्र उठाये, वैसा कर, जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आए / उन्हें वंदन, नमस्कार किया / वंदन, नमस्कार कर यों बोले-- भगवन् ! आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर मैं आज बेले के पारणे के दिन वाणिज्यग्राम नगर में उच्च (सधन), निम्न (निर्धन), मध्यम-सभी कुलों में गृह-समुदानी-क्रमागत किसी भी घर को बिना छोडे की जाने वाली भिक्षा-चर्या के लिए जाना चाहता हूं। भगवान् बोले-देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, (बिना प्रतिबन्ध-विलम्ब किए) करो। 78. तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ दूइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतर-परिलोयणाए दिट्ठीए पुरओ ईरियं सोहेमाणे जेणेक वाणियगामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वाणियगामे नयरे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाइं घर-समुदाणस्स भिक्खायरियाए अडइ। श्रमण भगवान् महावीर से अभ्यनुज्ञात होकर उनकी आज्ञा प्राप्त कर भगवान् गौतम ने Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78] . [उपासकदशांगसूत्र दूतीपलाश चैत्य से प्रस्थान किया। प्रस्थान कर, बिना शीघ्रता किए, स्थिरतापूर्वक अनाकुल भाव से युग-परिमाण--साढ़े तीन हाथ तक मार्ग का परिलोकन करते हुए, ईर्यासमितिपूर्वक-भूमि को भली भांति देखकर चलते हुए, जहां वाणिज्यग्राम नगर था, वहां पाए। आकर वहां उच्च, निम्न एवं मध्यम कुलों में समुदानी-भिक्षा-हेतु धूमने लगे। 79. तए णं से भगवं गोयमे वाणियगामे नयरे, जहा पण्णत्तीए तहा, जाव (उच्च-नीयमज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स) भिक्खायरियाए अडमाणे अहा-पज्जत्तं भत्त-पाणं सम्म पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेत्ता वाणियगामाओ पडिणिग्गच्छइ, पडिणिग्गच्छित्ता कोल्लायस्स सन्निवेसस्स अदूरसामंतेणं वीईवयमाणे, बहुजणसई निसामेइ, बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइएवं खलु देवाणुप्पिया ! समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी आणंदे नामं समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिम जाय (मारणंतिय-संलेहणा-झूसणा-झूसिए, भत्तपाणपडियाइक्खिए कालं) अणवकंखमाणे विहरइ / भगवान् गौतम ने व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में वर्णित भिक्षाचर्या के विधान के अनुरूप (उच्च, निम्न एवं मध्यम कुलों में समुदानी भिक्षा हेतु) धूमते हुए यथापर्याप्त-जितना जैसा अपेक्षित था, उतना आहार-पानी भली-भांति ग्रहण किया / ग्रहण कर वाणिज्यनाम नगर से चले। चलकर जब कोल्लाक सन्निवेश के न अधिक दूर, न अधिक निकट से निकल रहे थे, तो बहुत से लोगों को बात करते सुना / वे आपस में यों कह रहे थे-देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासीशिष्य श्रमणोपासक आनन्द पोषधशाला में मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए अन्तिम संलेखना, (खानपान का परित्याग-आमरण अनशन) स्वीकार किए आराधना-रत हैं। 80. तए णं तस्स गोयमस्स बहुजणस्स अंतिए एयमझें सोच्चा, निसम्म अयमेयारूवे अज्झथिए, चितिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--तं गच्छामि णं आणंदं समणोवासयं पासामि / एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता जेणेव कोल्लाए सन्निवेसे जेणेव पोसह-साला, जेणेव आणंदे समणोबासए, तेणेव उवागच्छइ / अनेक लोगों से यह बात सुनकर, गौतम के मन में ऐसा भाव, चिन्तन, विचार या संकल्प उठा-मैं श्रमणोपासक अानन्द के पास जाऊं और उसे देखू। ऐसा सोचकर वे जहां कोल्लाक सन्निवेश था, पोषध-शाला थी, श्रमणोपासक आनन्द था, वहां गए / 81. तए णं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयम एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट जाव' हियए भगवं गोयमं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी-एवं खलु भंते ! अहं इमेणं उरालेणं जाव' धमणि-संतए जाए, नो संचाएमि देवाणुप्पियस्स अंतियं पाउभवित्ता णं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाए अभिवंदित्तए, तुम्भे ! इच्छाकारेणं अभिओएणं इओ चेव एह, जा णं देवाणुप्पियाणं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वंदामि नमसामि / 1. देखें सूत्र-संख्या 12 2. देखें सूत्र-संख्या 73 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [79 श्रमणोपासक आनन्द ने भगवान् गौतम को आते हुए देखा / देखकर वह (यावत्) अत्यन्त प्रसन्न हुआ, भगवान् गौतम को वन्दन-नमस्कार कर बोला--भगवन् ! मैं घोर तपश्चर्या से इतना क्षीण हो गया हूं कि मेरे शरीर पर उभरी हुई नाड़ियां दीखने लगी हैं। इसलिए देवानुप्रिय केआपके पास आने तथा तीन बार मस्तक झुका कर चरणों में वन्दना करने में असमर्थ हूं। अत एव प्रभो ! आप ही स्वेच्छापूर्वक, अनभियोग से—किसी दबाव के बिना यहां पधारें, जिससे मैं तीन बार मस्तक झुकाकर देवानु प्रिय के-आपके चरणों में वन्दन, नमस्कार कर सकू। 82. तए णं से भगवं गोयमे, जेणेव आणंदे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ / तब भगवान् गौतम, जहां आनन्द श्रमणोपासक था, वहां गये / 83. तए णं से आणंदे समणोवासए भगवओ गोयमस्स तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वंदद नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-अस्थि णं भंते ! गिहिणो गिहमज्झावसंतस्य ओहिनाणं समुप्पज्जइ ? हंता अस्थि / जइ णं भंते ! गिहिणो जाव (गिहमज्झावसंतस्स ओहि-नाणं) समुप्पज्जइ, एवं खलु भंते ! मम वि गिहिणो गिहमज्यावसंतस्स ओहि-नाणे समुप्पण्णे-पुरस्थिमे णं लवण-समुद्दे पंच जोयणसयाई जाव (खेत्तं जाणामि पासामि एवं दक्खिणेणं पच्चत्थिमेणं य, उत्तरेणं जाव चुल्लाहमवंतं वासधरपव्वयं जाणामि पासामि, उड्जाव सोहम्म कप्पं जाणामि पासामि, अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए) लोलुयच्चुयं नरयं जाणामि पासामि / श्रमणोपासक आनन्द ने तीन बार मस्तक झुकाकर भगवान् गौतम के चरणों में वन्दन, नमस्कार किया। वन्दन, नमस्कार कर वह यों बोला-भगवन् ! क्या घर में रहते हुए एक गृहस्थ को अवधि-ज्ञान उत्पन्न हो सकता है ? गौतम ने कहा-हो सकता है। आनन्द बोला-भगवन् ! एक गृहस्थ की भूमिका में विद्यमान मुझे भी अवधिज्ञान हुआ है, जिससे मैं पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में पांच-सौ, पांच-सौ योजन तक का लवणसमुद्र का क्षेत्र, उत्तर दिशा में चुल्ल हिमवान्-वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र, ऊर्ध्व दिशा में सौधर्म कल्प तक तथा अधोदिशा में प्रथम नारक भूमि रत्न-प्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक तक जानता हूं, देखता 84. तए णं से भगवं गोयमे आणंदं समणोवासयं एवं वयासो—अस्थि गं, आणंदा ! गिहिणो जाव' समुप्पज्जइ / नो चेव णं एमहालए। तं गं तुमं, आणंदा ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव (पडिक्कमाहि, निंदाहि, गरिहाहि, विउट्टाहि, विसोहेहि अकरणयाए, अन्भुट्ठाहि अहारिहं पायच्छित्तं) तवो-कम्म पडिवज्जाहि / 1. देखें सूत्र-संख्या 83 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80] [उपासकदशांगसूत्र तब भगवान् गौतम ने श्रमणोपासक अानन्द से कहा-गृहस्थ को अवधि-ज्ञान उत्पन्न हो सकता है, पर इतना विशाल नहीं। इसलिए आनन्द ! तुम इस स्थान की इस मृषावाद रूप स्थिति या प्रवृत्ति की आलोचना करो, (प्रतिक्रमण करो-पुनः शुद्ध अन्तःस्थिति में लौटो, इस प्रवृत्ति की निन्दा करो, गर्दा करो--आन्तरिक खेद अनुभव करो, इसे वित्रोटित करो-विच्छिन्न करो या मिटाओ, इस अकरणता या अकार्य का विशोधन करो-इससे जनित दोष का परिमार्जन करो, यथोचित्त प्रायश्चित्त के लिए अभ्युत्थित-उद्यत हो जाओ) तदर्थ तपःकर्म स्वीकार करो। 85. तए णं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयम एवं वयासी–अस्थि णं, भंते ! जिण-वयणे संताणं, तच्चाणं तहियाणं, सब्भूयाणं भावाणं आलोइज्जइ जाव पडिक्कमिज्जइ, निदिज्जइ, गरिहिज्जइ, विउट्टिज्जइ, विसोहिज्जइ अकरणयाए, अब्भुट्टिज्जइ अहारिहं पारच्छित्तं तपोकम्म) पडिवज्जिज्जइ ? नो इण? सम? / __ जइ णं भंते ! जिण-वयणे संताणं जाव (तच्चाणं, तहियाणं, सब्भूयाणं) भावाणं नो आलोइज्जइ जाव (नो पडिक्कमिज्जइ, नो निदिज्जइ, नो गरिहिज्जइ, नो विउट्टिज्जइ, नो विसोहिज्जइ अकरणयाए, नो अब्भुद्विज्जइ अहारिहं पायच्छित्तं) तवो-कम्मं नो पडिवज्जिज्जइ, तं गं भंते ! तुब्भे चेव एयस्स ठाणस्स आलोएह जाव (पडिक्कमेह, निदेह, गरिहेह, विउट्टह, विसोहेह अकरणयाए, अब्भुट्ठह अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म) पडिवज्जह / श्रमणोपासक आनन्द भगवान् गौतम से बोला-भगवन् ! क्या जिन-शासन में सत्य, तत्त्वपूर्ण, तथ्य-यथार्थ, सद्भूत भावों के लिए भी आलोचना (प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा, निवृत्ति, अकरणता-विशुद्धि, यथोचित प्रायश्चित्त, तदनुरूप तपःक्रिया) स्वीकार करनी होती है ? गौतम ने कहा-ऐसा नहीं होता। आनन्द बोला-भगवन् ! जिन-शासन में सत्य भावों के लिए पालोचना (प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा, निवृत्ति, अकरणता-विशुद्धि, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तदनुरूप तपःक्रिया) स्वीकार नहीं करनी होती तो भन्ते ! इस स्थान-आचरण के लिए आप ही आलोचना (प्रतिक्रमण, निन्दा, गहीं, निवृत्ति, अकरणता-विशुद्धि यथोचित प्रायश्चित्त तथा तदनुरूप तपःक्रिया) स्वीकार करें / 56. तए णं से भगवं गोयमे आणंदेणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे, संकिए, कंखिए, विइगिच्छा-समावन्ने, आणंदस्स अंतियाओ पडिणिवखमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव दूइपलासे चेइए, जेणेव समणे भगवं महाबीरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामन्ते गमणागमणाए पडिक्कमइ पडिक्कमित्ता एसणमणेसणं आलोएइ, आलोइत्ता भत्तपाणं पडिदसइ, पडिदंसित्ता समणं भगवं वंदइ नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं बयासी-एवं खलु भंते ! अहं तुम्भेहि अब्भणुण्णाए तं चेव सव्वं कहेइ, जाव तए णं अहं संकिए, कंखिए, विइगिच्छा-समावन्ने आणंदस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पडिणिक्खमामि, पडिणिक्खमित्ता जेणेव इहं तेणेव हव्वमागए, तं णं भंते ! किं आणंदेणं समणोवासएणं तस्स ठाणस्स आलोएयव्वं जाव (पडिक्कम्मेयव्वं, निदेयव्वं, Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] गरिहेयन्वं, विउट्टेयव्वं विसोहेयध्वं अकरणयाए, अन्भुट्ट्यव्वं अहारिहं पायच्छित्तं तवो-कम्म) पहिवज्जेयव्वं उदाहु मए? गोयमा ! इ समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं बयासी-गोयमा ! ' तुम चेव णं तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवज्जाहि, आणंदं च समणोवासयं एयमढें खामेहि। श्रमणोपासक अानन्द के यों कहने पर भगवान् गौतम के मन में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा--- संशय उत्पन्न हुआ। वे आनन्द के पास से रवाना हुए। रवाना होकर जहां दूतीपलाश चैत्य था, भगवान् महावीर थे, वहां आए। आकर श्रमण भगवान् महावीर के न अधिक दूर, न अधिक नजदीक गमन-प्रागमन का प्रतिक्रमण किया, एषणीय-अनेषणीय की आलोचना की। आलोचना कर आहारपानी भगवान् को दिखलाया / दिखलाकर वन्दन-नमस्कार कर वह सब कहा जो भगवान् से आज्ञा लेकर भिक्षा के लिए जाने के पश्चात् घटित हया था ! वैसा कर वे बोले-मैं इस घटना के बाद शंका, कांक्षा और संशययुक्त होकर श्रमणोपासक आनन्द के यहां से चलकर आपके पास त हूँ। भगवन् ! उक्त स्थान-पाचरण के लिए क्या श्रमणोपासक आनन्द को आलोचना (प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा, निवृत्ति अकरणता-विशुद्धि, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तदनुरूप तपःक्रिया) स्वीकार करनी चाहिए या मुझे ? __श्रमण भगवान् महावीर बोले--गौतम ! इस स्थान-आचरण के लिए तुम ही आलोचना करो तथा इसके लिए श्रमणोपासक अानन्द से क्षमा-याचना भी। 87. तए णं से भगवं गोयमे, समणस्स भगवओ महावीरस्स तह ति एयमट्ट विणएणं पडिसणेइ, पडिसूणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव (पडिक्कमह, निवड, गरिहइ, विउद्रइ, विसोहइ, अकरणयाए, अन्भुढेइ अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म) पडिवज्जइ, आणंदं च समणोवास एयमटुंखामेइ। भगवान गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर का कथन, 'पाप ठोक फरमाते हैं', यों कहकर विनयपूर्वक सुना / सुनकर उस स्थान पाचरण के लिए आलोचना, (प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा, निवृत्ति, अकरणता-विशुद्धि, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तदनुरूप तपःक्रिया) स्वीकार की एवं श्रमणोपासक आनन्द से क्षमा-याचना की। 88. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ बहिया जणक्य-विहारं विहरइ / तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर किसी समय अन्य जनपदों में विहार कर गए। 89. तए णं से आणंदे समणोवासए बहहिं सील-वएहि जाव (गुण-वेरमण-पच्चक्खाणपोसहोववाहि) अप्पाणं भावेत्ता, वीसं वासाइं समणोवासग-परियागं पाउणित्ता, एक्कारस य उवासग-पडिमाओ सम्मं कारणं फासित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता, आलोइय-पडिक्कते, समाहिपत्ते, कालमासे कालं किच्चा, सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिसगस्स महाविमाणस्स उत्तरपुरस्थिमेणं अरुणे विमाणे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ णं अत्थे१. देखें सूत्र-संख्या 84 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82] [उपासकदशांगसूत्र गइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णता / तत्थ णं आगंदस्य वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णसा। यों श्रमणोपासक आनन्द ने अनेकविध शीलवत [गुणवत, विरमण विरति, प्रत्याख्यानत्याग एवं पोषधोपवास द्वारा आत्मा को भावित किया--प्रात्मा का परिष्कार और परिमार्जन किया / बीस वर्ष तक श्रमणोपासक पर्याय-श्रावक-धर्म का पालन किया, ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं का भली-भांति अनुसरण किया, एक मास की संलेखना और साठ भोजन—एक मास का अनशन संपन्न कर, आलोचना, प्रतिक्रमण कर मरण-काल आने पर समाधिपूर्वक देह-त्याग किया। देहत्याग कर वह सौधर्म देवलोक में सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशान-कोण में स्थित अरुण-विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ / वहां अनेक देवों की आयु-स्थिति चार पल्योपम की होती है / श्रमणोपासक अानन्द की आयु-स्थिति भी चार पल्योपम की बतलाई गई है। 90. आणंदे णं भंते ! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता, कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववज्जिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झहिइ / निक्खेवो // सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं पढमं अज्झयणं समत्तं / गौतम ने भगवान महावीर से पूछा- भन्ते ! आनन्द उस देवलोक से आयु, भव एवं स्थिति के क्षय होने पर देव-शरीर का त्याग कर कहां जायगा ? कहां उत्पन्न होगा? भगवान् ने कहा-गौतम ! आनन्द महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा-सिद्ध-गति या मुक्ति प्राप्त करेगा। / निक्षेप // 2 / / सातवें अंग उपासकदशा का प्रथम अध्ययन समाप्त / / 1. एवं खलु जम्बु ! समणेणं जाव उवासगदसाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्तेत्ति-बेमि / 2. निगमन-आर्य सुधर्मा बोले-जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने उपासकदशा के प्रथम अध्ययन का यही अर्थ-भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन सार : संक्षेप श्रमण भगवान् महावीर के समय की बात है, पूर्व बिहार में चम्पा नामक नगरी थी / वहां के राजा का नाम जितशत्रु था / सम्भवत: चम्पा नगरी को अवस्थिति, आज जहां भागलपुर है, उसके आस-पास थी / कुछ अवशेष, चिह्न आदि आज भी वहां विद्यमान हैं। चम्पा अपने युग की एक अत्यन्त समृद्ध नगरी थी। वहां कामदेव नामक एक गाथापति रहता था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था, जो सुयोग्य तथा पतिपरायण थी। कामदेव एक बहुत समृद्ध एवं सम्पन्न गृहस्थ था। उसकी सम्पत्ति माथापति आनन्द से भी बड़ी-चढ़ी थी। छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं स्थायी पूजी के रूप में उसके खजाने में थीं, छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार-व्यवसाय में लगी थीं तथा छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव-उपकरण, साज-सामान आदि के उपभोग में आ रही थीं। दस-दस हजार गायों के छह गोकुल उसके वहां थे। इतने बड़े वैभवशाली पुरुष के दासदासियों, कर्मचारियों आदि की संख्या भी बहुत बड़ी रही होगी / लौकिक भाषा में जिसे सुख, समृद्धि तथा सम्पन्नता कहा जाता है, वह सब कामदेव को प्राप्त था। कामदेव का पारिवारिक जीवन सुखी था। वह एक सौजन्यशील तथा मिलनसार व्यक्ति था / वह समाज में अग्रगण्य था / राजकीय क्षेत्र में उसका भारी सम्मान था / नगर के सम्भ्रान्त और प्रतिष्ठित जन महत्त्वपूर्ण कार्यों में उसका परामर्श लेते थे, उसकी बात को आदर देते थे / यह सब इसलिए था कि कामदेव विवेकी था। प्रानन्द की तरह कामदेव के जीवन में भी एक नया मोड़ आया। उसके विवेक को जागत होने का एक विशेष अवसर प्राप्त हुआ / जन-जन को अहिंसा, समता और सदाचार का संदेश देते हुए श्रमण भगवान् महावीर अपने पाद-बिहार के बीच चम्पा पधारे / पूर्णभद्र नामक चैत्य में रुके। भगवान् का पदार्पण हुआ, जानकर दर्शनार्थियों का तांता बंध गया। राजा जितशत्रु भी अपने राजकीय ठाठ-बाट के साथ भगवान के दर्शन करने गया। अन्यान्य धर्मानुरागी नागरिक-जन भी वहाँ पहुंचे / ज्यों ही कामदेव को यह ज्ञात हुआ, वह धर्म सुनने की उत्कंठा लिए भगवान् की सेवा में पहुंचा। धर्म-देशना श्रवण की / उसका विवेक उद्बुद्ध हुआ। उस परम वैभवशाली गाथापति के मन को भगवान् के उपदेश ने एकाएक झकझोर दिया / आनन्द की तरह उसने भगवान् से गृहिधर्म स्वीकार किया। गृहस्थ में रहते हुए भी भोग, वासना, लालसा और कामना की दष्टि से जितना हो सके बचा जाय, जीवन को संयमित और नियंत्रित रखा जाय, इस भावना को लिए हुए कामदेव अपने सभी काम करता था। आसक्ति का भाव उसके जीवन में कम होता जा रहा था। आनन्द की ही तरह फिर जीवन में दूसरा मोड़ आया। उसने पारिवारिक तथा लौकिक त्व अपने ज्येष्ठ पत्र को सौपे. स्वयं अपने आपको अधिकाधिक साधना में लगा यिया। शील व्रत, त्याग-प्रत्याख्यान आदि की आराधना में उसने तन्मय भाव से अपने को रमा दिया / ऐसा करते हुए उसके जीवन में एक परीक्षा की घड़ी आई। वह पोषधशाला में पोषध लिए बैठा था। उसकी Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84] उपासकदशांगसूत्र साधना में विघ्न करने के लिए एक मिथ्यात्वी देव आया। उसने कामदेव को भयभीत और संत्रस्त करने हेतु एक अत्यन्त भीषण, विकराल, भयावह पिशाच का रूप धारण किया, जिसे देखते ही मन थर्रा उठे। पिशाच ने तीक्ष्ण खड्ग हाथ में लिए हुए कामदेव को डराया-धमकाया और कहा कि तम अपनी उपासना छोड़ दो, नहीं तो अभी इस तलवार से काट कर टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा / कामदेव विवेकी और साहसी पुरुष था, दृढनिष्ठ था / परीक्षा की घड़ी ही तो वह कसौटी है, जब व्यक्ति खरा या खोटा सिद्ध होता है। कामदेव की परीक्षा थी। जब कामदेव अविचल रहा तो पिशाच और अधिक ऋद्ध हो गया। उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर वैसे ही कहा। पर, कामदेव पूर्ववत् दृढ एवं सुस्थिर बना रहा / तब पिशाच ने जैसा कहा था, कामदेव की देह के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। कामदेव प्रात्म-दृढता और धैर्य के साथ इस घोर वेदना को सह गया, चूतक नहीं किया। यह देवमायाजन्य था, इतनी त्वरा से हुआ कि तत्काल कामदेव दैहिक दृष्टि से यथावत् हो गया। उस देव ने कामदेव को साधना से विचलित करने के लिए और अधिक कष्ट देने का सोचा। एक उन्मत्त, दुर्दान्त हाथी का रूप बनाया / कामदेव को आकाश में उछाल देने, दांतों से बींध देने और पैरों से रौंद देने की धमकी दी। एक बार, दो बार, तीन बार यह किया। कामदेव स्थिर और दृढ रहा / तब हाथी-रूपधारी देव ने कामदेव को जैसा उसने कहा था, घोर कष्ट दिया / पर, कामदेव की दृढता अविचल रही। देव ने एक बार फिर प्रयत्न किया। वह उग्र विषधर सर्प बन गया। सर्प के रूप में उसने कामदेव को क्रूरता से उत्पीडित किया, उसकी गर्दन में तीन लपेट लगा कर छाती पर डंक मारा। पर, उसका यह प्रयत्न भी निष्फल गया। कामदेव जरा भी नहीं डिगा। परीक्षा की कसौटी पर वह खरा उतरा। विकार-हेतुओं के विद्यमान रहते हुए भी जो चलित नहीं होता, वास्तव में वही धीर है। अहिंसा हिंसा पर विजयिनी हुई / अहिंसक कामदेव से हिंसक देव ने हार मान ली / देव के सुह से निकल पड़ा-'कामदेव' ! निश्चय ही तुम धन्य हो / ' वह देव कामदेव के चरणों में गिर पड़ा, क्षमा मांगने लगा / उसने वह सब बताया कि सौधर्म देवलोक में उसने इन्द्र के मुंह से कामदेव की धार्मिक दृढता की प्रशंसा सुनी थी, जिसे वह सह नहीं सका / इसीलिए वह यों उपसर्ग करने आया / ___ उपासक कामदेव का मन उपासना में रमा था। जब उसने उपसर्ग को समाप्त हुआ जाना, तो स्वीकृत प्रतिमा का पारण-समापन किया। शुभ संयोग ऐसा बना, भगवान महावीर अपने जनपद-विहार के बीच चम्पा नगरी में पधार गए / कामदेव ने यह सुना तो सोचा, कितना अच्छा हो, मैं भगवान् को वन्दन-नमस्कार कर, पोषध का समापन करू / तदनुसार वह पूर्णभद्र चैत्य, जहाँ भगवान् विराजित थे, पहुँचा / भगवान् के दर्शन किए, अत्यन्त प्रसन्न हुआ / भगवान् तो सर्वज्ञ थे / जो कुछ घटित हुआ, जानते ही थे / उन्होंने कामदेव को सम्बोधित कर उन तीनों उपसर्गों का जिक्र किया, जिन्हें कामदेव निर्भय भाव से झेल चका था / भगवान् ने कामदेव को सम्बोधित कर कहा-कामदेव ! क्या यह सब घटित हुआ? कामदेव ने विनीत भाव से उत्तर दिया-भन्ते ! ऐसा ही हुआ। भगवान् महावीर ने कामदेव के साथ हुई इस घटना को दृष्टि में रखते हुए उपस्थित साधुसाध्वियों को सम्बोधित करते हुए कहा-एक श्रमणोपासक गृहस्थी में रहते हुए भी जब धर्माराधना Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव] [85 में इतनी दृढता बनाए रख सकता है तो आप सबका तो ऐसा करना कर्तव्य है ही / साधक को कभी कष्टों से घबराना नहीं चाहिए, उनको दृढता से झेलते रहना चाहिए। इससे साधना निर्मल और उज्ज्वल बनती है। ___ भगवान् की दृष्टि में कामदेव का आचरण धार्मिक दृढता के सन्दर्भ में एक प्रेरक उदाहरण था, इसलिए उन्होंने सार्वजनिक रूप में उसकी चर्चा करना उपयोगी समझा / कामदेव ने जिज्ञासा से भगवान् से अनेक प्रश्न पूछे, समाधान प्राप्त किया, वन्दन-नमस्कार कर वापस लौट आया / पोषध का समापन किया। कामदेव अपने को उत्तरोत्तर, अधिकाधिक साधना में जोड़ता गया / उसके परिणाम उज्ज्वल से उज्ज्वलतर होते गए, भावना अध्यात्म में रमती गई। उसके उपासनामय जीवन का संक्षिप्त विवरण यों है कामदेव ने बीस वर्ष तक श्रमणोपासक-धर्म का सम्यक् परिपालन किया, ग्यारह प्रतिमाओं की आराधना की, एक मास की अन्तिम संलेखना तथा अनशन द्वारा समाधिपूर्वक देह-त्याग किया। वह सौधर्म कल्प के सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशान कोण में स्थित अरुणाभ नामक विमान में चार पल्योपम आयुस्थितिक देव हुअा। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : कामदेव 91. जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव' संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते, दोच्चस्स णं भंते ! अन्सयणस्स के अठे पण्णते ? आर्य सुधर्मा से जम्बू ने पूछा-यावत् सिद्धि-प्राप्त भगवान् महावीर ने सातवें अंग उपासकदशा के प्रथम अध्ययन का यदि यह अर्थ-आशय प्रतिपादित किया तो भगवन् ! उन्होंने दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया है ? श्रमणोपासक कामदेव 92. एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था। पुण्णभद्दे चेइए। जियसत्तू राया। कामदेवे गाहावई। भद्दा भारिया। छ हिरण्ण-कोडीओ निहाण-पउत्ताओ, छ वुड्डि-पउत्ताओ, छ पवित्थर-पउत्ताओ, छ वया, दस-गो-साहस्सिएणं वएणं / समोसरणं / जहा आणंदो तहा निग्गओ, तहेव साक्य-धम्म पडिवज्जइ। सा चेव बत्तब्वया जाव' जेट्ठ-पुत्तं, मित्त-नाई आपुच्छित्ता, जेणेव पोसह-साला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जहा आणंदो जाव (पोसह-सालं पमज्जइ, पमज्जित्ता उच्चार-पासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहिता दब्भ-संथारयं संथरइ, संथरेत्ता बब्भ-संथारयं दुरुहइ, दुरुहिता-पोसहसालाए पोसहिए दन्भ-संथारोवगए) समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म-पत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहर। आर्य सुधर्मा बोले- जम्बू ! उस काल-वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय-जब भगवान् महावीर सदेह विद्यमान थे, चम्पा नामक नगरी थी। पूर्णभद्र नामक चैत्य था। वहां के राजा का नाम जितशत्रु था। वहां कामदेव नामक गाथापति था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। गाथापति कामदेव का छः करोड़ स्वर्ण-स्वर्ण-मुद्राएं खजाने में रखी थीं, छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थीं तथा छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव-साधनसामग्री में लगी थीं / उसके छह गोकुल थे / प्रत्येक गोकुल में दस हजार गायें थीं। भगवान् महावीर पधारे। समवसरण हुआ। गाथापति आनन्द की तरह गाथापति कामदेव भी अपने घर से चला भगवान् के पास पहुंचा, श्रावक-धर्म स्वीकार किया। __आगे की घटना भी वैसी ही है, जैसी आनन्द की। अपने बड़े पुत्र, मित्रों तथा जातीय जनों की अनुमति लेकर कामदेव जहां पोषध-शाला थी, वहां आया, (पाकर आनन्द की तरह पोषध-शाला का प्रमार्जन किया- सफाई की, शौच एवं लघुशंका के स्थान का प्रतिलेखन किया, प्रतिलेखन कर कुश का बिछौना लगाया, उस पर स्थित हुआ। वैसा कर पोषध-शाला में पोषध 1. देखें सूत्र संख्या 2 2. देखें सूत्र संख्या 66 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव] [57 स्वीकार किया,) श्रमण भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति-धर्म-शिक्षा के अनुरूप उपासना-रत हो गया। देव द्वारा पिशाच के रूप में उपसर्ग 93. तए णं तस्स कामदेवस्स समणोवासगस्स पुन्वरत्तावरत्त-काल-समयंसि एगे देवे मायीभिच्छदिट्ठी अंतियं पाउन्भूए। (तत्पश्चात् किसी समय) आधी रात के समय श्रमणोपासक कामदेव के समक्ष एक मिथ्यादृष्टि, मायावी देव प्रकट हुआ। विवेचन उत्कृष्ट तपश्चरण, साधना एवं धर्मानुष्ठान के सन्दर्भ में भयोत्पादक तथा मोहोत्पादक-- दोनों प्रकार के विघ्न उपस्थित होते रहने का वर्णन भारतीय वाङमय में बहुलता से प्राप्त होता है। साधक के मन में भय उत्पन्न करने के लिए जहां राक्षसों तथा पिशाचों के क्रूर एवं नृशंस कर्मों का उल्लेख है, वहां काम व भोग की ओर आकृष्ट करने के लिए, मोहित करने के लिए वैसे वासना-प्रधान पात्र भी प्रयत्न करते देखे जाते हैं। वैदिक वाङमय में ऋषियों के तप एवं यज्ञानुष्ठान में विघ्न डालने, उन्हें दूषित करने हेतु राक्षसों द्वारा उपद्रव किये जाने के वर्णन अनेक पुराण-ग्रन्थों तथा दूसरे साहित्य में प्राप्त होते हैं। दूसरी ओर सुन्दर देवांगनाओं द्वारा उन्हें मोहित कर धर्मानुष्ठान से विचलित करने के उपक्रम भी मिलते हैं। बौद्ध वाङमय में भी भगवान् बुद्ध के 'मार-विजय' प्रभृति अनेक प्रसंगों में इस कोटि के वर्णन उपलब्ध हैं। जैन साहित्य में भी ऐसे वर्णन-क्रम की अपनी परम्परा है। उत्तम, प्रशस्त धर्मोपासना को खण्डित एवं भग्न करने के लिए देव, पिशाच प्रादि द्वारा किये गये उपसर्गो-उपद्रवों का बड़ा सजीव एवं रोमांचक वर्णन अनेक आगम-ग्रन्थों तथा इतर साहित्य में प्राप्त होता है, जहां रौद्र, भयानक एवं वीभत्स–तीनों रस मूर्तिमान् प्रतीत होते हैं / प्रस्तुत वर्णन इसका ज्वलन्त उदाहरण है। 94. तए णं से देवे एगं महं पिसाय-रूवं विउव्वइ / तस्स णं देवस्स पिसाय-रूवस्स इमे एयारूवे वण्णा-वासे पण्णत्ते सीसं से गो-किलिज-संठाण-संठियं सालिभसेल्ल-सरिसा से केसा कविलतेएणं दिप्पमाणा, महल्ल-उट्टिया-कभल्ल-संठाण-संठियं निडालं, मुगुस-पुच्छं व तस्स भुमगाओ फुग्ग-फुग्गाओ विगय-वीभच्छ-दसणाओ, सीस-घडि-विणिग्गयाइं अच्छीणि विगय-बीभच्छ-दसणाई, कण्णा जह सुप्प-कत्तरं चेव विगय-बीभच्छ-दंसणिज्जा, उरब्भ-पुड-संनिभा से नासा, झुसिरा-जमलचुल्ली-संठाण-संठिया दो वि तस्स नासा-पुडया, घोडय-पुच्छंव तस्स मंसूई कविल-कविलाई विगयबीभच्छ-दंसणाइं, उट्ठा उट्टस्स चेव लंबा, फाल-सरिसा से दंता, जिन्भा जह सुप्प-कत्तरं चेव विगयबीभच्छ-दंसणिज्जा, हल-कुद्दाल-संठिया से हणुया, गल्ल-कडिल्लं व तस्स खड्डे फुट्ट कविलं फरुसं Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88] [उपासकदशांगसूत्र महल्लं, मुइंगाकारोवमे से खंधे, पुरवरकवाडोवमे से बच्छे, कोट्टिया-संठाण-संठिया दो वि तस्स बाहा, निसापाहाण-संठाण-संठिया दो वि तस्स अग्गहत्या, निसालोढ-संठाणसंठियाओ हत्थेसु अंगुलीओ, सिप्पि-पुडगसंठिया से नक्खा, पहाविय-पसेवओ व्व उरंसि लंबंति दो वि तस्स थणया, पोटें अयकोडओ ब्व वझे, पाणकलंदसरिसा से नाही, सिक्कगसंठाणसंठिए से नेत्ते, किण्णपुडसंठाण-संठिया दो वि तस्स बसणा, जमल-कोट्टिया-संठाण-संठिया दो वि तस्स ऊरू, अज्जुणगुट्ठ व तस्स जाणूई कुडिलकुडिलाई विगय-बीभच्छ-दसणाई, जंघाओ कक्खडीओ लोमेहि उबचियाओ, अहरीसंठाण-संठिया दो वि तस्स पाया, अहरीलोढसंठाणसंठियाओ पाएसु अंगुलीओ, सिप्पिपुडसंठिया से नखा। उस देव ने एक विशालकाय पिशाच का रूप धारण किया। उसका विस्तृत वर्णन इस प्रकार है उस पिशाच का सिर गाय को चारा देने की (औंधी की हुई) बांस की टोकरी जैसा था / बाल धान-चावल की मंजरी के तन्तुओं के समान रूखे और मोटे थे, भूरे रंग के थे, चमकीले थे। ललाट बड़े मटके के खप्पर या ठीकरे जैसा बड़ा और उभरा हुआ था। भौंहें गिलहरी की पूछ की तरह बिखरी हुई थीं, देखने में बड़ी विकृत-भद्दी और बीभत्स-घृणोत्पादक थीं। "मटकी" जैसी आँखें, सिर से बाहर निकली थीं, देखने में विकृत और बीभत्स थीं। कान टूटू हुए सूप-छाजले के समान बड़े भद्दे और खराब दिखाई देते थे। नाक मेंढ़े की नाक की तरह थी--चपटी थी। गड्ढों जैसे दोनों नथुने ऐसे थे, मानों जुड़े हुए दो चूल्हे हों / घोड़े की पूछ जैसी उसकी मूछे भूरी थीं, विकृत और बीभत्स लगती थीं। उसके होठ ऊंट के होठों की तरह लम्बे थे। दांत हल के लोहे की कुश जैसे थे। जीभ सूप के टुकड़े जैसी थी, देखने में विकृत तथा बीभत्स थी / ठुड्डी हल की नोक की तरह आगे निकली थी / कढ़ाही की ज्यों भीतर धंसे उसके गाल खड्डों जैसे लगते थे, फटे हुए, भूरे रंग के, कठोर तथा विकराल थे। उसके कन्धे मृदंग जैसे थे / वक्षस्थल—छाती नगर के फाटक के समान चौड़ी थी। दोनों भजाएं कोष्ठिका-लोहा ग्रादिधात गलाने में काम आने वाली मिदी की कोठी के समान थीं। उसकी दोनों हथेलियां मूग आदि दलने की चक्की के पाट जैसी थीं। हाथों की अंगुलियां लोढी के समान थीं। उसके नाखून सीपियों जैसे थे-तीखे और मोटे थे। दोनों स्तन नाई की उस्तरा आदि राछ डालने की चमड़े की थैली-रछानी की तरह छाती पर लटक रहे थे / पेट लोहे के कोष्ठक--- कोठे के समान गोलाकार था / नाभि कपड़ों में पॉलिश देने हेतु जुलाहों द्वारा प्रयोग में लिये जाने वाले मांड के बर्तन के समान गहरी थी। उसका नेत्र-लिंग छींके की तरह था-लटक-रहा था। दोनों अण्डकोष फैले हुए दो थैलों या बोरियों जैसे थे / उसकी दोनों जंघाएं एक जैसी दो कोठियों के समान थीं। उसके घुटने अर्जुन-तृण-विशेष या वृक्ष-विशेष के गुठे स्तम्ब-गुल्म या गांठ जैसे, टेढ़े, देखने में विकृत व बीभत्स थे। पिंडलियां कठोर थीं, बालों से भरी थीं। उसके दोनों पैर दाल आदि पीसने की शिला के समान थे / पैर की अंगुलियां लोढ़ी जैसी थीं। अंगुलियों के नाखून सीपियों के सदश थे। 95. लडहमडहजाणुए, विगय-भग्ग-भुग्ग-भुमए, अवदालिय-वयणविवर-निल्लालियग्गजोहे, सरडकयमालियाए, उंदुरमाला-परिणद्धसुकय-चिधे, नउलकयकग्णपूरे, सप्पकय वेगच्छे, अष्फोडते, अभिगजंते, भीममुक्कट्टहासे, नाणाविहपंचवण्णेहिं लोमेहि उवचिए एगं महं नीलुप्पल Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव] [89 गवल-गुलिय-अयसिकुसुमप्पगासं असि खुर-धारं गहाय, जेणेव पोसहसाला, जेणेव कामदेवे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आसु-रत्ते, रुठे, कुविए, चंडिक्किए, मिसिमिसियमाणे कामदेवं समणोवासयं एवं बयासी-हं भी कामदेवा ! समणोवासया ! अपत्थियपत्थिया ! दुरंतपंतलक्खणा! हीण-पुण्ण-चाउद्दसिया! हिरि-सिरि-धिइ-कित्ति-परिवज्जिया! धम्म-कामया ! पुण्णकामया ! सग्गकामया ! मोक्खकामया ! धम्मकंखिया ! पुण्णकंखिया ! सग्ग-कंखिया ! मोक्खकंखिया ! धम्मपिवासिया ! पुणपिवासिया ! सग्गपिवासिया ! मोक्खपिवासिया ! नो खलु कप्पइ तव देवाणुप्पिया ! जं सीलाई, वयाइं, वेरमणाई, पच्चक्खाणाई, पोसहोववासाई चालित्तए वा खोभित्तए वा, खंडित्तए वा, भंजित्तए वा, उज्झित्तए वा, परिच्चइत्तए वा / तं जइ णं तुम अज्ज सीलाई, जाव (वयाइं, वेरमणाई, पच्चक्खाणाई) पोसहोववसाइं न छड्डेसि, न भंजेसि, तो तं अहं अज्ज इमेणं नीलुप्पल-जाव (गवल-गुलिय-अयसि-कुसुमप्पगासेण, खुरधारेण) असिणा खंडाखंडि करेमि, जहा णं तुमं देवाणुप्पिया ! अट्टदुहट्टवस? अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि। . उस पिशाच के घुटने मोटे एवं अोछे थे, गाड़ी के पीछे ढीले बंधे काठ की तरह लड़खड़ा रहे थे। उसकी भौंहे विकृत-बेडौल, भग्न-खण्डित, भुग्न-कुटिल या टेढ़ी थीं / उसने अपना दरार जैसा मुह फाड़ रखा था, जीभ बाहर निकाल रक्खी थी / वह गिरगिटों की माला पहने था। चूहों की माला भी उसने धारण कर रक्खी थी, जो उसकी पहचान थी / उसके कानों में कुण्डलों के स्थान पर नेवले लटक रहे थे। उसने अपनी देह पर सांपों को दुपट्टे की तरह लपेट रक्खा था / वह भुजाओं पर अपने हाथ ठोक रहा था, गरज रहा था, भयंकर अट्टहास कर रहा था। उसका शरीर पांचों रंगों के बहुविध केशों से व्याप्त था / वह पिशाच नीले कमल, भैसे के सींग तथा अलसी के फूल जैसी गहरी नीली, तेज धार वाली तलवार लिये, जहाँ पोषधशाला थी, श्रमणोपासक कामदेव था, वहाँ आया। आकर अत्यन्त क्रुद्ध, रुष्ट, कुपित तथा विकराल होता हुआ, मिसमिसाहट करता हुआ- तेज सांस छोड़ता हुआ श्रमणोपासक कामदेव से बोला-अप्रार्थित-जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु को चाहने वाले ! दुःखद अन्त तथा अशुभ लक्षणवाले, पुण्यचतुर्दशी जिस दिन हीन-असम्पूर्ण थी-घटिकाओं में अमावस्या आ गई थी, उस अशुभ दिन में जन्मे हुए अभागे ! लज्जा, शोभा, धृति तथा कीति से परिवजित ! धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष की कामना, इच्छा एवं पिपासा उत्कण्ठा रखने वाले ! देवानुप्रिय ! शील, व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास से विचलित होना, विक्षुभित होना, उन्हें खण्डित करना, भग्न करना, उज्झित करना उनका त्याग करना, परित्याग करना तुम्हें नहीं कल्पता हैइनका पालन करने में तुम कृतप्रतिज्ञ हो / पर, यदि तुम आज शील, (व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान) एवं पोषधोपवास का त्याग नहीं करोगे, उन्हें नहीं तोड़ोगे तो मैं (नीले कमल, भैसे के सींग तथा अलसी के फूल के समान गहरी नीली, तेज धारवाली) इस तलवार से तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा, जिससे हे देवानुप्रिय ! तुम आर्तध्यान एवं विकट दुःख से पीडित होकर असमय में ही जीवन से पृथक् हो जानोगे प्राणों से हाथ धो बैठोगे। 96. तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं पिसाय-रूवेणं एवं वुत्ते समाणे, अभीए, अतत्थे, अणुन्विग्गे, अक्खुभिए, अचलिए, असंभंते, तुसिणीए धम्म-ज्झाणोवगए विहरइ / Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90] [उपासकदशांगसूत्र उस पिशाच द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक कामदेव भीत, त्रस्त, उद्विग्न, क्षुभित एवं विचलित नहीं हुआ; घबराया नहीं। वह चुपचाप-शान्त भाव से धर्म-ध्यान में स्थित रहा / 97. तए णं से देवे पिसाय-रूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं, जाव (अतत्थं, अणुविरगं, अखुभियं, अचलियं, असंभंत, तुसिणीयं), धम्म-ज्झाणोवगयं विहरमाणं पासइ, पासित्ता दोच्चंपि तच्चं पि कामदेवं एवं वयासी हं भो! कामदेवा! समणोवासया ! अपत्थियपत्थिया! जइ णं तुम अज्ज जाव (सोलाई, वयाई, वेरमणाई, पच्चक्खाणाई, पोसहोववासाई न छड्डे सि, न भंजेसि, तो ते अहं अज्ज इमेणं नीलुप्पल-गवल-गुलिय-अयसि-कुसुम-प्पगासेण खुरधारेण असिणा खंडाखंडि करेमि जहा णं तुम देवाणुप्पिया ! अट्ट-दुहट्ट-वस? अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविज्जसि / पिशाच का रूप धारण किये हुए देव ने श्रमणोपासक कामदेव को यों निर्भय (त्रास, उद्वेग तथा क्षोभ रहित, अविचल, अनाकुल एवं शान्त) भाव से धर्म-ध्यान में निरत देखा / तब उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर कहा-मौत को चाहने वाले श्रमणोपासक कामदेव ! आज (यदि तुम शील, व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास को नहीं छोड़ोगे, नहीं तोड़ोगे तो नीले कमल, भैंसे के सींग तथा अलसी के फल के समान गहरी नीली तेज धार वाली इस तलवार से तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर दूगा, जिससे हे देवानुप्रिय ! तुम आर्तध्यान एवं विकट दुःख से पीडित होकर असमय में ही) प्राणों से हाथ धो बैठोगे / 98. तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं दोच्चपि तच्चपि एवं वुत्ते समाणे, अभीए जाव (अतत्थे, अणुव्विग्गे, अक्खुभिए, अचलिए, असंभंते, तुसिणीए) धम्म-ज्झाणोवगए विहरइ / ___ श्रमणोपासक कामदेव उस देब द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर भी अभीत (अत्रस्त, अनुद्विग्न, अक्षुभित, अविचलित, अनाकुल एवं शान्त) रहा, अपने धर्मध्यान में उपगतसंलग्न रहा। 99. तए णं से देवे पिसाय-रूवे कामदेव समणोवासयं अभीयं जाव' विहरमाणं पासइ, पासित्ता आसुरत्ते 4 (रुठे कुविए चंडिक्किए) ति-वलियं भिड निडाले साहटु, कामदेवं समणोवासयं नीलुप्पल जाव' असिणा खंडाखंडि करेइ। जब पिशाच रूप धारी उस देव ने श्रमणोपासक कामदेव को निर्भय भाव से उपासना-रत देखा तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ, उसके ललाट में त्रिबलिक तीन बल चढ़ी भृकुटि तन गई / उसने तलवार से कामदेव पर वार किया और उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले / 100. तए णं से कामदेवे समणोवासए तं उज्जलं, जाव (विउलं, कक्कसं, पगाढं, चंडं, दुक्खं) दुरहियासं वेयणं सम्म सहइ, जाव (खमइ, तितिक्खइ,) अहियासेइ / 1. देखें सूत्र-संख्या 97 2. देखें सूत्र-संख्या 95 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अया द्वितीय अध्ययन : गायापति कामदेव] [91 श्रमणोपासक कामदेव ने उस तीव्र (विपुल-अत्यधिक, कर्कश-कठोर, प्रगाढ, रौद्र, कष्टप्रर्द) तथा दुःसह वेदना को सहनशीलता (क्षमा और तितिक्षा) पूर्वक भेला / हाथी के रूप में उपसर्ग 101. तए णं से देवे पिसाय-रूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ, पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेवं समणोवासयं निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा, खोभित्तए वा, विपरिणामित्तए वा, ताहे संते, तंते, परितते सणियं सणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता, पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता दिन्वं पिसाय-रूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एगं महं हि हत्थि-रूवे विउव्वइ, सत्तंग-पइट्रियं, सम्मं संठियं, सुजायं, पुरओ उदग्गं, पिट्टओ वराह, कच्छि. अलंब-च्छि. पलंब-लंबोदराधर- करं. अब्भग्गय-मउल-मल्लिया-विमल-धवल-दंतं. कंचणकोसीपविट्ठ-दंतं, आणामिय-चाव-ललिय-संवल्लियग्ग-सोण्डं, कुम्म-पडिपुण्ण-चलणं, वीसइ-नक्खं अल्लोण-पमाण-जुत्तपुच्छं, मत्तं मेहमिव गुलगुलेन्तं मण-पवण-जइणवेगं दिव्यं हत्थिरूवं विउव्यइ / जब पिशाच रूप धारी देव ने देखा, श्रमणोपासक कामदेव निर्भीक भाव से उपासना में रत है, वह श्रमणोपासक कामदेव को निर्ग्रन्थ प्रवचन-जिन-धर्म से विचलित, क्षभित, विपरिणामितविपरीत परिणाम युक्त नहीं कर सका है, उसके मनोभावों को नहीं बदल सका है, तो वह श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर धीरे-धीरे पीछे हटा / पीछे हटकर पोषधशाला से बाहर निकला / बाहर निकल कर देवमायाजन्य (विक्रिया-विनिर्मित) पिशाच-रूप का त्याग किया। वैसा कर एक विशालकाय, देवमाया-प्रसुत हाथो का रूप धारण किया। वह हाथी सूपूष्ट सात अंगों (चार पैर, सूड, जननेन्द्रिय और पूछ) से युक्त था। उसकी देह-रचना सुन्दर और सुगठित थी / वह आगे से उदन-ऊंचा या उभरा हुआ था, पीछे से सूअर के समान झुका हुआ था। उसकी कुक्षि- जठर बकरी की कुक्षि की तरह सटी हुई थी। उसका नीचे का होठ और सूड लम्बे थे / मुह से बाहर निकले हुए दांत बेले की अधखिली कली के सदृश उजले और सफेद थे / वे सोने की म्यान में प्रविष्ट थे अर्थात् उन पर सोने की खोल चढ़ी थी। उसकी सूड का अगला भाग कुछ खींचे हुए धनुष की तरह सुन्दर रूप में मुडा हा था। उसके पैर कछए के समान प्रतिपूर्ण-परिपष्ट और चपटे थे। उसके बीस नाखून थे। उसकी पूछ देह से सटी हुई—सुन्दर तथा प्रमाणोपेत-समुचित लम्बाई आदि आकार लिए हुए थी। वह हाथी मद से उन्मत्त था / बादल की तरह गरज रहा था। उसका वेग मन और पवन के वेग को जीतने वाला था। 102. विउव्वित्ता जेणेव पोसह-साला, जेणेव कामदेवे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो ! कामदेवा ! समणोवासया ! तहेव भणइ जाव (जइ णं तुम अज्ज सीलाई, वयाई वेरमणाई, पच्चक्खाणाई पोसहोववासाइं न छड्डेसि,) न भंजेसि, तो ते अज्ज अहं सोंडाए गिण्हामि, गिण्हित्ता पोसह-सालाओ नीणेमि, नीणित्ता उड्ढं वेहासं उविहामि, उविहित्ता, तिकोहि दंत-मुसलेहि पडिच्छामि, पडिच्छित्ता अहे धरणि-तलंसि तिक्खुत्तो पाएसु लोलेमि, जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ क्वरोविज्जसि / 1. देखें सूत्र संख्या 97 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92] [उपासकदशांगसूत्र ऐसे हाथी के रूप की विक्रिया करके पूर्वोक्त देव जहां पोषधशाला थी, जहां श्रमणोपासक कामदेव था, वहां आया / आकर श्रमणोपासक कामदेव से पूर्ववणित पिशाच की तरह बोला—यदि तुम अपने व्रतों का (शील, व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान एवं पोषधोपवास का त्याग नहीं करते हो,) भंग नहीं करते हो तो मैं तुमको अपनी सूड से पकड़ लूगा / पकड़ कर पोषधशाला से बाहर ले जाऊंगा। बाहर ले जा कर ऊपर आकाश में उछालूगा / उछाल कर अपने तीखे और मूसल जैसे दांतों से झेलूगा / झेल कर नीचे पृथ्वी पर तीन वार पैरों से रौंदूगा, जिससे तुम आर्तध्यान और विकट दुःख से पीड़ित होते हुए असमय में ही जीवन से पृथक् हो जाओगेमर जाओगे। 103. तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं हत्थि-रूवेणं एवं वुत्ते समाणे, अभीए जाव' विहरइ / हाथी का रूप धारण किए हुए देव द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक कामदेव निर्भय भाव से उपासना-रत रहा। 104. तए णं से देवे हस्थि-रूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ, पासित्ता दोच्चपि तच्चपि कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो ! कामदेवा ! तहेव जाव' सो वि विहरइ। __ हस्तीरूपधारी देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भीकता से अपनी उपासना में निरत देखा, तो उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर श्रमणोपासक कामदेव को वैसा ही कहा, जैसा पहले कहा था / पर, श्रमणोपासक कामदेव पूर्ववत् निर्भीकता से अपनी उपासना में निरत रहा / 105. तए णं से देवे हत्यि-रूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ, पासित्ता आसुरत्ते 4 कामदेवं समणोवासयं सोंडाए गिण्हेइ, गेण्हेत्ता उड्ढं वेहासं उन्विहइ, उविहित्ता तिखेहि दंत-मुसलेहि पडिच्छइ, पडिच्छेत्ता अहे धरणि-तलंसि तिक्खुत्तो पाएसु लोलेइ / हस्तीरूपधारी उस देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भीकता से उपासना में लीन देखा तो अत्यन्त क्रुद्ध होकर अपनी सूड से उसको पकड़ा। पकड़कर आकाश में ऊंचा उछाला / उछालकर फिर नीचे गिरते हुए को अपने तीखे और मूसल जैसे दांतों से झेला और झेल कर नीचे जमीन पर तीन वार पैरों से रौंदा।। 106. तए णं से कामदेवे समणोवासए तं उज्जलं जाव (विउयं, कक्कसं, पगाढं, चंडं, दुक्खं, दुरहियासं वेयणं सम्मं सहइ, खमइ, तितिक्खइ,) अहियासेइ / श्रमणोपासक कामदेव ने (सहनशीलता, क्षमा एवं तितिक्षापूर्वक तीव्र, विपुल, कठोर, प्रगाढ, रौद्र तथा कष्टप्रद) वेदना झेली। 1. देखें सूत्र संख्या 98 2. देखें सूत्र-संख्या 97 3. देखें सूत्र-संख्या 98 4. देखें सूत्र-संख्या 97 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव / [93 सर्प के रूप में उपसर्ग 107. तए णं से देवे हस्थि-रूवे कामदेवं ससणोवासयं जाहे नो संचाएइ जाव (निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा, खोभित्तए वा, विपरिणामित्तए वा, ताहे संते, तंते, परितंते) सणियंसणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता पोसह-सालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता दिव्वं हत्यिरूवं विप्पजहइ, विप्पजहिता एगं महं दिव्वं सप्प-रूवं विउव्वइ, उग्ग-विसं, चंड-विसं, घोर-विसं, महाकायं, मसी-मूसा-कालगं, नयण-विस-रोस-पुण्णं, अंजण-पुज-निगरप्पगासं, रत्तच्छं लोहिय लोयणं, जमल-जुयल-चंचल-जीहं, धरणीयल-वेणीभूयं, उक्कड-फुड-कुडिल-जडिल-कक्कस-वियड-फुडाडोवकरण-दच्छं, लोहागर-धम्ममाण-धमधमैतघोस, अणागलिय-तिब्व-चंड-रोसं सप्प-रूवं विउब्वइ, विउवित्ता जेणेव पोसह-साला जेणेव कामदेवे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो ! कामदेवा ! समणोवासया ! जाव (सीलाई वयाई, वेरमणाई, पच्चक्खाणाइं, पोसहोववासाइं न छड्डसि,) न भंजेसि, तो ते अज्जेव अहं सरसरस्स कायं दुरुहामि, दुरुहिता पच्छिमेणं भाएणं तिक्खुत्तो गीवं, वेढेमि, वेढित्ता तिक्खाहिं विस-परिगयाहिं दाढाहिं उरंसि चेव निकुट्ट मि, जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि / जब हस्तीरूपधारी देव श्रमणोपासक कामदेव को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित, क्षुभित तथा विपरिणामित नहीं कर सका, तो वह श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर धीरे-धीरे पीछे हटा / पीछे हट कर पोषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकल कर विक्रियाजन्य हस्ति-रूप का त्याग किया। वैसा कर दिव्य, विकराल सर्प का रूप धारण किया। वह सर्प उग्रविष, प्रचण्डविष, घोरविष और विशालकाय था। वह स्याही और मुस-धातु गलाने के पात्र जैसा काला था। उसके नेत्रों में विष और क्रोध भरा था / वह काजल के ढेर जैसा लगता था। उसकी आंखें लाल-लाल थीं। उसकी दुहरी जीभ चंचल थी-बाहर लपलपा रही थी। कालेपन के कारण वह पृथ्वी (पृथ्वी रूपी नारी) की वेणी-चोटी---जैसा लगता था। वह अपना उत्कट–उग्र, स्फुट--देदीप्यमान, कुटिल-टेढ़ा, जटिल-मोटा, कर्कश-कठोर, विकट-भयंकर फन फैलाए हुए था / लुहार की धौंकनी की तरह वह फुकार कर रहा था / उसका प्रचण्ड क्रोध रोके नहीं रुकता था। वह सर्परूपधारी देव जहां पोषधशाला थी, जहां श्रमणोपासक कामदेव था, वहां पाया। र श्रमणोपासक कामदेव से बोला-अरे—कामदेव ! यदि तुम शील, व्रत (विरमण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास का त्याग नहीं करते हो,) भंग नहीं करते हो, तो मैं अभी सर्राट करता हा तुम्हारे शरीर पर चढूगा / चढ़ कर पिछले भाग से पूछ की ओर से तुम्हारे गले में तीन लपेट लगाऊंगा। लपेट लगाकर अपने तीखे, जहरीले दांतों से तुम्हारी छाती पर डंक मारूगा, जिससे तुम आर्त ध्यान और विकट दुःख से पीडित होते हुए असमय में ही जीवन से पृथक हो जाओगे—मर जाओगे। 108. तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं सप्प-रूवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव' विहरइ / सो वि दोच्चंपि तच्चपि भणइ / कामदेवो वि जाव' विहरइ / 1. देखें सूत्र-संख्या 98 2. देखें सूत्र-संख्या 98 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94] [उपासकदशांगसूत्र सर्परूपधारी उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी कामदेव निर्भीकता से उपासनारत रहा। देव ने दूसरी बार फिर तीसरी बार भी वैसा ही कहा, पर कामदेव पूर्ववत् उपासना में लगा रहा / 109. तए णं से देवे सप्परूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव' पासइ, पासित्ता आसुरत्ते 4 कामदेवस्स सरसरस्स कायं दुरुहइ, दुरुहित्ता पच्छिम-भाएणं तिक्खुत्तो गीवं वेढेइ, वेढित्ता तिक्खाहिं विसपरिगयाहि दादाहिं उरंसि चेव निकुट्टेइ / सर्परूपधारी देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भय देखा तो वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर सर्राटे के साथ उसके शरीर पर चढ़ गया। चढ़ कर पिछले भाग से उसके गले में तीन लपेट लगा दिए। लपेट लगाकर अपने तीखे, जहरीले दांतों से उसकी छाती पर डंक मारा। 110. तए णं से कामदेवे समणोवासए तं उज्जलं जाव' अहियासेइ / श्रमणोपासक कामदेव ने उस तीव्र वेदना को सहनशीलता के साथ झेला / देव का पराभव : हिंसा पर अहिंसा की विजय 111. तए णं से देवे सप्प-रूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव' पासइ, पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेवं समणोवासयं निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे संते सणियं-सणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता पोसह-सालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता दिव्वं सप्प-रूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एगं महं दिव्वं देव-रूवं विउव्वइ / हार-विराइय-बच्छं जाव (कडग-तुडिय-थंभिय-भुयं, अंगय-कुडल-मट्ठ-गंडकण्णपीढ-धारि, विचित्तहत्याभरणं, विचित्तमाला-मउलि-मउड, कल्लाणग-पवरवत्थ-परिहियं, कल्लाणग-पवरमल्लाणुलेवणं, भासुर-बोंदि, पलंवं-वणमालधरं, दिवेणं वण्णेणं, दिवेणं गन्धेणं, दिव्वेणं रूवेणं, दिव्वेणं फासेणं, दिव्वेणं संघाएणं, दिव्वेणं संठाणेणं, दिव्वाए इड्डीए, दिव्वाए जुईए, दिव्वाए पभाए, दिव्वाए छायाए, दिव्वाए अच्चीए, दिब्वेणं तेएणं, दिवाए लेसाए) दस दिसाओ उज्जोवेमाणं पभासेमाणं, पासाईयं दरिसणिज्ज अभिरूवं पडिरूवं दिव्व देवरूवं विउव्वइ, विउव्बित्ता कामदेवस्स समणोवासयस्स पोसह-सालं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता अंतलिक्ख-पडिवन्ने सखिखिणियाइं पंचवण्णाई वत्थाई पवर-परिहिए कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो ! कामदेवा समणोवासया ! धन्नेसि णं तुमं, देवाणुप्पिया ! संपुण्णे, कयत्थे, कयलक्खणे, सुलद्धे णं तव देवाणुप्पिया ! माणुस्सए जम्मजीवियफले, जस्स णं तव निग्गंथे पावयणे इमेयारूवा पडिवत्ती लद्धा, पत्ता, अभिसमण्णागया। ___ एवं खलु देवाणुप्पिया! सक्के, देविदे, देव-राया जाव (वज्जपाणी, पुरंदरे, सयक्कऊ, सुहस्सक्खे, मघवं, पागसासणे, दाहिणलोगाहिवई, बत्तीस विमाण-सय-सहस्साहिवई,. एरावणवाहणे, सुरिदे, अरयंबर-वत्थधरे, आलइय-मालमउडे, नव-हेम-चारु-चित्त-चंचल-कुंडल-विलिहिज्जमाणगंडे, भासुरबोंदी, पलंब-वणमाले, सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए) सक्कंसि 1. देखें सूत्र-संख्या 97 2. देखें सूत्र-संख्या 106 3. देखें सूत्र--संख्या 97 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव [95 सीहासणंसि चउरासीईए सामाणिय-साहस्सीणं जाव (तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, अट्ठण्हं अग्गमहिसोणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउण्हं चउरासीणं आयरक्ख-देवसाहस्सीणं) अन्नेसि च बहूणं देवाण य देवीण य मज्झगए एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ-एवं खलु देवा ! जंबुद्दीवे दोवे भारहे वासे चम्पाए नयरीए कामदेवे समणोवासए पोसह-सालाए पोसहिए बंभयारी जाव (उम्मुक्क-मणि-सुवण्णे, ववगय-माला-वण्णग-विलेवणे, निक्खित्त-सत्थ-मुसले, एगे, अबीए) दम्भ-संथारोवगए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / नो खलु से सक्का केणइ देवेण वा दाणवेण वा जाव (जखेण वा, रक्खसेण वा, किन्नरेण वा, किपुरिसेण वा, महोरगेण वा) गंधब्वेण वा निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा / तए णं अहं सक्कस्स देविदस्स देव-रण्णो एयमढें असद्दहमाणे, अपत्तियमाणे, अरोएमाणे इहं हव्वमागए / तं अहो णं, देवाणुप्पिया ! इड्डी, जुई, जसो, बलं, वीरियं, पुरिसक्कार-परक्कमे लद्धे, पत्ते, अभिसमण्णागए। तं दिट्ठा णं देवाणुप्पिया ! इड्डी जाब (जुई, जसो, बलं, वीरियं, पुरिसक्कार-परक्कमे लद्ध, पत्ते) अभिसमण्णागए। तं खामेमि णं, देवाणुप्पिया ! खमंतु मज्म देवाणुप्पिया ! खंतुमरहंति णं देवाणुप्पिया! नाई भुज्जो करणयाए त्ति कटु पाय-वडिए, पंजलि-उडे एयमलैं भुज्जो भुज्जो खामेइ, खामित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए / सर्परूपधारी देव ने जब देखा-श्रमणोपासक कामदेव निर्भय है, वह उसे निम्रन्थ --प्रवचन से विचलित, क्षुभित एवं विपरिणामित नहीं कर सका है तो श्रान्त, क्लान्त खिन्न होकर वह धीरे-धीरे पीछे हटा / पीछे हटकर पोषध-शाला से बाहर निकला। बाहर निकल कर देव-मायाजनित सर्प-रूप का त्याग किया। वैसा कर उसने उत्तम, दिव्य देव-रूप धारण किया। उस देव के वक्षस्थल पर हार सुशोभित हो रहा था। (बह अपनी भुजाओं पर कंकण तथा बाहुरक्षिका-भुजाओं को सुस्थिर बनाए रखनेवाली प्राभरणात्मक पट्टी, अंगद-भुजबन्ध धारण किए था। उसके मृष्ट -केसर, कस्तुरी आदि से मण्डित-चित्रित कपोलों पर कर्ण-भूषण, कुण्डल शोभित थे / वह विचित्र---विशिष्ट या अनेकविध हस्ताभरण-हाथों के आभूषण धारण किए था / उसके मस्तक पर तरह-तरह की मालाओं से युक्त मुकुट था। वह कल्याणकृत्-मांगलिक, अनुपहत या अखण्डित प्रवर–उत्तम पोशक पहने था। यह मांगलिक तथा उत्तम मालाओं एवं अनुलेपन-चन्दन, केसर आदि के विलेपन से युक्त था / उसका शरीर देदीप्यमान था। सभी ऋतुओं के फूलों से बनी माला उसके गले से घुटनों तक लटकती थी। उसने दिव्य-देवोचित वर्ण, गन्ध, रूप, स्पर्श, संघात–दैहिक गठन, संस्थान-दैहिक अवस्थिति, ऋद्धि-विमान, वस्त्र, आभूषण आदि दैविक समृद्धि, द्युति-पाभा अथवा युक्ति-इष्ट परिवारादि योग, प्रभा, कान्ति, अचि-दीप्ति, तेज, लेश्या-प्रात्म-परिणति तदनुरूप भामंडल से दसों दिशाओं को उद्योतित-प्रकाशयुक्त, प्रभासित-प्रभा या शोभा युक्त करते हुए, प्रसादित–प्रसाद या पाह्लाद युक्त, दर्शनीय, अभिरूपमनोज्ञ-मन को अपने में रमा लेनेवाला, प्रतिरूप-मन में बस जाने वाला दिव्य देवरूप धारण किया। वैसा कर,) श्रमणोपासक कामदेव की पोषधशाला में प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर आकाश Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उपासकदशांगमूत्र में अवस्थित हो छोटी-छोटी घण्टिकाओं से युक्त पांच' वर्गों के उत्तम वस्त्र धारण किए हुए वह श्रमणोपासक कामदेव से यों बोला-श्रमणोपासक कामदेव ! देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो, पुण्यशाली हो, कृत-कृत्य हो, कृतलक्षण-शुभलक्षण वाले हो। देवानुप्रिय ! तुम्हें निर्ग्रन्थ-प्रवचन में ऐसी प्रतिपत्ति-विश्वास-प्रास्था सुलब्ध है, सुप्राप्त है, स्वायत्त है, निश्चय ही तुमने मनुष्य-जन्म और जीवन का सुफल प्राप्त कर लिया / देवानुप्रिय ! बात यों हुई—शक --शक्तिशाली, देवेन्द्र देवों के परम ईश्वर-स्वामी, देवराज-देवों में सुशोभित, (वज्रपाणि-हाथ में वज्र धारण किए, पुरन्दर-पुर---असुरों के नगरविशेष के दारक-विध्वंसक, शतक्रतु-पूर्वजन्म में कातिक श्रेष्ठी के भव में सौ बार विशिष्ट अभिग्रहों के परिपालक, सहस्राक्ष--हजार आंखों वाले अपने पांच सौ मन्त्रियों की अपेक्षा हजार आंखों वाले, मघवा-मेघों-बादलों के नियन्ता, पाकशासन-पाक नामक शत्रु के नाशक, दक्षिणार्द्धलोकाधिपति-लोक के दक्षिण भाग के स्वामी, बत्तीस लाख विमानों के अधिपति, ऐरावत नामक हाथी पर सवारी करने वाले, सुरेन्द्र देवताओं के प्रभु, आकाश की तरह निर्मल वस्त्रधारी, मालाओं से युक्त मुकुट धारण किए हुए, उज्ज्वल स्वर्ण के सुन्दर, चित्रित, चंचल-हिलते हुए कुडलों से जिनके कपोल सुशोभित थे, देदीप्यमान शरीरधारी, लम्बी पुष्पमाला पहने हुए इन्द्र ने सौधर्म कल्प के अन्तर्गत सौधर्मावतंसक विमान में, सुधर्मा सभा में) इन्द्रासन पर स्थित होते हुए चौरासी हजार सामानिक देवों (तेतीस गुरुस्थानीय त्रायस्त्रिंश देवों, चार लोकपाल, परिवार सहित आठ अग्रमहिषियों--प्रमुख इंद्राणियों, तीन परिषदों, सात अनीकों-सेनाओं, सात अनीकाधिपतियोंसेनापतियों, तीन लाख छत्तीस हजार अंगरक्षक देवों) तथा बहुत से अन्य देवों और देवियों के बीच यों पाख्यात, भाषित, प्रज्ञप्त या प्ररूपित किया-कहा देवो! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में, चंपा नगरी में श्रमणोपासक कामदेव पोषधशाला में पोषध स्वीकार किए, ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ (मणि-रत्न, सुवर्णमाला, वर्णक-सज्जाहेतु मंडन -आलेखन एवं चन्दन, केसर आदि के विलेपन का त्याग किए हुए, शस्त्र, दण्ड आदि से रहित, एकाकी, अद्वितीय बिना किसी दूसरे को साथ लिए) कुश के बिछौने पर अवस्थित हुआ श्रमण भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप उपासनारत है / कोई देव, दानव, (यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग), गन्धर्व द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन से वह विचलित, क्षुभित तथा विपरिणामित नहीं किया जा सकता। __ शक्र, देवेन्द्र, देवराज के इस कथन में मुझे श्रद्धा, प्रतीति–विश्वास नहीं हुआ। वह मुझे अरुचिकर लगा। मैं शीघ्र यहां आया। देवानुप्रिय ! जो ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषोचित पराक्रम तुम्हें उपलब्ध प्राप्त तथा अभिसमन्वागत--अधिगत है, वह सब मैंने देखा / देवानुप्रिय ! मैं तुमसे क्षमा-याचना करता हूं। देवानुप्रिय ! मुझे क्षमा करो। देवानुप्रिय ! आप क्षमा करने में समर्थ हैं। मैं फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा। यों कहकर पैरों में पड़कर, उसने हाथ जोड़कर बार-बार क्षमा-याचना की / क्षमा याचना कर, जिस दिशा से आया था, उसी दिशा की ओर चला गया। 1. श्वेत. पीत. रक्त. नील. कृष्ण। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : कामदेव] [97 विवेचन प्रस्तुत सूत्र में देव द्वारा पिशाच, हाथी तथा सर्प का रूप धारण करने के प्रसंग में 'विकुव्वई'-विक्रिया या विकुर्वणा करना-क्रिया का प्रयोग है, जो उसकी देव-जन्मलभ्य वैक्रिय देह का सूचक है। इस सन्दर्भ में ज्ञातव्य है-जैन-दर्शन में औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मणये पांच प्रकार के शरीर माने गए हैं। वैक्रिय शरीर दो प्रकार का होता है-औपपातिक और लब्धि. प्रत्यय / औपपातिक वैक्रिय शरीर देव-योनि और नरक-योनि में जन्म से ही प्राप्त होता है। पूर्वसंचित कर्मों का ऐसा योग वहां होता है, जिसकी फल-निष्पत्ति इस रूप में जन्म-जात होती है / लब्धि-प्रत्यय वैक्रिय शरीर तपश्चरण आदि द्वारा प्राप्त लब्धि-विशेष से मिलता है। यह मनुष्ययोनि एवं तिर्यञ्च योनि में होता है। वैक्रिय शरीर में अस्थि, मज्जा, मांस, रक्त आदि अशुचि-पदार्थ नहीं होते / एतद्वजित इष्ट, कान्त, मनोज्ञ, प्रिय एवं श्रेष्ठ पुद्गल देह के रूप में परिणत होते हैं / मृत्यु के बाद वैक्रिय-देह का शव नहीं बचता / उसके पुद्गल कपूर की तरह उड़ जाते हैं। जैसा कि वैक्रिय शब्द से प्रकट है इस शरीर द्वारा विविध प्रकार की विक्रियाएं-विशिष्ट क्रियाएं की जा सकती हैं, जैसे--एक रूप होकर अनेक रूप धारण करना, अनेक रूप होकर एक रूप धारण करना, छोटी देह को बड़ी बनाना, बड़ी को छोटी बनाना, पृथ्वी एवं आकाश में चलने योग्य विविध प्रकार के शरीर धारण करना, अदृश्य रूप बनाना इत्यादि। सौधर्म आदि देवलोकों के देव एक, अनेक, संख्यात, असंख्यात, स्व-सदृश, विसदृश सब प्रकार की विक्रियाएं या विकुर्वणाएं करने में सक्षम होते हैं। वे इन विकुर्वणानों के अन्तर्गत एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सब प्रकार के रूप धारण कर सकते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में श्रमणोपासक कामदेव को कष्ट देने के लिए देव ने विभिन्न रूप धारण किए। यह उसके उत्तरवैक्रिय रूप थे, अर्थात् मूल वैक्रिय शरीर के आधार पर बनाए गए वैक्रिय शरीर थे। श्रमणोपासक कामदेव को पीडित करने के लिए देव ने क्यों इतने उपद्रव किए, इसका समाधान इसी सूत्र में है। वह देव मिथ्यादृष्टि था। मिथ्यात्वी होते हुए भी पूर्व जन्म में अपने द्वारा किए गए तपश्चरण से देव-योनि तो उसे प्राप्त हो सकी, पर मिथ्यात्व के कारण निर्ग्रन्थ-प्रवचन या जिन-धर्म के प्रति उसमें जो अश्रद्धा थी, वह देव होने पर भी विद्यमान रही / इन्द्र के मुख से कामदेव की प्रशंसा सुन कर तथा, उत्कट धर्मोपासना में कामदेव को तन्मय देख उसका विद्वेष भभक उठा, जिसका परिणाम कामदेव को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित करने के लिए क्रूर तथा उग्र कष्ट देने के रूप में प्रस्फुटित हुआ। पिशाचरूपधर देव द्वारा तेज तलवार से कामदेव के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए, कामदेव अपनी उपासना से नहीं हटा। तब देव ने दुर्दान्त, विकराल हाथी का रूप धारण कर उसे आकाश में उछाला, दांतों से भेला, पैरों से रौंदा / उसके बाद भयावह सर्प के रूप में उसे उत्पीडित किया। यह सब कैसे संभव हो सका? देह के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाने पर कामदेव इस Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / / 98] [उपासकदशांगसूत्र योग्य कैसे रहा कि उसे आकाश में फेंका जा सके, रौंदा जा सके, कुचला जा सके। यहां ऐसी बात है-वह मिथ्यात्वी देव कामदेव को घोर कष्ट देना चाहता था, ताकि कामदेव अपना धर्म छोड़ दे / प्रथवा उसकी धार्मिक दढता की परीक्षा करना चाहता था। उसे मारना नहीं चाहता था। वैक्रियलब्धिधारी देवों की यह विशेषता होती है, वे देह के पुद्गलों को जिस त्वरा से विच्छिन्न करते हैं--- काट डालते हैं, तोड़-फोड़ कर देते हैं, उसी त्वरा से तत्काल उन्हें यथावत् संयोजित भी कर सकते हैं। यह सब इतनी शीघ्रता से होता है कि भाक्रान्त व्यक्ति को घोर पीडा का तो अनुभव होता है, यह भी अनुभव होता है कि वह काट डाला गया है, पर देह के पुद्गलों की विच्छिन्नता या पृथक्ता की दशा अत्यन्त अल्पकालिक होती है। इसलिए स्थूल रूप में शरीर वैसा का वैसा स्थित प्रतीत होता है / कामदेव के साथ ऐसा ही घटित हुआ / कामदेव ने घोर कष्ट सहे, पर वह धर्म से विचलित नहीं हुआ। तब देव अपने मूल रूप में उपस्थित हुआ और उसने वह सब कहा, जिससे विद्वेषवश कामदेव को कष्ट देने हेतु वह दुष्प्रेरित हुआ था। वहां इन्द्र तथा उसके देव-परिवार के वर्णन में तीन परिषदें, आठ पटरानियों के परिवार, सात सेनाएं आदि का उल्लेख है, जिनका विस्तार इस प्रकार है--- सौधर्म देवलोक के अधिपति शक्रेन्द्र की तीन परिषदें होती हैं-शमिताप्राभ्यन्तर, चण्डा-मध्यम तथा जाता–बाह्य / आभ्यन्तर परिषद् में बारह हजार देव और सात सौ देवियां, मध्यम परिषद् में चौदह हजार देव और छह सौ देवियां तथा बाह्य परिषद् में सोलह हजार देव और पांच सौ देवियां होती हैं। आभ्यन्तर परिषद् में देवों की स्थिति पांच पल्योपम, देवियों की स्थिति तीन पल्योपम, मध्यम परिषद् में देवों की स्थिति चार पल्योपम, देवियों की स्थिति दो पल्योपम तथा बाह्य परिषद् में देवों की स्थिति तीन पल्योपम, देवियों को स्थिति एक पल्योपम होती है। __ अग्रमहिषी-परिवार–प्रत्येक अनमहिषी-पटरानी के परिवार में पांच हजार देवियां होती हैं। यों इन्द्र के अन्तःपुर में चालीस हजार देवियों का परिवार माना जाता है। सेनाएँ-हाथी, घोड़े, बैल, रथ तथा पैदल-ये पाँच सेनाएँ लड़ने हेतु होती हैं तथा दो सेनाएं- गन्धर्वानीक-गाने-बजाने वालों का दल और नाटयानीक-नाटक करने : आमोद-प्रमोदपूर्वक तदर्थ उत्साह बढ़ाने हेतु होती हैं। इस सूत्र में शतक्रतु तथा सहस्राक्ष आदि इन्द्र के कुछ ऐसे नाम पाए हैं, जो वैदिक परम्परा में भी विशेष प्रसिद्ध हैं। जैनपरम्परा के अनुसार इन नामों का कारण एवं इनकी सार्थकता पहले अर्थ में बतलायी जा चुकी हैं। वैदिक परम्परा के अनुसार इन नामों का कारण दूसरा है। वह इस प्रकार है :---- शतऋतु-ऋतु का अर्थ यज्ञ है। सौ यज्ञ सम्पूर्ण रूप में सम्पन्न कर लेने पर इन्द्र-पद प्राप्त होता है, वैदिक परम्परा में ऐसी मान्यता है / अतः शतऋतु सौ यज्ञ पूरे कर इन्द्र पद पाने के अर्थ में प्रचलित है। सहस्राक्ष-इसका शाब्दिक अर्थ हजार नेत्रवाला है। इन्द्र का यह नाम पड़ने के पीछे एक पौराणिक कथा बहुत प्रसिद्ध है / ब्रह्मवैवर्त पुराण में उल्लेख है-इन्द्र एक बार मन्दाकिनी के तट पर स्नान करने गया। वहाँ उसने गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या को नहाते देखा। इन्द्र की बुद्धि Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : कामदेव कामावेश से भ्रष्ट हो गई। उसने देव-माया से गौतम ऋषि का रूप बना लिया और अहल्या का शील-भंग किया। इसी बीच गौतम वहाँ पहुंच गए। वे इन्द्र पर अत्यन्त क्रुद्ध हुए, उसे फटकारते हुए कहने लगे-तुम तो देवताओं में श्रेष्ठ समझे जाते हो, ज्ञानी कहे जाते हो। पर, वास्तव में तुम नीच, अधम, पतित और पापी हो, योनि-लम्पट हो। इन्द्र की निन्दनीय योनि-लम्पटता जगत् के समक्ष प्रकट रहे, इसलिए गौतम ने उसकी देह पर सहस्र योनियां बन जाने का शाप दे डाला। तत्काल इन्द्र की देह पर हजार योनियां उद्भूत हो गईं। इन्द्र घबरा गया, ऋषि के चरणों में गिर पड़ा। बहुत अनुनय-विनय करने पर ऋषि ने इन्द्र से कहा--पूरे एक वर्ष तक तुम्हें इस घृणित रूप का कष्ट झेलना ही होगा। तुम प्रतिक्षण योनि की दुर्गन्ध में रहोगे। तदनन्तर सूर्य की आराधना से ये सहस्र योनियां नेत्र रूप में परिणत हो जायेंगी-तुम सहस्राक्ष-हजार नेत्रों वाले बन जाओगे / आगे चल कर वैसा ही हुआ, एक वर्ष तक वैसा जघन्य जीवन बिताने के बाद इन्द्र सूर्य की आराधना से सहस्राक्ष बन गया।' 112. तए णं से कामदेवे समणोवासए निरुवसग्गं इइ कट्ठ पडिमं पारेइ / तब श्रमणोपासक कामदेव ने यह जानकर कि अब उपसर्ग-विघ्न नहीं रहा है, अपनी प्रतिमा का पारण-समापन किया। भगवान् महावीर का पदार्पण : कामदेव द्वारा बन्दन-नमन 113. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव (जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे) विहरइ / ___ उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर (जहां चंपा नगरी थी, पूर्णभद्र चैत्य था, पधारे, यथोचित स्थान ग्रहण किया, संयम एवं तप से) आत्मा को भावित करते हुए अवस्थित हुए। 114. तए णं से कामदेवे समणोवासए इमोसे कहाए लट्ठ समाणे एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव' विहरइ / तं सेयं खलु मम समणं भगवं महावीर वंदित्ता, नमंसित्ता तओ पडिणियत्तस्स पोसहं पारित्तए ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता सुद्धप्पावेसाई वत्थाई जाव (पवर-परिहिए) अप्पमहग्या-जाव (-भरणालंकिय-सरीरे सकोरेण्ट-मल्ल-दामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं) मणुस्स-वग्गुरापरिक्खित्ते सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता चम्पं नरि मझ-मज्झणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जहा संखो जाव (जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, नमसइ, बंदित्ता, नमंसित्ता तिविहाए पज्जुवासणाए) पज्जुवासइ / श्रमणोपासक कामदेव ने जब यह सुना कि भगवान् महावीर पधारे हैं, तो सोचा, मेरे लिए यह श्रेयस्कर है, मैं श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार कर, वापस लौट कर पोषध का 1. ब्रह्मवैवर्त पुराण 4.4.7. 19-32 2. देखें सूत्र-संख्या 113 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100] [उपासकदशांगसूत्र पारण-समापन करू। यों सोच कर उसने शुद्ध तथा सभा योग्य मांगलिक वस्त्र भली-भाँति पहने, (थोड़े से बहुमूल्य प्राभरणों से शरीर को अलंकृत किया, कुरंट पुष्पों की माला से युक्त छत्र धारण किए हुए पुरुषसमूह से घिरा हुआ) अपने घर से निकला / निकल कर चंपा नगरी के बीच से गुजरा, जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, (जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे,) शंख श्रावक की तरह आया / आकर (तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा की, वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर त्रिविध-कायिक, वाचिक एवं मानसिक) पर्युपासना की। 115. तए णं समणे भगवं महावीरे कामदेवस्स समणोवासयस्स तीसे य जाव' धम्मकहा समत्ता। श्रमण भगवान महावीर ने श्रमणोपासक कामदेव तथा परिषद् को धर्म-देशना दी। भगवान् द्वारा कामदेव की वर्धापना 116. कामदेवा ! इ समणे भगवं महावीरे कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-से नणं कामदेवा! तुम्भं पुत्व-रत्तावरत्तकाल-समयंसि एगे देवे अंतिए पाउम्भूए / तए णं से देवे एगं महं दिग्वं पिसाय-रूवं विउब्वइ, विउम्वित्ता आसुरते एगं महं नीलुप्पल जाव (-गवल-गुलिय-अयसि-कुसुमप्पगासं, खुरधार) असि गहाय तुमं एवं वयासो-हं भो कामदेवा ! जाव' जीवियाओ ववरोविज्जसि / तं तुमं तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव 3 विहरसि / / एवं वण्णगरहिया तिणि वि उवसग्गा तहेव पडिउच्चारेयव्वा जाव देवो पडिगओ। से नूणं कामदेवा ! अट्ठ सम? ? हंता, अस्थि / श्रमण भगवान् महावीर ने कामदेव से कहा—कामदेव ! आधी रात के समय एक देव तुम्हारे सामने प्रकट हुआ था। उस देव ने एक विकराल पिशाच का रूप धारण किया / वैसा कर, अत्यन्त ऋद्ध हो, उसने (नीले कमल, भैंसे के सींग तथा अलसी के फल जैसी गहरी नीली तेज धार वाली) तलवार निकाल कर तुम से कहा-कामदेव ! यदि तुम अपने शील आदि व्रत भग्न नहीं करोगे तो जीवन से पृथक् कर दिए जाओगे / उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी तुम निर्भय भाव से उपासनारत रहे। तीनों उपसर्ग विस्तृत वर्णन रहित, देव के वापस लौट जाने तक पूर्वोक्त रूप में यहाँ कह लेने चाहिए। भगवान् महावीर ने कहा-कामदेव क्या यह ठीक है ? कामदेव बोला--भगवन् ! ऐसा ही हुआ। 117. अज्जो इ समणे भगवं महावीरे बहवे समणे निग्गंथे य निग्गंथीओ य आमंतेता एवं / 1. देखें सूत्र-संख्या 11 2. देखें सूत्र-संख्या 107 3. देखें सूत्र-संख्या 98 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : कामदेव [101 बयासी-जइ ताव, अज्जो ! समणोवासगा, गिहिणो, गिहमजमावसंता दिव्य-माणुस-तिरिक्ख-जोगिए उवसग्गे सम्म सहति जाव (खमंति, तितिक्खंति) अहियासेंति, सक्का पुणाई, अज्जो! समणेहि निग्गंथेहिं दुवालसंग-गणि-पिडगं अहिज्जमाणेहिं दिव्व-माणुस-तिरिक्ख-जोणिए (उवसग्गे) सम्म सहित्तए जाव (खमित्तए, तितिक्खित्तए) अहियासित्तए / भगवान महावीर ने बहुत से श्रमणों और श्रमणियों को संबोधित कर कहा-आर्यों ! यदि श्रमणोपासक गृही घर में रहते हुए भी देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यञ्चकृत-पशु पक्षीकृत उपसर्गों को भली भाँति सहन करते हैं (क्षमा एवं तितिक्षा भाव से झेलते हैं) तो आर्यो ! द्वादशांग-रूप गणिपिटक का-प्राचार आदि बारह अंगों का अध्ययन करने वाले श्रमण निर्ग्रन्थों द्वारा देवकृत, मनुष्यकृत तथा तिर्यञ्चकृत उपसर्गों को सहन करना (क्षमा एवं तितिक्षा-भाव से झेलना) शक्य है ही। 118. तओ ते बहवे समणा निग्गंथा य निग्गंथीओ य समणस्य भगवओ महावीरस्स तह ति एयभट्ट विणएणं पडिसुणेति / श्रमण भगवान महावीर का यह कथन उन बहु-संख्यक साधु-साध्वियों ने ऐसा ही है' भगवन् !' यों कह कर विनयपूर्वक स्वीकार किया / 119. तए णं कामदेवे समणोवासए हट्ट जाव' समणं भगवं महावीरं पसिणाई पुच्छह, अट्ठमादियइ / समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए, तामेव विसं पडिगए। श्रमणोपासक कामदेव अत्यन्त प्रसन्न हुआ, उसने श्रमण भगवान् महावीर से प्रश्न पूछे अर्थ समाधान प्राप्त किया। श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार वंदन-नमस्कार कर, जिस दिशा से वह आया था, उसी दिशा की ओर लौट गया। 120. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ चम्पाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवय-विहारं विहरइ / श्रमण भगवान् महावीर ने एक दिन चम्पा से प्रस्थान किया। प्रस्थान कर वे अन्य जनपदों में विहार कर गए / कामदेवः स्वर्गारोहण 121. तए णं कामदेवे समणोवासए पढम उवासग-पडिमं उपसंपज्जित्ताणं विहरइ / तत्पश्चात् श्रमणोपासक कामदेव ने पहली उपासकप्रतिमा की आराधना स्वीकार की। 122. तए णं से कामदेवे समणोवासए बहूहि जाव (सोल-वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाणपोसहोववाहि अप्पाणं) भावत्ता वीसं वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणित्ता, एक्कारस उवासगपडिमाओ सम्मं कारणं फासत्ता, मासियाए संलेहणाए अप्पाणं मूसित्ता, सद्धि भत्ताई अणसणाए 1. देखें सूत्र-संख्या 12 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102] [उपासकदशांगसूत्र छेवेत्ता, आलोइयपडिक्कते, समाहिपत्ते, कालमासे कालं किच्चा, सोहम्मे कप्पे सोहम्मडिसयस महाविमाणस्स उत्तरपुरत्यिमेणं अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववन्ने / तत्य णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता / कामदेवस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। श्रमणोपासक कामदेव ने अणुव्रत (गुणवत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास) द्वारा प्रात्मा को भावित किया--आत्मा का परिष्कार और परिमार्जन किया। बीस वर्ष तक श्रमणोपासक पर्याय-श्रावकधर्म का पालन किया / ग्यारह उपासक-प्रतिमानों का भली-भांति अनुसरण किया। एक मास की संलेखना और साठ भोजन-एक मास का अनशन सम्पन्न कर आलोचना, प्रतिक्रमण कर मरण-काल आने पर समाधिपूर्वक देइ-त्याग किया। देह-त्याग कर वह सौधर्म देवलोक में सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशान-कोण में स्थित अरुणाभ विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ। वहां अनेक देवों की आयु चार पल्योपम की होती है। कामदेव की आयु भी देवरूप में चार पल्योपम की बतलाई गई है। 123. से णं भंते ! कामदेवे ताओ देव-लोगाओ आउ-क्खएणं भव-क्खएणं ठिइ-क्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता, कहिं गमिहिइ, कहिं उववज्जिहिइ ? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ / निक्खेवो' // सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं बीयं अज्झयणं समतं // गौतम ने भगवान महावीर से पूछा-भन्ते ! कामदेव उस देव-लोक से आयु, भव एवं स्थिति के क्षय होने पर देव-शरीर का त्याग कर कहां जायगा ? कहां उत्पन्न होगा? भगवान् ने कहा-गौतम ! कामदेव महाविदेह-क्षेत्र में सिद्ध होगा-मोक्ष प्राप्त करेगा / / निक्षेप // / / सातवें अंग उपासकदशा का द्वितीय अध्ययन समाप्त / / 1. एवं खलु जम्बू ! समणेण जाव सम्पत्तेणं दोच्चस्स अझयणस्स अयमठे पण्णत्तेत्ति बेमि / 2. निगमन-आर्य सुधर्मा बोले-जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने उपासकदशा के द्वितीय अध्ययन का यही अर्थ--भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है / Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अध्ययन सार : संक्षेप सहस्राब्दियों से वाराणसी भारत की एक समृद्ध और सुप्रसिद्ध नगरी रही है। आज भी शिक्षा की दृष्टि से यह अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व का स्थान है / भगवान् महावीर के समय की बात है, वहां के राजा का नाम जितशत्रु था / जितशत्रु का राज्य काफी विस्तृत था / सम्बद्ध वर्णनों से ऐसा प्रतीत होता है, चम्पा आदि उस समय के बड़े-बड़े नगर उसके राज्य में थे। उन दिनों नगरों के उपकण्ठ में चैत्य हुआ करते थे, जहां नगर में आने वाले प्राचार्य, साधु-संन्यासी आदि रुकते थे। वाराणसी में कोष्ठक नामक चैत्य था / आज भी नगरों के बाहर ऐसे बगीचे, बगीचियां, देवस्थान, विश्रामस्थान आदि होते ही हैं। वाराणसी में चुलनीपिता नामक एक गाथापति निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम श्यामा था / चुलनीपिता अत्यन्त समृद्ध, धन्य-धान्य-सम्पन्न गृहस्थ था। उसकी सम्पत्ति प्रानन्द तथा कामदेव से भी कहीं अधिक थी / आठ करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं उसके निधान में थीं। ऐसा प्रतीत होता है, उन दिनों बड़े समृद्ध जन कुछ ऐसी स्थायी पूजी रखते थे, जिसका वे किसी कार्य में उपयोग नहीं करते थे / प्रतिकूल समय में काम लेने के लिए वह एक सुरक्षित निधि के रूप में होती थी। व्यापारव्यवसाय में सम्पत्ति जहां खब बढ़ सकती है, वहां कम भी हो सकती है, सारी की सारी समाप्त भी हो सकती है। इसलिए उनकी दृष्टि में यह आवश्यक था कि कुछ ऐसी पूजी होनी ही चाहिए, जो अलग रखी रहे, समय पर काम आए / यह अच्छा विभाजन उन दिनों अपने पूजी के उपयोग और विनियोग में था। चुलनीपिता ने आठ करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगा रखी थी। उसकी आठ करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के उपकरण, साज-सामान तथा वैभव में प्रयुक्त थीं। एक ऐसा सन्तुलित जीवन उस समय के समृद्ध जनों का था, वे जिस अनुपात में अपनी सम्पत्ति व्यापार में लगाते, सुरक्षित रखते, उसी अनुपात में घर की शान, गरिमा, प्रभाव तथा सुविधा हेतु भी लगाते थे। उन दिनों देश की आबादी कम थी, भूमि बहुत थी, इसलिए भारत में गो-पालन का कार्य बड़े व्यापक रूप में प्रचलित था। आनन्द और कामदेव के चार और छह गोकुल होने का वर्णन पाया है, वहां चुलनीपिता के दस-दस हजार गायों के आठ गोकुल थे। इस साम्पत्तिक विस्तार और अल-अचल धन से यह स्पष्ट है कि चुलनीपिता उस समय का एक अत्यन्त वैभवशाली पुरुष था। पुराने साहित्य को जब पढ़ते हैं तो एक बात सामने आती है। अनेक पुरुष बहुत वैभव और सम्पदा के स्वामी होते थे, सब तरह का भौतिक या लौकिक सुख उन्हें प्राप्त था, पर वे सुखों के उन्माद में बह नहीं जाते थे। बे समय पर उस जीवन के सम्बन्ध में भी सोचते थे; जो धन, सम्पत्ति वैभव, भोग तथा विलास से पृथक् है / पर, है वास्तविक और उपादेय।। भगवान महावीर के आगमन पर जैसा आनन्द और कामदेव को अपने जीवन को नई दिशा देने का प्रतिबोध मिला, चुलनीपिता के साथ भी ऐसा ही घटित हुआ। भगवान महावीर जब अपने जनपद-विहार के बीच वाराणसी पधारे तो चुलनीपिता ने भी भगवान् की धर्मदेशना सुनी, वह Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104] [उपासकदराांगसूत्र अन्तःप्रेरित हा, उसने जीवन को व्रतों के सांचे में ढाला-श्रावक-धर्म स्वीकार किया। वह अपने जीवन को उत्तरोत्तर उपासना में लगाए रखने में प्रयत्नशील रहने लगा। एक दिन की बात है, वह ब्रह्मचर्य एवं पोषध-व्रत स्वीकार किए, पोषधशाला में उपासनारत था, आधी रात का समय था / उपसर्ग करने के लिए एक देव प्रकट हुआ / हाथ में तेज तलवार लिए उसने चुलनीपिता को कहा--तुम व्रतों को छोड़ दो, नहीं तो मैं तुम्हारे ज्येष्ठ पुत्र को घर से उठा लाऊंगा / तुम्हारे ही सामने उसको काटकर तीन टुकड़े कर डालगा, उबलते पानी से भर उन्हें खौलाऊंगा और तुम्हारे बेटे का उबलता हुअा मांस और रक्त तुम्हारे शरीर पर छिड़कूगा। चुलनीपिता के समक्ष एक भीषण दृश्य था। पुत्र की हत्या की विभीषिका थी। सांसारिक प्रिटजनों में पुत्र का अपना असाधारण स्थान है / पुत्र के प्रति पिता के मन में कितनी ममता होती है, यह किसी से छिपा नहीं है। भारतीय साहित्य में तो यहाँ तक उल्लेख है-~'सर्वेभ्यो जयमन्विच्छेत् पुत्रात् शिष्यात् पराजयम्' अर्थात् पिता यह कामना करता है, मेरा पुत्र इतनी उन्नति करे, इतना आगे बढ़ जाय कि मुझे वह पराजय दे सके / उसी प्रकार गुरु भी यह कामना करता है कि मेरा शिष्य इतना योग्य हो जाय कि मुझे वह पराभूत कर सके। इस परिपार्श्व में जब हम सोचते हैं तो चुलनीपिता के सामने एक हृदय-द्रावक विभीषिका थी, पर उसने हृदय या भावुकता को विवेक पर हावी नहीं होने दिया, अपनी उपासना में अविचल भाव से लगा रहा / देव का क्रोध उबल पड़ा / उसने जैसा कहा था, देवमाया से क्षण भर में वैसा ही दृश्य उपस्थित कर दिया। उसी के बेटे का उबलता मांस और रक्त उसकी देह पर छिड़का / बहुत भयानक और साथ ही साथ बीभत्स कर्म यह था। पत्थर का हृदय भी फट जाय, पर चुलनीपिता अडिग रहा। देव और विकराल हो गया। उसने फिर धमकी दी-मैंने जैसा तुम्हारे बड़े बेटे के साथ किया है, वैसा तुम्हारे मंझले बेटे के साथ भी करता हूं, मान जायो, आराधना से हट जाओ! पर, चुलनीपिता फिर भी घबराया नहीं। तब देव ने बड़े बेटे की तरह मंझले बेटे के साथ भी वैसा ही किया। देव ने तीसरी बार फिर चुलनीपिता को धमकी दी-तुम्हारे दो बेटे समाप्त किए जा चुके हैं, अब छोटे की बारी है / उसकी भी यही हालत होने वाली है। अब भी मान जायो / पर, चुलनीपिता अविचल रहा / देव ने छोटे बेटे का भी काम तमाम कर दिया और वैसा ही क्रूर और नशंस व्यवहार किया। चुलनीपिता उपासना में इतना रम गया था कि हृदय की दुर्बलताएं वह काफी हद तक जीत चुका था। इसलिए, देव का यह नृशंस कर्म उसे अपने पथ से डिगा नहीं सका। जब देव ने देखा कि तीनों पुत्रों की नृशंस हत्या के बावजूद श्रमणोपासक चुलनीपिता निश्चल भाव से धर्मोपासना में लगा है तो उसने एक और अत्यन्त भीषण उपाय सोचा / उसने धमकी भरे शब्दों में उससे कहा- तुम यों नहीं मानोगे, अब मैं तुम्हारी माता भद्रा सार्थवाही को यहाँ लाता हूँ, जो तुम्हारे लिए देव और गुरु की तरह पूजनीय है, जिसने तुम्हारे लालन-पालन में अनेक कष्ट झेले हैं, जो परम धार्मिक है। मैं तुम्हारे सामने इस तेज तलवार से काटकर उसके तीन टुकड़े कर डालूगा / जैसे तुम्हारे पुत्रों को उबलते पानी की कढ़ाही में खौलाया, उसे भी खौलाऊंगा तथा उसी तरह उसके उबलते हुए मांस और रक्त से तुम्हारा शरीर छोटूगा। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : सार-संक्षेप [105 अपने तीनों बेटों की नृशंस हत्या के समय जिसका हृदय जरा भी विचलित नहीं हुआ, अत्यन्त दृढता और तन्मयता के साथ धर्म-ध्यान में लगा रहा, जब उसके समक्ष उसकी श्रद्धेया और ममतामयी माता की हत्या का प्रश्न आया, उसके धीरज का बांध टूट गया। उसे मन ही मन लगा, यह दुष्ट मेरी आंखों के देखते ऐसा नीच कार्य करेगा / ऐसा कभी नहीं हो सकता / मैं अभी इस दुष्ट को पकड़ता हूं। यों क्रुद्ध होकर चुलनीपिता उसे पकड़ने को उठा, हाथ फैलाए / वह तो देव का षड्यंत्र था / वह देव आकाश में अन्तर्धान हो गया और चुलनीपिता के हाथ में पोषधशाला का खंभा पा गया, जो उसके सामने था / चुलनीपिता हक्का-बक्का रह गया / वह जोर जोर से चिल्लाने लगा। भद्रा सार्थवाही ने जब यह शोर सुना तो वह झट वहाँ पाई और अपने पुत्र से बोली-क्या हुआ, ऐसा क्यों करते हो? चुलनीपिता ने वह सारी घटना बतलाई, जो घटित हुई थी। उसकी माता ने कहा-बेटा ! यह देव द्वारा किया गया उपसर्ग था, यह सारी देवमाया थी। सब सुरक्षित हैं, किसी की हत्या नहीं हुई / क्रोध करके तुमने अपना व्रत तोड़ दिया / तुमसे यह भूल हो गई, तुम्हें इसके लिए प्रायश्चित्त करना होगा, जिससे तुम शुद्ध हो सको। चुलनीपिता ने मां का कथन शिरोधार्य किया। प्रायश्चित्त स्वीकार किया। __ मानव-मन बड़ा दुर्बल है / उपासक को क्षण-क्षण सावधान रहना अपेक्षित है। थोड़ी सी सावधानी टूटते ही हृदय में दुर्बलता उभर आती है / उपासक अपने मार्ग से चलित हो जाता है। किसी से भूल होना असंभव नहीं भूल होना असंभव नहीं है, पर जब भूल मालम हो जाय तो व्यक्ति को तत्क्षण जागरूक हो जाना चाहिए, उस भूल के लिए आन्तरिक खेद अनुभव करना चाहिए / पुनः वैसा न हो, इसके लिए संकल्पबद्ध होना चाहिए / उक्त घटना इन्हीं सब बातों पर प्रकाश डालती है / अस्तु / चुलनीपिता धर्म की उपासना में उत्तरोत्तर अग्रसर होता गया। उसने व्रताराधना से आत्मा को भावित करते हए बीस वर्ष तक श्रावक-धर्म का पालन किया, ग्यारह उपासक प्रति की सम्यक् अाराधना की, एक मास की अन्तिम संलेखना और एक मास का अनशन सम्पन्न कर, समाधिपूर्वक देह-त्याग किया। सौधर्म देवलोक में अरुणप्रभ विमान में वह देव रूप में उत्पन्न हुआ। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : चुलनीपिता 124. उक्लेवो तइयस्स अज्झयणस्स' / एवं खलु, जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं बाणारसी नामं नयरी / कोटुए चेइए / जियसत्तू राया। उपक्षेप-उपोद्घातपूर्वक तृतीय अध्ययन का प्रारम्भ यों है : आर्य सुधर्मा ने कहा-जम्बू ! उस काल-वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय-जब भगवान् महावीर सदेह विद्यमान थे, बाराणसी नामक नगरी थी / कोष्ठक नामक चैत्य था, वहां के राजा का नाम जितशत्रु था। श्रमणोपासक चलनीपिता 125. तत्य णं वाणारसीए नयरीए चुलणीपिया नाम गाहावई परिवसइ, अड्ढे, जाव' अपरिभूए। सामा भारिया / अट्ठ हिरण्ण-कोडीओ निहाण-पउत्ताओ, अट्ठ वुड्डि-पउत्ताओ, अट्ठ पवित्थर-पउत्ताओ, अट्ठ वया, दस-गो-साहस्सिएणं वएणं / जहा आणंदो राईसर जाव सव्व-कज्जवड्ढावए यावि होत्या। सामी समोसढे। परिसा निग्गया / चुलणीपिया वि, जहा आणंदो तहा निग्गओ / तहेव गिहि-धम्म पडिवज्जइ / गोयम-पुच्छा। तहेव सेसं जहा कामदेवस्स जाव' पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म- पत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / वाराणसी नगरी में चुलनीपिता नामक गाथापति निवास करता या / वह अत्यन्त समृद्ध एवं प्रभावशाली था / उसकी पत्नी का नाम श्यामा था / आठ करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं स्थायी पूजी के रूप में उसके खजाने में थीं, आठ करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार-व्यवसाय में लगी थीं तथा पाठ करोड़ स्वर्णमुद्राएं घर के वैभव-धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद आदि साधन-सामग्री में लगी थीं। उसके पाठ गोकूल थे / प्रत्येक गोकूल में दस-दस हजार गाएं थी। गाथापति आनन्द की तरह वह राजा, ऐश्वर्यशाली पुरुष आदि विशिष्ट जनों के सभी प्रकार के कार्यों का सत्परामर्श प्रादि द्वारा वर्धापकआगे बढ़ाने वाला था। 1. जइ णं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवासमदसाणं दोच्चस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते तच्चस्स ___णं भंते ! अज्झयणस्स के अट्ठ पण्णते ? जम्बू ने पूछा-सिद्धिप्राप्त भगवान महावीर ने उपासकदशा के द्वितीय अध्ययन का यदि यह अर्थ----प्राशय प्रतिपादित किया, तो भगवन ! उन्होंने तृतीय अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया ? (कृपया कहें।) 3. देखें सूत्र-संख्या 3 4. देखें सूत्र-संख्या 5 5. देखें सूत्र-संख्या 92 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : चुलनोपिता] [107 भगवान् महावीर पधारे-समवसरण हुआ / भगवान् की धर्म-देशना सुनने परिषद् जुड़ी। आनन्द की तरह चुलनीपिता भी घर से निकला भगवान् की सेवा में पाया / आनन्द को तरह उसने भी श्रावकधर्म स्वीकार किया। ____ गौतम ने जैसे प्रानन्द के सम्बन्ध में भगवान् से प्रश्न किए थे, उसी प्रकार चुलनीपिता के भावी जीवन के सम्बन्ध में भी किए / भगवान् ने समाधान दिया। ___आगे की घटना गाथापति कामदेव की तरह है। चुलनीपिता पोषधशाला में ब्रह्मचर्य एवं पोषध स्वीकार कर, श्रमण भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति-धर्म-शिक्षा के अनुरूप उपासना-रत हुआ। उपसर्गकारी देव : प्रादुर्भाव 126. तए णं तस्स चुलणीपियस्स समणोवासयस्स पुव्व-रत्तावरत्तकाल-समयंसि एगे देवे अंतियं पाउन्भूए। आधी रात के समय श्रमणोपासक चुलनीपिता के समक्ष एक देव प्रकट हुआ। पुत्र-वध की धमकी 127. तए णं से देवे एगं महं नीलुप्पल जाव' असि गहाय चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो चुलणीपिया ! समणोवासया! जहा कामदेवो जाव' न भंजेसि, तो ते अहं अज्ज जेटुं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेमि, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएमि धाएता तओ मंस-सोल्ले करेमि, करेत्ता आदाण-भरियंसि कडाहयंसि अद्दहेमि अद्दहेत्ता तब गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचामि, जहा णं तुम अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि। उस देव ने एक बड़ी नीली तेज धार वाली तलवार निकाल कर जैसे पिशाच रूप धारी देव ने कामदेव से कहा था, वैसे ही श्रमणोपासक चुलनीपिता को कहा-श्रमणोपासक चुलनीपिता ! व्रतों से हट जाओ। यदि तुम अपने व्रत नहीं तोड़ोगे, तो मैं आज तुम्हारे बड़े पुत्र को घर से निकाल लाऊंगा। निकाल कर तम्हारे पागे उसे मार डालगा। मारकर उसके तीन मांस-खंड करूगा. उबलते पाद्रहण-पानी या तैल से भरी कढ़ाही में खौलाऊंगा। उसके मांस और रक्त से तुम्हारे शरीर को सींचंगा-छोटूगा / जिससे तुम आर्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही प्राणों से हाथ धो बैठोगे। चलनोपिता की निर्भीकता 128. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव' विहरइ। 1. देखें सूत्र-संख्या 116 2. देखें सूत्र-संख्या 107 3. देखें सूत्र-संख्या 98 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108] [उपासकदशांगसूत्र उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक चुलनीपिता निर्भय भाव से धर्म-ध्यान में स्थित रहा। 129. तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव' पासइ, पासित्ता दोच्चंपि तच्चंपि चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी हं भो ! चुलणीपिया ! समणोवासया ! तं चेव भणइ, सो जाव विहरइ / जब उस देव ने श्रमणोपासक चुलनीपिता को निर्भय देखा, तो उसने उससे दूसरी बार और फिर तीसरी बार वैसा ही कहा / पर, चुलनीपिता पूर्ववत् निर्भीकता के साथ धर्म-ध्यान में स्थित रहा। बड़े पुत्र की हत्या 130. तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव: पासित्ता आसुरत्ते 4 चुलणीपियस्स समणोवासयस्स जेट्ठ पुत्तं गिहाओ नोणेइ, नीणेत्ता अग्गओ घाएइ, घाएत्ता तओ मंससोल्लए करेइ, करेत्ता आदाणभरियसि कडाहांसि अद्दहेइ, अद्दहेत्ता चुलणीपियस्स समणोवासयस्स गायं मंसेण य सोणिएण य.आयंचइ। देव ने चुलनीपिता को जब इस प्रकार निर्भय देखा तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। वह चुलनीपिता के बड़े पुत्र को उसके घर से उठा लाया और उसके सामने उसे मार डाला। मारकर उसके तीन मांस-खंड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया। उसके मांस और रक्त से चुलनीपिता के शरीर को सींचा-छींटा। 131. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तं उज्जलं जाव अहियासेइ / चुलनीपिता ने वह तीव्र वेदना तितिक्षापूर्वक सहन की। मंझले व छोटे पुत्र की हत्या 132. तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव' पासइ, पासित्ता दोच्चंपि तच्चपि चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी हं भो चुलणीपिया समणोवासया ! अपत्थिय-पत्थिया ! जाव न भंजेसि, तो ते अहं अज्ज मज्झिमं पुत्तं साओ गिहाओ नीमि, नीणेत्ता तव अग्गओ धाएमि जहा जेट्ठ पुत्तं तहेव भणइ, तहेव करेइ / एवं तच्चंपि कणीयसं जाव अहियासेइ / देव ने श्रमणोपासक चुलनीपिता को जब यों निर्भीक देखा तो उसने दूसरी-तीसरी बार कहा१. देखें सूत्र-संख्या 97 2. देखें सूत्र-संख्या 97 3. देखें सूत्र-संख्या 97 4. देखें सूत्र-संख्या 106 5. देखें सूत्र-संख्या 97 6. देखें सूत्र-संख्या 107 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : चुलनीपिता] मौत को चाहनेवाले चुलनीपिता ! यदि तुम अपने व्रत नहीं तोड़ोगे, तो मैं तुम्हारे मंझले पुत्र को, घर से उठा लाऊंगा और तुम्हारे सामने तुम्हारे बड़े बेटे की तरह उसकी भी हत्या कर डालूगा / इस पर भी चुलनीपिता जब अविचल रहा तो देव ने वैसा ही किया / उसने तीसरी बार फिर छोटे लड़के के सम्बन्ध में वैसा ही करने को कहा / चुलनीपिता नहीं घबराया / देव ने छोटे लड़के के साथ भी वैसा ही किया / चुलनीपिता ने वह तीव्र वेदना तितिक्षापूर्वक सहन की। मातृ-वध को धमकी 133. तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव' पासइ, पासित्ता चउत्थं पि चुलणोपियं समणोवासयं एवं बयासी हं भो! चुलणीपिया ! समणोवासया ! अपत्थियपत्थिया! जइ णं तुमं जाव न भंजेसि, तओ अहं अज्ज जा इमा तव माया भद्दा सत्यवाही देवयगुरुजणणी, दुक्करदुक्करकारिया, तं ते साओ गिहाओ नीमि, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएमि, घाएत्ता तओ मंससोल्लए करेमि, करेत्ता आदाणभरियंसि कडाहयंसि अद्दहेमि, अद्दहेत्ता तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचामि, जहाणं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि / देव ने जब श्रमणोपासक चुलनीपिता को इस प्रकार निर्भय देखा तो उसने चौथी बार उससे कहा-मौत को चाहने वाले चुलनीपिता ! यदि तुम अपने व्रत नहीं तोड़ोगे तो मैं तुम्हारे लिए देव और गुरु सदृश पूजनीय, तुम्हारे हितार्थ अत्यन्त दुष्कर कार्य करने वाली अथवा अति कठिन धर्मक्रियाएं करने वाली तुम्हारी माता भद्रा सार्थवाही को घर से यहाँ ले आऊंगा / लाकर तुम्हारे सामने उसकी हत्या करूंगा, उसके तीन मांस-खंड करूगा, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाऊंगा / उसके मांस और रक्त से तुम्हारे शरीर को सींगा-छींटूगा, जिससे तुम आर्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही प्राणों में हाथ धो बैठोगे।। विवेचन-- प्रस्तुत सूत्र में श्रमणोपासक चुलनीपिता की माता भद्रा सार्थवाही का एक विशेषण देव-गुरुजननी आया है, जो भारतीय प्राचार-परम्परा में माता के प्रति रहे सम्मान, आदर और श्रद्धा का द्योतक है / माता का सन्तति पर निश्चय ही अपनी सेवाओं का एक ऐसा ऋण होता हैं, जिसे किसी भी तरह उतारा जाना सम्भव नहीं है। इसलिए यहां माता की देवतुल्य पूजनीयता एवं सम्माननीयता की ओर संकेत है। डॉ. रुडोल्फ हॉर्नले ने एक पुरानी व्याख्या के आधार पर देव-गुरु का अर्थ देवताओं के गुरुबृहस्पति किया है / यों उनके अनुसार माता बृहस्पति के समान पूजनीय है। भारत की सभी परम्पराओं के साहित्य में माता का असाधारण महत्व स्वीकार किया गया हैं। 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' के अनुसार माता और मातृभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर माना है / मनु ने तो माता का बहुत अधिक गौरव स्वीकार किया है / उन्होंने माता को पिता से 1. देखें सूत्र-संख्या 97 2. देखें सूत्र-संख्या 107 3. The Uvasagadasao Lecture III Page 94 . Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110] [उपासकवशांगसूत्र हजार गुना अधिक महत्त्व दिया है / ' तैत्तिरीयोपनिषद् में उल्लेख है, अध्ययन सम्पन्न कराने के पश्चात् प्राचार्य जब शिष्य को भावी जीवन के लिए उपदेश करता है, तो वहाँ वह उसे विशेष रूप से कहता है, तुम अपनी माता को देवता के तुल्य समझना, पिता को देवता के तुल्य समझना, प्राचार्य को देवता के तुल्य समझना, अतिथि को देवता के तुल्य समझना, अनवद्य-अनिंद्य या निर्दोष कर्म करना, इतर-निंद्य या सदोष कर्म मत करना, गुरुजनों द्वारा सेवित शुभ आचरण या उत्तम चरित्र का पालन करना / जैन-साहित्य और बौद्ध-साहित्य में भी माता का बहुत उच्च स्थान माना गया है। यहाँ प्रयुक्त इस विशेषण में भारतीय चिन्तनधारा के इस पक्ष की स्पष्ट झलक है। 134. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ / उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक चुलनीपिता निर्भयता से धर्मध्यान में स्थित रहा। 135. तए णं से देवे चुलणोपियं समणोवासयं अभीयं जाव' विहरमाणं पासइ, पासित्ता चुलणीपियं समणोवासयं दोच्चपि तच्चपि एवं वयासी-हं भो! चुलणीपिया! समणोवासया ! तहेव जाव (अट्ट-दुहट्ट-वस? अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविज्जसि। उस देव ने श्रमणोपासक चुलनीपिता को निर्भय देखा तो दूसरी बार, तीसरी बार फिर वैसा ही कहाश्रमणोपासक चुलनीपिता ! तुम (प्रार्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही) प्राणों से हाथ धो बैठोगे। चुलनी पिता का क्षोभ : कोलाहल 136. तए णं तस्स चुलणीपियस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चपि तच्चंपि एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए 5, अहो णं इमे पुरिसे अणारिए, अणारिय-बुद्धी, अणारियाई, पावाई कम्माइं समायरइ, जेणं ममं जेट्ठ पुत्तं साओ गिहाओ नीणेइ, नीणेत्ता ममं अम्गओ घाएइ, धाएत्ता जहा कयं तहा चितेइ जाव (तओ मंससोल्लए करेइ, करेत्ता आदाणभरियसि कडाहयंसि अद्दहेइ, अहहेत्ता) ममं गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचइ, जेणं ममं मज्झिमं पुत्तं साओ गिहाओ जाव 1. उपाध्यायान्दशाचार्य प्राचार्याणां शतं पिता / सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते // --मनुस्मृति 2. 145 2. मातृदेवो भव / पितृदेवो भव / प्राचार्यदेवो भव / अतिथिदेवो भव / यान्यनवद्यानि कर्माणि, तानि सेवितव्यानि, नो इतराणि / यान्यस्माकं सुचरितानि, तानि त्वयोपास्यानि / --तैत्तिरीयोपनिषद् वल्ली 1. अनुवाक् 11.2 3. देखें सूत्र-संख्या 98 4. देखें सूत्र-संख्या 97 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : चुलनीपिता] [111 (नीणेइ, नीणेत्ता ममं अग्गओ धाएइ, घाएता तओ मंस-सोल्लए करेइ, करेत्ता आदाण-भरियसि कडाहयंसि अद्दहेइ, अहहेत्ता) ममं गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचइ, जेणं ममं कणीयसं पुत्तं साओ गिहाओ तहेव जाव' आयंचइ, जा वियणं इमा ममं माया भट्टा सत्थवाही देवय-गुरु-जणणी, दक्करदुक्कर-कारिया तं पि य णं इच्छइ साओ गिहाओ नीणेत्ता मम अग्गओ घाएत्तए, तं सेयं खलु ममं एवं पुरिसं गिहित्तए त्ति कटु उद्धाइए, से वि य आगासे उप्पइए, तेणं च खंभे आसाइए, महया महया सद्देणं कोलाहले कए। उस देव ने जब दूसरी बार, तीसरी बार ऐसा कहा, तब श्रमणोपासक चुलनीपिता के मन में विचार प्राया—यह पुरुष बड़ा अधम है, नीच-बुद्धि है, नीचतापूर्ण पाप-कार्य करने वाला है, जिसने मेरे बड़े पुत्र को घर से लाकर मेरे आगे मार डाला (उसके तीन मांस-खण्ड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया) उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर को सींचा-छींटा, जो मेरे मंझले पुत्र को घर से ले आया, (लाकर मेरे सामने उसकी हत्या की, उसके तीन मांस-खण्ड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया, उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर को सींचा-छींटा,) जो मे पुत्र को घर से ले आया, उसी तरह उसके मांस और रक्त से मेरा शरीर सींचा, जो देव और गुरु सदृश पूजनीय, मेरे हितार्थ अत्यन्त दुष्कर कार्य करने वाली, अति कठिन क्रियाएं करने वाली मेरी माता भद्रा सार्थवाही को भी घर से लाकर मेरे सामने मारना चाहता है / इसलिए, अच्छा यही है, मैं इस पुरुष को पकड़ लू। यों विचार कर वह पकड़ने के लिए दौड़ा / इतने में देव आकाश में उड़ गया / चुलनीपिता के पकड़ने को फैलाए हाथों में खम्भा आ गया / वह जोर-जोर से शोर करने लगा। माता का आगमन : जिज्ञासा 137. तए णं सा भद्दा सत्थवाही तं कोलाहल-सदं सोच्चा, निसम्म जेणेव चुलणीपिया समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी-किण्णं पुत्ता ! तुमं महया महया सद्देणं कोलाहले कए ? भद्रा सार्थवाही ने जब वह कोलाहल सुना, तो जहाँ श्रमणोपासक चुलनीपिता था, वहाँ वह आई, उससे बोली-पुत्र ! तुम जोर-जोर से यों क्यों चिल्लाए ? चुलनीपिता का उत्तर 138. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए अम्मयं भदं सत्थवाहिं एवं बयासी-एवं खलु अम्मो ! न जाणामि के वि पुरिसे आसुरत्ते 4, एगं महं नीलुप्पल जाव' असि गहाय ममं एवं वयासी हं भो ! चुलणीपिया ! समणोवासया ! अपत्थिय-पत्थिया! 4. जइ णं तुमं जाव (अज्ज सीलाई, वयाई, वेरमणाई, पच्चक्खाणाई, पोसहोववासाइं न छड्डेसि, न भंजेसि, तो जाव तुमं अट्टदुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविज्जसि / अपनी माता भद्रा सार्थवाही से श्रमणोपासक चुलनीपिता ने कहा-मां ! न जाने कौन 1. देखें सूत्र-संख्या 136 2. देखें सूत्र-संख्या 116 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112] [उपासकदशांगसूत्र पुरुष था, जिसने अत्यन्त क्रुद्ध होकर एक बड़ी नीली तलवार निकाल कर मुझे कहा-मृत्यु को चाहने वाले श्रमणोपासक चुलनीपिता ! यदि तुम आज शील, (व्रत, विमरण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास) का त्याग नहीं करोगे, भंग नहीं करोगे तो तुम आर्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही प्राणों से हाथ धो बैठोगे / 139. तए णं अहं तेणं पुरिसेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव' विहरामि / उस पुरुष द्वारा यों कहे जाने पर भी मैं निर्भीकता के साथ अपनी उपासना में निरत रहा। 140. तए णं से पुरिसे ममं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ, पासित्ता ममं दोच्चंपि तच्वंपि एवं वयासी हं भो! चुलणीपिया ! समणोवासया ! तहेव जाव गायं आयंचइ। जब उस पुरुष ने मुझे निर्भयतापूर्वक उपासनारत देखा तो उसने मुझे दूसरी बार, तीसरी बार फिर कहा-श्रमणोपासक चुलनीपिता ! जैसा मैंने तुम्हें कहा है, मैं तुम्हारे शरीर को मांस और रक्त से सींचता हूँ और उसने वैसा ही किया / 141. तए णं अहं उज्जलं, जाव (विउलं, कक्कसं, पगाढं, चंडं, दुक्खं, दुरहियासं वेयणं सम्मं सहामि, खमामि, तितिक्खामि, अहियासेमि / एवं तहेव उच्चारेयव्वं सव्यं जाव कणीयसं जाव आयंचइ / अहं तं उज्जलं जाबअहियासेमि।। मैंने (सहनशीलता, क्षमा और तितिक्षापूर्वक वह तीव्र, विपुल-अत्यधिक, कर्कश-कठोर, प्रगाढ, रौद्र, कष्टप्रद तथा दुःसह) वेदना झेली। छोटे पुत्र के मांस और रक्त से शरीर सींचने तक सारी घटना उसी रूप में घटित हुई। मैं वह तीव्र वेदना सहता गया। 142. तए णं से पुरिसे ममं अभीयं जाव पासइ, पासित्ता ममं चउत्थं पि एवं वयासीहं भो! चुलणीपिया! समणोवासया! अपत्थिय-पत्थिया! जाव न भंजेसि, तो ते अज्ज जा इमा माया गुरु जाव (जणणी दुक्कर-दुक्करकारिया, तं साओ गिहाओ नीमि, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएमि, घाएत्ता तओ मंससोल्लए करेमि, करेत्ता आदाण-भरियंसि कडाहयंसि अद्दहेमि, अद्दहेत्ता तव गाय मंसेण य सोणिएण य आयंचामि, जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविज्जसि / 1. देखें सूत्र-संख्या 98 2. देखें सूत्र-संख्या 97 3. देखें सूत्र-संख्या 136 4. देखें सूत्र-संख्या 136 .5. देखें सूत्र यही 6. देखें सूत्र-संख्या 97 7. देखें सूत्र-संख्या 107 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : चलनीपिता] [113 उस पुरुष ने जब मुझे निडर देखा तो चौथी बार उसने कहा—मौत को चाहने वाले श्रमणोपासक चुलनीपिता ! तुम यदि अपने व्रत भंग नहीं करते हो तो आज (तुम्हारे लिए देव और गुरु सदश पूजनीय, तम्हारे हितार्थ अत्यन्त दुष्कर कार्य करने वाली-अति कठिन धर्म-क्रियाएं कर तुम्हारी माता को घर से ले पाऊंगा / लाकर तुम्हारे सामने उसका वध करूगा, उसके तीन मांसखण्ड करूगा, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाऊंगा, उसके मांस और रक्त से तुम्हारे शरीर को सीचू गा, जिससे तुम आर्तध्यान एवं विकट दुःखों से पीड़ित होकर असमय में ही) प्राणों से हाथ धो बैठोगे / 143. तए णं अहं तेणं पुरिसेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव' विहरामि / उस पुरुष द्वारा यों कहे जाने पर भी मैं निर्भीकतापूर्वक धर्म-ध्यान में स्थित रहा / 144. तए णं से पुरिसे दोच्चंपि तच्चपि ममं एवं वयासी-हं भो! चुलणोपिया ! समणोवासया! अज्ज जाव' ववरोविज्जसि / उस पुरुष ने दूसरी बार, तीसरी बार मुझे फिर कहा-श्रमणोपासक चुलनीपिता! अाज तुम प्राणों से हाथ धो बैठोगे / 145. तए णं तेणं पुरिसेणं दोच्चंपि तच्चपि ममं एवं वृत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए 5, अहो णं! इमे पुरिसे अणारिए जाव (अणारिय-बुद्धी, अणारियाई, पावाई कम्माई) समायरइ, जेणं ममं जेट्ठ पुत्तं साओ गिहाओ तहेव जाव कणीयसं जाव' आयंचइ, तुम्भे वि य णं इच्छइ साओ गिहाओ नीणेत्ता ममं अग्गओ घाएत्तए, तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिण्हित्तए त्ति कटु उद्धाइए / से वि य आगासे उप्पइए, मए वि य खंभे आसाइए, महया महया सद्देणं कोलाहले कए। उस पुरुष द्वारा दूसरी बार, तोसरी बार यों कहे जाने पर मेरे मन में ऐसा विचार पाया, अरे ! इस अधम, नीचबुद्धि पुरुष ने ऐसे नीचतापूर्ण पापकर्म किए, मेरे ज्येष्ठ पुत्र को, मंझले पुत्र को और छोटे पुत्र को घर से ले आया, उनकी हत्या की, उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर को सींचा / अब तुमको भी (माता को भी) घर से लाकर मेरे सामने मार डालना चाहता है। इसलिए अच्छा यही है, मैं इस पुरुष को पकड़ लू। यों विचार कर मैं उसे पकड़ने के लिये उठा, इतने में वह आकाश में उड़ गया। उसे पकड़ने को फैलाये हुए मेरे हाथों में खम्भा आ गया। मैंने जोर-जोर से शोर किया। चुलनीपिता द्वारा प्रायश्चित्त 146. तए णं सा भद्दा सत्थवाहो चुलणोपियं समणोवासयं एव वयासो-नो खलु केइ पुरिसे तव जाव (जेट्टपुत्तं साओ गिहाओ नोणेइ, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएइ, नो खलु केइ पुरिसे तव मज्झिमं पुत्तं साओ गिहाओ नोणेइ, नोणेता तव अग्गओ धाएइ, तो खलु केइ पुरिसे तव) कणीयसं 1. देखें सूत्र-संख्या 98 2. देखें सूत्र-संख्या 135 3. देखें सूत्र-संख्या 136 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114] [उपासकदशांगसूत्र पुत्तं साओ गिहाओ नोणेइ, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएइ, एस णं केइ पुरिसे तव उवसग्गं करेइ, एस णं तुमे विदरिसणे दिट्ठ। तं गं तुम इयाणि भग्ग-व्वए भग्ग-नियमे भग्ग-पोसहे विहरसि / तं गं तुमं पुत्ता ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव (पडिक्कमाहि, निदाहि, गरिहाहि, विउट्टाहि, विसोहेहि अकरणयाए, अब्भुट्टाहि अहारिहं पायच्छित्तं तवो-कम्म) पडिवज्जाहि / तब भद्रा सार्थवाही श्रमणोपासक चुलनी पिता से बोली-पुत्र ! ऐसा कोई पुरुष नहीं था, जो (तम्हारे ज्येष्ठ पत्र को घर से लाया हो, तुम्हारे पागे उसका वध किया हो, तुम्हारे मंझले पूत्र को घर से लाया हो, तुम्हारे आगे उसे मारा हो,) तुम्हारे छोटे पुत्र को घर से लाया हो, तुम्हारे आगे उसकी हत्या की हो। यह तो तुम्हारे लिए कोई देव-उपसर्ग था। इसलिए, तुमने यह भयंकर दृश्य देखा / अब तुम्हारा व्रत, नियम और पोषध भग्न हो गया है—खण्डित हो गया है। इसलिए पुत्र! तुम इस स्थान व्रत-भंग रूप आचरण की आलोचना करो, (प्रतिक्रमण करो-पुनः शुद्ध अन्तःस्थिति में लौटो, इस प्रवृत्ति की निन्दा करो, गर्दी करोपान्तरिक खेद अनुभव करो, इसे वित्रोटित करो---विच्छिन्न करो या मिटाओ, इस प्रकरणता या अकार्य का विशोधन करो—इससे जनित दोष का परिमार्जन करो, यथोचित प्रायश्चित्त के लिए अभ्युत्थित-उद्यत हो जाओ,) तदर्थ तपःकर्म स्वीकार करो। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में देव द्वारा श्रमणोपासक चुलनीपिता के तीनों पुत्रों को उसकी आंखों के सामने तलवार से काट डाले जाने तथा उबलते पानी की कढ़ाही से खौलाए जाने के सम्बन्ध में जो उल्लेख है वह कोई वास्तविक घटना नहीं थी, देव-उपसर्ग था। इसका स्पष्टीकरण कामदेव के प्रकरण में किया जा चुका है। विशेषता यह है कि अन्ततः चुलनीपिता अपने व्रतों से विचलित हो गया। व्रती या उपासक के लिए यह आवश्यक है कि वह प्रतिक्षण सावधान रहे, अपने नियमों के यथावत् पालन में जागरूक रहे / ऐसा होते हुए भी कुछ ऐसी मानवीय दुर्बलताएं हैं, उपासक की / दृढ़ता कभी-कभी टूट जाती है। गुरु, पूज्य जन आदि से उद्बोधित होकर अथवा आत्म-प्रेरित होकर उपासक सहसा सावधान होता है, जीवन में वैसा अवांछनीय प्रसंग फिर न पाए / वह अपने संकल्प को स्मरण करता है। पूर्ववत् दृढ़ता आ जाए, वह (संकल्प-व्रत) अागे फिर न टूटे, इसके लिए शास्त्रों में प्रायश्चित्त का विधान है। उपासक वहां अपने भीतर पैठ कर अपने स्वरूप, प्राचार, व्रत, स्थिति के करता है। इस सन्दर्भ में आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा आदि शब्दों का विशे है जो यहां भी हया है। वैसे साधारणतया ये शब्द समानार्थक जैसे हैं, परन्तु सक्षमता में जाएं तो प्रत्येक शब्द की अपनी विशेषता है / जैन परम्परा में आत्म-शोधनमूलक इस उपक्रम का अपना विशेष प्रकार है, जिसके पीछे बड़ा मनोवैज्ञानिक चिन्तन है। आलोचना करने का आशय गुरु के सम्मुख अपनी भूल निवेदित करना है / यह बहुत लाभप्रद है। इससे भीतर का मल धुल जाता है। प्रतिक्रमण शब्द का भी अपना महत्त्व है। उपासक अपने आप को सम्बोधित कर कहता हैआत्मन् ! वापस अपने आप में लौटो, बहिर्मुख हो तुम कहां चले गये थे? फिर निन्दा की बात आती है, उपासक आत्मा की साक्षी से भीतर ही भीतर अपनी भूल की निन्दा करता है। विचार Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : चुलनीपिता] [115 करता है कि कैसा बुरा कार्य उससे बन पड़ा / गुरु को प्रत्यक्ष रूप में या भाव रूप में साक्ष्य बनाकर वह अपनी भूल की प्रकट रूप में निन्दा करता है, जिसे गर्दा कहा जाता है, जो आन्तरिक खेद अनुभव करने का बहुत ही प्रेरणाप्रद रूप है। जिस विचारधारा के कारण भूल बनी, उस विचारधारा को सर्वथा उच्छिन्न कर देने हेतु उपासक संकल्पबद्ध होता है / अन्ततः वह प्रायश्चित्त के रूप में कुछ तपश्चरण स्वीकार करता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह एक ऐसा सुन्दर क्रम है, जिससे पुनः वैसी भूल यथासम्भव नहीं होती। जिन दुर्बलताओं के कारण वैसी भूल बनती है, वे दुर्बलताएं किसी न किसी रूप में दूर हो जाती हैं। प्रस्तुत में चुलनी पिता की माता ने उसे कहा है-'तुम्हारा व्रत, नियम और पोषध भग्न हो गया है।' टीकाकार ने व्रतादि के भंग होने का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है साधारणतया श्रावक अहिंसाणुव्रत में निरपराध जीव की हिंसा का त्याग करता है किन्तु पोषध में निरपराध के साथ सापराध की हिंसा का भी त्याग होता है। चुलनीपिता ने क्रोधपूर्वक उपसर्गकारी के विनाश के लिए दौड़कर भावतः स्थूलप्राणातिपातविरमण व्रत का उल्लंघन किया। यह उसके व्रतभंग का कारण हुआ / पोषध में क्रोध करने का भी परित्याग किया जाता है, किन्तु कोध करने के कारण उत्तरगुणरूप नियम का भंग हुआ / अव्यापार के त्याग का उल्लंघन करने के कारण पोषध-भंग हुआ। इस प्रकार व्रत, नियम और. पोषध भंग होने के कारण, पुनः विशुद्धि के लिए आलोचना आदि करना अनिवार्य था। 147. तए णं से चुलणोपिया समणोवासए अम्मयाए भद्दाए सत्थवाहीए 'तह ति एयम8 विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव' पडिबज्जइ / श्रमणोपासक चुलनीपिता ने अपनी माता भद्रा सार्थवाही का कथन 'आप ठीक कहती हैं। यों कहकर विनयपूर्वक सुना। सुनकर उस स्थान-व्रत-भंग, नियमभंग और पोषधभंग रूप आचरण की आलोचना की, (यावत्) प्रायश्चित्त के रूप में तदनुरूप तपःक्रिया स्वीकार की। जीवन का उपासनामय अन्त 148. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए पढम उवासगपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ, पढमं उवासग-पडिमं अहासुत्तं जहा आणंदो जाव (दोच्चं उवासग-पडिमं, एवं तच्चं, चउत्थं, पंचम, छ8, सत्तम, अट्ठमं, नवम, दशमं,) एक्कारसमं वि / तत्पश्चात् श्रमणोपासक चुलनीपिता ने आनन्द की तरह क्रमश: पहली, (दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी, सातवीं, आठवीं, नौवीं, दसवीं तथा) ग्यारहवीं उपासक-प्रतिमा की यथाविधि आराधना की। 149. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तेणं उरालेणं जहा कामदेवो जाव (बहूहि सीलव्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहि अप्पाणं भावेत्ता, बीसं बासाई समणोवासग-परियायं 1. देखें सूत्र-संख्या 87 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116] [उपासकदशांगसूत्र पाउणित्ता, एक्कारस य उवासग-पडिमाओ सम्म काएणं फासित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदत्ता, आलोइय-पडिक्कते, समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा) सोहम्मे करपे सोहम्मडिसगस्स महाविमाणस्स उत्तर-पुरथिमेणं अरुणप्पभे विमाणे देवत्ताए उववन्ने चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णता / महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। निक्खेवो' // सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं तइयं अज्सयणं समत्तं / / श्रमणोपासक चुलनीपिता (अणुव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास द्वारा अनेक प्रकार से प्रात्मा को भावित कर, बीस वर्ष तक श्रावकधर्म का पालन कर, ग्यारह उपासकप्रतिमाओं की भली-भांति अाराधना कर एक मास की संलेखना और एक मास का अनशन सम्पन्न कर, पालोचना, प्रतिक्रमण कर, मरण-काल आने पर समाधिपूर्वक देहत्याग कर-ज्यों उग्र तपश्चरण के फल स्वरूप) सौधर्म देवलोक में सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशान कोण में स्थित अरुणप्रभ विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ / वहाँ उसकी आयु-स्थिति चार पल्योपम की बतलाई गई है। महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध होगा—मोक्ष प्राप्त करेगा। / निक्षेप / / / / सातवें अंग उपासकदशा का तृतीय अध्ययन समाप्त / / 1. एवं खलु जम्बू ! समणेण जाव संपत्तेणं तच्चस्स अभयणस्स' अयमठे पण्णत्तेत्ति बेमि / 2. निगमन-आर्य सुधर्मा बोले- जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने उपासकदशा के तृतीय अध्ययन का यही प्रर्थ-भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अध्ययन सार : संक्षेप वाराणसी नगरी में सुरादेव नामक गाथापति था। वह बहुत समृद्धिशाली था / छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं उसके निधान में थीं, छह करोड़ व्यापार में तथा छह करोड़ घर के वैभव में / उसकी पत्नी का नाम धत्या था / शुभ संयोगवश एक बार भगवान् महावीर वाराणसी में पधारे---समवसरण हुआ / प्रानन्द की तरह सरादेव ने भी श्रावक-धर्म स्वीकार किया। वह धर्माराधना में उत्तरोत्तर बढ़ता गया / एक दिन की घटना है, सुरादेव पोषधशाला में ब्रह्मचर्य एवं पोषध स्वीकार किए उपासनारत था / आधी रात का समय हुआ था, एक देव उसके सामने प्रकट हुआ। उसके हाथ में तेज तलवार थी। उसने सुरादेव को उपासना से हट जाने के लिए बहुत डराया-धमकाया। न मानने पर उसने उसके तीनों पुत्रों को क्रमशः उसी प्रकार हत्या कर दी, जिस प्रकार चुलनीपिता के कथानक में देव ने उसके पुत्रों को मारा था। हर बार हर पुत्र के शरीर को पांच-पांच मांस-खंडों में काटा, उबलते पानी की कढ़ाही में खौलाया और वह उबलता मांस व रक्त सुरादेव पर छिड़का / पर, सुरादेव की दृढ़ता नहीं टूटी / वह निर्भीकता के साथ अपनी उपासना में लगा रहा। देव ने सोचा, पुत्रों के प्रति रही ममता पर चोट करने से यह विचलित नहीं हो रहा है, इसलिए मुझे अब इसके शरीर की ही दुर्दशा करनी होगी। मनुष्य को शरीर से अधिक प्रिय कुछ भी नहीं होता, यह सोचकर देव ने सुरादेव को अत्यन्त कठोर शब्दों में कहा कि तुम्हारे सामने मैंने तुम्हारे पुत्रों को मार डाला, तुमने परवाह नहीं की। अब देखो, मैं तुम्हारी खुद की कैसी बुरी हालत करता हूं। फिर कहता हूं, तुम व्रतों का त्याग कर दो, नहीं तो मैं तुम्हारे शरीर में एक ही साथ दमा, खांसी, बुखार, जलन, कुक्षि-शूल, भगंदर, बवासीर, अजीर्ण, दृष्टि-रोग, शिरः-शूल, अरुचि, अक्षिवेदना, कर्ण-वेदना, खजली, उदर-रोग और कष्ठ—ये सोलह भयानक बीमारियां पैदा हूं / इन बीमारियों से तुम्हारा शरीर सड़ जायगा, इनकी बेहद पीड़ा से तुम जीर्ण हो जानोगे / __ अपनी आंखों के सामने बेटों की हत्या देख, जो सुरादेव विचलित नहीं हुआ था, अपने पर आने वाले रोगों का नाम सुनते ही उसका मन कांप गया / यह सोचते ही कि मेरा शरीर इन भीषण रोगों से असीम वेदना-पीड़ित होकर जीवित ही मृत जैसा हो जायगा, सहसा उसका धैर्य टूट गया / वैसे रोगाक्रान्त जीवन की विभीषिका ने उसे दहला दिया / उसने सोचा, जो दुष्ट मुझे ऐसा बना देना चाहता है, उसे पकड़ लेना चाहिए। पकड़ने के लिए उसने हाथ फैलाए। वह तो देवमाया का षड्यन्त्र था, कैसे पकड़ में आता ? देव आकाश में लुप्त हो गया / पोषधशाला का जो खंभा सुरादेव के सामने था, उसके हाथों में आ गया / सुरादेव हक्का-बक्का रह गया / वह समझ नहीं सका, यह क्या हुआ ? वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा। सुरादेव की पत्नी धन्या ने जब यह चिल्लाहट सुनी तो वह तुरन्त पोषधशाला में आई और Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118] [उपासकदशांगसूत्र अपने पति से पूछने लगी क्या बात है ? आप ऐसा क्यों कर रहे हैं ? इस पर सुरादेव ने वह सारी घटना धन्या को बतलाई। धन्या बड़ी बुद्धिमती थी। उसने अपने पति से कहा-आपको धर्म से डिगाने के लिए यह देव-उपसर्ग था। आपके पुत्र सकुशल हैं / आपकी देह में रोग पैदा करने की बात धमकी के सिवाय कुछ नहीं थी। भयभीत होकर आपने अपना व्रत खण्डित कर दिया, यह दोष हुआ, प्रायश्चित्त लेकर आपको शुद्ध होना चाहिए। सुरादेव ने अपनी पत्नी की बात सहर्ष स्वीकार की। अपनी भूल के लिए आलोचना की, प्रायश्चित्त ग्रहण किया / सुरादेव का उत्तरवर्ती जीवन चुलनीपिता की तरह धर्मोपासना में अधिकाधिक गतिशील रहा / उसने व्रतों का भली-भाँति अनुसरण करते हुए बीस वर्ष तक श्रावक-धर्म का पालन किया, ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं की सम्यक् आराधना की, एक मास की अन्तिम संलेखना और एक मास का अनशन सम्पन्न कर समाधि-पूर्वक देह-त्याग किया। सौधर्म देवलोक में अरुणकान्त विमान में वह देव-रूप में उत्पन्न हुआ। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : सुरादेव श्रमणोपासक सुरादेव 150. उक्खेवओ' चउत्थस्स अज्झयणस्स / एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नाम नयरी / कोदए चेहए। जियसत्तू राया। सुरादेवे गाहावई अड्डे / छ हिरण्ण-कोडीओ जाव (निहाण-पउत्ताओ, छ वड्डि-पउत्ताओ, छ पवित्थर-पउत्ताओ।) छ वया, दस-गो-साहस्सिएणं वएणं / धन्ना भारिया / सामी समोसढे / जहा आणंदो तहेव पडिवज्जए गिहि-धम्म / जहा कामदेवो जाव' समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्म-पण्णत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / उपक्षेप ---उपोद्घातपूर्वक चतुर्थ अध्ययन का प्रारम्भ यों है आर्य सुधर्मा ने कहा-जम्बू ! उस काल-वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे पारे के अन्त में, उस समय-जब भगवान महावीर सदेह विद्यमान थे, वाराणसी नामक नगरी थी। कोष्ठक नामक चैत्य था / वहां के राजा का नाम जितशत्रु था। वहां सुरादेव नामक गाथापति था / वह अत्यन्त समृद्ध था। छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं स्थायी पूजी के रूप में उसके खजाने में थीं, (छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार-व्यवसाय में लगी थीं, छः करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव-धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद आदि साधन-सामग्री में लगी थी)। उसके छह गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में दस-दस हजार गायें थीं। उसकी पत्नी का नाम धन्या था।। __ भगवान् महावीर पधारे.-समवसरण हुआ / आनन्द की तरह सुरादेव ने भी श्रावक-धर्म स्वीकार किया। कामदेव की तरह वह भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति-धर्म-शिक्षा के अनुरूप उपासना-रत हुआ। देव द्वारा पुत्रों की हत्या 151. तए णं तस्स सुरादेवस्स समणोवासयस्स पुन्व-रत्तावरत्तकाल-समयंसि एगे देवे अंतियं पाउन्भवित्था / से देवे एगं महं नीलुप्पल जाव' असि गहाय सुरादेवं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो! सुरादेवा समणोवासया! अपत्थिय-पत्थिया 4 / जइ णं तुमं सोलाई जाव' न भंजेसि, तो ते 1. जइ णं भंते ! समणेणं भगक्या जाव संपत्तेणं उवासगदसाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते, च उत्थस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अटठे पण्णत्ते ? 2. देखें सूत्र-संख्या 92 3. प्रार्य सुधर्मा से जम्बू ने पूछा-सिद्धि प्राप्त भगवान् महावीर ने उपासकदशा के तृतीय अध्ययन का यदि यह अर्थ—प्राशय प्रतिपादित किया, तो भगवन् ! उन्होंने चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया ? (कृपया कहें।) 4. देखें सूत्र-संख्या 116 5. देखें सूत्र-संख्या 107 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120] [उपासकदशांगसूत्र जेट्रपुत्तं साओ गिहाओ नीणेमि, नीणेता तव अग्गओ घाएमि, घाएता पंच सोल्लए करेमि, करेत्ता आदाण-भरियसि कडाहयंसि अद्दहेमि, अद्दहेत्ता तव गायं मंसेण य साणिएण य आयंचामि, जहा णं तुम अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि / ___ एवं मज्झिमयं, कणीयसं; एक्केक्के पंच सोल्लया। तहेव करेइ जहा चुलणोपियस्स, नवरं एक्केक्के पंच सोल्लया। एक दिन की बात है, आधी रात के समय श्रमणोपासक सुरादेव के समक्ष एक देव प्रकट हया / उसने नीली, तेज धार वाली तलवार निकालकर श्रमणोपासक सुरादेव से कहा-मृत्यु को चाहने वाले श्रमणोपासक सुरादेव ! यदि तुम आज शील, व्रत आदि का भंग नहीं करते हो तो मैं तुम्हारे बड़े बेटे को घर से उठा लाऊंगा। लाकर तुम्हारे सामने उसे मार डालूगा। मारकर उसके पांच मांस-खण्ड करुंगा, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाऊंगा. उसके मांस और रक्त से तुम्हारे शरीर को सींचूगा, जिससे तुम असमय में ही जीवन से हाथ धो बैठोगे / ___ इसी प्रकार उसने मंझले और छोटे लड़के को भी मार डालने, उनको पांच-पांच मांस-खंडों में काट डालने की धमकी दी / सुरादेव के अविचल रहने पर जैसा चुलनीपिता के साथ देव ने किया था, वैसा ही उसने किया, उसके पुत्रों को मार डाला। इतना भेद रहा, वहाँ देव ने तीन-तीन मांस खंड किये थे, यहाँ देव ने पांच-पांच मांस-खंड किए। भीषण व्याधियों की धमकी 152. तए णं देवे सुरादेवं समणोवासयं चउत्थं पि एवं वयासीहं भो! सुरादेवा समणोवासया ! अपत्थिय-पत्थिया 4 ! जाव' न परिच्चयसि, तो ते अज्ज सरीरंसि जमग-समगमेव सोलस-रोगायके पक्खिवामि, तं जहा-सासे, कासे जाव (जरे, दाहे, कुच्छिसूले, भगंदरे, अरिसए, अजीरए, दिद्विसूले, मुद्धसूले, अकारिए, अच्छिवेयणा, कण्णवेयणा, कंडुए, उदरे) कोढे, जहा णं तुम अट्ट-दुहट्ट जाव (-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविज्जसि। ___ तब उस देव ने श्रमणोपासक सुरादेव को चौथी बार भी ऐसा कहा मृत्यु को चाहने वाले श्रमणोपासक सुरादेव ! यदि अपने व्रतों का त्याग नहीं करोगे तो आज मैं तुम्हारे शरीर में एक ही साथ श्वास-- दमा, कास-खांसी, (ज्वर-बुखार, दाह-देह में जलन, कुक्षि-शूल-पेट में तीव्र पीड़ा, भगंदर-गुदा पर फोड़ा, अर्श-बवासीर, अजीर्ण-बदहजमी, दृष्टिशूल-नेत्र में शूल चुभने जैसी तेज पीड़ा, मूर्द्ध-शूल-मस्तक-पीड़ा, अकारक-भोजन में अरुचि या भूख न लगना, अक्षि-वेदना-अांख दुखना, कर्ण-वेदना-कान दुखना, कण्डू खुजली, उदर-रोग-जलोदर आदि पेट की बीमारी तथा) कुष्ठ-कोढ़, ये सोलह भयानक रोग उत्पन्न कर दूंगा, जिससे तुम आर्तध्यान तथा विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही जीवन से हाथ धो बैठोगे। 153. तए णं से सुरादेवे समणोवासए जाव (तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए, अतत्थे, अणुव्विग्गे, अवखुभिए, अचलिए, असंभंते, तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए) विहरइ / एवं देवो दोच्चंपि 3. देखें सूत्र-संख्या 107 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : सुरादेव] [121 तच्च पि भणइ जाव (जह णं तुम अज्ज सोलाइं, वयाइं, वेरमणा, पच्चक्खाणाइं, पोसहोववासाई न छड्डेसि, न भंजेसि, तो ते अहं अज्ज सरीरंसि जमग-समगमेव सोलस रोगायंके पक्खिवामि जहा णं तुमं अट्ट-बुहट्ट-वस? अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविज्जसि / श्रमणोपासक सुरादेव (उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी जब भयभीत, त्रस्त, उद्विग्न, क्षुभित, चलित तथा प्राकुल नहीं हुया, चुपचाप-शान्त-भाव से) धर्म-ध्यान में लगा रहा तो उस देव ने दूसरी बार, तीसरी बार. फिर वैसा ही कहा—(यदि तुम आज शील, व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास का त्याग नहीं करते हो-भंग नहीं करते हो तो मैं तुम्हारे शरीर में एक ही साथ सोलह भयानक रोग पैदा कर दूंगा, जिससे तुम आर्तध्यान और विकट दुःख से पीड़ित होकर) असमय में ही जीवन से हाथ धो बैठोगे। सुरादेव का क्षोम 154. तए णं तस्स सुरादेवस्य समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए ४-अहो णं इमे पुरिसे अणारिए जाव' समायरइ, जेणं ममं जेट्ट पुत्तं जाव (साओ गिहाओ नोणेइ, नीणेत्ता मम अग्गओ घाएइ, घाएता पंच मंस-सोल्लए करेइ, करेत्ता आदाण-भरियसि कडाहयंसि अहहेइ, अइहेत्ता ममं गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचइ, जे गं ममं मजिसमं पुत्तं साओ गिहाओ नोणेइ, नीणेत्ता मम अम्गओ घाएइ, घाएत्ता पंच-मंस-सोल्लए करेइ, करेत्ता आवाण-भरियसि कडाहयंसि अद्दहेइ, अहहेत्ता मम गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचइ, जे णं ममं कणीयसं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेइ, नोणेत्ता मम अग्गओ घाएइ, धाएता पंच मंस-सोल्लए करेइ, करेत्ता आदाण-भरियसि कडाहयंसि अद्दहेइ, अद्दहेत्ता मम गायं मंसेण य सोणिएण य) आयंचइ, जे वि य इमे सोलस रोगायंका, ते वि य इच्छइ मम सरीरगंसि पक्खिवित्तए, तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिण्हित्तए त्ति कटु उद्घाइए / से वि य आगासे उप्पइए। तेण य खंभे आसाइए, महया महया सद्देणं कोलाहले कए। ___ उस देव द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर श्रमणोपासक सुरादेव के मन में ऐसा विचार आया, यह अधम पुरुष (जो मेरे बड़े लड़के को घर से उठा लाया, मेरे आगे उसकी हत्या की, उसके पांच मांस-खंड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया, उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर को सींचा-छींटा, जो मेरे मंझले लड़के को घर से उठा लाया, मेरे आगे उसको मारा, उसके पांच मांस-खंड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया, उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर को सींचा- छींटा, जो मेरे छोटे लड़के को घर से उठा लाया, मेरे सामने उसका वध किया, उसके पांच मांस-खंड किए, उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर को सींचा-छींटा,) मेरे शरीर में सोलह भयानक रोग उत्पन्न कर देना चाहता है। अत: मेरे लिए यही श्रेयस्कर है, मैं इस पुरुष को पकड़ लू। यों सोचकर वह पकड़ने के लिए उठा / इतने में वह देव आकाश में उड़ गया / सुरादेव के पकड़ने को फैलाए हाथों में खम्भा आ गया / वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा। 155. तए णं साधना भारिया कोलाहलं सोच्चा, निसम्म, जेणेव सुरादेवे समणोवासए, 1. देखें सूत्र-संख्या 145 / Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122] [उपासकदशांगसूत्र तेणेव उबागच्छइ / उवागच्छित्ता एवं वयासी-किण्णं देवाणुप्पिया! तुहि महया महया सद्देणं कोलाहले कए ? सुरादेव की पत्नी धन्या ने जब यह कोलाहल सुना तो जहाँ सुरादेव था, वह वहाँ आई। प्राकर पति से बोली-देवानुप्रिय ! आप जोर-जोर से क्यों चिल्लाए ? जीवन का उपसंहार 156. तए णं से सुरादेवे समणोवासए धन्न भारियं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! के वि पुरिसे, तहेव कहेइ जहा चुलणीपिया / धन्ना वि पडिभणइ, जाव' कणीयसं / नो खलु देवाणुप्पिया ! तुम्भं के वि पुरिसे सरीरंसि जमग-समर्ग सोलस रोगायंके पक्षिवइ, एस णं के वि पुरिसे तुम्भं उवसम्गं करेइ / सेसं जहा चुलणीपियस्स तहा भणइ / एवं सेसं जहा चुलणोपियस्स निरवसेसं जाव' सोहम्मे कप्पे अरुणकते विमाणे उववन्ने / चत्तारि पलिओवमाई ठिई / महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ / निक्खेवो // सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणां चउत्थं अज्झयणं समत्तं // श्रमणोपासक सुरादेव ने अपनी पत्नी धन्या से सारी घटना उसी प्रकार कही, जैसे चुलनीपिता ने कही थी। धन्या बोली देवानुप्रिय ! किसी ने तुम्हारे बड़े, मंझले और छोटे लड़के को नहीं मारा / न कोई पुरुष तुम्हारे शरीर में एक ही साथ सोलह भयानक रोग ही उत्पन्न कर रहा है। यह तो तुम्हारे लिए किसी ने उपसर्ग किया है / उसने और सब वैसा ही कहा, जैसा चुलनीपिता को कहा गया था। __ आगे की सारी घटना चुलनीपिता की ही तरह है / अन्त में सुरादेव देह-त्याग कर सौधर्मकल्प में अरुणकान्त विमान में उत्पन्न हुआ / उसकी आयु-स्थिति चार पल्योपम की बतलाई गई है। महाविदेह-क्षेत्र में वह सिद्ध होगा--मोक्ष प्राप्त करेगा। ॥निक्षेप / / / सातवें अंग उपासकदशा का चतुर्थ अध्ययन समाप्त / / 1. देखें सूत्र-संख्या 154 / 2. देखें सूत्र-संख्या 149 / 3. एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं चउत्थस्स अभयणस्स प्रयमठे पण्णत्तेत्ति बेमि / 4. निगमन-प्रार्य सुधर्मा बोले-जम्वू ! श्रमण भगवान महावीर ने उपासकदशा के चौथे अध्ययन का यही अर्थ-भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अध्ययन सार : संक्षेप उत्तर भारत में आलभिका नामक नगरी थी / शंखवन नामक वहाँ उद्यान था। जितशत्रु वहाँ का राजा था / उस नगरी में चुल्लशतक नामक एक समृद्धिशाली गाथापति निवास करता था। उसकी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं खजाने में सुरक्षित थीं, उतनी ही व्यापार में लगी थीं और उतनी ही घर के वैभव तथा उपकरणों में उपयोग में आ रही थीं / दस-दस हजार गायों के छह गोकुल उसके यहां थे। श्रमण भगवान् महावीर अपने जनपद-विहार के बीच एक बार पालभिका पधारे / अन्य लोगों की तरह चुल्लशतक भी उनके दर्शन हेतु पहुंचा / उनकी धर्म-देशना से प्रभावित हुआ और उसने गृहस्थ-धर्म या श्रावक-व्रत स्वीकार किए। गृहस्थ में रहते हुए भी चुल्लशतक व्रतों की आराधना, धर्म की उपासना में पूरी रुचि लेता था। लोक और अध्यात्म का सुन्दर समन्वय उसके जीवन में था / व्रत, साधना, अभ्यास आदि वह यथाविधि, यथासमय करता रहता था / एक दिन वह पोषधशाला में ब्रह्मचर्य एवं पोषध-व्रत स्वीकार किए धर्मोपासना में तन्मय था / आधी रात का समय था, अचानक एक देव उसके सामने प्रकट हुआ। वह चुल्लशतक को साधना से विचलित करना चाहता था। चुलनीपिता के साथ जैसा घटित हुआ था, यहाँ भी इस देव के हाथों चुल्लशतक के साथ घटित हुआ / देव ने उसके तीनों पुत्रों को उसके देखतेदेखते मार डाला, उनके सात-सात टुकड़े कर डाले / उनका रक्त और मांस उस पर छिड़का / पर, ममता और क्रोध दोनों से ही चुल्लशतक काफी ऊंचा उठा हुआ था। इसलिए वह अपने व्रत से नहीं डिगा / धर्म-ध्यान में तन्मय रहा। देव ने तब यह सोचकर कि संसार में हर किसी की धन के प्रति अत्यन्त आसक्ति और ममता होती है। मनुष्य और सब सह जाता है, पर धन की चोट उसके लिए भारी पड़ती है, इसलिए मुझे अब इसके साथ ऐसा ही करना चाहिए / देव क्रुद्ध और कर्कश स्वर में चुल्लशतक से बोला-मान जाओ, अपने व्रतों को तोड़ दो, देख लो यदि नहीं तोड़ोगे, तो मैं खजाने में रखी तुम्हारी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं को घर से निकाल लाऊंगा और उन्हें प्रालभिका नगरी की सड़कों और चौराहों पर चारों तरफ बिखेर दंगा / तुम अकिंचन और दरिद्र बन जाअोगे। इतने व्याकुल और दुःखी हो जाओगे कि जीवित नहीं रह सकोगे ! चुल्लशतक ऐसा कहने पर भी धर्मसाधना में स्थिर रहा। देव ने कड़कती आवाज में दूसरी बार ऐसा कहा, तीसरी बार ऐसा कहा / चुल्लशतक, जो अब तक उपासना में स्थिर था, सहसा चौंक पड़ा / उसके सारे शरीर में बिजली-सी कौंध गई और आशंकित दरिद्रता का भयानक दृश्य उसकी आंखों के सामने नाचने लगा / वह घबरा गया / उसके मन में बार-बार आने लगा-इस जगत् में ऐसा कुछ नहीं है, जो धन से न सध सके / जिसके पास Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124] [उपासकदशांगसूत्र धन होता है, उसी के मित्र होते हैं, उसी के बन्धु-बान्धव होते हैं, वही मनुष्य माना जाता है, उसी को सब बुद्धिमान् कहते हैं।' धन की गर्मी एक विचित्र गर्मी है, जो मानव को ओजस्वी, तेजस्वी, साहसी—सब कुछ बनाए रखती है, उसके निकल जाते ही; वही इन्द्रियां, वही नाम, वही बुद्धि, बही वाणी-इन सबके रहते मनुष्य और ही कुछ हो जाता है / घबराहट में चुल्लशतक को यह भान नहीं रहा कि वह व्रत में है / इसलिए अपना धन नष्ट कर देने पर उतारू उस पुरुष पर इसको बड़ा क्रोध आया और वह हाथ फैलाकर उसे पकड़ने के लिए झपटा / पोषधशाला में खड़े खंभे के सिवाय उसके हाथ कुछ नहीं आया। देव अन्तर्धान हो गया। चुल्लशतक किंकर्तव्यविमूढ-सा बन गया / वह समझ नहीं सका, यह क्या घटित हुआ / व्याकुलता के कारण वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा / चिल्लाहट सुनकर उसकी पत्नी बहुला वहां आई और जब उसने अपने पति से सारी बात सुनी तो बोली-यह आपकी परीक्षा थी / देवकृत उपसर्ग था। आप खूब दृढ रहे / पर, अन्त में फिसल गए। आपका व्रत भग्न हो गया / आलोचना, प्रतिक्रमण कर, प्रायश्चित्त स्वीकार कर आत्मशोधन करें / चुल्लशतक ने वैसा ही किया और भविष्य में धर्मोपासना में सदा सुदृढ बने रहने की प्रेरणा प्राप्त की। चुल्लशतक का उत्तरवर्ती जीवन चुलनीपिता की तरह व्रताराधना में उत्तरोत्तर उन्नतिशील रहा / उसने अणुव्रत, गुणवत, शिक्षाव्रत आदि की सम्यक् उपासना करते हुए बीस वर्ष तक श्रावकधर्म का पालन किया / ग्यारह श्रावक-प्रतिमाओं की भली-भांति आराधना की / एक मास की अन्तिम संलेखना अनशन और समाधिपूर्वक देह-त्याग किया। सौधर्म देवलोक में अरुणसिद्ध विमान में वह देव-रूप में उत्पन्न हुआ। 1. न हि तद्विद्यते किञ्चिद्यदर्थन न सिद्धयति / यत्नेन मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत // यस्याऽस्तिस्य मित्राणि, यस्याऽस्तिस्य बान्धवाः / यस्याऽर्थाः स पुमाल्लोके, यस्याऽर्थाः स च पण्डितः / / पंचतन्त्र 1.2,3 2. तानीन्द्रियाण्यविकलानि तदेव नाम, सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव / अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः स एव, अन्य: क्षणेन भवतीति विचित्रमेतत् / / हितोपदेश 1.127 " Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अध्ययन : चुल्लशतक श्रमणोपासक चुल्लशतक 157. उक्लेवो पंचमस्स अज्झयणस्स। एवं खलु, जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नामं नयरी / संखवणे उज्जाणे। जियसत्तू राया। चुल्लसए गाहावई अड्ढे जाव', छ हिरण्ण-कोडोओ जाव (निहाण-पउत्ताओ, छ वढि-पउत्ताओ, छ पवित्थर-पउत्ताओ,) छ वया, दसगो-साहस्सिएणं वएणं / बहुला भारिया। सामी समोसढे / जहा आणंदो तहा गिहि-धम्म पडिवज्जइ / सेसं जहा कामदेवो जाव' धम्मपत्ति उपसंपज्जिताणं विहरइ / उत्क्षेप ---उपोद्घातपूर्वक पांचवें अध्ययन का प्रारम्भ यों है आर्य सुधर्मा ने कहा-जम्बू ! उस काल-वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे पारे के अन्त में, उस समय-- जब भगवान् महावीर सदेह विद्यमान थे, पालभिका नामक नगरी थी। वहाँ शंखवन उद्यान था / वहाँ के राजा का नाम जितशत्रु था। उस नगरी में चुल्लशतक नामक गाथापति निवास करता था / वह बड़ा समृद्ध एवं प्रभावशाली था। (छह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ उसके खजाने में रखी थीं, छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ व्यापार में लगी थी तथा छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव एवं साज-सामान में लगी थीं।) उसके छह गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में दस-दस हजार गायें थीं। उसकी पत्नी का नाम बहुला था। भगवान् महावीर पधारे---समवसरण हुआ / आनन्द की तरह चुल्लशतक ने भी श्रावक-धर्म स्वीकार किया। आगे का घटना-क्रम कामदेव की तरह है / वह उसी की तरह भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति-धर्म-शिक्षा के अनुरूप उपासना-रत हुआ। देव द्वारा विघ्न 158. तए णं तस्स चुल्लसयगस्स समणोवासयस्स पुब्व-रत्तावरत्तकाल-समयंसि एगे देवे अंतियं जाव असि गहाय एवं बयासी हं भो! चुल्लसयगा समणोवासया। जाव' न भंजेसि तोते अज्ज जेटुं पुत्तं साओ गिहाओ नोमि / एवं जहा चुलणीपिय, नवरं एक्केक्के सत्त मंससोल्लया 1. जइ णं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवासमदसाणं चउत्थस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते, पंचमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? 2. देखें सूत्र-संख्या 3 3. आर्य सुधर्मा से जम्बू ने पूछा-सिद्धिप्राप्त भगवान महावीर ने उपासकदशा के चतुर्थ अध्ययन का यह अर्थ - भाव प्रतिपादित किया तो भगवन ! उन्होंने पंचम अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया ? ( कृपया कहें।) 4. देखें सूत्र-संख्या 116 5. देखें सूत्र-संख्या 107 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126] [उपासकदशांगसूत्र जाव' कणीयसं जाव' आयंचामि / एक दिन की बात है, आधी रात के समय चुल्लशतक के समक्ष एक देव प्रकट हुआ। उसने तलवार निकाल कर कहा-अरे श्रमणोपासक चुल्लशतक ! यदि तुम अपने व्रतों का त्याग नहीं / करोगे तो मैं आज तुम्हारे ज्येष्ठ पुत्र को घर से उठा लाऊंगा। चुलनीपिता के साथ जैसा हुआ था, वैसा ही घटित हुआ / देव ने बड़े, मंझले तथा छोटेतीनों पुत्रों को क्रमशः मारा, मांस-खण्ड किए / मांस और रक्त से चुल्लशतक की देह को छींटा / इतना ही भेद रहा, वहाँ देव ने पांच-पांच मांस-खंड किए थे, यहाँ देव ने सात-सात मांस-खंड किए। 159. तए णं से चुल्लसयए समणोवासए जाव विहरइ / श्रमणोपासक चुल्लशतक निर्भय भाव से उपासनारत रहा / सम्पत्ति-विनाश की धमकी 160. तए णं से देवे चुल्लसयगं समणोवासयं चउत्थं पि एवं वयासी-हं भो! चुल्लसयगा! समणोवासया ! जावन भंजेसि तो ते अज्ज जाओ इमाओ छ हिरण्ण-कोडीओ निहाणपउत्ताओ, छ वुद्धि-पउत्ताओ, छ पवित्थर-पउत्ताओ, ताओ साओ गिहाओ नीणेमि, नीणेत्ता आलभियाए नयरीए सिंघाडय जाव (तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-) पहेसु सव्वओ समंता विप्पइरामि, जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि / देव ने श्रमणोपासक चुल्लशतक को चौथी बार कहा--अरे श्रमणोपासक चुल्लशतक ! तुम अब भी अपने व्रतों को भंग नहीं करोगे तो मैं खजाने में रखी तुम्हारी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं, व्यापार में लगी तुम्हारी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं तथा घर के वैभव और साज-सामान में लगी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं को ले आऊंगा / लाकर पालभिका नगरी के शृगाटक-तिकोने स्थानों, त्रिक-तिराहों, चतुष्क-चौराहों, चत्वर–जहाँ चार से अधिक रास्ते मिलते हों-ऐसे स्थानों, चतुर्भुज-जहाँ से चार रास्ते निकलते हों, ऐसे स्थानों तथा महापथ-बड़े रास्तों या राजमार्गों में सब तरफ चारों ओर बिखरे दूगा / जिससे तुम आर्तध्यान एवं विकट दुःख से पीडित होकर असमय में ही जीवन से हाथ धो बैठोगे। 161. तए णं से चुल्लसयए समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव' विहरइ। 1. देखें सूत्र-संख्या 154 2. देखें सूत्र-संख्या 154 3. देखें सूत्र-संख्या 98 4. देखें सूत्र-संख्या 153 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अध्ययन : चुल्लशतक] [127 उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक चुल्लशतक निर्भीकतापूर्वक अपनी उपासना में लगा रहा। 162. तए णं से देवे चुल्लसयगं समणोवासयं अभीयं जाव' पासइ, पासित्ता दोच्चं पि तच्चं पि तहेव भणइ, जाव ववरोविज्जसि / जब उस देव ने श्रमणोपासक चल्लशतक को यों निर्भीक देखा तो उससे दूसरी बार, तीसरी बार फिर वैसा ही कहा और धमकाया---अरे ! प्राण खो बैठोगे ! विचलन : प्रायश्चित्त 163. तए णं तस्स चुल्लसयगस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चंपि तच्चपि एवं वुत्तस्स समाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए ४-अहो णं इमे पुरिसे अणारिए जहा चुलणीपिया तहा चितेइ जाव' कणीयसं जाव' आयंचइ, जाओ वि य गं इमाओ ममं छ हिरण्ण-कोडीओ निहाणपउत्ताओ, छ वड्ढि-पउत्ताओ, छ पवित्थर-पउत्ताओ, ताओ वि य णं इच्छइ ममं साओ गिहाओ नीणेत्ता आलभियाए नयरीए सिंघाडग जाव' विप्पइरित्तए, तं सेयं खलु ममं एवं पुरिसं गिहित्तए त्ति कटु उद्घाइए, जहा सुरादेवो / तहेव भारिया पुच्छइ, तहेव कहेइ / उस देव ने जब दूसरी बार, तीसरी बार श्रमणोपासक चुल्लशतक को ऐसा कहा, तो उसके मन में चुलनीपिता की तरह विचार आया, इस अधम पुरुष ने मेरे बड़े, मंझले और छोटे---तीनों पुत्रों को बारी-बारी से मार कर, उनके मांस और रक्त से सींचा। अब यह मेरी खजाने में रखी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं, व्यापार में लगी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं तथा घर के वैभव एवं साज-सामान में लगी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं को निकाल लाना चाहता है और उन्हें पालभिका नगरी के तिकोने आदि स्थानों में बिखेर देना चाहता है / इसलिए, मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मैं इस पुरुष को पकड़ लू। यों सोचकर वह उसे पकड़ने के लिए सुरादेव की तरह दौड़ा। आगे वैसा ही घटित हुआ, जैसा सुरादेव के साथ घटित हुआ था। सुरादेव की पत्नी की तरह उसकी पत्नी ने भी उससे सब पूछा / उसने सारी बात बतलाई / दिव्य-गति 164. सेसं जहा चुलणीपियस्स जाव' सोहम्मे कप्पे अरुणसिद्धे विमाणे उववन्ने / चत्तारि पलिओवमाई ठिई। सेसं तहेव जाव (से णं भंते ! चुल्लसयए ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गमिहिइ ? कहि उववज्जिहिइ ? गोयमा !) महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ / 1. देखें सूत्र-संख्या 97 2. देखें सूत्र-संख्या 154 3. देखें सूत्र-संख्या 154 4. देखें सूत्र-संख्या 160 5. देखें सूत्र-संख्या 149 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128] [उपासकदशांगसूत्र निक्लेवो' // सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं पंचमं अज्झयणं समत्तं / / आगे की घटना चुलंनीपिता की तरह है। देह-त्याग कर चुल्लशतक सौधर्म देवलोक में अरुणसिद्ध विमान में देव के रूप में उत्पन्न हुआ। वहां उसकी आयुस्थिति चार पल्योपम की बतलाई गई है। आगे की घटना भी वैसी ही है। (भगवन् ! चुल्लशतक उस देवलोक से आयु, भव एवं स्थिति का क्षय होने पर देव-शरीर का त्याग कर कहां जायगा? कहां उत्पन्न होगा? गौतम !) वह महाविदेहक्षेत्र में सिद्ध होगा-मोक्ष प्राप्त करेगा। // निक्षेप / ॥सातवें अंग उपासकदशा का पांचवां अध्ययन समाप्त / 1. एवं खलु जम्बू! समजेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्स अज्झयणस्स अयमटठे पण्णत्तेत्ति बेमि / 2. निगमन-प्रार्य सुधर्मा बोले- जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर ने उपासकदशा के पांचवें अध्ययन का यही अर्थ भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है / Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन सार : संक्षेप काम्पिल्यपुर में कुडकौलिक नामक गाथापति निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम पूषा था। काम्पिल्यपुर भारत का एक प्राचीन नगर था। भगवान् महावीर के समय में वह बहुत समृद्ध एवं प्रसिद्ध था। उत्तरप्रदेश में बूढी गंगा के किनारे बदायू और फर्रुखाबाद के बीच कम्पिल नामक आज भी एक गांव है, जो इतिहासकारों के अनुसार काम्पिल्यपुर का वर्तमान रूप है। काम्पिल्यपुर आगम-वाङमय में अनेक स्थानों पर संकेतित, भगवान् महावीर के समसामयिक राजा जितशत्र के राज्य में था। वहाँ सहस्राम्रवन नामक उद्यान था। संभवतः ग्राम के हजार पेड़ होने के कारण उद्यानों के ऐसे नाम रखे जाते रहे हों। गाथापति कुडकौलिक एक समृद्ध एवं सुखी गृहस्थ था। उसकी अठारह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं में छह करोड़ मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थीं, छह करोड़ व्यापार में एवं छह करोड़ घर के वैभव तथा साज-सामान में लगी थीं / दस-दस हजार गायों के छह गोकुल उसके पास थे। ऐसा प्रसंग बना, एक समय भगवान् महावीर काम्पिल्यपुर पधारे / अन्यान्य लोगों की तरह गाथापति कुडकौलिक भी भगवान के सान्निध्य में पहुंचा, धर्मदेशना सुनी, प्रभावित हुआ, श्रावक-धर्म स्वीकार किया। जहां जीवन में, अब से पूर्व लौकिक भाव था, उसमें अध्यात्म का समावेश हुआ। कुडकौलिक स्वीकृत व्रतों का भली-भांति पालन करता हुआ एक उत्तम धार्मिक गृहस्थ का जीवन जीने लगा। ___ एक दिन की बात है, वह दोपहर के समय धर्मोपासना की भावना से अशोकवाटिका में गया। वहां अपनी अंगूठी और उत्तरीय उतार कर पृथ्वीशिलापट्टक पर रखे, स्वयं धर्म-ध्यान में संलग्न हो गया / उसको श्रद्धा को विचलित करने के लिए एक देव वहां प्रकट हुआ। उसका ध्यान बंटाने के लिए देव ने वह अंगूठी और दुपट्टा उठा लिया और आकाश में स्थित हो गया। देव ने कुडकौलिक से कहा-देखो, मंखलिपुत्र गोशालक के धर्म-सिद्धान्त बहुत सुन्दर हैं। वहां प्रयत्न, पुरुषार्थ, कर्मइनका कोई महत्त्व नहीं है। जो कुछ होने वाला है, सब निश्चित है / भगवान् महावीर के धार्मिक सिद्धान्त उत्तम नहीं हैं। वहां तो उद्यम, प्रयत्न, पुरुषार्थ-सबका स्वीकार है, और जो कुछ होता है, वह सब उनके अनुसार नियत नहीं है। अब दोनों का अन्तर तुम स्वयं देख लो। गोशालक के सिद्धान्त के अनुसार पुरुषार्थ, प्रयत्न आदि जो कुछ किया जाता है, सब निरर्थक है, करने की कोई आवश्यकता नहीं। क्योंकि अन्त में होगा वही, जो होने वाला है। यह सुनकर कुडकौलिक बोला-देव ! जरा एक बात बतलाओ / तुमने यह जो दिव्य ऋद्धि, द्युति, कान्ति, वैभव, प्रभाव प्राप्त किया है, वह सब क्या पुरुषार्थ एवं प्रयत्न से प्राप्त किया अथवा अपुरुषार्थ व अप्रयत्न से ? क्या प्रयत्न एवं पुरुषार्थ किए बिना ही यह सब पाया है ? देव बोला-कुडकौलिक ! यह मैंने बिना पुरुषार्थ और बिना प्रयत्न ही पाया है / इस पर कुडकौलिक ने कहा-देव ! यदि ऐसा हुआ है तो बतलाओ, जो अन्य प्राणी पुरुषार्थ एवं प्रयत्न नहीं करते रहे हैं, वे तुम्हारी तरह देव क्यों नहीं हुए ? यदि तुम कहो कि यह Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130] [उपासकदशांगसूत्र दिव्य ऋद्धि एवं वैभव तुम्हें पुरुषार्थ एवं प्रयत्न से मिला है, तो फिर तुम गोशालक के सिद्धान्त को, जिसमें पुरुषार्थ व प्रयत्न का स्वीकार नहीं है, सुन्दर कैसे कह सकते हो ? और भगवान् महावीर के सिद्धान्त को, जिसमें पुरुषार्थ व प्रयत्न का स्वीकार है, असुन्दर कैसे बतला सकते हो? तुम्हारा कथन मिथ्या है। कुडकौलिक का युक्तियुक्त एवं तर्कपूर्ण कथन सुनकर देव से कुछ उत्तर देते नहीं बना। बह सहम गया। उसने वह अंगूठी एवं दुपट्टा चुपचाप पृथ्वीशिलापट्टक पर रख कर और अपना-सा मुंह लिए वापस लौट गया। ___ शुभ संयोगवश भगवान् महावीर अपने जनपद-विहार के बीच पुनः काम्पिल्यपुर पधारे / ज्योंही कुडकौलिक को ज्ञात हुआ, वह भगवान् को वंदन करने गया / उनका सान्निध्य प्राप्त किया, धर्म-देशना सुनी। / भगवान् महावीर तो सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी थे / जो कुछ घटित हुआ था, उन्हें सब ज्ञात था। उन्होंने कुडकौलिक को सम्बोधित कर अशोकवाटिका में घटित सारी घटना बतलाई और उससे पूछा- क्यों ? क्या यह सब घटित हुआ ? कुडकौलिक ने अत्यन्त विनय और आदरपूर्वक कहा-- प्रभो! आप सब कुछ जानते हैं / जैसा आपने कहा-अक्षरशः वैसा ही हुआ। कुडकौलिक की धार्मिक आस्था और तत्त्वज्ञता पर भगवान् प्रसन्न थे / उन्होंने उसे वर्धापित करते हुए कहा-कुडकौलिक ! तुम धन्य हो, तुमने बहुत अच्छा किया / वहाँ उपस्थित साधु-साध्वियों को प्रेरणा देने हेतु भगवान् ने उनसे कहा---गृहस्थ में रहते हुए भी कुडकौलिक कितना सुयोग्य तत्त्ववेत्ता है ! इसने अन्य मतानुयायी को युक्ति और न्याय से निरुत्तर किया / भगवान् ने यह आशा व्यक्त की कि बारह अंगों का अध्ययन करने वाले साधु-साध्वी तो ऐसा करने में सक्षम हैं ही / उनमें तो ऐसी योग्यता होनी ही चाहिए / कुडकौलिक की घटना को इतना महत्त्व देने का भगवान् का यह अभिप्राय था, प्रत्येक धर्मोपासक अपने धर्म-सिद्धान्तों पर दृढ़ तो रहे ही, साथ ही साथ उसे अपने सिद्धान्तों का ज्ञान भी हो तथा उन्हें औरों के समक्ष उपस्थित करने की योग्यता भी, ताकि उनके साथ धार्मिक चर्चा करने वाले अन्य मतानुयायी व्यक्ति उन्हें प्रभावित न कर सकें। प्रत्युत उनके युक्तियुक्त एवं तर्कपूर्ण विश्लेषण पर वे निरुत्तर हो जाएं। वास्तव में भगवान् महावीर द्वारा सभी धर्मोपासकों को तत्त्वज्ञान में गतिमान रहने की यह प्रेरणा थी। ... कुडकौलिक भगवान् को वंदन, नमन कर वापस अपने स्थान पर लौट आया। भगवान् महावीर अन्य जनपदों में विहार कर गए। कुडकौलिक उत्तरोत्तर साधना-पथ पर अग्रसर होता रहा / यों चौदह वर्ष व्यतीत हो गए / पन्द्रहवें वर्ष उसने अपने बड़े पुत्र को गृहस्थ एवं परिवार का उत्तरदायित्व सौंप कर अपने आपको सर्वथा साधना में लगा दिया। उसके परिणाम उत्तरोत्तर पवित्र होते गए। उसने श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं की उपासना की। अन्ततः एक मास की संलेखना और एक मास के अनशन द्वारा समाधिपूर्वक देह-त्याग किया। वह अरुणध्वज विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन : कडकौलिक श्रमणोपासक कुडकौलिक 165. छट्ठस्स उक्खेवओ'। एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं कम्पिल्लपुरे नयरे सहस्संबवणे उज्जाणे / जियसत्तू राया। कुडकोलिए गाहावई / पूसा भारिया। छ हिरण्ण-कोडीओ निहाण-पउत्ताओ, छ खुड्डि-पउत्ताओ, छ पवित्थर-पउत्ताओ, छ वया, दस-गो-साहस्सिएणं वएणं / सामी समोसढे / जहा कामदेवो तहा सावयधम्म पडिवज्जइ / सा चेव वत्तवया जाव' पडिलाभेमाणे विहरह। उपक्षेप:--उपोद्घातपूर्वक छठे अध्ययन का प्रारम्भ यों है-- आर्य सुधर्मा ने कहा-जम्बू ! उस काल-वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय-जब भगवान महावीर सदेह विद्यमान थे, काम्पिल्यपूर नामक नगर था। वहाँ सहस्राम्रवन नामक उद्यान था। जितशत्रु वहां का राजा था। उस नगर में कुडकौलिक नामक गाथापति निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम पूषा था / छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ सुरक्षित धन के रूप में उसके खजाने में थीं, छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार-व्यवसाय में लगी थीं, छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव-धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद आदि साधन-सामग्री में लगी थीं। उसके छह गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में दस-दस हजार गायें थीं। भगवान् महावीर पधारे-समवसरण हुआ। कामदेव की तरह कुडकौलिक ने भी श्रावक धर्म स्वीकार किया। श्रमण निर्ग्रन्थों को शुद्ध आहार-पानी आदि देते हुए धर्माराधना में निरत रहने तक का घटनाक्रम पूर्ववर्ती वर्णन जैसा ही है / यों कुण्डकौलिक धर्म की उपासना में निरत था। विवेचन काम्पिल्यपुर भारतवर्ष का एक प्राचीन नगर था / महाभारत आदिपर्व (13773), उद्योगपर्व (18913, 192.14), शान्तिपर्व (139.5) में काम्पिल्य का उल्लेख आया है / आदिपर्व और उद्योगपर्व के अनुसार यह उस समय के दक्षिण पांचाल प्रदेश का एक नगर था। यह राजा द्रुपद की राजधानी था / द्रौपदी का स्वयंवर यहीं हुआ था। नायाधम्मकहाओ (१६वें अध्ययन) में भी पांचाल देश के राजा द्रुपद के यहां काम्पिल्यपुर 1. जइ णं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवासगदसाणं पंचमस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते, छुट्टस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अट्रे पण्णते ? 2. देखें सूत्र-संख्या 64 3. प्रार्य सुधर्मा ने जम्बू से पूछा-सिद्धिप्राप्त भगवान् महावीर ने उपासकदशा के पांचवें अध्ययन का यदि यह अर्थ-भाव प्रतिपादित किया तो भगवन् ! उन्होंने छठे अध्ययन का क्या अर्थ--भाव बतलाया ? (कृपया कहें।) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] [उपासकदशांगसूत्र में द्रौपदी के जन्म आदि का वर्णन है। इस समय यह बदायू और फर्रुखाबाद के बीच बूढ़ी गंगा के किनारे कम्पिल नामक ग्राम के रूप में अवस्थित है / कभी यह जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र रहा था / अागमों में प्राप्त संकेतों से प्रकट होता है, भगवान् महावीर के समय में यह बहुत ही समृद्ध नगर था / अशोकवाटिका में ध्यान-निरत 166. तए णं से कुडकोलिए समणोवासए अन्नया कयाइ पुव्वावरण्ह-कालसमयंसि जेणेव असोगवणिया, जेणेव पुढवि-सिला-पट्टए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नाम-मुद्दगं च उत्तरिज्जगं च पुढवि-सिला-पट्टए ठवेइ, ठवेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। एक दिन श्रमणोपासक कुडकौलिक दोपहर के समय अशोकवाटिका में गया। उसमें जहाँ पृथ्वी-शिलापट्टक था, वहाँ पहुंचा। अपने नाम से अंकित अंगूठी और दुपट्टा उतारा / उन्हें पृथ्वीशिलापट्टक पर रखा / रखकर, श्रमण भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति-धर्म-शिक्षा के अनुरूप उपासना-रत हुआ / देव द्वारा नियतिवाद का प्रतिपादन 167. तए णं तस्स कुडकोलियस्स समणोवासयस्स एगे देवे अंतियं पाउन्भवित्था / श्रमणोपासक कुडकौलिक के समक्ष एक देव प्रकट हुअा। 168. तए णं से देवे नाम-मुदं च उत्तरिज्जं च पुढवि-सिला-पट्टयाओ गेण्हइ, गेव्हित्ता सखिर्खािण अंतलिक्ख-पडिवन्न कंडकोलियं समणोवासयं एवं वयासी हं भो! कंडकोलिया! समणोवासया ! सुन्दरी णं देवाणुप्पिया ! गोसालस्स मंखली-पुत्तस्स धम्म-पण्णत्तीनस्थि उट्ठाणे इ वा, कम्मे इ वा, बले इ वा, वोरिए इ वा, पुरिसक्कार-परक्कमे इ वा, नियया सव्व-भावा, मंगुली गं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्म-पण्णत्ती-अत्थि उट्ठाणे इ वा, जाव ( कम्मे इ वा, बले इ वा, पुरिसक्कार-) परक्कमे इ वा, अणियया सव्व-भावा / __ उस देव ने कुडकौलिक की नामांकित मुद्रिका और दुपट्टा पृथ्वीशिलापट्टक से उठा लिया / वस्त्रों में लगी छोटी-छोटी घंटियों की झनझनाहट के साथ वह आकाश में अवस्थित हुआ, श्रमणोपासक कुडकौलिक से बोला-कुडकौलिक ! देवानुप्रिय ! मंखलिपुत्र गोशालक की धर्म-प्रज्ञप्तिधर्म-शिक्षा सुन्दर है / उसके अनुसार उत्थान साध्य के अनुरूप ऊर्ध्वगामी प्रयत्न, कर्म, बल-~-दैहिक शक्ति, वीर्य-आन्तरिक शक्ति, पुरुषकार---पौरुष का अभिमान, पराक्रम -पौरुष के अभिमान के अनुरूप उत्साह एवं प्रोजपूर्ण उपक्रम-इनका कोई स्थान नहीं है / सभी भाव-होनेवाले कार्य नियत-निश्चित हैं / उत्थान, (कर्म, बल, वीर्य, पौरुष,) पराक्रम इन सबका अपना अस्तित्व है, सभी भाव नियत नहीं हैं-भगवान् महावीर की यह धर्म-प्रज्ञप्ति-धर्म-प्ररूपणा असुन्दर या अशोभन है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन : कुंडकौलिक] [133 विवेचन मखोलपुत्र गोशालक का भगवतीसूत्र के १५वें शतक में विस्तार से वर्णन है। प्रागमोत्तर साहित्य में भी आवश्यक-नियुक्ति आदि में उससे सम्बद्ध घटनाओं का उल्लेख है / बौद्ध साहित्य में मज्झिमनिकाय, अंगुत्तरनिकाय, संयुत्तनिकाय आदि ग्रन्थों में उसका वर्णन है / दीघनिकाय पर बुद्धघोष द्वारा रचित सुमंगलविलासिनी टीका के 'सामञफलसुत्तवण्णन' में गोशालक के सिद्धान्तों की विशद चर्चा है / गोशालक भगवान महावीर के समसामयिक अवैदिक परम्परा के छह प्रमुख आचार्यों में था। . भगवतीसूत्र में उल्लेख है, मंख (डाकोत) जातीय मंखलि नामक एक व्यक्ति था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। मंखलि भिक्षोपजीवी था। वह इस निमित्त एक चित्रपट हाथ में लिए रहता था। अपनी गर्भवती पत्नी भद्रा के साथ भिक्षार्थ घूमता हुआ वह एक बार सरवण नामक गांव में पहुँचा / वहाँ और स्थान न मिलने से वह चातुर्मास व्यतीत करने के लिए गोबहुलनामक ब्राह्मण की गोशाला में टिका / गर्भकाल पूरा होने पर भद्रा ने एक सुन्दर एवं सुकुमार शिशु को जन्म दिया। गोबहुल की गोशाला में जन्म लेने के कारण शिशु का नाम गोशाल या गोशालक रखा गया। ____गोशालक क्रमशः बड़ा हुअा, पढ़-लिखकर योग्य हुआ। वह भी स्वतन्त्र रूप से चित्रपट हाथ में लिए भिक्षा द्वारा अपनी आजीविका चलाने लगा। एक बार भगवान् महावीर राजगृह के बाहर नालन्दा के बुनकरों की तन्तुवायशाला के एक भाग में अपना चातुर्मासिक प्रवास कर रहे थे। संयोगवश गोशालक भी वहाँ पहुँचा / अन्य स्थान न मिलने पर उसने उसी तन्तुवायशाला में चातुर्मास किया। वहाँ रहते वह भगवान् के अनुपम अतिशय ली व्यक्तित्व तथा समय-समय पर घटित दिव्य घटनाओं से विशेष प्रभावित हआ। उसने भगवान के पास दीक्षित होना चाहा। भगवान ने उसे दीक्षा देना स्वीकार नहीं किया। जब उसने आगे भी निरन्तर अपना प्रयास चालू रखा और पीछे ही पड़ गया, तब भगवान् ने उसे शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया। वह छह वर्ष तक भगवान् के साथ रहा। उनसे विपुल तेजोलेश्या प्राप्त की, फिर वह भगवान् से पृथक् हो गया / स्वयं अपने को अर्हत्, तीर्थकर, जिन और केवली कहने लगा। आगे चलकर एक ऐसा प्रसंग बना, द्वेष एवं जलनवश उसने भगवान् पर तेजोलेश्या का प्रक्षेप किया। सर्वथा सम्पूर्ण रूप में अहिंसक होने के कारण भगवान् समभाव से उसे सह गए। तेजोलेश्या भगवान् महावीर को पराभूत नहीं कर सकी। वापस लौटी, गोशालक की देह में प्रविष्ट हो गई / गोशालक पित्तज्वर और घोर दाह से युक्त हो सात दिन बाद मर गया। भगवती में आए वर्णन का यह अतिसंक्षिप्त सारांश है। प्रस्तुत प्रसंग में आई कुडकौलिक की घटना तब की है, जब गोशालक भगवान् महावीर से पृथक् था तथा अपने को अर्हत्, जिन, केवली कहता हुआ जनपद विहार करता था। कुडकौलिक का प्रश्न 169. तए णं से कुडकोलिए समणोवासए तं देवं एवं वयासी-जइ णं देवा ! सुन्दरी गोसालस्स मंखलि-पुत्तस्स धम्म-पण्णत्ती-नस्थि उट्ठाणे इ वा जाव (कम्मे इ वा, बले इ वा, वोरिए इ वा, पुरिसक्कार-परक्कमे इ वा), नियया सव्व-भावा, मंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134] [उपासकदशांगसूत्र धम्मपप्णत्ती-अत्थि उटाणे इ वा जाव' अणियया सव्व-भावा / तुमे णं देवा ! इमा एयारूवा दिव्वा देविड्डी, दिव्या देव-ज्जुई, दिव्वे देवाणुभावे किणा लद्धे, किणा पत्त, किणा अभिसमण्णागए ? कि उट्ठाणेणं जाव ( कम्मेणं, बलेणं, वोरिएणं) पुरिसक्कारपरक्कमेणं ? उदाहु अणुट्ठाणेणं जाव ( अकम्मेणं, अबलेणं, अवोरिएणं ) अपुरिसक्कारपरक्कमेणं ? तब श्रमणोपासक कुडकौलिक ने देव से कहा-उत्थान, (कर्म, बल, वीर्य, पौरुष एवं पराक्रम) का कोई अस्तित्व नहीं है, सभी भाव नियत हैं—गोशालक की यह धर्म-शिक्षा यदि उत्तम है और उत्थान आदि का अपना महत्त्व है, सभी भाव नियत नहीं हैं-भगवान् महावीर की यह धर्म-प्ररूपणा अनुत्तम है--अच्छी नहीं है, तो देव ! तुम्हें जो ऐसी दिव्य ऋद्धि, द्युति तथा प्रभाव उपलब्ध, संप्राप्त और स्वायत्त है, वह सब क्या उत्थान, (कर्म, बल, वीर्य), पौरुष और पराक्रम से प्राप्त हुआ है, अथवा अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य, अपौरुष या अपराक्रम से? अर्थात् कर्म, बल आदि का उपयोग न करने से ये मिले हैं ? देव का उत्तर 170. तए णं से देवे कुडकोलियं समणोवासयं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए इमेयारूवा दिव्वा देविड्डी 3 अणुट्ठाणेणं जाव' अपुरिसक्कारपरक्कमेणं लद्धा, पत्ता, अभिसमण्णागया। ___ वह देव श्रमणोपासक कुडकौलिक से बोला-देवानुप्रिय ! मुझे यह दिव्य ऋद्धि, द्युति एवं प्रभाव—यह सब बिना उत्थान, पौरुष एवं पराक्रम से ही उपलब्ध हुया है। कुडकौलिक द्वारा प्रत्युत्तर 171. तए णं से कुडकोलिए समणोवासए तं देवं एवं बयासो-जइ णं देवा ! तुमे इमा एयारूवा दिव्वा देविड्डी 3 अणुट्टाणेणं जाव' अयुरिसक्कार-परक्कमेणं लद्धा, पत्ता, अभिसमण्णागया, जेसि णं जीवाणं नत्थि उट्ठाणे इ वा, परक्कमे इ वा, ते कि न देवा? अह णं, देवा! तुमे इमा एयारूवा दिव्वा देविड्डी 3 उट्ठाणेणं जाव परक्कमेणं लद्धा, पत्ता, अभिसमग्णागया, तो जं वदसि-- सुन्दरी गं गोसालस्स मंखलि-पुत्तस्स धम्मपण्णत्ती-नस्थि उदाणे इवा, जाव' नियया सव्वभावा, मंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्म-पण्णत्ती–अत्थि उट्ठाणे इ वा, जाव' अणियया सन्वभावा, तं ते मिच्छा। तब श्रमणोपासक कुडकौलिक ने उस देव से कहा-देव ! यदि तुम्हें यह दिव्य ऋद्धि प्रयत्न, पुरुषार्थ, पराक्रम आदि किए बिना ही प्राप्त हो गई, तो जिन जीवों में उत्थान, पराक्रम आदि 1. देखें सूत्र-संख्या 168 2. देखें सूत्र-संख्या 169 3. देखें सूत्र-संख्या 169 4. देखें सूत्र-संख्या 169 5. देखें सूत्र-संख्या 169 6. देखें सूत्र-संख्या 168 Jain 'Education International For Private &Personal use only. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन : कुडकौलिक] [135 नहीं हैं, वे देव क्यों नहीं हुए ? देव ! तुमने यदि दिव्य ऋद्धि, उत्थान, पराक्रम आदि द्वारा प्राप्त की है तो "उत्थान आदि का जिसमें स्वीकार नहीं है, सभी भाव नियत हैं, गोशालक की यह धर्म-शिक्षा सुन्दर है तथा जिसमें उत्थान आदि का स्वीकार है, सभी भाव नियत नहीं हैं, भगवान् महावीर की वह शिक्षा असुन्दर है" तुम्हारा यह कथन असत्य है / देव की पराजय 172. तए णं से देवे कुडकोलिएणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे संकिए, जाव (कंखिए, विइगिच्छा-समावन्ने,) कलुस-समावन्ने नो संचाएइ कुडकोलियस्स समणोवासयस्स किंचि पामोक्ख. माइक्खित्तए; नाम-मुद्दयं च उत्तरिज्जयं च पुढवि-सिला-पट्टए ठवेइ, ठवेत्ता जामेव दिसि पाउन्भूए, तामेव दिसि पडिगए। श्रमणोपासक कुडकौलिक द्वारा यों कहे जाने पर वह देव शंका, (कांक्षा व संशय) युक्त तथा कालुष्ययुक्त—ग्लानियुक्त या हतप्रभ हो गया, कुछ उत्तर नहीं दे सका। उसने कूडकौलिक की नामांकित अंगूठी और दुपट्टा वापस पृथ्वीशिलापट्टक पर रख दिया तथा जिस दिशा से आया था, वह उसी दिशा की ओर लौट गया। भगवान द्वारा कुडकौलिक की प्रशंसा : श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रेरणा 173. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे / उस काल और उस समय भगवान महावीर का काम्पिल्यपुर में पदार्पण हुआ। 174. तए णं से कुडकोलिए समणोवासए इमीसे कहाए लद्धठे हट्ठ जहा कामदेवो तहा निग्गच्छइ जाव' पज्जुवासइ / धम्मकहा / श्रमणोपासक कुडकौलिक ने जब यह सब सुना तो वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ और भगवान् के दर्शन के लिए कामदेव की तरह गया, भगवान की पर्युपासना की, धर्म-देशना सुनी / 175. 'कुडकोलिया !' इ समणे भगवं महावीरे कुडकोलियं समणोवासयं एवं वयासीसे नूणं कुडकोलिया ! कल्लं तुब्भं पुज्वावरण्ह-काल-समयंसि असोग-वणियाए एगे देवे अंतियं पाउन्भवित्था / तए णं से देवे नाम-मुदं च तहेव जाव (नो संचाएइ तुब्भे किचि पामोक्खमाइक्खित्तए, नाममुद्दगं च उत्तरिज्जगं च पुढविसिलापट्टए ठवेइ, ठवेत्ता जामेव दिसं पाउन्भूए, तामेव (दिसं) पडिगए / से नूणं कुडकोलिया ! अढे समठे ? हन्ता अत्थि / तं धन्नेसि णं तुम कुडकोलिया ! जहा कामदेवो। अज्जो ! इ समणे भगवं महावीरे समणे निग्गथे य निग्गंथीओ य आमंतित्ता एवं वयासीजइ ताव, अज्जो ! गिहिणो गिहिमज्झावसंता णं अन्न-उत्थिए अङ्केहि य हेऊहि य पसिणेहि य कारणेहि य वागरणेहि य निप्पट्ठ-पसिणवागरणे करेंति, सक्का पुणाई, अज्जो ! समोह निग्गंथेहि 1. देखें सूत्र-संख्या 114 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136] [उपासकदशांगसूत्र दुवालसंगं गणि-पिडगं अहिज्जमार्गोह अन्न-उत्थिया अठेहि य जाव (हेऊहि य पसिणेहि य कारणेहि य वागरणेहि य) निप्पट्ठ-पसिणवारणा करित्तए। भगवान् महावीर ने श्रमणोपासक कुडकौलिक से कहा----कुडकौलिक ! कल दोपहर के समय अशोकवाटिका में एक देव तम्हारे समक्ष प्रकट हया / वह तम्हारी नामांकित अंगठी और दुपट्टा लेकर आकाश में चला गया। आगे जैसा घटित हुआ था, भगवान ने बतलाया। (जब वह देव तुमको कुछ उत्तर नहीं दे सका तो तुम्हारी नामांकित अंगूठी और दुपट्टा वापस रख कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा की ओर लौट गया / ) कुडकौलिक ! क्या यह ठीक है ? कुडकौलिक ने कहा-भगवन् ! ऐसा ही हुआ / तब भगवान् ने जैसा कामदेव से कहा था, उसी प्रकार उससे कहा-कुडकौलिक ! तुम धन्य हो। श्रमण भगवान महावीर ने उपस्थित श्रमणों और श्रमणियों को सम्बोधित कर कहाआर्यो ! यदि घर में रहने वाले गृहस्थ भी अन्य मतानुयायियों को अर्थ, हेतु, प्रश्न, युक्ति तथा उत्तर द्वारा निरुत्तर कर देते हैं तो आर्यो ! द्वादशांगरूप गणिपिटक का प्राचार आदि बारह अंगों का अध्ययन करने वाले श्रमण निर्ग्रन्थ तो अन्य मतानुयायियों को अर्थ, (हेतु, प्रश्न, युक्ति तथा विश्लेषण) द्वारा निरुत्तर करने में समर्थ हैं ही। 176. तए णं समणा निग्गंथा य निग्गंथीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स 'तह ति एयमझें विणणं पडिसुणेति / श्रमण भगवान् महावीर का यह कथन उन साधु-साध्वियों ने 'ऐसा ही है भगवन् !'-यों कह कर विनयपूर्वक स्वीकार किया। 177. तए णं से कुडकोलिए समणोवासए समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता पसिणाई पुच्छइ, पुच्छित्ता अट्ठमादियइ, अट्ठमादित्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। श्रमणोपासक कुडकौलिक ने श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया, प्रश्न पूछे, समाधान प्राप्त किया तथा जिस दिशा से वह आया था, उसी दिशा की ओर लौट गया / 178. सामी बहिया जणवय-विहारं विहरइ / भगवान् महावीर अन्य जनपदों में विहार कर गए। शान्तिमय देहावसान 179. तए णं तस्स कुडकोलियस्स समणोवासयस्स बहूहि सील जाव' भावेमाणस्स चोद्दस संवच्छराइं वइक्कंताई / पण्णरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अन्नया कयाइ जहा कामदेवो तहा जेट्टपुत्तं ठवेत्ता तहा पोसहसालाए जाव' धम्मपण्णत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। एवं एक्कारस 1. देखें सूत्र-संख्या 122 2. देखें सूत्र-संख्या 149 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन : कुडकौलिक]] [137 उवासग-पडिमाओ तहेव जाव' सोहम्मे कप्पे अरुणज्मए विमाणे जाव (से णं भंते ! कुडकोलिए ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गमिहिइ ? कहि उववज्जिहिइ ? गोयमा ! महाविवेहे वासे सिन्सिहिइ, (मुच्चिहिइ, सव्वदुक्खाण) अंतं काहिइ / निक्खेवो / सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं छठं अज्झयणं समत्तं // तदनन्तर श्रमणोपासक कुडकौलिक को व्रतों की उपासना द्वारा आत्म-भावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। जब पन्द्रहवां वर्ष प्राधा व्यतीत हो चुका था, एक दिन आधी रात के समय उसके मन में विचार आया, जैसा कामदेव के मन में आया था। उसी की तरह अपने बड़े पुत्र को अपने स्थान पर नियुक्त कर वह भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप पोषधशाला में उपासनारत रहने लगा। उसने ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं की आराधना की / आगे का वृत्तान्त भी कामदेव जैसा ही है / अन्त में देह-त्याग कर वह अरुणध्वज विमान में देवरूप में उत्पन्न हुा / (भगवन् ! कुडकौलिक उस देवलोक से आयु, भव एवं स्थिति का क्षय होने पर देव-शरीर का त्याग कर कहाँ जायगा ? कहाँ उत्पन्न होगा? गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होगा, सब दुःखों का) अन्त करेगा। / निक्षेप / / / सातवें अंग उपासकदशा का छठा अध्ययन समाप्त / / 1. देखें सूत्र-संख्या 92 2. एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं छट्रस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णते त्ति बेमि। 3. निगमन-आर्य सुधर्मा बोले- जम्बू ! सिद्धिप्राप्त भगवान महावीर ने उपासकदशा के छठे अध्ययन का यही अर्थ--भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन सार : संक्षेप भगवान् महावीर का समय विभिन्न धार्मिक मतवादों, विविध सम्प्रदायों तथा बहुविध कर्मकांडों से संकुल था। उत्तर भारत में उस समय अवैदिक विचारधारा के अनेक प्राचार्य थे, जो अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते हुए घमते थे। उनमें से अनेक अपने आपको अर्हत्, जिन, केवली या सर्वज्ञ कहते थे। सुत्तनिपात सभियसुत्त में वैसे 63 सम्प्रदाय होने का उल्लेख है। जैनों के दूसरे अंग सूत्रकृतांग आगम में भगवान् महावीर के समसामयिक सैद्धान्तिकों के चार वर्ग बतलाए हैं—क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी तथा अज्ञानवादी। कहा गया है कि वे अपने समवसरण सिद्धान्त या वाद का भिन्न-भिन्न प्रकार से विवेचन करते थे / ' सूत्रकृतांगवृत्ति में 363 धार्मिक मतवादों के होने का उल्लेख है / अर्थात् ये विभिन्न मतवादी प्रायशः इन चार वादों में बंटे हुए थे। बौद्ध वाङमय में मुख्य रूप से छह श्रमण सम्प्रदायों का उल्लेख है, जिनके निम्नांकित प्राचार्य या संचालक बतलाए गए हैं पूरणकस्सप, मंखलिगोसाल, अजितकेसकंबलि, पकुध कच्चायन, निगंठनातपुत्त, संजय वेलट्टिपुत्त / इनके सैद्धान्तिक वाद क्रमशः अक्रियावाद, नियतिवाद, उच्छेदवाद, अन्योन्यवाद, चातुर्यामसंवरवाद तथा विक्षेपवाद बतलाए गए हैं / बौद्ध साहित्य में भगवान महावीर के लिए 'निगंठनातपुत्त' का प्रयोग हुआ है। मंखलिपुत्र गोशालक का जैन और बौद्ध दोनों साहित्यों में नियतिवादी के रूप में विस्तार से वर्णन हुअा है। पांचवें अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में १५वे शतक में गोशालक का विस्तार से वर्णन है। गोशालक को अष्टांग निमित्त का कुछ ज्ञान था। उसके द्वारा वह लोगों को लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन एवं मरण के विषय में सही उत्तर दे सकता था। अतः जो भी उसके पास आते, वह उन्हें उस प्रकार की बातें बताता / लोगों को तो चमत्कार चाहिए। ___यों प्रभावित हो उसके सहस्रों अनुयायी हो गए थे। पोलासपुर में सकडालपुत्र नामक एक कुभकार गोशालक के प्रमुख अनुयायियों में था। सकडालपुत्र एक समृद्ध एवं सम्पन्न गृहस्थ था / उसकी एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थीं, एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थीं, एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव एवं उपकरणों में लगी थीं। उसके दस हजार गायों का एक गोकुल था। ____ सकडालपुत्र का प्रमुख व्यवसाय मिट्टी के बर्तन तैयार कराना और बेचना था। पोलासपुर . 1. चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावाया जाइं पुढो वयंति / किरियं अकिरियं विणियं ति तइयं अन्नाणमाहंसू च उत्थमेव / / —सूत्रकृतांग 1.12.1 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सार : संक्षेप] [139 नगर के बाहर उसकी पांच सौ कर्मशालाएं थीं, जहां अनेक वैतनिक कर्मचारी काम करते थे / प्रातः काल होते ही वे वहां आ जाते और अनेक प्रकार के छोटे-बड़े बर्तन बनाने में लग जाते / बर्तनों की बिक्री की दूसरी व्यवस्था थी। सकडालपुत्र ने अनेक ऐसे व्यक्ति वेतन पर नियुक्त कर रखे थे, जो नगर के राजमार्गों, चौराहों, मैदानों तथा सार्वजनिक स्थानों में बर्तनों की विक्री करते थे। ___सकडालपुत्र की पत्नी का नाम अग्निमित्रा था / वह गृहकार्य में सुयोग्य तथा अपने पति के सुखदुःख में सहभागिन थी। सकडालपुत्र अपने धार्मिक सिद्धान्तों के प्रति अत्यन्त निष्ठावान् था, तदनुसार धर्मोपासना में भी अपना समय लगाता था। [वह युग ही कुछ ऐसा था, जो व्यक्ति जिन विचारों में आस्था रखता, तदनुसार जीवन में साधना भी करता / अास्था केवल कहने की नहीं होती।] एक दिन की घटना है, सकडालपुत्र दोपहर के समय अपनी अशोकवाटिका में गया और वहां अपनी मान्यता के अनुसार धर्माराधना में निरत हो गया। थोड़ी ही देर बाद एक देव वहां प्रकट हुआ। सकडालपुत्र के सामने अन्तरिक्ष-स्थित देव ने उसे सम्बोधित कर कहा—कल प्रात: यहां महामाहन, अप्रतिहत ज्ञान-दर्शन के धारक, त्रैलोक्यपूजित, अर्हत्, जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी आएंगे। तुम उनकी वंदना-पर्युपासना करना और उन्हें स्थान, पाट, बाजोट आदि हेतु आमन्त्रित करना / देव यों कहकर चला गया। सकडालपुत्र ने सोचा देव ने बड़ी अच्छी सूचना की। मेरे धर्माचार्य मंखलिपुत्र गोशालक कल यहां आएंगे। वे ही तो जिन, अर्हत् और केवली हैं, इसलिए मैं अवश्य ही उनकी वन्दना एवं पर्युपासना करूगा। उनके उपयोग की वस्तुओं हेतु उन्हें आमन्त्रित करूगा। दूसरे दिन प्रातःकाल भगवान् महावीर वहां पधारे। सहस्राम्रवन उद्यान में टिके / अनेक श्रद्धालु जन उनके दर्शन हेतु गए / सकडालपुत्र भी यह सोच कर कि उसके प्राचार्य गोशालक पधारे हैं, दर्शन हेतु गया। भगवान् महावीर का धर्मोपदेश हुआ / अन्य लोगों के साथ सकडालपुत्र ने भी सुना। भगवान् जानते थे कि सकडालपुत्र सुलभबोधि है। उसे सद्धर्म की प्रेरणा देनी चाहिए। अतः उन्होंने उसे सम्बोधित कर कहा-कल दोपहर में अशोकवाटिका में देव ने तुम्हें जिसके आगमन की सूचना की थी, वहां देव का अभिप्राय गोशालक से नहीं था। सकडालपुत्र भगवान् के अपरोक्ष ज्ञान से प्रभावित हुआ और मन ही मन प्रसन्न हुआ। वह उठा, भगवान् को विधिवत् वन्दन किया और अपनी कर्मशालाओं में पधारने तथा अपेक्षित सामग्री ग्रहण करने की प्रार्थना की। भगवान् ने उसकी प्रार्थना स्वीकार को और वहां पधारे। __सकडालपुत्र भगवान् महावीर के व्यक्तित्व और उनके अतीन्द्रिय ज्ञान से प्रभावित तो था, पर उसकी सैद्धान्तिक आस्था मंखलिपुत्र गोशालक में थी, यह भगवान् जानते थे। भगवान् अनुकूल अवसर देख उसे सबोध देना चाहते थे। एक दिन की बात है, सकडालपुत्र अपनी कर्मशाला के भीतर हवा लगने हेतु रखे हुए बर्तनों को धूप में देने के लिए बाहर रखवा रहा था / भगवान् को यह अवसर अनुकूल प्रतीत हुआ। उन्होंने उससे पूछा ये बर्तन कैसे बने ? सकडालपुत्र बोला-भगवन् ! पहले मिट्टी एकत्र की, उसे भिगोया, उसमें राख तथा गोबर मिलाया, गूधा, सबको एक किया, फिर उसे चाक पर चढ़ाया और भिन्न-भिन्न प्रकार के बर्तन बनाए / Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140] [उपासकदशांगसूत्र भगवान् महावीर-सकडालपुत्र ! एक बात बताओ। तुम्हारे ये बर्तन प्रयत्न, पुरुषार्थ तथा उद्यम से बने हैं या अप्रयत्न, अपुरुषार्थ और अनुद्यम से ? ___ सकडालपुत्र-भगवन् ! अप्रयत्न, अपुरुषार्थ और अनुद्यम से। क्योंकि प्रयत्न, पुरुषार्थ और उद्यम का कोई महत्त्व नहीं है / जो कुछ होता है, सब निश्चित है / भगवान् महावीर-सकडालपुत्र ! जरा कल्पना करो कोई पुरुष तुम्हारे हवा लगे, सूखे बर्तनों को चुरा ले, उन्हें बिखेर दे, तोड़ दे, फोड़ दे या तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ बलात्कार करे, तो तुम उसे क्या दण्ड दोगे ! सकडालपुत्र-भगवन् ! मैं उसको फटकारूंगा, बुरी तरह पीटगा, अधिक क्या, जान से मार डालूगा। भगवान् महावीर--सकडालपुत्र ! ऐसा क्यों ? तुम तो प्रयत्न और पुरुषार्थ को नहीं मानते। सब भावों को नियत मानते हो। तब फिर जो पुरुष वैसा करता है, उसमें उसका क्या कर्तृत्व है ? वैसा तो पहले से ही नियत है। उसे दोषी भी कैसे मानोगे ? यदि तुम कहो कि वह तो प्रयत्नपूर्वक वैसा करता है, तो प्रयत्न और पुरुषार्थ को न मानने का, सब कुछ नियत मानने का तुम्हारा सिद्धान्त गलत है, असत्य है। सकडालपुत्र एक मेधावी और समझदार पुरुष था। इस थोड़ी सी बातचीत से यथार्थ तत्त्व उसकी समझ में आ गया / उसने संबोधि प्राप्त कर ली। उसका मस्तक श्रद्धा से भगवान महावीर के चरणों में झुक गया। जैसा उस समय के विवेकी पुरुष करते थे, उसने भगवान महावीर से बारह प्रकार का श्रावकधर्म स्वीकार किया। उसकी प्रेरणा से उसकी पत्नी अग्निमित्रा ने भी वैसा ही किया। यों पति-पत्नी सद्धर्म को प्राप्त हुए तथा अपने गृहस्थ जीवन के साथ-साथ धार्मिक आराधना में भी अपने समय का सदुपयोग करने लगे। सकडालपुत्र मंखलिपुत्र गोशालक का प्रमुख श्रावक था। जब गोशालक ने यह सुना तो साम्प्रदायिक मोहवश उसे यह अच्छा नहीं लगा। उसने मन ही मन सोचा, मुझे सकडालपुत्र को पुनः समझाना चाहिए और अपने मत में वापस लाना चाहिए। इस हेतु वह पोलासपुर में आया / आजीविकों के उपाश्रय में रुका / अपने पात्र, उपकरण आदि वहां रखे तथा अपने कुछ शिष्यों के साथ सकडालपुत्र के यहां पहुंचा। सकडालपुत्र तो सत् तत्त्व और सद्गुरु प्राप्त कर चुका था, इसलिए गोशालक के आने पर पहले वह जो श्रद्धा, आदर एवं सम्मान दिखाता था, उसने वैसा नहीं किया, चुपचाप बैठा रहा / गोशालक खूब चालाक' था, झट समझ गया। उसने युक्ति निकाली। सकडालपुत्र को प्रसन्न करने के लिए उसने भगवान् महावीर की खूब गुण-स्तवना की। गोशालक के इस कूटनीतिक व्यवहार को वह समझ नहीं सका / गोशालक की मंशा यह थी कि किसी प्रकार पुनः मुझे सकडालपुत्र के साथ धार्मिक बातचीत का अवसर मिल जाय तो मैं इसकी मति बदलू। सकडालपुत्र ने भगवान महावीर के प्रति गोशालक द्वारा दिखाए गए पादर-भाव के कारण शिष्टतावश अनुरोध किया-आप मेरी कर्मशाला में रुकें, आवश्यक वस्तुएं लें। गोशालक तो बस यही चाहता था। उसने झट स्वीकार कर लिया और वहां गया। वहां के प्रवास के बीच उसको सकडालपुत्र के साथ तात्त्विक वार्तालाप करने का अनेक बार अवसर मिला। उसने सकडालपुत्र को बदलने का बहुत प्रयास किया, पर वह सर्वथा विफल रहा। सकडालपुत्र तो खूब विवेक और समझदारी के साथ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ [141 सातवां अध्ययन : सार : संक्षेप यथार्थ तत्त्व प्राप्त कर चुका था, वह विचलित कैसे होता ? निराश होकर गोशालक वहां से विहार कर गया / सकडालपुत्र पूर्ववत् अपने सांसारिक उत्तरदायित्व के निर्वाह के साथ-साथ धर्मोपासना में लगा रहा / यों चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। पन्द्रहवां वर्ष आधा बीत चुका था। एक बार आधी रात के समय सकडालपूत्र अपनी धर्माराधना में निरत था, एक मिथ्यात्वी देव उसे व्रत-च्युत कर आया, व्रत छोड़ देने के लिए उसके पुत्रों को मार डालने की धमकी दी। सकडालपुत्र अविचल रहा तब उसने उसीके सामने क्रमश: उसके तीनों बेटों को मार-मार कर प्रत्येक के नौ-नौ मांस-खंड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया और उनका मांस व रक्त उसके शरीर पर छींटा / पर, सकडालपुत्र प्रात्म-बल और धैर्य के साथ यह सब सह गया, उसकी आस्था नहीं डगमगाई। फिर भी देव निराश नहीं हुआ। उसने सोचा कि सकडालपुत्र के जीवन में अग्निमित्रा का बहुत बड़ा महत्त्व है, वह केवल पतिपरायणा पत्नी ही नहीं है, सुख दुःख में सहयोगिनी है और सबसे बड़ी बात यह है कि वह उसके धार्मिक जीवन की अनन्य सहायिका है। यह सोचकर उसने सकडालपत्र के समक्ष उसकी पत्नी अग्निमित्रा को मार डालने और वैसी ही दर्दशा करने की धमकी दी। जो सकडालपुत्र तीनों बेटों की हत्या अपनी आंखों के आगे देख अविचलित रहा, वह इस धमकी से क्षुभित हो गया। उसमें क्रोध जागा और उसने सोचा, इस दुष्ट को मुझे पकड़ लेना चाहिए। वह झट पकड़ने के लिए उठा, पर उस देव-षड्यन्त्र में कौन किसे पकड़ता? देव लुप्त हो गया / सकडालपुत्र के हाथों में सामने का खम्भा पाया। यह सब अनहोनी घटनाएं देख सकडालपुत्र घबरा गया और उसने जोर से कोलाहल किया। अग्निमित्रा ने जब यह सुना तो तत्क्षण वहां आई, पति की सारी बात सुनी और बोली- परीक्षा की अन्तिम चोट में आप हार गए / वह मिथ्यादृष्टि देव आखिर आपका व्रत भंग करने में सफल हो गया। इस भूल के लिए आप प्रायश्चित्त कीजिए। सकडालपुत्र ने वैसा ही किया। सकडालपुत्र का अन्तिम जीवन भी बहुत ही प्रशस्त रहा / उसने एक मास की अन्तिम संलेखना और अनशन के साथ समाधि-मरण प्राप्त किया। देहत्याग कर वह अरुणभूत विमान में चार पल्योपमस्थितिक देव हुआ। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र आजीविकोपासक सकडालपुत्र 180. सत्तमस्स उक्लेवो' / पोलासपुरे नामं नयरे। सहस्संबवणे उज्जाणे। जियसत्तू राया। उत्क्षेप'–उपोद्घातपूर्वक सातवें अध्ययन का प्रारम्भ यों है प्रार्य सुधर्मा ने कहा--पोलासपुर नामक नगर था। वहां सहस्राम्रवन नामक उद्यान था / जितशत्रु वहां का राजा था। 181. तत्थ णं पोलासपुरे नयरे सद्दालपुत्ते नामं कुभकारे आजीविओवासए परिवसइ / आजीविय-समयंसि लद्धछे, गहियो, पुच्छियठे, विणिच्छियठे, अभिगयठे अदिमिजपेमाणुरागरत्ते य अयमाउसो ! आजीविय-समए अट्टे, अयं परमठे, सेसे अणठे त्ति आजीविय-समएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। पोलासपुर में सकडालपुत्र नामक कुम्हार रहता था, जो ग्राजीविक-सिद्धान्त या गोशालकमत का अनुयायी था। वह लब्धार्थ-श्रवण आदि द्वारा प्राजीविकमत के यथार्थ तत्व को प्राप्त किए हुए, गृहीतार्थ-उसे ग्रहण किए हुए, पृष्टार्थ-जिज्ञासा या प्रश्न द्वारा उसे स्थित किए हुए, विनिश्चितार्थ निश्चित रूप में आत्मसात् किए हुए, अभिगतार्थ-स्वायत्त किए हुए था / वह अस्थि और मज्जा पर्यन्त अपने धर्म के प्रति प्रेम व अनुराग से भरा था। उसका यह निश्चित विश्वास था कि आजीविक मत ही अर्थ-प्रयोजनभूत है, यही परमार्थ है / इसके सिवाय अन्य अनर्थ-अप्रयोजनभूत हैं / यों आजीविक मत के अनुसार वह आत्मा को भावित करता हुआ धर्मानुरत था / विवेचन __ इस सूत्र में सकडालपुत्र के लब्धार्थ, गृहीतार्थ, पृष्टार्थ, विनिश्चितार्थ तथा अभिगतार्थ विशेषण आए हैं, जिनसे प्रकट होता है कि वह जिस मत में विश्वास करता था, उसने उसके सिद्धान्तों का सूक्ष्मता से अध्ययन किया था / जिज्ञासाओं और प्रश्नों द्वारा उसने तत्त्व की गहराई तक पहुंचने का प्रयास किया था। उनके अपने विचारों के अनुसार आजीविकमत सत्य और यथार्थ था / इसीलिए वह उसके प्रति अत्यन्त आस्थावान् था, जो अस्थि-मज्जा-प्रेमानुरागरक्त विशेषण से प्रकट है। इससे यह भी अनुमित होता है कि उस समय के नागरिक अपने व्यावसायिक, लौकिक जीवन के संचालन के साथ-साथ तात्विक एवं धार्मिक दृष्टि से भी गहराई में जाते थे। 1. जइ णं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवासगदसाणं छट्ठस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते सत्तमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अट्ठे पण्णते ? 2. आर्य सुधर्मा से जम्बू ने पूछा-सिद्धिप्राप्त भगवान महावीर ने उपासकदशा के छठे अध्ययन का यदि यह अर्थ-भाव प्रतिपादित किया, तो भगवन ! उन्होंने सातवें अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया (कृपया कहें / ) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकलालपुत्र] [143 सम्पत्ति : व्यवसाय 12. तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एक्का हिरण्ण-कोडी निहाण-पउत्ता, एक्का वुड्ढि-पउत्ता, एक्का पवित्थर-पउत्ता, एक्के वए, दस-गोसाहस्सिएणं वएणं / आजीविक मतानुयायी सकडालपुत्र की एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थीं। एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थीं तथा एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वभव-साधन-सामग्री में लगी थीं उसके एक गोकुल था, जिसमें दस हजार गायें थीं। 183. तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स अग्गिमित्ता नामं भारिया होत्था / आजीविकोपासक सकडालपुत्र की पत्नी का नाम अग्निमित्रा था। 184. तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स पोलासपुरस्स नगरस्स बहिया पंच कुंभकारावण-सया होत्था। तत्थ णं बहवे पुरिसा दिण्ण-भइ-भत्त-वेयणा कल्लाल्लि बहवे करए य वारए य पिहडए य घडए य अद्ध-घडए य कलसए य अलिजरए य जंबूलए य उट्टियाओ य करेंति / अन्ने य से बहवे पुरिसा दिण्ण-भइ-भत्त-वेयणा कल्लाकल्लि तेहिं बहिं करएहि य जाव (वारएहि य पिहडएहि य घडएहि य अद्ध-घडएहि य कलसएहि य अलिंजरएहि य जंबूलएहि य) उट्टियाहि य राय-मगंसि वित्ति कप्पेमाणा विहरति / पोलासपुर नगर के बाहर प्राजीविकोपासक सकडालपुत्र के कुम्हारगिरी के पांच सौ आपणव्यवसाय-स्थान-बर्तन बनाने की कर्मशालाएँ थीं / वहाँ भोजन तथा मजदूरी रूप वेतन पर काम करने वाले बहुत से पुरुष प्रतिदिन प्रभात होते ही, करक---करवे, वारक-गडुए, पिठर–आटा गूधने या दही जमाने के काम में आने वाली परातें या कडे, घटक-तालाब आदि से पानी लाने के काम में आने वाले घड़े, अर्द्धघटक-अधघड़े-छोटे घड़े, कलशक-कलसे, बड़े घड़े, अलिंजर-पानी रखने के बड़े मटके, जंबूलक सुराहियाँ, उष्ट्रिका-तैल, घी आदि रखने में प्रयुक्त लम्बी गर्दन और बड़े पेट वाले बर्तन-कृपे बनाने के लग जाते थे। भोजन व मजदूरी पर काम करने वाले दूसरे बहुत से पुरुष सुबह होते ही बहुत से करवे (गडुए, परातें या कूडे, घड़े, अधघड़े, कलसे, बड़े मटके, सुराहियाँ) तथा कूपों के साथ सड़क पर अवस्थित हो, उनकी बिक्री में लग जाते थे। विवेचन प्रस्तुत सूत्र के सकडालपुत्र की कर्मशालाएँ नगर से बाहर होने का जो उल्लेख है, उससे यह प्रकट होता है कि कुम्हारों की कर्मशालाएँ व अलाव नगरों से बाहर होते थे, जिससे अलावों से उठने वाले धुए के कारण वायु-दूषण न हो, नगरवासियों को असुविधा न हो। फिर सकडालपुत्र के तो पांच सौ कर्मशालाएँ थीं, बर्तन पकाने में बहुत धुआ उठता था, इसलिए निर्माण का सारा कार्य नगर से बाहर होता था / बिक्री का कार्य सड़कों व चौराहों पर किया जाता था। आज भी प्रायः ऐसा ही है। कुम्हारों के घर शहरों तथा गाँवों के एक किनारे होते हैं, जहाँ वे अपने बर्तन बनाते हैं, पकाते हैं। बर्तन बेचने का काम आज भी सड़कों और चौराहों पर देखा जाता है / Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144] [उपासकांगसूत्र देव द्वारा सूचना . 185. तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अन्नया कयाइ पुन्वावरण्ह-काल-समयंसि जेणेव असोग-वणिया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोसालस्स मंखलि-पुत्तस्स अंतियं धम्मपणत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / एक दिन आजीविकोपासक सकडालपुत्र दोपहर के समय अशोकवाटिका में गया, मंखलिपुत्र गोशालक के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति-धर्म-शिक्षा के अनुरूप वहां उपासनारत हया। 186. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था / आजीविकोपासक सकडालपुत्र के समक्ष एक देव प्रकट हुआ। 187. तए णं से देवे अंतलिक्ख-पडिवन्ने सखिखिणियाइं जाव (पंचवण्णाई वत्थाई पवर) परिहिए सद्दालपुतं आजीविओवासयं एवं वयासी-एहिइ णं देवाणुप्पिया! कल्लं इहं महामाहणे, उप्पन्नणाण-दसणधरे, तीय-पडुप्पन्न-मणागय-जाणए, अरहा, जिणे, केवली, सवण्णू, सव्वदरिसी, तेलोक्क-बहिय-महिय-पूइए, सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स अच्चणिज्जे, वंदणिज्जे नमंसणिज्जे जाव (सक्कारणिज्जे, सम्माणणिज्जे कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं) पज्जुवासणिज्जे, तच्च-कम्म-संपयासंपउत्ते / तं गं तुमं वंदेज्जाहि, जाव (णमंसेज्जाहि, सक्कारेज्जाहि, सम्भाणेज्जाहि, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं) पन्जुवासेज्जाहि, पाडिहारिएणं पीढ-फलग-सिज्जा-संथारएणं उवनिमंतेज्जाहि / दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयइ, वइत्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए। छोटी-छोटी घंटियों से युक्त पांच वर्ण के उत्तम वस्त्र पहने हुए आकाश में अवस्थित उस देव ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र से कहा-देवानुप्रिय ! कल प्रातःकाल यहां महामाहन-महान् अहिंसक, अप्रतिहत ज्ञान, दर्शन के धारक, अतीत, वर्तमान एवं भविष्य--तीनों काल के ज्ञाता, अर्हत्-परम पूज्य, परम समर्थ, जिन–राग-द्वेष-विजेता, केवली-परिपूर्ण, शुद्ध एवं अनन्त ज्ञान आदि से युक्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, तीनों लोक अत्यन्त हर्षपूर्वक जिनके दर्शन की उत्सुकता लिए रहते हैं, जिनकी सेवा एवं उपासना की वांछा लिए रहते हैं, देव, मनुष्य तथा असुर सभी द्वारा अर्चनीयअर्चायोग्य-पूजायोग्य, वन्दनीय-स्तवनयोग्य, नमस्करणीय, (सत्करणीय-सत्कार या आदर करने योग्य, सम्माननीय-सम्मान करने योग्य, कल्याणमय, मंगलमय, इष्ट देव स्वरूप अथवा दिव्य तेज तथा शक्तियुक्त, ज्ञानस्वरूप) पर्युपासनीय-उपासना करने योग्य, तथ्य कर्म-सम्पदा-संप्रयुक्त-- सत्कर्म रूप-सम्पत्ति से युक्त भगवान् पधारेंगे / इसलिए तुम उन्हें वन्दन करना (नमस्कार, सत्कार तथा सम्मान करना / वे कल्याणमय, मंगलमय, देवस्वरूप तथा ज्ञानस्वरूप हैं। उनकी पर्युपासना करना), प्रातिहारिक-ऐसी वस्तुएं जिन्हें श्रमण उपयोग में लेकर वापस कर देते हैं, पीठ-पाट, फलक-बाजोट, शय्या-ठहरने का स्थान, संस्तारक-बिछाने के लिए घास आदि हेतु उन्हें आमंत्रित करना / यों दूसरी बार व तीसरी बार कह कर जिस दिशा से प्रकट हुआ था, वह देव उसी दिशा की ओर लौट गया। विवेचन . प्रस्तुत सूत्र में आए 'महामाहण' शब्द की व्याख्या करते हुए प्राचार्य अभयदेव सूरि ने वृत्ति Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [145 में लिखा है-जो व्यक्ति यों निश्चय करता है, मैं किसी को नहीं मारू, अर्थात् जो मन, वचन एवं काय द्वारा सूक्ष्म तथा स्थूल समस्त जीवों की हिंसा से निवृत्त हो जाता है तथा किसी की हिंसा मत करो यों दूसरों को उपदेश करता है, वह माहन कहा जाता है / ऐसा पुरुष महान् होता है, इसलिए वह महामाहन है, अर्थात् महान् अहिंसक है / अन्य आगमों में भी जहां महामाहण शब्द आया है, इसी रूप में व्याख्या की गई है। इसकी व्याख्या का एक रूप और भी है / प्राकृत में 'ब्राह्मण' के लिए बम्हण तथा बम्भण के साथ-साथ माहण शब्द भी है। इसके अनुसार महामाहण का अर्थ महान् ब्राह्मण होता है। ब्राह्मण शब्द भारतीय साहित्य में गुण-निष्पन्नता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व लिए हुए है। ब्राह्मण में एक ऐसे व्यक्तित्व की कल्पना है, जो पवित्रता, सात्विकता, सदाचार, तितिक्षा, तप आदि सद्गुणों के समवाय का प्रतीक हो / शाब्दिक दृष्टि से इसका अर्थ ज्ञानी है / व्याकरण में कृदन्त के प्रकरण में अण् प्रत्यय के योग से इसकी सिद्धि होती है / ' उसके अनुसार इसकी व्युत्पत्ति--जो ब्रह्म-वेद या शुद्ध चैतन्य को जानता है अथवा उसका अध्ययन करता है, वह ब्राह्मण है / गुणात्मक दृष्टि से वेद, जो विद् धातु से बना है, उत्कृष्ट ज्ञान का प्रतीक है / यों ब्राह्मण एक उच्च ज्ञानी और चरित्रनिष्ठ व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत हुआ है। जन्मगत जातीय व्यवस्था को एक बार हम छोड़ देते हैं, वह तो एक सामाजिक क्रम था। वस्तुतः इस उच्च और प्रशस्त अर्थ में 'ब्राह्मण' शब्द को केवल वैदिक वाङमय में ही नहीं, जैन और बौद्ध वाङमय में भी स्वीकार किया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र का एक प्रसंग है---- ब्राह्मण वंश में उत्पन्न जयघोष मुनि एक बार अपने जनपद-विहार के बीच वाराणसी आए। नगर के बाहर मनोरम नामक उद्यान में रुके। उस समय विजयघोष नामक एक वेद कर रहा था। जयघोष मुनि एक मास की तपस्या के पारणे हेतु भिक्षा के लिए विजयघोष के यहां पहुंचे / विजयघोष ने कहा यहां बना भोजन तो ब्राह्मण को देने के लिए है / इस पर जयघोष मुनि ने उससे कहा--विजयघोष ! तुम ब्राह्मणत्व का शुद्ध स्वरूप नहीं जानते / जरा सुनो, मैं बतलाता हूं, ब्राह्मण कौन होता है जो अपने स्वजन, कुटम्बी जन आदि में आसक्त नहीं होता, प्रवजित होने में अधिक सोचविचार नहीं करता तथा जो आर्य-उत्तम धर्ममय वचनों में रमण करता है, हम उसी को ब्राह्मण कहते हैं। जिस प्रकार अग्नि में तपाया हुआ सोना शुद्ध एवं निर्मल होता है, उसी प्रकार जो राग, द्वेष तथा भय आदि से रहित है, हमारी दृष्टि में वही ब्राह्मण है। जो इन्द्रिय-विजेता है, तपश्चरण में संलग्न है, फलतः कृश हो गया है, उग्र साधना के कारण जिसके शरीर में रक्त और मांस थोड़ा रह गया है, जो उत्तम व्रतों द्वारा निर्वाण प्राप्त करने पर आरूढ है, वास्तव में वही ब्राह्मण है। जो त्रस-चलने फिरने वाले, स्थावर--एक जगह स्थित रहने वाले प्राणियों को सूक्ष्मता से जानकर तीन योग-मन, वचन एवं काया द्वारा उनकी हिंसा नहीं करता, वही ब्राह्मण है। 1. कर्मण्यण / पाणिनीय अष्टाध्यायी।३।२।१। 2. ब्रह्म-वेदं, शुद्धं चैतन्यं वा वेत्ति अधोते वा इति ब्राह्मण: / Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146] [उपासकवशांगसूत्र __जो क्रोध, हास्य, लोभ तथा भय से असत्य भाषण नहीं करता, हम उसी को ब्राह्मण कहते हैं। जो सचित्त या अचित्त, थोड़ी या बहुत कोई भी वस्तु बिना दी हुई नहीं लेता, ब्राह्मण वही है। ___ जो मन, वचन एवं शरीर द्वारा देव, मनुष्य तथा तिर्यंच सम्बन्धी मैथुन का सेवन नहीं करता, वास्तव में वही ब्राह्मण है। कमल यद्यपि जल में उत्पन्न होता है, पर उसमें लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो काम-भोगों से अलिप्त रहता है, वही ब्राह्मण है। जो अलोलुप, भिक्षा पर निर्वाह करने वाला, गृह-त्यागी तथा परिग्रह-त्यागी होता है, गृहस्थों के साथ आसक्ति नहीं रखता, वही ब्राह्मण है। जो जातीय जनों और बन्धुजनों का पूर्व संयोग छोड़कर त्यागमय जीवन अपना लेता है, लौटकर फिर भोगों में प्रासक्त नहीं होता, हमारी दृष्टि में वही ब्राह्मण है।' ___ यहां ब्राह्मण के व्यक्तित्व का जो शब्द-चित्र उपस्थित किया गया है, उससे स्पष्ट है, जयघोष मुनि के शब्दों में महान त्यागी, आध्यात्मिक साधना के पथ पर सतत गतिशील, निरपवाद रूप में व्रतों का परिपालक साधक ही वस्तुतः ब्राह्मण होता है। बौद्धों के धम्मपद का अन्तिम वर्ग या अध्याय ब्राह्मणवग्ग है, जिसमें ब्राह्मण के स्वरूप, गुण, चरित्र आदि का वर्णन है / वहां कहा गया है "जिसके पार---नेत्र, कान, नासिका, जिह्वा, काया तथा मन, अपार---रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श तथा पारापार-मैं और मेरा-ये सब नहीं हैं, अर्थात् जो एषणाओं और भोगों से ऊंचा उठा हुआ है, निर्भय है, अनासक्त है, वह ब्राह्मण है। ब्राह्मण के लिए यह बात कम श्रेयस्कर नहीं है कि वह अपना मन प्रिय भोगों से हटा लेता है। जहां मन हिंसा से निवृत्त हो जाता है, वहां दुःख स्वयं ही शान्त हो जाता है।। जिसके मन, वचन तथा शरीर से दुष्कृत-अशुभ कर्म या पाप नहीं होते, जो इन तीनों ही स्थानों से संवृत-संयम युक्त है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। जो फटे-पुराने चिथड़ों को धारण किए रहता है, कृश है, उग्र तपश्चरण द्वारा जिसकी देह पर नाड़ियां उभर आई हैं, एकाकी वन में ध्यान-निरत रहता है, मेरी दृष्टि में वही ब्राह्मण है। जो सभी संयोजनों-बन्धनों को छिन्न कर डालता है, जो कहीं भी परित्रास---भय नहीं पाता, जो आसक्ति और ममता से अतीत है, मैं उसी को ब्राह्मण कहता हूं। जो आक्रोश-क्रोध या गाली-गलौज, वध एवं बन्धन को, मन को जरा भी विकृत किए विना सह जाता है, क्षमा-बल ही जिसकी बलवान् सेना है, वास्तव में वही ब्राह्मण है। जो क्रोध-रहित, व्रतयुक्त, शीलवान् बहुश्रुत, संयमानुरत तथा अन्तिम शरीरवान् हैशरीर त्याग कर निर्वाणगामी है, वही वास्तव में ब्राह्मण है / 1. उत्तराध्ययन सूत्र 25 / 20-29 / Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकबालपुत्र] [147 जो कमल के पत्ते पर पड़े जल और पारे की नोक पर पड़ी सरसों की तरह भोगों में लिप्त नहीं होता, मैं उसी को ब्राह्मण कहता हूं। ___ जो गम्भीर-प्रज्ञाशील, मेधावी एवं मार्ग-प्रमार्ग का ज्ञाता है, जिसने उत्तम अर्थ---सत्य को प्राप्त कर लिया है, वही वास्तव में ब्राह्मण है / जो अस और स्थावर-चर-अचर सभी प्राणियों की हिंसा से विरत है, न स्वयं उन्हें मारता है, न मारने की प्रेरणा करता है, मैं उसी को ब्राह्मण कहता हूँ।"" उत्तराध्ययन तथा धम्मपद के प्रस्तुत विवेचन की तुलना करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों ही स्थानों पर ब्राह्मण के तपोमय, ज्ञानमय तथा शीलमय व्यक्तित्व के विश्लेषण में दृष्टिकोण की समानता रही है। गुण-निष्पन्न ब्राह्मणत्व के विवेचन में वैदिक वाङमय में भी हमें अनेक स्थानों पर उल्लेख प्राप्त होते हैं / महाभारत के शान्तिपर्व में इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न प्रसंगों में विवेचन हुआ है / ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण का लक्षण बताते हुए एक स्थान पर कहा गया है ब्राह्मण गन्ध, रस, विषय-सुख एवं आभूषणों की कामना न करे। वह सम्मान, कीर्ति तथा यश की चाह न रखे / द्रष्टा ब्राह्मण का यही आचार है / / जो समस्त प्राणियों को अपने कुटुम्ब की भांति समझता है, जानने योग्य तत्त्व का ज्ञाता होता है, कामनाओं से बजित होता है, वह ब्राह्मण कभी मरता नहीं अर्थात् जन्म-मरण के बन्धन से छूट जाता है। जब मन, वाणी और कर्म द्वारा किसी भी प्राणी के प्रति विकारयुक्त भाव नहीं करता, तभी व्यक्ति ब्रह्मभाव या ब्राह्मणत्व प्राप्त करता है। कामना ही इस संसार में एकमात्र बन्धन है, अन्य कोई बन्धन नहीं है / जो कामना के बन्धन से मुक्त हो जाता है, वह ब्रह्मभाव-ब्राह्मणत्व प्राप्त करने में समर्थ होता है। जिससे बिना भोजन के ही मनुष्य परितृप्त हो जाता है, जिसके होने पर धनहीन पुरुष भी पूर्ण सन्तोष का अनुभव करता है, घृत आदि स्निग्ध पौष्टिक पदार्थ सेवन किए बिना ही जहाँ मनुष्य अपने में अपरिमित शक्ति का अनुभव करता है, वैसे ब्रह्मभाव को जो अधिगत कर लेता है, वही वेदवेत्ता ब्राह्मण है। कर्मों का अतिक्रम कर जाने वाले कर्मों से मुक्त, विषय-वासनाओं से रहित, आत्मगुण को प्राप्त किए हुए ब्राह्मण को जरा और मृत्यु नहीं सताते / "2 / इसी प्रकार इसी पर्व के ६२वें अध्याय में, ७६वें अध्याय में तथा और भी बहुत से स्थानों पर ब्राह्मणत्व का विवेचन हुआ है। प्रस्तुत विवेचन की गहराई में यदि हम जाएं तो स्पष्ट रूप में यह प्रतीत होगा कि महाभारतकार व्यासदेव की ध्वनि भी उत्तराध्ययन एवं धम्मपद से कोई भिन्न नहीं है। 1. धम्मपद ब्राह्मणवग्गो 3, 8, 9, 13, 15, 17, 18, 19, 21, 23 / 2. महाभारत शान्तिपर्व 251. 1, 3, 6, 7, 18, 22 / Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148] [उपासकदशांगसूत्र भारतीय समाज-व्यवस्था के नियामक मनु ने ब्राह्मण का अत्यन्त उत्तम चरित्रशील पुरुष के रूप में उल्लेख किया है तथा उसके चरित्र से शिक्षा लेने की प्रेरणा दी है।' इन विवेचनों को देखते समझा जा सकता है पुरातन भारतीय वर्णव्यवस्था का आधार गुण, कर्म था, आज की भांति वंशपरम्परा नहीं / सकडालपुत्र की कल्पना 188. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तेणं देवेणं एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झस्थिए ४--चितिए, पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पन्ने एवं खलु ममं धम्मायरिए धम्मोवएसए गोसाले मंखलिपुत्ते, से णं महामाहणे उप्पन्न-णाण-दसणधरे जाव तच्च-कम्म-संपया-संपउत्ते, से णं कल्लं इहं हव्वमागच्छिस्सइ / तए णं तं अहं वंदिस्सामि जाव (सक्कारेस्सामि, सम्मास्सामि, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं) पज्जुवासिस्सामि पाडिहारिएणं जाव (पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं) उवनिमंतिस्सामि। उस देव द्वारा यों कहे जाने पर आजीविकोपासक सकडालपुत्र के मन में ऐसा विचार पाया, मनोरथ, चिन्तन और संकल्प उठा-मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, महामाहन, अप्रतिम ज्ञान-दर्शन के धारक, (अतीत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों काल के ज्ञाता, अर्हत्, जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, तीनों लोक अत्यन्त हर्षपूर्वक जिनके दर्शन की उत्सुकता लिए रहते हैं, जिनकी सेवा एवं उपासना की वांछा लिए रहते हैं, देव, मनुष्य तथा असुर-सभी द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याणमय, मंगलमय, देवस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, पर्युपासनीय,) सत्कर्म-सम्पत्तियुक्त मंखलिपुत्र गोशालक कल यहां पधारेंगे / तब मैं उनकी वंदना, (सत्कार एवं सम्मान करुंगा। वे कल्याणमय, मंगलमय, देवस्वरूप तथा ज्ञानस्वरूप हैं) पर्युपासना करुंगा तथा प्रातिहारिक (पीठ, फलक, संस्तारक) हेतु आमंत्रित करुगा। भगवान् महावीर का सान्निध्य 189. तए णं कल्लं जाव जलंते समणे भगवं महावीरे जाव' समोसरिए / परिसा निग्गया जाव' पज्जुवासइ। तत्पश्चात् अगले दिन प्रातःकाल भगवान् महावीर पधारे। परिषद् जुड़ी, भगवान् की पर्युपासना की। 190. तए णं से सददालपुत्ते आजीविओवासए इमीसे कहाए लद्धठे समाणे-एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव (जेणेव पोलासपुरे नयरे, जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे, तेणेव उवागच्छ, 1. मनुस्मृति 2.20 2. देखो सूत्र-संख्या 187 3. देखें सूत्र-संख्या 66 4. देखें सूत्र-संख्या 9 5. देखें सूत्र-संख्या 11 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [149 उवागच्छिता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं, तवसा अप्पाणं भावेमाणे) विहरइ, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं बंदामि जाव (नमसामि, सक्कारेमि, सम्मामि कल्लाणं, मगल, देवयं, चेइयं) पज्जुवासामि एवं संपेहेइ, संपेहिता ण्हाए जाव (कयवलिकम्मे, कयकोउयमंगल-) पायच्छित्ते सुद्ध-प्पावेसाइं जाव (मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिए) अप्पमहग्घाभरणालंकिय-सरीरे, मणुस्सवग्गुरा-परिगए साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता, पोलासपुरं नयरं मज्झमझेणं निम्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता जाव (णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाण अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे) पज्जुवासइ / आजीविकोपासक सकडालपुत्र ने यह सुना कि भगवान महावीर पोलासपुर नगर में पधारे हैं / (सहस्राम्रवन उद्यान में यथोचित स्थान ग्रहण कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुएअवस्थित हैं) / उसने सोचा- मैं जाकर भगवान् की वन्दना, (नमस्कार, सत्कार एवं सम्मान करू / वे कल्याणमय, मंगलमय, देवस्वरूप तथा ज्ञानस्वरूप हैं / ) पर्युपासना करु / यों सोच कर उसने स्नान किया, (नित्य-नैमित्तिक कार्य किए, देह-सज्जा तथा दुःस्वप्न आदि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुकुम, दधि, अक्षत आदि द्वारा मंगल-विधान किया,) शुद्ध, सभायोग्य (मांगलिक एवं उत्तम) वस्त्र पहने / थोड़े से बहुमूल्य प्राभूषणों से देह को अलंकृत किया, अनेक लोगों को साथ लिए वह अपने घर से निकला, पोलासपुर नगर के बीच से गुजरा, सहस्राम्रवन उद्यान में, जहां भगवान महावीर विराजित थे, आया। आकर तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा की, वन्दन-नमस्कार किया, (वन्दन-नमस्कार कर भगवान् के न अधिक निकट, न अधिक दूर, सम्मुख अवस्थित हो, नमन करते हुए, सुनने की उत्कंठा लिए विनयपूर्वक हाथ जोड़े,) पर्युपासना की। 191. तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तोसे य महइ जाव' धम्मकहा समत्ता। तब श्रमण भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र को तथा विशाल परिषद् को धर्म-देशना दी। 192. सद्दालपुत्ता! इ समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी से नूणं, सद्दालपुत्ता ! कल्लं तुमं पुवावरण्ह-काल-समयंसि जेणेव असोग-वणिया जाव विहरसि / तए णं तुम्भं एगे देवे अंतियं पाउन्भवित्था / तए णं से देवे अंतलिक्ख-पडिवन्ने एवं बयासी-हं भो ! सद्दालपुत्ता ! तं चेव सम्वं जाव पज्जुवासिस्सामि, से नूणं, सद्दालपुत्ता ! अठे समठे ? हंता ! अस्थि / नो खलु, सद्दालपुत्ता ! तेणं देवेणं गोसालं मखलि-पुत्तं पणिहाय एवं वुत्ते / / श्रमण भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र से कहा—सकडालपुत्र ! कल 1. देखें सूत्र-संख्या 11 2. देखें सूत्र-संख्या 185 3. देखें सूत्र-संख्या 188 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150] [उपासकवशांगसूत्र दोपहर के समय तुम जब अशोकवाटिका में थे तब एक देव तुम्हारे समक्ष प्रकट हुआ, आकाशस्थित देव ने तुम्हें यों कहा-कल प्रातः अर्हत, केवली आएंगे। - भगवान् ने सकडालपुत्र को उसके द्वारा वंदन, नमन, पर्युपासना करने के निश्चय तक का सारा वृत्तान्त कहा। फिर उससे पूछा-सकडालपुत्र ! क्या ऐसा हुआ ? सकडालपुत्र बोला-ऐसा ही हुआ / तब भगवान् ने कहा—सकडालपुत्र ! उस देव ने मंखलिपुत्र गोशालक को लक्षित कर वैसा नहीं कहा था। सकडाल पर प्रभाव 193. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासयस्स समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वृत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए 4 (चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे)-एस णं समणे भगवं महावीरे महामाहणे, उप्पन्न-णाणदंसणधरे, जाव' तच्च-कम्म-संपया-संपउत्ते। तं सेयं खलु ममं समणं भगवं महावीरं बंदित्ता नमंसित्ता पाडिहारिएणं पीढ-फलग जाव (-सेज्जा-संथारएणं) उवनिमंतित्तए। एवं संपेहेइ, संपेहिता उट्ठाए उठेइ, उठेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु भंते ! ममं पोलासपुरस्स नयरस्स बहिया पंच कुभकारावणसया। तत्थ णं तुम्भे पाडिहारियं पीढ जाव (-फलग-सज्जा-) संथारयं ओगिण्हित्ता णं विहरह / श्रमण भगवान महावीर द्वारा यों कहे जाने पर आजीविकोपासक सकडालपुत्र के मन में ऐसा विचार आया—श्रमण भगवान महावीर ही महामाहन, उत्पन्न ज्ञान, दर्शन के धारक तथा सत्कर्मसम्पत्ति-युक्त हैं / अतः मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार कर प्रातिहारिक पीठ, फलक (शय्या तथा संस्तारक) हेतु आमंत्रित करु / यों विचार कर वह उठा, श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और बोला-भगवन् ! पोलासपुर नगर के बाहर मेरी पांच-सौ कुम्हारगीरी की कर्मशालाएं हैं / आप वहां प्रातिहारिक पीठ, (फलक, शय्या) संस्तारक ग्रहण कर विराजें। भगवान् का कुभकारापण में पदार्पण 194. तए णं समणे भगवं महाबीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एयमलैं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स पंचकुभकारावणसएसु फासुएसणिज्जं पाडिहारियं पीढफलग जाव (-सेज्जा) संथारयं ओगिहित्ता णं विहरइ / भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र का यह निवेदन स्वीकार किया तथा उसकी पांच सौ कुम्हारगीरी की कर्मशालाओं में प्रासुक, शुद्ध प्रातिहारिक पीठ, फलक (शय्या), संस्तारक ग्रहण कर भगवान् अवस्थित हुए। नियतिवाद पर चर्चा 195. तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अन्नया कयाइ वायाययं कोलाल-भंडं अंतो सालाहितो बहिया नीणेइ, नीणेत्ता, आयवंसि दलयइ। 1. देखें सूत्र-संख्या 158 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [151 एक दिन आजीविकोपासक सकडालपुत्र हवा लगे हुए मिट्टी के बर्तन कर्मशाला के भीतर से बाहर लाया और उसने उन्हें धूप में रखा। 196; तए णं से समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासीसद्दालपुत्ता ! एस णं कोलालभंडे कओ' ? भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र से कहा-सकडालपुत्र ! ये मिट्टी के बर्तन कैसे बने ? 197. तए णं से सद्दालुपुते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं एवं वयासी-एस णं भंते ! पुटिव मट्टिया आसी, तओ पच्छा उदएणं निमिज्जइ, निमिज्जिता छारेण य करिसेण य एगयाओ मोसिज्जइ, मोसिज्जित्ता चक्के आरोहिज्जइ, तओ बहवे करगा य जाव' उट्टियाओ य कज्जंति। आजीविकोपासक सकडालपुत्र श्रमण भगवान महावीर से बोला-भगवन् ! पहले मिट्टी को पानी के साथ गूधा जाता है, फिर राख और गोबर के साथ उसे मिलाया जाता है, यों मिला कर उसे चाक पर रखा जाता है, तब बहुत से करवे, (गडुए, परातें या कूडे, घड़े, अधघड़े, कलसे, बड़े मटके, सुराहियां) तथा कूपे बनाए जाते हैं। 198. तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं क्यासी-सद्दालपुत्ता ! एस णं कोलाल-भंडे कि उट्ठाणेणं जाव' पुरिसक्कार-परक्कमेणं कज्जति उदाहु अणुद्वाणणं जाव: अपुरिसक्कार-परक्कमेणं कति ? तब श्रमण भगवान महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र से पूछा-सकडालपुत्र ! ये मिट्टी के बर्तन क्या प्रयत्न, पुरुषार्थ एवं उद्यम द्वारा बनते हैं, अथवा प्रयत्न, पुरुषार्थ एवं उद्यम के बिना बनते हैं ? 199. तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं एवं बयासी-भंते ! अणुट्ठाणेणं जाव' अपुरिसक्कार-परक्कमेणं / नस्थि उट्ठाणे इ वा जाव परक्कमे इ वा, नियया सव्वभावा। आजीविकोपासक सकडालपुत्र ने श्रमण भगवान् महावीर से कहा--भगवन् ! प्रयत्न, पुरुषार्थ 1. 'कहकतो? —अंगसुत्ताणि पृ. 405 2. देखें सूत्र 184 3. देखें सूत्र-संख्या 169 देखें सूत्र-संख्या 169 5. देखें सूत्र-संख्या 169 6. देखें सूत्र-संख्या 169 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] [उपासकदशांगसूत्र तथा उद्यम के बिना बनते हैं / प्रयत्न, पुरुषार्थ एवं उद्यम का कोई अस्तित्व या स्थान नहीं है, सभी भाव--होने वाले कार्य नियत-निश्चित हैं / 200. तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासीसद्दालपुत्ता ! जइ णं तुभं केइ पुरिसे वायाहयं वा पक्केल्लयं वा कोलालभंडं अवहरेज्जा वा विक्खरेज्जा वा भिदेज्जा वा अच्छिदेज्जा वा परिवेज्जा वा, अम्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धि विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणे विहरेज्जा, तस्स णं तुमं पुरिसस्स कि दंडं वत्तेज्जासि ? भंते ! अहं णं तं पुरिसं निब्भच्छेज्जा वा हणेज्जा वा बंधेज्जा वा महेज्जा वा तज्जेज्जा वा तालेज्जा वा निच्छोडेज्जा वा निब्भच्छेज्जा वा अकाले जेव जीवियाओ ववरोवेज्जा। सद्दालपुत्ता! नो खलु तुम्भं केइ पुरिसे वायाहयं वा पक्केल्लयं वा कोलालभंडं अवहरइ वा जाव (विक्खरइ वा भिदइ वा अच्छिदइ वा) परिदुवइ वा, अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धि विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणे विहरइ, नो वा तुमं तं पुरिसं आओसेज्जसि वा हणेज्जसि वा जाव ( बंधेज्जसि वा महेज्जसि वा तज्जेज्जस्सि वा तालेज्जसि वा निच्छोडेज्जसि वा निब्भच्छेज्जसि वा ) अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेज्जसि; जइ नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव' परक्कमे इ वा, नियया सव्वभावा। अह णं तुम्भं केइ पुरिसे वायाहयं जाव ( वा पक्केल्लयं वा कोलालभंडं अवहरइ वा विक्खरइ वा भिवइ बा अच्छिदइ वा ) परिढुवेइ वा, अग्गिमित्ताए वा जाव ( भारियाए सद्धि विउलाई भोगभोगाई भुजमाणे ) विहरइ, तुमं वा तं पुरिसं आओसेसि वा जाव (हणेसि वा बंधेसि वा महेसि वा तज्जेसि वा तालेसि वा निच्छोडेसि वा निब्भच्छेसि वा अकाले चेव जीवियाओ) ववरोवेसि / तो जं बदसि-नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव' नियया सव्वभावा, तं ते मिच्छा।। तब श्रमण भगवान महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र से कहा-सकडालपुत्र ! यदि कोई पुरुष तुम्हारे हवा लगे हुए या धूप में सुखाए हुए मिट्टी के बर्तनों को चुरा ले या बिखेर दे या उनमें छेद कर दे या उन्हें फोड़ दे या उठाकर बाहर डाल दे अथवा तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगे, तो उस पुरुष को तुम क्या दंड दोगे? ___सकडालपुत्र बोला-भगवन् ! मैं उसे फटकारूगा या पीटूगा या बांध दूगा या रौंद डालगा या जित करूगा--धमकाऊंगा या थप्पड़-घूसे मारू गा या उसका धन आदि छीन लगा या कठोर वचनों से उसकी भर्त्सना करूगा या असमय में ही उसके प्राण ले लूगा। _ भगवान् महावीर बोले-सकडालपुत्र! यदि प्रयत्न, पुरुषार्थ एवं उद्यम नहीं है, सभी होने वाले कार्य निश्चित हैं तो कोई पुरुष तुम्हारे हवा लगे हुए या धूप में सुखाए हुए मिट्टी के बर्तनों को नहीं चुराता है, (नहीं बिखेरता है, न उनमें छेद करता है, न उन्हें फोड़ता है), न उन्हें उठाकर बाहर डालता है और न तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग ही भोगता है, न तुम उस पुरुष को फटकारते हो, न पीटते हो, (न बांधते हो, न रौंदते हो, न तजित करते हो, न थप्पड-घूसे मारते हो, न उसका धन छीनते हो, न कठोर वचनों से उसकी भर्त्सना करते हो), न असमय में ही उसके प्राण लेते हो (क्योंकि यह सब जो हुआ, नियत था)। 1. देखें सूत्र-संख्या 169 2. देखें सूत्र-संख्या 169 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकशालपुत्र] [153 ___ यदि तुम मानते हो कि वास्तव में कोई पुरुष तुम्हारे हवा लगे हुए या धूप में सुखाए मिट्टी के बर्तनों को (चुराता है या बिखेरता है या उनमें छेद करता है या उन्हें फोड़ता है या) उठाकर बाहर डाल देता है अथवा तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगता है, तुम उस पुरुष को फटकारते हो (या पीटते हो या बांधते हो या रौंदते हो या तर्जित करते हो या थप्पड़-घूसे मारते हो या उसका धन छीन लेते हो या कठोर वचनों से उसकी भर्त्सना करते हो) या असमय में ही उसके प्राण ले लेते हो, तब तुम प्रयत्न, पुरुषार्थ आदि के न होने की तथा होने वाले सब कार्यों के नियत होने की जो बात कहते हो, वह असत्य है / बोधिलाभ 201. एत्थ णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए संबुद्धे / इससे आजीविकोपासक सकडालपुत्र को संबोध प्राप्त हुआ / 202. तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भं अंतिए धम्मं निसामेत्तए / सकडालपुत्र ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और उनसे कहाभगवन् ! मैं आपसे धर्म सुनना चाहता हूं। 203. तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तोसे य जाव' धम्म परिकहेइ। तब श्रमण भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र को तथा उपस्थित परिषद् को धर्मोपदेश दिया। सकडालपुत्र एवं अग्निमित्रा द्वारा बत-ग्रहण 204. तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणस्स भगवओ महाबीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा, निसम्म हट्ठ-तुट्ठ जाव' हियए जहा आणंदो तहा गिहि-धम्म पडिवज्जइ। नवरं एगा हिरण-कोडी निहाण-पउत्ता, एगा हिरण्णकोडी वृड्डि-पउत्ता, एगा हिरण्ण-कोडी पवित्थर-पउत्ता, एगे दए, दस गो-साहस्सिएणं वएणं जाव समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता जेणेव पोलासपुरे नयरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोलासपुरं नयरं मज्झमज्ञणं जेणेव सए गिहे, जेणेव अग्गिमिता भारिया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, अग्गिमित्तं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिए ! समणे भगवं महावीरे जाव' समोसढे, तं गच्छाहि णं तुमं, समणं भगवं महावीरं वंदाहि जाव पज्जुवासाहि, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिबज्जाहि। 1. देखें सूत्र-संख्या 11 2. देखें सूत्र-संख्या 12 3. देखें सूत्र-संख्या 9 4. देखें सूत्र-संख्या 58 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154] [उपासकदशांगसूत्र - आजीविकोपासक सकडालपुत्र श्रमण भगवान् महावीर से धर्म सुनकर अत्यन्त प्रसन्न एवं संतुष्ट हुआ और उसने अानन्द की तरह श्रावक-धर्म स्वीकार किया। आनन्द से केवल इतना अन्तर था, सकडालपुत्र के परिग्रह के रूप में एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थीं, एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थीं तथा एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव-साधनसामग्री में लगी थीं। उसके एक गोकुल था, जिसमें दस हजार गायें थीं। सकडालपुत्र ने श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया / वंदन-नमस्कार कर वह वहां से चला, पोलासपुर नगर के बीच से गुजरता हुआ, अपने घर अपनी पत्नी अग्निमित्रा के पास आया और उससे बोला-देवानुप्रिये ! श्रमण भगवान् महावीर पधारे हैं, तुम जाओ, उनकी वंदना, पर्युपासना करो, उनसे पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षावत रूप बारह प्रकार का श्रावक-धर्म स्वीकार करो। 205. तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया सद्दालपुत्तस्स समणोवासगस्स 'तह ति एयमझें विणएण पडिसुणेइ। श्रमणोपासक सकडालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा ने 'पाप ठीक कहते हैं' यों कहकर विनयपूर्वक अपने पति का कथन स्वीकार किया। 206. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासीखिप्पामेव, भो देवाणुप्पिया ! लहुकरण-जुत्त-जोइयं, समखुर-बालिहाण-समलिहिय-सिंगरहि, जंबूणयामय-कलाव-जोत्त-पइविसिट्टएहि, रग्रयामय-घंटसुत्त-रज्जुग-वरकंचण-खइय-नत्था-पग्गहोग्गहियरहि, नीलुप्पल-कयामेलएहि, पवर-गोण-जुवाणएहि, नाणा-मणि-कणग-धंटिया-जालपरिगयं, सुजाय-जुग-जुत्त, उज्जुग-पसत्थसुविरइय-निम्मियं, पवर-लक्खणोववेयं जुत्तामेव धम्मियं जाण-प्पवरं उवट्ठवेह, उवट्ठवेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह / तब श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने अपने सेवकों को बुलाया और कहा-देवानुप्रियो ! तेज चलने वाले, एक जैसे खुर, पूछ तथा अनेक रंगों से चित्रित सींग वाले, गले में सोने के गहने और जोत धारण किए, गले से लटकती चाँदी की घंटियों सहित नाक में उत्तम सोने के तारों से मिश्रित पतली सी सूत की नाथ से जुड़ी रास के सहारे वाहकों द्वारा सम्हाले हुए, नीले कमलों से बने प्राभरणयुक्त मस्तक वाले, दो युवा बैलों द्वारा खींचे जाते, अनेक प्रकार की मणियों और सोने की / घाटया से युक्त, बढ़िया लकड़ी के एकदम सीध, उत्तम और सुन्दर बने हुए जुए सहित, श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त धार्मिक-धार्मिक कार्यों में उपयोग में आने वाला यानप्रवर-श्रेष्ठ रथ तैयार करो, तैयार कर शीघ्र मुझे सचना दो। बहत-स 207 तए णं ते कोडुबिय-पुरिसा जाव ( सद्दालपुत्तेणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणा हतुट्टचित्तमाणंदिया, पोइमणा, परमसोमणस्सिया, हरिसवसविसप्पमाणहियया, करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु ‘एवं सामि !' ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता खिप्पामेव लहुकरणजुत्तजोइयं जाव धम्मियं जाणप्पवरं उवट्ठवेत्ता तमाणत्तियं ) पच्चप्पिणंति / Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपूत्र] [155 श्रमणोपासक सकडालपुत्र द्वारा यों कहे जाने पर सेवकों ने ( अत्यन्त प्रसन्न होते हुए, चित्त में आनन्द एवं प्रोति का अनुभव करते हुए, अतीव सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसित हृदय हो, हाथ जोड़े, सिर के चारों ओर घुमाए तथा अंजलि बांधे 'स्वामी' यों आदरपूर्ण शब्द से सकडालपुत्र को सम्बोधित--प्रत्युत्तरित करते हुए उनका कथन स्वीकृतिपूर्ण भाव से विनयपूर्वक सुना। सुनकर तेज चलने वाले बैलों द्वारा खींचे जाते उत्तम यान को शीघ्र ही उपस्थित किया। 207. तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया पहाया जाव ( कयबलिकम्मा, कयकोउय-मंगल-) पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई जाव ( मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिया) अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा, चेडिया-चक्कवाल-परिकिण्णा धम्मियं जाणप्पवरं दुरुहइ, दुरुहिता पोलासपुरं नगरं मझमझेणं निग्गच्छह, निग्गच्छित्ता जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियाओ जाणाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता चेडिया-चक्कवाल-परिबुडा जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो जाव ( आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता ) वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासन्ने नाइदूरे जाय (सुस्सूसमाणा, नमसमाणा अभिमुहे विणएणं) पंजलिउडा ठिइया चेव पज्जुवासइ। तब सकडालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा ने स्नान किया, (नित्य-नैमित्तिक कार्य किए, देह-सज्जा की, दुःस्वप्न आदि दोष-निवारण हेतु मंगल-विधान किया), शुद्ध, सभायोग्य (मांगलिक, उत्तम) वस्त्र पहने, थोड़े-से बहुमूल्य आभूषणों से देह को अलंकृत किया / दासियों के समूह से घिरी वह धार्मिक उत्तम रथ पर सवार हुई, सवार होकर पोलासपुर नगर के बीच से गुजरती सहस्राम्रवन उद्यान में आई, धार्मिक उत्तम रथ से नीचे उतरी, दसियों के समूह से घिरी जहाँ भगवान् महावीर विराजित थे, वहाँ गई, जाकर (तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की), वंदन-नमस्कार किया, भगवान् के न अधिक निकट न अधिक दूर सम्मुख अवस्थित हो नमन करती हुई, सुनने की उत्कंठा लिए, विनयपूर्वक हाथ जोड़े पर्युपासना करने लगी। 209. तए गं समणे भगवं महावीरे अग्गिमित्ताए तीसे य जाव' धम्मं कहेइ / श्रमण भगवान् महावीर ने अग्निमित्रा को तथा उपस्थित परिषद् को धर्मोपदेश दिया / 210. तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा, निसम्म हट्ठ-तुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासी-सहहामि णं, भंते ! निग्गंथं पावयणं जाव (पत्तियामि णं, भंते ! निग्गंथं पावयणं, रोएमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, एवमेयं, भंते !) से जहेयं तुझे वयह / जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे उग्गा, भोगा जाव (राइण्णा, खत्तिया, माहणा, भडा, जोहा, पसत्थारो, मल्लई, लेच्छई, अण्णे य बहवे राईसर-तलवर-माइंबिय-कोडुबिय-इभ-सेटि-सेणावइ-सत्थवाहप्पभिइया मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं) पवइया, नो खलु अहं तहा संचाएमि देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता जाव 1. देखें सूत्र-संख्या 11 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156] [उपासकदशांगसूत्र (अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए / ) अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त-सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहि-धम्म पडिवज्जिस्सामि / अहासुह, देवाणुप्पिया! मा पडिबधं करेह / सकडालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा श्रमण भगवान् महावीर से धर्म का श्रवण कर हर्षित एवं परितुष्ट हुई / उसने भगवान् को वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर वह बोली-भगवन् ! मझे निर्ग्रन्थ-प्रवचन में श्रद्धा है, ( विश्वास है, निर्ग्रन्थ-प्रवचन मुझे रुचिकर है, भगवन् ! यह ऐसा हा है, यह तथ्य है, सत्य है, इच्छित है, प्रतीच्छित है, इच्छित-प्रतीच्छित है,) जैसा आपने प्रतिपादित किया, वैसा ही है। देवानुप्रिय ! जिस प्रकार आपके पास बहुत से उग्र--प्रारक्षक-अधिकारी, भोग—राजा के मन्त्री-मण्डल के सदस्य (राजन्य-राजा के परामर्शक मण्डल के सदस्य, क्षत्रियक्षत्रिय वंश के राज-कर्मचारी, ब्राह्मण, सुभट, योद्धा युद्धोपजीवी सैनिक, प्रशास्ता-प्रशासनअधिकारी, मल्लकि—मल्ल-गणराज्य के सदस्य, लिच्छिवि-लिच्छिवि गणराज्य के सदस्य तथा अन्य अनेक राजा, ऐश्वर्यशाली, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, धनी, श्रेष्ठी सेनापति एवं सार्थवाह) आदि मुडित होकर, गृहवास का परित्याग कर अनगार या श्रमण के रूप में प्रवजित हुए, मैं उस प्रकार मुडित होकर (गृहवास का परित्याग कर अनगार-धर्म में) प्रवजित होने में असमर्थ हूं। इसलिए आपके पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावक-धर्म ग्रहण करना चाहती हूं। ____ अग्निमित्रा के यों कहने पर भगवान् ने कहा—देवानुप्रिये ! जिससे तुमको सुख हो, वैसा करो, विलम्ब मत करो। विवेचन इस सूत्र में आए मल्लकि और लिच्छिवि नाम भारतीय इतिहास के एक बड़े महत्त्वपूर्ण समय की ओर संकेत करते हैं। वैसे आज बोलचाल में यूरोप को, विशेषत: इंग्लैण्ड को प्रजातन्त्र का जन्मस्थान (mother of democracy) कह दिया जाता है, पर भारतवर्ष में प्रजातन्त्रात्मक शासनप्रणाली का सफल प्रयोग सहस्राब्दियों पूर्व हो चुका था / भगवान् महावीर एवं बुद्ध के समय आज के पूर्वी उत्तरप्रदेश तथा बिहार में अनेक ऐसे राज्य थे, जहाँ उस समय की अपनी एक विशेष गणतन्त्रात्मक प्रणाली से जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि शासन करते थे। शब्द उनके लिए भी राजा था, पर वह वंश-क्रमागत राज्य के स्वामी का द्योतक नहीं था। भगवान् महावीर के पिता सिद्धार्थ तथा बुद्ध के पिता शुद्धोधन दोनों के लिए राजा शब्द आया है, पर वे संघ-राज्यों के निर्वाचित राजा या शासन-परिषद् के सदस्य थे, जिन पर एक क्षेत्र-विशेष के शासन का उत्तरदायित्व था। प्राचीन पाली तथा प्राकृत ग्रन्थों में इन संघ-राज्यों का अनेक स्थानों पर वर्णन आया है। कुछ संघ मिल कर अपना एक वृहत् संघ भी बना लेते थे। ऐसे संघों में वज्जिसंघ प्रसिद्ध था, जिसमें मुख्यतः लिच्छिवि, नाय (ज्ञातृक) तथा वज्जि आदि सम्मिलित थे। उस समय के संघ-राज्यों में कपिलवस्तु के शाक्य, पावा तथा कुशीनारा के मल्ल, पिप्पलिवन के मौर्य, मिथिला के विदेह, वैशाली लिच्छिवि तथा नाय बहुत प्रसिद्ध थे। यहां प्रयुक्त मल्लकि शब्द मल्ल संघ-राज्य से सम्बद्ध जनों के लिए तथा लिच्छिवि शब्द लिच्छिवि संघ-राज्य से सम्बद्ध जनों के लिए है। भगवान् महावीर के Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [157 पिता सिद्धार्थ लिच्छिवि और नाय संघ से सम्बद्ध थे। लिच्छिवि संघ-राज्य के प्रधान चेटक थे, जिनकी बहिन त्रिशला का विवाह सिद्धार्थ से हुआ था / अर्थात् चेटक भगवान् महावीर के मामा थे / कल्पसूत्र में एक ऐसे संघीय समुदाय का उल्लेख है, जिसमें नौ मल्लकि, नौ लिच्छिवि तथा काशी, कोसल के 18 गणराज्य सम्मिलित थे / यह संगठन चेटक के नेतृत्व में हुआ था। इसका मुख्य उद्देश्य कुणिक अजातशत्रु के आक्रमण का सामना करना था। इन संघराज्यों की संसदों, व्यवस्था, प्रशासन इत्यादि का जो वर्णन हम पाली, प्राकृत ग्रन्थों में पढ़ते हैं, उससे प्रकट होता है कि हमारे देश में जनतन्त्रात्मक प्रणाली के सन्दर्भ में सहस्रों वर्ष पूर्व बड़ी गहराई से चिन्तन हुआ था। संघ की एक सभा होती थी, वह शासन और न्याय दोनों का काम करती थी। संघ का प्रधान, जो अध्यक्षता करता था, मुख्य राजा कहलाता था। संघ की एक राजधानी होती थी, जहां सभाओं का आयोजन होता था / लिच्छिवियों की राजधानी वैशाली थी। उस समय हमारा देश धन, धान्य और समृद्धि में चरम उत्कर्ष पर था। भगवान् महावीर और बुद्ध के समय वैशाली बड़ी समृद्ध और उन्नत नगरी थी। एक तिब्बती उल्लेख के अनुसार वैशाली तीन भागों में विभक्त थी, जिनमें क्रमशः सात हजार, चौदह हजार तथा इक्कीस हजार घर थे। वैशाली उस समय की महानगरी थी, इसलिए ये तीन विभाग संभवतः वैशाली, कडपर और णज्यग्राम हो / भगवान् महावीर का एक विशेष नाम बेसालिय (वैशाली से सम्बद्ध) भी है / भगवान् महावीर लिच्छिवि संघ के अन्तर्गत नाय (ज्ञात) संघ से सम्बद्ध थे। 211. तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुवइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालस-विहं सावग-धम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता समणं भगवं महावीरं बंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाण-प्पवरं दुरुहइ, दुरुहित्ता जामेव दिसि पाउन्भूया, तामेव दिसि पडिगया। तब अग्निमित्रा ने श्रमण भगवान् महावीर के पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावकधर्म स्वीकार किया, श्रमण भगवान् महावीर को बंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर उसी उत्तम धार्मिक रथ पर सवार हुई तथा जिस दिशा से आई थी उसी की ओर लौट गई। भगवान का प्रस्थान 212. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ पोलासपुराओ नयराओ सहस्संबवणाओ उज्जाणाओ पडिनिग्गच्छइ, पडिनिग्गच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर पोलासपुर नगर से, सहस्राम्रवन उद्यान से प्रस्थान कर एक दिन अन्य जनपदों में विहार कर गए। 213, तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव' विहरइ / तत्पश्चात् सकडालपुत्र जीव-अजीव आदि तत्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया / धार्मिक जीवन जीने लगा। गोशालक का आगमन 214. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते इमीसे कहाए लद्धढे समाणे एवं खलु सद्दालपुत्ते आजीविय-समयं वमित्ता समणाणं निग्गंथाणं दिट्टि पडिवन्ने / तं गच्छामि णं सद्दालपुत्तं आजीविओ१. देखें सूत्र-संख्या 64 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158] [उपासकदशांगसूत्र वासयं समणाणं निग्गंथाणं दिद्धि वामेत्ता पुणरवि आजीविय-दिदि गेण्हावित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता आजीविय-संघसंपरिवुडे जेणेव पोलासपुरे नयरे, जेणेव आजीवियसभा, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आजीवियसभाए भंडग-निक्खेवं करेइ, करेत्ता कइवएहि आजीविएहि सद्धि जेणेक सद्दालपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छइ। कुछ समय बाद मंखलिपुत्र गोशालक ने यह सुना कि सकडालपुत्र आजीविक-सिद्धान्त को छोड़ कर श्रमण-निर्ग्रन्थों की दृष्टि--दर्शन या मान्यता स्वीकार कर चुका है, तब उसने विचार किया कि मैं आजीविकोपासक सकडालपुत्र के पास जाऊँ और श्रमण निर्ग्रन्थों की मान्यता छुड़ाकर उसे फिर आजीविक-सिद्धान्त ग्रहण करवाऊं / यों विचार कर वह आजीविक संघ के साथ पोलासपुर नगर में आया, आजीविक-सभा में पहुंचा, वहां अपने पात्र, उपकरण रखे तथा कतिपय आजीविकों के साथ जहां सकडालपुत्र था, वहां गया / सकडालपुत्र द्वारा उपेक्षा 215. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलि-पुत्तं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता नो आढाइ, नो परिजाणाइ, अणाढायमाणे अपरिजाणमाणे तुसिणीए संचिट्टइ। श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक को आते हुए देखा / देखकर न उसे आदर दिया और न परिचित जैसा व्यवहार ही किया। आदर न करता हुआ, परिचित का सा व्यवहार न करता हुमा, अर्थात् उपेक्षाभावपूर्वक वह चुपचाप बैठा रहा। गोशालक द्वारा भगवान् का गुण-कीर्तन 216. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सद्दालपुत्तेणं समणोवासएणं अणाढाइज्जमाणे अपरिजाणिज्जमाणे पीढ-फलग-सिज्जा-संथारटुयाए समणस्स भगवओ महावीरस्स गुणकित्तणं करमाणे सहालपत्तं समणोबासयं एवं बयासी—आगएणं, देवाणप्पिया! इहं महामाहणे? श्रमणोपासक सकडालपुत्र से प्रादर न प्राप्त कर, उसका उपेक्षा भाव देख मंखलिपुत्र गोशालक पीठ, फलक, शय्या तथा संस्तारक आदि प्राप्त करने हेतु श्रमण भगवान् महावीर का गुण-कीर्तन करता हुआ श्रमणोपासक सकडालपुत्र से बोला--देवानुप्रिय ! क्या यहां महामाहन आए थे? 217. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मखलिपुत्तं एवं क्यासी-के णं, देवाणुप्पिया ! महामाहणे ? __ श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा--देवानुप्रिय ! कौन महामाहन ? (आपका किससे अभिप्राय है ?) 218. तए णं से गोसाले मखलिपुत्ते सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-समणे भगवं महावीरे महामाहणे। से केणठेणं, देवाणुप्पिया! एवं पुच्चइ समणे भगवं महावीरे महामाहणे ? एवं खलु, सद्दालपुत्ता ! समणे भगवं महावीरे महामाहणे उप्पन्न-णाण-दसणधरे जाव' महियपूइए जाव' तच्च-कम्म-संपया-संपउत्ते / से तेणठेणं देवाणुप्पिया ! एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे महामाहणे। आगए णं देवाणुप्पिया ! इहं महागोवे ? 1. देखें सूत्र-संख्या 188 2. देखें सूत्र-संख्या 188 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र [159 के णं, देवाणुप्पिया ! महागोवे ? समणे भगवं महावीरे महागोवे / से केणठेणं, देवाणुप्पिया ! जाब (एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे) महागोवे / एवं खलु, देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे संसाराडवोए बहवे जीवे नस्समाणे, विणस्समाणे, खज्जमाणे, छिज्जमाणे, भिज्जमाणे, लुप्पमाणे, विलुप्पमाणे, धम्ममएणं दंडेणं सारक्खमाणे, संगोवेमाणे, निव्वाण-महावाडं साहत्यिं संपावेइ / से तेणठेणं, सद्दालपुत्ता ! एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे महागोवे। आगए णं, देवाणुप्पिया ! इहं महासत्थवाहे ? के णं, देवाणुप्पिया ! महासत्थवाहे ? सदालपुत्ता ! समणे भगवं महावीरे महासत्यवाहे। से केणठेणं? एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे संसाराडवीए बहवे जीवे नस्समाणे, विणस्समाणे, जाव (खज्जमाणे, छिज्जमाणे, भिज्जमाणे, लुप्पमाणे,) विलुप्पमाणे धम्ममएणं पंथेणं सारक्खमाणे निव्वाण-महापट्टणाभिमुहे साहत्थि संपावेइ / से तेणठेणं, सद्दालपुत्ता ! एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे महासत्थवाहे। आगए णं, देवाणुप्पिया ! इहं महाधम्मकही! के णं, देवाणुप्पिया ! महाधम्मकही ? समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही। से केणठेणं समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही ? एवं खलु, देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे महइ-महालयंसि संसारंसि बहवे जीवे नस्समाणे, विणस्समाणे, खज्जमाणे, छिज्जमाणे, भिज्जमाणे, लुप्पमाणे, विलुप्पमाणे, उम्मग्गपडिवन्ने, सप्पह-विप्पणठे मिच्छत्त-बलाभिभूए, अविह-कम्म-तम-पडल-पडोच्छन्ने, बहूहिं अट्ठेहि य जाव' वागरणेहि य चाउरंताओ संसारकंताराओ साहत्थि नित्थारेइ / से तेणठेणं, देवाणुप्पिया! एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही। आगए णं, देवाणुप्पिया ! इहं महानिज्जामए ? के णं, देवाणुप्पिया ! महानिज्जामए ? समणे भगवं महावीरे महानिज्जामए / से केणठेणं? एवं खलु, देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे संसार-महा-समुद्दे बहवे जीवे नस्समाणे, विणस्समाणे जाव' विलुप्पमाणे बुड्डमाणे, निबुड्डमाणे, उप्पियमाणे धम्ममईए नावाए निव्वाणतीराभिमुहे साहत्थि संपावेइ / से तेणठेणं, देवाणुप्पिया ! एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे महानिज्जामए। ___ मंखलिपुत्र गोशालक ने श्रमणोपासक सकडालपुत्र से कहा-श्रमण भगवान् महावीर महामाहन हैं। 1. देखें सूत्र-संख्या 175 2. देखें सूत्र यही Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160] [उपासकदशांगसूत्र सकडालपुत्र-देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर को महामाहन किस अभिप्राय से कहते हो ? गोशालक-सकडालपुत्र ! श्रमण भगवान महावीर अप्रतिहत ज्ञान-दर्शन के धारक हैं, तीनों लोकों द्वारा सेवित एवं पूजित हैं, सत्कर्मसम्पत्ति से युक्त हैं, इसलिए मैं उन्हें महामाहन कहता हूं / गोशालक ने फिर कहा-क्या यहां महागोप आए थे ? सकडालपुत्र-देवानुप्रिय ! कौन महागोप ? (महागोप से आपका क्या अभिप्राय ?) गोशालक-श्रमण भगवान् महावीर महागोप हैं। सकडालपुत्र-देवानुप्रिय ! उन्हें आप किस अर्थ में महागोप कह रहे हैं ? गोशालक-देवानुप्रिय ! इस संसार रूपी भयानक वन में अनेक जीव नश्यमान हैं—सन्मार्ग से च्युत हो रहे हैं, विनश्यमान हैं-प्रतिक्षण मरण प्राप्त कर रहे हैं, खाद्यमान हैं-मृग आदि की योनि में शेर-बाघ आदि द्वारा खाए जा रहे हैं, छिद्यमान हैं-मनष्य प्रादि योनि में तलवार ग्रादि से काटे जा रहे हैं, भिद्यमान हैं-भाले आदि द्वारा बींधे जा रहे हैं, लुप्यमान हैं—जिनके कान, नासिका आदि का छेदन किया जा रहा है, विलुप्यमान हैं--जो विकलांग किए जा रहे हैं, उनका धर्म रूपी दंड से रक्षण करते हुए, संगोपन करते हुए बचाते हुए, उन्हें मोक्ष रूपी विशाल बाड़े में सहारा देकर पहुंचाते हैं / सकडालपुत्र ! इसलिए श्रमण भगवान् महावीर को मैं महागोप कहता हूं। गोशालक ने फिर कहा--देवानुप्रिय ! क्या यहाँ महासार्थवाह आए थे ? सकडालपुत्र-महासार्थवाह आप किसे कहते हैं ? गोशालक—सकाडलपुत्र ! श्रमण भगवान् महावीर महासार्थवाह हैं / सकडालपुत्र-किस प्रकार ? गोशालक--देवानुप्रिय ! इस संसार रूपी भयानक वन में बहुत से जीव नश्यमान, विनश्यमान, (खाद्यमान, छिद्यमान, भिद्यमान, लुप्यमान) एवं विलुप्यमान हैं, धर्ममय मार्ग द्वारा उनकी सुरक्षा करते हुए--धर्ममार्ग पर उन्हें आगे बढ़ाते हुए, सहारा देकर मोक्ष रूपी महानगर में पहुंचाते हैं / सकडालपुत्र ! इस अभिप्राय से मैं उन्हें महासार्थवाह कहता हूं। गोशालक--देवानुप्रिय ! क्या महाधर्मकथी यहां आए थे ? सकडालपुत्र-देवानुप्रिय ! कौन महाधर्मकथी ? (आपका किनसे अभिप्राय है ?) गोशालक-श्रमण भगवान् महावीर महाधर्मकथी हैं। सकडालपुत्र-श्रमण भगवान् महावीर महाधर्मकथी किस अर्थ में हैं ? गोशालक-देवानुप्रिय ! इस अत्यन्त विशाल संसार में बहुत से प्राणी नश्यमान, विनश्यमान, खाद्यमान, छिद्यमान, भिद्यमान, लुप्यमान हैं, विलुप्यमान हैं, उन्मार्गगामी हैं, सत्पथ से भ्रष्ट हैं, मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं, आठ प्रकार के कर्म रूपी अन्धकार-पटल के पर्दे से ढके हुए हैं, उनको अनेक प्रकार से सत तत्त्व समझाकर, विश्लेषण कर. चार-देव, मनुष्य, तिर्यञ्च, नरक गतिमय संसार रूपी भयावह वन से सहारा देकर निकालते हैं, इसलिए देवानुप्रिय ! मैं उन्हें महाधर्मकथी कहता हूं। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकलालपुत्र [161 गोशालक ने पुनः पूछा--देवानुप्रिय ! क्या यहां महानिर्यामक पाए थे ? सकडालपुत्र-देवानुप्रिय ! कौन महानिर्यामक ? गोशालक--श्रमण भगवान महावीर महानिर्यामक हैं / सकडालपुत्र-किस प्रकार ? गोशालक देवानुप्रिय ! संसार रूपी महासमुद्र में बहुत से जीव नश्यमान, विनश्यमान एवं विलुप्यमान हैं, डूब रहे हैं, गोते खा रहे हैं, बहते जा रहे हैं, उनको सहारा देकर धर्ममयी नौका द्वारा मोक्ष रूपी किनारे पर ले जाते हैं। इसलिए मैं उनको महानिर्यामक-कर्णधार या महान् खेवैया कहता हूं। विवेचन इस सूत्र में भगवान् महावीर की अनेक विशेषताओं को सूचित करने वाले कई विशेषण प्रयुक्त हुए हैं, उनमें 'महागोप' तथा 'महासार्थवाह' भी हैं / ये दोनों बड़े महत्त्वपूर्ण हैं / भगवान् महावीर का समय एक ऐसा युग था, जिसमें गोपालन का देश में बहुत प्रचार था। उस समय के बड़े गृहस्थ हजारों की संख्या में गायें रखते थे। जैसा पहले वर्णित हुआ है, गोधन जहां समृद्धि का द्योतक था, उपयोगिता और अधिक से अधिक लोगों को काम देने की दृष्टि से भी उसका महत्त्व था। ऐसे गो-प्रधान युग में गायों की देखभाल करने वाले का---गोप का-भी कम महत्त्व नहीं था। भगवान् ‘महागोप' के रूपक द्वारा यहां जो वणित हुए हैं, उसके पीछे समाज की गोपालनप्रधान वृत्ति का संकेत है। गायों को नियंत्रित रखने वाला गोप उन्हें उत्तम घास आदि : चरने के लोभ में भटकने नहीं देता, खोने नहीं देता, चरा कर उन्हें सायंकाल उनके बाड़े में पहुंचा देता है, उसी प्रकार भगवान् के भी ऐसे लोक-संरक्षक एवं कल्याणकारी रूप की परिकल्पना इसमें है, जो प्राणियों को संसार में भटकने से बचाकर मोक्ष रूप बाड़े में निर्विघ्न पहुंचा देते हैं / 'महासार्थवाह' शब्द भी अपने आप में बड़ा महत्वपूर्ण है। सार्थवाह उन दिनों उन व्यापारियों को कहा जाता था, जो दूर-दूर भू-मार्ग से या जल-मार्ग से लम्बी यात्राएं करते हुए व्यापार करते थे / वे यदि भूमार्ग से वैसी यात्राओं पर जाते तो अनेक गाड़े-गाड़ियां माल से भर कर ले जाते, जहां लाभ मिलता बेच देते, वहां दूसरा सस्ता माल भर लेते। यदि ये यात्राएं समुद्री मार्ग से होती तो जहाज ले जाते। यात्राएं काफी लम्बे समय की होती थीं, जहाज में बेचने के माल के साथ-साथ उपयोग की सारी चीजें भी रखी जाती, जैसे पीने का पानी, खाने की चीजें, औषधियां आदि / इन यात्राओं का संचालक सार्थवाह कहा जाता था। ऐसे सार्थवाह की खास विशेषता यह होती, जब वह ऐसी व्यापारिक यात्रा करना चाहता, सारे नगर में खुले रूप में घोषित करवाता, जो भी व्यापार हेतु इस यात्रा में चलना चाहे, अपने सामान के साथ गाड़े-गाड़ियों या जहाज में आ जाय, उसकी सब व्यवस्थाएं सार्थवाह की ओर से होंगी। आगे पैसे की कमी पड़ जाय तो सार्थवाह उसे भी पूरी करेगा। इससे थोड़े माल वाले छोटे व्यापारियों को बड़ी सुविधा होती, क्योंकि अकेले यात्रा करने के साधन उनके पास होते नहीं थे' Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162] [उपासकदशांगसूत्र लम्बी यात्राओं में लूट-खसोट का भी भय था, जो सार्थ में नहीं होता, क्योंकि सार्थवाह आरक्षकों का एक शस्त्र-सज्जित दल भी अपने साथ लिए रहता था। यों छोटे व्यापारी अपने अल्पतम साधनों से भी दूर-दूर व्यापार कर पाने में सहारा पा लेते / सामाजिकता की दृष्टि से वास्तव में यह परम्परा बड़ी उपयोगी और महत्त्वपूर्ण थी। इसीलिए उन दिनों सार्थवाह की बड़ी सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान था। जैन आगमों में ऐसे अनेक सार्थवाहों का वर्णन है। उदाहरणार्थ, नायाधम्मकहानो के १५वें अध्ययन में धन्य सार्थवाह का वर्णन है। जब वह चंपा से अहिच्छत्रा की व्यापारिक यात्रा करना चाहता है तो वह नगर में सार्वजनिक रूप में इसी प्रकार की घोषणा कराता है कि उसके साथ में जो भी चलना चाहे, सहर्ष चले। आचार्य हरिभद्र ने समरादित्यकथा के चौथे भव में धन नामक सार्थवाहपुत्र की ऐसी ही यात्रा की चर्चा की है, जब वह अपने निवास-स्थान सुशर्मनगर से ताम्रलिप्ति जा रहा था / उसने भी इसी प्रकार से अपनी यात्रा की घोषणा करवाई / भगवान् महावीर को 'महासार्थवाह' के रूपक से वणित करने के पीछे महासार्थवाह शब्द के साथ रहे सामाजिक सम्मान का सूचन है। जैसे महासार्थवाह सामान्य जनों को अपने साथ लिए चलता है, बहुत बड़ी व्यापारिक मंडी पर पहुंचा देता है, वैसे ही भगवान महावीर संसार में भटकते प्राणियों को मोक्ष-जो जीवन-व्यापार का अन्तिम लक्ष्य है, तक पहुंचने में सहारा देते हैं। 219. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! इयच्छेया जाव ( इयदच्छा, इयपट्ठा, ) इयनिउणा, इय-नयवादी, इय-उपएसलद्धा, इय-विण्णाण-पत्ता, पभू णं तुब्भे मम धम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं भगवया महावीरेणं सद्धि विवादं करेत्तए ? नो तिणठे समठे ! से केणढेणं, देवाणुप्पिया! एवं वच्चइ नो खलु पभू तुब्भे ममं धम्मारिएणं जाव (धम्मोवएसएणं, समणेणं भगवया) महावीरेणं सद्धि विवादं करेत्तए ? सद्दालपुत्ता ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जुगवं जाव (बलवं, अप्पायंके, थिरग्गहत्थे, पडिपुण्णपाणिपाए, पिठंतरोरुसंघायपरिणए, घनिचियवट्टपालिखंधे, लंघण-पवण-जइण-वायामसमत्थे, चम्मेद्व-दुधण-मुट्ठिय-समाहय-निचिय-गत्ते, उरस्सबलसमन्नागए, तालजमलजुयलबाहू, छए, दक्खे, पत्तो ) निउण-सिप्पोवगए एग महं अयं वा, एलयं वा, सूयरं वा, कुक्कुडं वा, तित्तिरं वा, वट्टयं वा, लावयं वा, कवोयं वा, कविजलं वा, वायसं वा, सेणयं वा हत्थंसि वा, पायंसि वा, खुरंसि वा, पुच्छंसि बा, पिच्छंसि वा, सिंगंसि वा, विसाणंसि वा, रोमंसि वा जहि जहिं गिण्हइ, तहि तहि निच्चलं निप्पंदं धरेइ / एवामेव समणे भगवं महावीरे ममं बहूहि अद्वेहि य हेऊहि य जाव ( पसिणेहि य कारणेहि य ) वागरणेहि य जहि जहि गिण्हइ तहिं तहिं निप्पट्ठ-पसिण-वागरणं करेइ / से तेण→णं, सद्दालपुत्ता ! एवं वुच्चइ नो खलु पभू अहं तव धम्मायरिएणं, जाव' महावीरेणं सद्धि विवादं करेत्तए। 1. देखें सूत्र यही Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [163 तत्पश्चात् श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा- देवानुप्रिय ! आप इतने छेक, विचक्षण (दक्ष-चतुर, प्रष्ठ–वाग्मी-वाणी के धनी), निपुण-सूक्ष्मदर्शी, नयवादी-नीतिवक्ता, उपदेशलब्ध-आप्तजनों का उपदेश प्राप्त किए हुए-बहुश्रुत, विज्ञान-प्राप्त-विशेष बोधयुक्त हैं, क्या आप मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक भगवान् महावीर के साथ तत्त्वचर्चा करने में समर्थ हैं ? गोशालक-नहीं, ऐसा संभव नहीं है / सकडालपुत्र--देवानुप्रिय ! कैसे कह रहे हैं कि आप मेरे धर्माचार्य (धर्मोपदेशक श्रमण भगवान्) महावीर के साथ तत्त्वचर्चा करने में समर्थ नहीं हैं ? गोशालक—सकडालपुत्र ! जैसे कोई बलवान्, नोरोग, उत्तम लेखक की तरह अंगुलियों की स्थिर पकड़वाला, प्रतिपूर्ण-परिपूर्ण, परिपुष्ट हाथ-पैरवाला, पीठ, पार्श्व, जंघा आदि सुगठित अंगयुक्त उत्तम संहननवाला, अत्यन्त सघन, गोलाकार तथा तालाब की पाल जैसे कन्धोंवाला, लंघन-अतिक्रमण-कूद कर लम्बी दूरी पार करना, प्लवन-ऊँचाई में कूदना प्रादि वेगपूर्वक या शीघ्रता से किए जाने वाले व्यायामों में सक्षम, ईंटों के टुकड़ों से भरे हुए चमड़े के कुपे, मुग्दर आदि द्वारा व्यायाम का अभ्यासी, मौष्टिक-चमड़े की रस्सी में पिरोए हुए मुट्ठी के परिमाण वाले गोलाकार पत्थर के टुकड़े-व्यायाम करते समय इनसे ताडित होने से जिनके अङ्ग चिह्नित हैं—यों व्यायाम द्वारा जिसकी देह सुदृढ तथा सामर्थ्यशाली है, अान्तरिक उत्साह व शक्तियुक्त, ताड़ के दो वृक्षों की तरह सुदृढ एवं दीर्घ भुजाओं वाला, सुयोग्य, दक्ष-शीघ्रकारी, प्राप्तार्थ-कर्म-निष्णात, निपुणशिल्पोपगत-शिल्प या कला की सूक्ष्मता तक पहुँचा हुआ कोई युवा पुरुष एक बड़े बकरे, मेंढे, सूअर, मुर्गे, तोतर, बटेर, लवा, कबूतर, पपीहे, कौए या बाज के पंजे, पैर, खुर, पूछ, पंख, सींग, रोम जहाँ से भी पकड़ लेता है, उसे वहीं निश्चल-गतिशून्य तथा निष्पन्द-हलन-चलन रहित कर देता है, इसी प्रकार श्रमण भगवान् महावीर मुझे अनेक प्रकार के तात्त्विक अर्थों, हेतुओं (प्रश्नों, कारणों) तथा विश्लेषणों द्वारा जहाँ-जहाँ पकड़ लेंगे, वहीं-वहीं मुझे निरुत्तर कर देंगे। सकडालपुत्र ! इसीलिए कहता हूँ कि तुम्हारे धर्माचार्य भगवान् महावीर के साथ मैं तत्त्वचर्चा करने में समर्थ नहीं हूँ। गोशालक का कुंभकारापण में आगमन 220. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलि-पुत्तं एवं वयासी–जम्हा णं देवाणुप्पिया ! तुम्भे मम धम्मायरियस्स जाव (धम्मोवएसगस्स, समणस्स भगवओ) महावीरस्स संतेहि, तच्चेहि, तहिएहि, सम्भूएहिं भावेहि गुणकित्तणं करेह, तम्हा णं अहं तुब्भे पाडिहारिएणं पीढ जाव (-फलग-सेज्जा.) संथारएणं उवनिमंतेमि, नो चेव णं धम्मोत्ति वा, तवोत्ति वा / तं गच्छह णं तुब्भे मम कुंभारावणेसु पाडिहारियं पीढ-फलग जाव (सेज्जा-संथारयं) ओगिहित्ताणं विहरह। तब श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने गोशालक मंखलिपुत्र से कहा--देवानुप्रिय ! आप मेरे धर्माचार्य (धर्मोपदेशक श्रमण भगवान्) महावीर का सत्य, यथार्थ, तथ्य तथा सद्भूत भावों से गुणकीर्तन कर रहे हैं, इसलिए मैं आपको प्रातिहारिक पीठ, (फलक, शय्या) तथा संस्तारक हेतु आमंत्रित करता हूं, धर्म या तप मानकर नहीं। आप मेरे कुंभकारापण-बर्तनों की कर्मशाला में प्रातिहारिक पीठ, फलक, (शय्या तथा संस्तारक) ग्रहण कर निवास करें। 221. तए णं से गोसाले मंखलि-पुत्ते सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स एयमलैं पडिसुणेइ, Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164] [उपासकदशांगसूत्र पडिसुणेत्ता कुभारावणेसु पाडिहारियं पीढ जाव (-फलग-सेज्जा-संथारयं ) ओगिव्हित्ताणं विहरइ / मंखलिपुत्र गोशालक ने श्रमणोपासक सकडालपुत्र का यह कथन स्वीकार किया और वह उसकी कर्म-शालाओं में प्रातिहारिक पीठ, (फलक, शय्या, संस्तारक) ग्रहण कर रह गया / निराशापूर्ण गमन 222. तए णं से गोसाले मंखलि-पुत्ते सद्दालपुत्तं समणोवासयं जाहे तो संचाएइ बहूहि आघवणाहि य पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा, ताहे संते, तंते, परितंते पोलासपुराओ नयराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवय-विहारं विहरइ / __ मंखलिपुत्र गोशालक आख्यापना-अनेक प्रकार से कहकर, प्रज्ञापना--भेदपूर्वक तत्त्व निरूपण कर, संज्ञापना-भली भांति समझा कर तथा विज्ञापना-उसके मन के अनुकूल भाषण करके भी जब श्रमणोपासक सकडालपुत्र को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित, क्षुभित तथा विपरिणामित-विपरीत परिणाम युक्त नहीं कर सका-उसके मनोभावों को बदल नहीं सका तो वह श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर पोलासपुर नगर से प्रस्थान कर अन्य जनपदों में विहार कर गया / देवकृत उपसर्ग 223. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स बहूहि सोल-जाव' भावेमाणस्स चोइस संवच्छराई वइक्कंताई / पण्णरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स पुन्व-रत्तावरत्त-काले जाव' पोसहसालाए समणस्स भगवसो महावीरस्स अंतियं धम्म-पण्णत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / तदनन्तर श्रमणोपासक सकडालपुत्र को व्रतों की उपासना द्वारा प्रात्म-भावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। जब पन्द्रहवां वर्ष चल रहा था, तब एक बार आधी रात के समय वह श्रमण भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्मप्रज्ञप्ति के अनुरूप पोषधशाला में उपासनारत था / 224. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्य पुम्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउभविस्था। ___अर्ध-रात्रि में श्रमणोपासक सकडालपुत्र के समक्ष एक देव प्रकट हुआ / 225. तए णं से देवे एगं महं नीलुप्पल जाव असि गहाय सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-जहा चुलणीपियस्स तहेव देवो उवसग्गं करेइ / नवरं एक्केक्के पुत्ते नव मंस-सोल्लए करेइ जाव कनीयसं घाएइ, घाएत्ता जाव' आयंचइ / 1. देखें सूत्र-संख्या 122 2. देखें सूत्र-संख्या 92 3. देखें सूत्र-संख्या 116 4. देखें सूत्र-संख्या 136 5. देखें सूत्र-संख्या 136 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [165 उस देव ने एक बड़ी, नीली तलवार निकाल कर श्रमणोपासक सकडालपुत्र से उसी प्रकार कहा, वैसा ही उपसर्ग किया, जैसा चुलनीपिता के साथ देव ने किया था। सकडालपुत्र के बड़े, मंझले व छोटे बेटे की हत्या की, उनका मांस व रक्त उस पर छिड़का / केवल यही अन्तर था कि यहां देव ने एक-एक पुत्र के नौ-नौ मांस-खंड किए। 226. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोबासए अभीए जाव' विहरइ / ऐसा होने पर भी श्रमणोपासक सकडालपुत्र निर्भीकतापूर्वक धर्म-ध्यान में लगा रहा / 227. तए णं से देवे सद्दालपुत्तं समणोवासयं अभीयं जाव' पासित्ता चउत्थं पि सहालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासो-हं भो! सद्दालपुत्ता ! समणोवासया ! अपत्थियपत्थिया! जाव न भंजेसि तओ जा इमा अग्गिमित्ता भारिया धम्म-सहाइया, धम्म-विइज्जिया, धम्माणुरागरत्ता, समसुह-दुक्ख-सहाइया, तं ते साओ गिहाओ नीणेमि नीणेत्ता तव अग्गओ धाएमि, घाएता नव मंससोल्लए करेमि, करे करेत्ता आदाण-भरियसि कडाहयंसि अद्दहेमि, अहहेत्ता तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचामि, जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट जाव (वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविज्जसि / उस देब ने जब श्रमणोपासक सकडालपुत्र को निर्भीक देखा, तो चौथी बार उसको कहामौत को चाहनेवाले श्रमणोपासक सकडालपुत्र ! यदि तुम अपना व्रत नहीं तोड़ते हो तो तुम्हारी धर्म-सहायिका-धार्मिक कार्यों में सहयोग करनेवाली, धर्मवैद्या-धार्मिक जीवन में शिथिलता या दोष आने पर प्रेरणा द्वारा धार्मिक स्वास्थ्य प्रदान करने वाली, अथवा धर्मद्वितीया-धर्म की संगिनीसाथिन, धर्मानुरागरक्ता-धर्म के अनुराग में रंगी हुई, समसुखदुःख-सहायिका--तुम्हारे सुख और दुःख में समान रूप से हाथ बंटाने वाली पत्नी अग्निमित्रा को घर से ले आऊंगा, लाकर तुम्हारे आगे उसकी हत्या करूगा, नौ मांस-खंड करूगा, उबलते पानी से भरी कढाही में खोलाऊंगा, खौलाकर उसके मांस और रक्त से तुम्हारे शरीर को सींचं गा, जिससे तुम प्रार्तध्यान और विकट दुःख से पीड़ित होकर (असमय में ही) प्राणों से हाथ धो बैठोगे / विवेचन इस सूत्र में अग्निमित्रा का एक विशेषण 'धम्मविइज्जिया' है, जिसका संस्कृतरूप 'धर्मवैद्या' भी है / भारतीय साहित्य का अपनी कोटि का यह अनुपम विशेषण है, सम्भवतः किन्हीं अन्यों द्वारा अप्रयुक्त भी / दैहिक जीवन में जैसे आधि, व्याधि, वेदना, पीडा, रोग आदि उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार धार्मिक जीवन में भी अस्वस्थता, रुग्णता, पीडा पा सकती है / धर्म के प्रति उत्साह में शिथिलता आना रुग्णता है, कुठा आना अस्वस्थता है, धर्म की बात अप्रिय लगना पीडा है। शरीर के रोगों को मिटाने के लिए सुयोग्य चिकित्सक चाहिए, उसी प्रकार धार्मिक आरोग्य देने के लिए भी वैसे ही कुशल व्यक्ति की आवश्यकता होती हैं / अग्निमित्रा वैसी ही कौशल-सम्पन्न 'धर्मवैद्या' थी। 1. देखें सूत्र-संख्या 89 2. देखें सूत्र-संख्या 97 3. देखें सूत्र-संख्या 107 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166] [उपासकदशांगसूत्र पत्नी से पति को सेवा, प्यार, ममता--ये सब तो प्राप्य हैं, पर आवश्यक होने पर धार्मिक प्रेरणा, आध्यात्मिक उत्साह, साधन का सम्बल प्राप्त हो सके, यह एक अनूठी बात होती है / बहुत कम पत्नियां ऐसी होंगी, जो अपने पति के जीवन में सूखते धार्मिक स्रोत को पुनः सजल बना सकें। अग्निमित्रा को यह अद्भुत विशेषता थी। अतएव उसके लिए प्रयुक्त 'धर्म-वैद्या, विशेषण अत्यन्त सार्थक है / यही कारण है, जो सकडालपुत्र तीनों बेटों की निर्मम, नृशंस हत्या के समय अविचल, अडोल रहता है, वह अग्निमित्रा की हत्या की बात सुनते ही कांप जाता है, धीरज छोड़ देता है, क्षुब्ध हो जाता है / शायद सकडालपुत्र के मन में आया हो-अग्निमित्रा का, जो मेरे धार्मिक जीवन की अनन्य सहयोगिनी ही नहीं, मेरे में आने वाली धार्मिक दुर्बलताओं को मिटाकर मुझे धर्मिष्ठ बनाए रखने में अनुपम प्रेरणादायिनी है, यों दुःखद अन्त कर दिया जाएगा? मेरे भावी जीवन में यों घोर अन्धकार छा जाएगा। 228. तए णं से सद्दालुपुत्ते समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव' विहरइ / देव द्वारा यों कहे जाने पर भी सकडालपुत्र निर्भीकतापूर्वक धर्म-ध्यान में लगा रहा। 229. तए णं से देवे सद्दालपुत्तं समणोवासयं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी-हं भो ! सद्दालपुत्ता ! समणोवासया ! तं चेव भणइ / तब उस देव ने श्रमणोपासक सकडालपुत्र को पुनः दूसरी बार, तीसरी बार वैसा ही कहा / अन्तःशुद्धि : आराधना : अन्त 230. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस तेणं देवेणं दोच्चपि तच्चंपि एवं वुत्तस्स समाणस्स अयं अज्झथिए समुप्पन्ने 4 एवं जहा चुलणीपिया तहेब चितेइ / जेणं ममं जेठे पुत्तं ममं मज्झिमयं पुत्तं, जेणं ममं कणीयसं पुत्तं जाव आयंचइ, जा वि य णं ममं इमा अग्गिमित्ता भारिया सम-सुह-दुक्खसहाइया, तं पि य इच्छइ साओ गिहाओ नोणेत्ता ममं अग्गओ घाएत्तए। तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिण्हित्तए त्ति कटु उद्घाइए। जहा चुलणीपिया तहेव सव्वं भाणियध्वं / नवरं अग्गिमित्ता भारिया कोलाहलं सुणित्ता भणई। सेसं जहा चुलणीपिया वत्तन्वया, नवरं अरुणभूए विमाणे उववन्ने जाव (चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णता) महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। निक्खेवो // सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं सत्तमं अज्झयणं समत्तं // उस देव द्वारा पुनः दूसरी बार, तीसरी बार वैसा कहे जाने पर श्रमणोपासक सकडालपूत्र के मन में चुलनीपिता की तरह विचार उत्पन्न हुआ। वह सोचने लगा-जिसने मेरे बड़े पुत्र को, मंझले पुत्र को तथा छोटे पुत्र को मारा, उनका मांस और रक्त मेरे शरीर पर छिड़का, अब मेरी सुख-दुःख में 1. देखें सूत्र-संख्या 98 2. देखें सूत्र-संख्या 136 3. एवं खलु जम्बू! समणेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्तेत्ति बेमि / Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [167 सहयोगिनी पत्नी अग्निमित्रा को घर से ले कर मेरे आगे मार देना चाहता है, मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मैं इस पुरुष को पकड़ लू। यों विचार कर वह दौड़ा। आगे की घटना चुलनीपिता की तरह ही समझनी चाहिए / सकडालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा ने कोलाहल सुना / शेष घटना चुलनीपिता की तरह ही कथनीय है। केवल इतना भेद है, सकडालपुत्र अरुणभूत विमान में उत्पन्न हुआ। (वहां उसकी आयु चार पल्योपम की बतलाई गई।) महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध-मुक्त होगा। "निक्षेप"" सातवें अंग उपासकदशा का सातवां अध्ययन समाप्त / / 1. निगमन आर्य सुधर्मा बोले-जम्ब ! सिद्धि प्राप्त भगव 1. निगमन-आर्य सुधर्मा बोले- जम्बु ! सिद्धि प्राप्त भगवान महावीर ने उपासकदशा के सातवें अध्ययन का यही अर्थ-भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन सार : संक्षेप भगवान् महावीर के समय में राजगृह उत्तर भारत का सुप्रसिद्ध नगर था। जैन वाङमय में वहचित राजा श्रेणिक, जो बौद्ध-साहित्य में बिम्बिसार नाम से प्रसिद्ध है, वहां का शासक था। राजगृह में महाशतक नाम गाथापति निवास करता था। धन, सम्पत्ति, वैभव, प्रभाव, मान-सम्मान आदि में नगर में उसका बहुत ऊंचा स्थान था। आठ करोड़ कांस्य-पात्र परिमित स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में उसके निधान में थीं, उतनी ही स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थीं और उतनी ही घर के वैभव--साज-सामान और उपकरणों में लगी थीं। पिछले सात अध्ययनों में श्रमणोपासकों का साम्पत्तिक विस्तार मुद्राओं की संख्या के रूप में आया है, महाशतक का साम्पत्तिक विस्तार स्वर्ण-मुद्राओं से भरे हुए कांस्य-पात्रों की गणना के रूप में वर्णित हुआ है। कांस्य एक मापने का पात्र था। जिनके पास विपुल सम्पत्ति होती--इतनी होती कि मद्राएं गिनने में भी श्रम माना जाता, वहां मुद्रानों की गिनती न कर मुद्राओं से भरे पात्रों की गिनती की जाती / महाशतक ऐसी ही विपुल, विशाल सम्पत्ति का स्वामी था / उसके यहाँ दस-दस हजार गायों के पाठ गोकुल थे। देश में बहु-विवाह की प्रथा भी बड़े और सम्पन्न लोगों में प्रचलित थी। सांसारिक विषयसुख के साथ-साथ संभवतः उसमें बड़प्पन के प्रदर्शन का भी भाव रहा हो / महाशतक के तेरह पत्नियां थीं, जिनमें रेवती प्रमुख थी। महाशतक की पत्नियां भी बड़े घरों की थीं। रेवती को उसके पीहर से आठ करोड स्वर्ण-मद्राएं और दस-दस हजार गायों के पाठ गोकल-व्यक्तिगत सम्पत्ति-प्रीतिदान के रूप में प्राप्त थी। शेष बारह पत्नियों को अपने-अपने पीहर से एक-एक करोड़ स्वर्णमुद्राएं और दस-दस हजार गायों का एक-एक गोकुल व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में प्राप्त था / ऐसा प्रतीत होता है कि उन दिनों बड़े लोग अपनी पुत्रियों को विशेष रूप में ऐसी संपत्ति देते थे, जो तब की सामाजिक परम्परा के अनुसार उनकी पुत्रियों के अपने अधिकार में रहती / संभव है, वह सम्पत्ति तथा गोकुल आदि उन पुत्रियों के पीहर में ही रखे रहते, जहां उनकी और वृद्धि होती रहती / इससे उन बड़े घर की पुत्रियों का अपने ससुराल में प्रभाव और रौब भी रहता / आर्थिक दृष्टि से वे स्वावलम्बी भी होतीं। संयोगवश, श्रमण भगवान् महावीर का राजगह में पदार्पण हुआ, उनके दर्शन एवं उपदेशश्रवण के लिए परिषद् जुड़ी / महाशतक इतना वैभवशाली और सांसारिक दृष्टि से अत्यन्त सुखी था, पर वह वैभव एवं सुख-विलास में खोया नहीं था / अन्य लोगों की तरह वह भी भगवान महावीर के सान्निध्य में पहुंचा। उपदेश सुना। आत्म-प्रेरणा जागी। आनन्द की तरह उसने भी श्रावक-व्रत स्वीकार किए / परिग्रह के रूप में आठ-पाठ करोड़ कांस्य-परिमित स्वर्ण-मुद्राओं की निधान आदि में रखने की मर्यादा की / गोधन को आठ गोकुलों तक सीमित रखने को संकल्प-बद्ध हुआ / अब्रह्मचर्यसेवन की सीमा तेरह पत्नियों तक रखी / लेन-देन के सन्दर्भ में भी उसने प्रतिदिन दो द्रोण-प्रमाण कांस्य-परिमित स्वर्ण-मुद्राओं तक अपने को मर्यादित किया। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : सार : संक्षेप] [169 महाशतक के साम्पत्तिक विस्तार और साधनों को देखते यह संभावित था, उसकी सम्पत्ति और बढ़ती जाती / इसलिए उसने अपनी वर्तमान सम्पत्ति तक अपने को मर्यादित किया / यद्यपि उसकी वर्तमान सम्पत्ति भी बहुत अधिक थी, पर जो भी हो, इच्छा और लालसा का सीमाकरण तो हुआ ही। . महाशतक की प्रमुख पत्नी रेवती व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में भी बहुत धनाढय थी, पर उसके मन में अर्थ और भोग की अदम्य लालसा थी। एक बार आधी रात के समय उसके मन में आया कि यदि मैं अपनी बारह सौतों की हत्या कर दू तो सहज ही उनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति पर मेरा अधिकार हो जाय और महाशतक के साथ मैं एकाकिनी मनुष्य-जीवन का विपुल विषय-सुख भोगती रहं / बड़े घर की बेटी थी, बड़े परिवार में थी, बहुत साधन थे। उसने किसी तरह अपनी इस दुर्लालसा को पूरा कर लिया। अपनी सौतों को मरवा डाला / उसका मन चाहा हो गया / वह भौतिक सुखों में लिप्त रहने लगी। जिसमें अर्थ और भोग की इतनी घृणित लिप्सा होती है, वैसे व्यक्ति में और भी दुर्व्यसन होते हैं / रेवती मांस और मदिरा में लोलुप और आसक्त रहती थी। रेवती मांस में इतनी आसक्त थी कि उसके बिना वह रह नहीं पाती थी। एक बार ऐसा संयोग हुअा, राजगृह में राजा की ओर से अमारि-घोषणा करा दी गई / प्राणि-वध निषिद्ध हो गया। रेवती के लिए बड़ी कठिनाई हुई / पर उसने एक मार्ग खोज निकाला / अपने पीहर से प्राप्त नौकरों के मार्फत उसने अपने पीहर के गोकुलों से प्रतिदिन दो-दो बछड़े मार कर अपने पास पहुंचा देने की व्यवस्था की। गुप्त रूप से ऐसा चलने लगा। रेवती की विलासी वृत्ति आगे उत्तरोत्तर बढ़ती गई। श्रमणोपासक महाशतक का जीवन एक दूसरा मोड़ लेता जा रहा था। वह व्रतों की उपासना, आराधना में आगे से आगे बढ़ रहा था / ऐसा करते चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। उसकी धार्मिक भावना ने और वेग पकड़ा / उसने अपना कौटुम्बिक और सामाजिक उत्तरदायित्व अपने बड़े पुत्र को सौंप दिया। स्वयं धर्म की आराधना में अधिकाधिक निरत रहने लगा। रेवती को यह अच्छा नहीं लगा। ___एक दिन की बात है, महाशतक पोषधशाला में धर्मोपासना में लगा था। शराब के नसे में उन्मत्त बनी रेवती लड़खड़ाती हुई, अपने बाल बिखेरे पोषधशाला में आई। उसने श्रमणोपासक महाशतक को धर्मोपासना से डिगाने की चेष्टा की। बार-बार कामोद्दीपक हावभाव दिखाए और उससे कहा-तुम्हें इस धर्माराधना से स्वर्ग ही तो मिलेगा ! स्वर्ग में इस विषय-सुख से बढ़ कर कुछ है ? धर्म की आराधना छोड़ दो, मेरे साथ मनुष्यजीवन के दुर्लभ भोग भोगो। एक विचित्र घटना थी / त्याग और भोग, विराग और राग का एक द्वन्द्व था / बड़ी विकट स्थिति यह होती है / भर्तृहरि ने कहा है "संसार में ऐसे बहुत से शूरवीर हैं, जो मद से उन्मत्त हाथियों के मस्तक को चूर-चूर कर सकते हैं, ऐसे भी योद्धा हैं, जो सिंहों को पछाड़ डालने में समर्थ हैं, किन्तु काम के दर्प का दलन करने में विरले ही पुरुष सक्षम होते हैं। तभी तक मनुष्य सन्मार्ग पर टिका रहता है, तभी तक इन्द्रियों की लज्जा को बचाए रख पाता है, तभी तक वह विनय और आचार बनाए रख सकता है, जब तक कामिनियों के भौहों Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170] [उपासकरशांगसूत्र रूपी धनुष से कानों तक खींच कर छोड़े हुए पलक रूपी नीले पंख वाले, धैर्य को विचलित कर देने वाले नयन-बाण आकर छाती पर नहीं लगते।"" महाशतक सचमुच एक योद्धा था-आत्म-बल का अप्रतिम धनी। वह कामुक स्थिति, कामोद्दीपक चेष्टाएं वे भी अपनी पत्नी की, उस स्थिरचेता साधक को जरा भी विचलित नहीं कर पाई। वह अपनी उपासना में हिमालय की तरह अचल और अडोल रहा। रेवती ने दूसरी बार, तीसरी बार फिर उसे लुभाने का प्रयत्न किया, किन्तु महाशतक पर उसका तिलमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा / वह धर्म-ध्यान में तन्मय रहा / भोग पर यह त्याग की विजय थी। रेवती अपना-सा मुह लेकर वापिस लौट गई। महाशतक का साधना-क्रम उत्तरोत्तर उन्नत एवं विकसित होता गया। उसने क्रमश: ग्यारह प्रतिमाओं की सम्यक् रूप में आराधना की / उग्र तपश्चरण एवं धर्मानुष्ठान के कारण उसका शरीर बहुत कृश हो गया। उसने सोचा, अब इस अवशेष जीवन का उपयोग सर्वथा साधना में हो जाय तो बहुत उत्तम हो / तदनुसार उसने मारणान्तिक संलेखना, आमरण अनशन स्वीकार किया, उसने अपने अापको अध्यात्म में रमा दिया / उसे अवधि-ज्ञान उत्पन्न हुआ। इधर तो यह पवित्र स्थिति थी और उधर पापिनी रेवती वासना की भीषण ज्वाला में जल रही थी। उससे रहा नहीं गया। वह फिर श्रमणोपासक महाशतक को व्रत से च्युत करने हेतु चल पड़ी, पोषधशाला में आई / बड़ा आश्चर्य है, उसके मन में इतना भी नहीं आया, वह तो पतिता है सो है, उसका पति जो इस जीवन की अन्तिम, उत्कृष्ट साधना में लगा है, उसको च्युत करने का प्रयास ऐसा अत्यन्त निन्द्य एवं जघन्य कार्य नहीं कर रही है, जिसका पाप उसे कभी शान्ति नहीं लेने देगा। असल में बात यह है, मांस और मदिरा में लोलुप व्यसनी, पापी मनुष्यों का विवेक नष्ट हो जाता है / वे नीचे गिरते जाते हैं, घोर से घोर पाप-कार्यों में फंसते जाते हैं। यही कारण है, जैन धर्म में मांस और मद्य के त्याग पर बड़ा जोर दिया जाता है। उन्हें सात कुव्यसनों में लिया गया है, जो मानव के लिए सर्वथा त्याज्य हैं। 1. मत्तेभकुम्भदलने भुवि सन्ति शूराः, केचित्प्रचण्डमृगराजवधेऽपि दक्षाः / किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसा, कन्दर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः // सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति च नरस्तावदेवेन्द्रियाणां लज्जां तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव / भ्र चापाकृष्टमुक्ताः श्रवणपथगता नीलपक्ष्माण एते, यावल्लीलावतीनां हृदि न धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति / / --शृङ्गारशतक 75-76 // 2. द्यूतमांससुरावेश्याऽऽखेटचौर्यपराङ्गनाः / / महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेद बुधः / -पद्मनन्दिपंचविंशतिका 1, 16 / जुग्रा, मांस-भक्षण, मद्य-पान, वेश्या-वामन, शिकार, चोरी तथा परस्त्री-गमन-ये महापाप रूप सात कुव्यसन हैं। बुद्धिमान् पुरुष को इनका त्याग करना चाहिए। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : सार: संक्षेप] [171 रेवती एक कुलांगना थी, राजगृह के एक सम्भ्रान्त और सम्माननीय गाथापति की पत्नी थी। पर, दुर्व्यसनों में फंसकर वह धर्म, प्रतिष्ठा, कुलीनता सब भूल जाती है और निर्लज्ज भाव से अपने साधक पति को गिराना चाहती है। ___ महाकवि कालिदास ने बड़ा सुन्दर कहा है, वास्तव में धीर वही हैं, विकारक स्थितियों की विद्यमानता के बावजूद जिनके चित्त में विकार नहीं आता / ' महाशतक वास्तव में धीर था। यही कारण है, वैसी विकारोत्पादक स्थिति भी उसके मन को विकृत नहीं कर सकी / वह उपासना में सुस्थिर रहा। __ रेवती ने दूसरी बार, तीसरी बार फिर वही कुचेष्टा की। श्रमणोपासक महाशतक, जो अब तक आत्मस्थ था, कुछ क्षुब्ध हुआ। उसने अवधिज्ञान द्वारा रेवती का भविष्य देखा और बोला-तुम सात रात के अन्दर भयानक अलसक रोग से पीडित होकर अत्यन्त दु:ख, व्यथा, वेदना और क्लेश पूर्वक मर जाओगी। मर कर प्रथम नारक भूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नरक में चौरासी हजार वर्ष की आयु वाले नैरयिक के रूप में उत्पन्न होगी। __ . रेवती ने ज्यों ही यह सुना, वह कांप गई। अब तक जो मदिरा के नशे में और भोग के उन्माद में पागल बनी थी, सहसा उसकी आंखों के आगे मौत की काली छाया नाचने लगी। उन्हीं पैरों वह वापिस लौट गई / फिर हुआ भी वैसा ही, जैसा महाशतक ने कहा था। वह सात रात में भीषण अलसक व्याधि से पीडित होकर प्रार्तध्यान और असह्य वेदना लिए मर गई, नरकगामिनी संयोग से भगवान् महावीर उस समय राजगृह में पधारे / भगवान् तो सर्वज्ञ थे, महाशतक के साथ जो कुछ घटित हुआ था, वह सब जानते थे। उन्होंने अपने प्रमुख अन्तेवासी गौतम को यह बतलाया और कहा—गौतम ! महाशतक से भूल हो गई है / अन्तिम संलेखना और अनशन स्वीकार किये हुए उपासक के लिए सत्य, यथार्थ एवं तथ्य भी यदि अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय और अमनोज्ञ हो, तो कहना कल्पनीय-धर्म-विहित नहीं है। वह किसी को ऐसा सत्य भी नहीं कहता, जिससे उसे भय, त्रास और पीडा हो। महाशतक ने अवधिज्ञान द्वारा रेवती के सामने जो सत्य भाषित किया. वह ऐसा ही था। तुम जाकर महाशतक से कहो, वह इसके लिए आलोचना-प्रतिक्रमण करे, प्रायश्चित्त स्वीकार करे / जैनदर्शन का कितना ऊंचा और गहरा चिन्तन यह है / आत्म-रत साधक के जीवन में समता, अहिंसा एवं मैत्री का भाव सर्वथा विद्यमान रहे, इससे यह प्रकट है / गौतम महाशतक के पास आए। भगवान् का सन्देश कहा / महाशतक ने सविनय शिरोधार्य किया, आलोचना-प्रायश्चित्त कर वह शुद्ध हुआ। श्रमणोपासक महाशतक आत्म-बल संजोये धर्मोपासना में उत्साह एवं उल्लास के साथ तन्मय रहा। यथासमय समाधिपूर्वक देह-त्याग किया, सौधर्मकल्प में अरुणावतंसक विमान में वह देव रूप से उत्पन्न हुना। 1. विकारहेतौ सति विक्रियन्ते, येषां न चेतांसि त एव धीराः / -कुमारसंभव सर्ग-५ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : महाशतक धमणोपासक महाशतक 231. अट्ठमस्स उक्खेवओ'। एवं खलु, जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसोले चेइए / सेणिए राया। उत्क्षेप ---उपोद्घातपूर्वक आठवें अध्ययन का प्रारम्भ यों है आर्य सुधर्मा ने कहा- जम्बू ! उस काल-वर्तमान अवसपिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय-जब भगवान महावीर सदेह विद्यमान थे, राजगृह नामक नगर था / नगर के बाहर गुणशील नामक चैत्य था / श्रेणिक वहाँ का राजा था। 232. तत्थ णं रायगिहे महासयए नाम गाहावई परिवसइ, अड्ढे, जहा आणंदो। नवरं अट्ठ हिरण्णकोडीओ सकंसाओ निहाण-पउत्ताओ, अट्ठ हिरण्ण-कोडोओ सकंसाओ वुड्डि-पउत्ताओ, अट्ठ हिरण्णकोडोओ सकंसाओ पवित्थर-पउत्ताओ, अट्ठ बया, दस-गो-साहस्सिएणं वएणं / राजगृह में महाशतक नामक गाथापति निवास करता था। वह समृद्धिशाली था, वैभव आदि में आनन्द की तरह था। केवल इतना अन्तर था, उसकी आठ करोड़ कांस्य-परिमित स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थी, पाठ करोड़ कांस्य-परिमित स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थी, आठ करोड़ कांस्य-परिमित स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव में लगी थीं। उसके आठ ब्रज-गोकुल थे / प्रत्येक गोकुल में दस-दस हजार गायें थीं। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में महाशतक की सम्पत्ति का विस्तार कांस्य-परिमित स्वर्ण-मुद्राओं में बतलाया गया है / कांस्य का अर्थ कांसी से बने एक पात्र-विशेष से है / प्राचीन काल में वस्तुओं की गिनती तथा तौल के साथ-साथ माप का भी विशेष प्रचलन था / एक विशेष परिमाण की सामग्री भीतर समा सके, वैसे माप के पात्र इस काम में लिए जाते थे। यहां कांस्य का प्राशय ऐसे ही पात्र से है। महाशतक की सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि मुद्राओं की गिनती करना भी दुःशक्य था। इसलिए स्वर्ण-मुद्राओं के भरे हुए वैसे पात्र को एक इकाई मान कर यहाँ सम्पत्ति का परिमाण बतलाया गया है। आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थों में इन प्राचीन माप-तौलों के सम्बन्ध में चर्चाएं प्राप्त होती हैं। प्राचीन काल में मागध-मान और कलिंग-मान-यह दो तरह के तौल-माप प्रचलित थे। मागधमान का अधिक प्रचलन और मान्यता थी / भावप्रकाश में इस सन्दर्भ में विस्तार से चर्चा है / वहां महर्षि चरक को आधार मानकर मागधमान का विवेचन करते हुए परमाणु से प्रारम्भ कर उत्तरोत्तर बढ़ते हुए मानों-परिमाणों की चर्चा की है / वहां बतलाया गया है-- 1. जइ णं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवासगदसाणं सत्तमस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णते, अट्ठमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अट्टे पण्णते ? 2. प्रार्य सुधर्मा से जम्बू ने पूछा--सिद्धिप्राप्त भगवान महावीर ने उपासकदशा के सातवें अध्ययन का यदि यह अर्थ-भाव प्रतिपादित किया तो भगवन ! उन्होंने पाठवें अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया ? ( कृपया कहें।) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : महाशतक] [173 ह / "तीस परमाणुओं का एक त्रसरेणु होता है। उसे वंशी भी कहा जाता है / जाली में पड़ती हुई सूर्य की किरणों में जो छोटे-छोटे सूक्ष्म रजकण दिखाई देते हैं, उनमें से प्रत्येक की संज्ञा त्रसरेणु या वंशी है / छह त्रसरेणु की एक मरीचि होती है / छह मरीचि की एक राजिका या राई होती है। तीन राई का एक सरसों, पाठ सरसों का एक जौ, चार जौ की एक रत्ती, छह रत्ती का एक मासा होता है / मासे के पर्यायवाची हेम और धानक भी हैं / चार मासे का एक शाण होता है, धरण और टंक इसके पर्यायवाची हैं / दो शाण का एक कोल होता है / उसे क्षुद्रक, वटक एवं द्रङ्क्षण भी कहा जाता है। दो कोल का एक कर्ष होता है। पाणिमानिका, अक्ष, पिचु, पाणितल, किचित्पाणि, तिन्दुक, विडालपदक, षोडशिका, करमध्य, हंसपद, सुवर्ण. कवल ग्रह तथा उदुम्बर इसके पर्यायवाची हैं / दो कर्ष का एक अर्धपल ( आधा पल ) होता है। उसे शुक्ति या अष्टमिक भी कहा जाता है। दो शुक्ति का एक पल होता है / मुष्टि, आम्र, चतुर्थिका, प्रकुच, षोडशी तथा बिल्व भी इसके नाम हैं। दो पल की एक प्रसृति होती है, उसे प्रसृत भी कहा जाता है / दो प्रसृति की एक अंजलि होती शरावक तथा अष्टमान भी उसे कहा जाता है। दो कडव की एक मानिका होती है। उसे शराव तथा अष्टपल भी कहा जाता है / दो शराव का एक प्रस्थ होता है अर्थात् प्रस्थ में 64 तोले होते हैं। पहले 64 तोले का ही सेर माना जाता था, इसलिए प्रस्थ को सेर का पर्यायवाची माना जाता है / चार प्रस्थ का एक आढक होता है, उसको भाजन, कांस्य-पात्र तथा चौसठ पल का होने से चतुःषष्टिपल भी कहा जाता है।' इसका तात्पर्य यह हुआ कि 256 तोले या 4 सेर तौल की सामग्री जिस पात्र में समा सकती थी, उसको कांस्य या कांस्यपात्र कहा जाता था / कांस्य या कांस्यपात्र का यह एक मात्र माप नहीं था। ऐसा अनुमान है कि कांस्यपात्र भी छोटे-बड़े कई प्रकार के काम में लिए जाते थे। इस सूत्र में जिस कांस्य-पात्र की चर्चा है, उसका माप यहां वर्णित भावप्रकाश के कांस्यपात्र से बड़ा था। इसी अध्याय के २३५वें सूत्र में श्रमणोपासक 1. चरकस्य मतं वैद्यराद्यैर्यस्मान्मतं ततः / विहाय सर्वमानानि मागधं मानमुच्यते / / प्रसरेणबुधैः प्रोक्तस्त्रिशता परमाणु भिः / प्रसरेणस्तू पर्यायनाम्ना वंशी निगद्यते / / जालान्तरमतः सूर्यकरवंशी विलोक्यते / षड़वंशीभिर्मरीचि: स्यात्ताभिः षडभिश्च राजिका / / तिसृभी राजिकाभिश्च सर्षपः प्रोच्यते बुधः / यवोऽष्टसर्षपैः प्रोक्तो गुजा स्यात्तच्चतुष्टयम् / / षडभिस्तु रक्तिकाभि: स्यान्माषको हेमधानको / भाषैश्चतुभिः शाणः स्याद्धरण: स निगद्यते // टङ्गः स एव कथितस्तद्वयं कोल उच्यते / क्षद्रको वटकश्चैव द्रड क्षणः स निगद्यते / / कोलद्वयन्त कर्ष: स्यात्स प्रोक्तः पाणिमानिका / अक्षः पिचः पाणितलं किञ्चित्पाणिश्च तिन्दुकम् / / विडालपदकं चैव तथा षोडशिका मता। करमध्यो हंसपदं सुवर्ण कवलग्रहः / / उदुम्बरञ्च पर्यायः कर्षमेव निगद्यते / स्यात्कर्षाभ्यामर्द्धपलं शुक्तिरष्टमिका तथा / / शूक्तिभ्याञ्च पलं ज्ञेयं मुष्टिरान चतुर्थिका / प्रकूञ्च: षोडशी बिल्वं पलमेवात्र कीर्त्यते / / पलाभ्यां प्रसूतिज्ञेया प्रसृतञ्च निगद्यते / प्रसतिभ्यामञ्जलि: स्याकूडवोऽर्द्धशरावकः / / अष्टमानञ्च सज्ञेयः कूडवाभ्याञ्च मानिका / शरावोऽष्टपलं तद्वज्ज्ञेयमत्र विचक्षण: / / शरावाभ्यां भवेत्प्रस्थश्चतुः प्रस्थस्तथाऽऽढक: / भाजनं कांस्यपात्रंच चतुः षष्टिपलश्च सः // ----भावप्रकाश, पूर्वखंड द्वितीय भाग, मानपरिभाषाप्रकरण 2-4 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174] [उपासकदशांगसूत्र महाशतक अपने दैनन्दिन लेन-देन के सम्बन्ध में एक मर्यादा करता है, जिसके अनुसार वह एक दिन में दो द्रोण-परिमाण कांस्यपरिमित स्वर्ण-मुद्राओं से अधिक का लेन-देन में उपयोग न करने को संकल्प-बद्ध होता है / इसे कुछ स्पष्ट रूप में समझ लें। ऊपर आढक तक के मान की चर्चा पाई है। भावप्रकाश में आगे बताया गया है कि चार ग्राढक का एक द्रोण होता है / उसको कलश, नल्वण, अर्मण, उन्मान, घट तथा राशि भी कहा जाता है। दो द्रोण का एक शूर्प होता है, उसको कुभ भी कहा जाता है तथा 64 शराव का होने से चतुःषप्टि शरावक भी कहा जाता है।' इसका आशय यह हुआ, जिस पात्र में दो द्रोण अर्थात् पाठ आढक या 32 प्रस्थ अर्थात् 64 तोले के सेर के हिसाब से 32 सेर तौल की वस्तुएं समा सकती थीं, वह शूर्प या कुभ कहा जाता था / इस सूत्र में आया कांस्य या कांस्यपात्र इसी शूर्प या कुभ का पर्यायवाची है। भावप्रकाशकार ने जिसे शूर्य या कुभ कहा है ठीक इसी अर्थ में यहाँ कांस्य शब्द प्रयुक्त है, क्योंकि दो द्रोण का शूर्प या कुभ होता है और यहां आए वर्णन के अनुसार दो द्रोण का वह कांस्य पात्र था। शाङ्गधरसंहिता में भी इसकी इसी रूप में चर्चा पाई है। पत्नियाँ: उनकी सम्पत्ति . 233. तस्स णं महासयगस्स रेवईपामोक्खाओ तेरस भारियाओ होत्या, अहीण जाव (पडिपुण्ण-पंचिंदियसरीराओ, लक्खण-वंजण-गुणोववेयाओ, माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्ण-सुजायसव्वंगसुन्दरंगीओ, ससि-सोमाकार-कंत-पिय-दसणाओ) सुरुवाओ। महाशतक के रेवती आदि तेरह रूपवती पत्नियां थीं। (उनके शरीर की पांचों इन्द्रियां अहीन, प्रतिपूर्ण-रचना की दृष्टि से अखंडित, संपूर्ण, अपने अपने विषयों में सक्षम थीं, वह उत्तम लक्षण -सौभाग्य सूचक हाथ की रेखाएं आदि, व्यंजन-उत्कर्ष सूचक तिल, मस ग्रादि चिह्न तथा गुण--सदाचार, पातिव्रत्य आदि से युक्त थीं, अथवा लक्षणों और व्यंजनों के गुणों से युक्त थीं। दैहिक फैलाव, वजन, ऊंचाई आदि की दृष्टि से वे परिपूर्ण, श्रेष्ठ तथा सर्वांगसुन्दर थीं / उनका आकार-स्वरूप चन्द्र के समान तथा देखने में लुभावना था, ) रूप सुन्दर था। 234. तस्स णं महासयगस्स रेवईए भारियाए कोल-घरियाओ अट्ठ हिरण्ण-कोडीओ, अट्ठ वया, दस-गो-साहस्सिएणं वएणं होत्था / अवसेसाणं दुवालसण्हं भारियाणं कोल-धरिया एगमेगा हिरण्ण-कोडी, एगमेगे व वए, दस-गो-साहस्सिएणं वएणं होत्था / महाशतक की पत्नी रेवती के पास अपने पीहर से प्राप्त पाठ करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं तथा दस 1. चभिराढोण: कलशो नल्वणोऽर्मणः / उन्मानञ्च घटो राशिद्रोणपर्यायसंज्ञितः / / शूर्पाभ्याञ्च भवेद् द्रोणी वाहो गोणी च सा स्मृता / / द्रोणाभ्यां शूर्पकुम्भौ च चतुःषष्टिशरावकः / -भावप्रकाश, पूर्वखण्ड, द्वितीय भाग, मानपरिभाषा प्रकरण 15, 16 2. शाङ्गधरसंहिता 1.1.15-29 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : महाशतक] [175 दस हजार गायों के पाठ गोकुल व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में थे। बाकी बारह पत्नियों के पास उनके पीहर से प्राप्त एक-एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं तथा दस-दस हजार गायों का एक-एक गोकुल व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में था। महाशतक द्वारा वत-साधना 235. तेणं कालेणं तेणं सभएणं सामी समोसढे / परिसा निग्गया। जहा आणंदो तहा निग्गच्छद। तहेव सावय-धम्म पडिवज्जइ। नवरं अटू हिरण्णकोडीओ सकंसाओ उच्चारेइ, अटू वया, रेवडपामोक्खाहि तेरसहि भारियाहि अवसेसं मेहणविहिं पच्चक्खाइ / सेसं सव्वं तहेव, इमं च णं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-कल्लाल्लि च णं कप्पइ मे बे-दोणियाए कंस-पाईए हिरण्ण-भरियाए संववहरितए। उस समय भगवान् महावीर का राजगृह में पदार्पण हुआ। परिषद् जुड़ी / महाशतक आनन्द की तरह भगवान् की सेवा में गया। उसी की तरह उसने श्रावक-धर्म स्वीकार किया। केवल इतना अन्तर था, महाशतक ने परिग्रह के रूप में आठ-आठ करोड़ कांस्य-परिमित स्वर्ण-मुद्राएं निधान आदि में रखने की तथा पाठ गोकुल रखने की मर्यादा की। रेवती आदि तेरह पत्नियों के सिवाय अवशेष मैथुन-सेवन का परित्याग किया। उसने बाकी सब प्रत्याख्यान आनन्द की तरह किए / केवल एक विशेष अभिग्रह लिया--एक विशेष मर्यादा और की-मैं प्रतिदिन लेन-देन में दो द्रोण-परिमाण कांस्य-परिमित स्वर्ण-मुद्राओं की सीमा रखूगा। 236. तए णं से महासयए समणोबासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव' बिहरइ / तब महाशतक, जो जीव, अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त कर चुका था, श्रमणोपासक हो गया / धार्मिक जीवन जीने लगा। 237. तए णं समणे भगवं महावीरे वहिया जणवय-विहारं विहरइ / तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर अन्य जनपदों में विहार कर गए / रेवती को दुर्लालसा 238. तण णं तीसे रेवईए गाहावइणीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्त-कालसमयंसि कुडुम्ब जाव (जागरियं जागरमाणीए) इमेयारूवे अज्झथिए'एवं खलु अहं इमासि दुवालसण्हं सवत्तीणं विधाएणं नो संचाएमि महासयएणं समणोवासएणं सद्धि उरालाई माणुस्सयाहं भोगभोगाई भुजमाणी विहरित्तए / तं सेयं खलु ममं एयाओ दुवालस वि सवत्तियाओ अग्गिप्पओगेणं वा, सत्थप्पओगेणं वा, विसप्पओगेणं वा जीवियाओ ववरोवित्ता एयासि एगमेगं हिरण्ण-कोडि, एगमेगं वयं सयमेव उबसम्पज्जित्ता णं महासयएणं समणोवासएणं सद्धि उरालाई जाव (माणुस्सयाई भोगभोगाई भुजमाणी) विहरित्तए / एवं संपेहेइ, संपेहेता तासि दुवालसण्हं सवत्तीणं अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागरमाणी विहरइ। 1. देखें सूत्र-संख्या 64 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176] [उपासकदशांगसूत्र एक दिन आधीरात के समय गाथापति महाशतक की पत्नी रेवती के मन में, जब वह अपने पारिवारिक विषयों की चिन्ता में जग रही थी, यों विचार उठा-मैं इन अपनी बारह सौतों के विघ्न के कारण अपने पति श्रमणोपासक महाशतक के साथ मनुष्य-जीवन के विपुल विषय-सुख भोग नहीं पा रही हूं। अतः मेरे लिए यही अच्छा है कि मैं इन बारह सौतों की अग्नि-प्रयोग, शस्त्र-प्रयोग या विष-प्रयोग द्वारा जान ले लू। इससे इनकी एक-एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ और एक-एक गोकुल मुझे सहज ही प्राप्त हो जायगा / मैं श्रमणोपासक महाशतक के साथ मनुष्य-जीवन के विपुल विषय-सुख भोगती रहूँगी। यों विचार कर वह अपनी बारह सौतों को मारने के लिए अनुकूल अवसर, सूनापन एवं एकान्त की टोह में रहने लगी। 239. तए णं सा रेवई गाहावइणी अन्नया कयाइ तासि दुवालसण्हं सवत्तीणं अंतरं जाणित्ता छ सवत्तीओ सत्थप्पओगेणं उद्दवेइ, उद्दवेत्ता छ सवत्तीओ विसप्पओगेणं उद्दवेइ, उद्दवेत्ता तासि दुवालसण्हं सवत्तीणं कोल-घरियं एगमेगं हिरण्ण-कोडिं, एममेगं वयं सयमेव पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता महासयएणं समणोवासएणं सद्धि उरालाई भोगभोगाई भुजमाणी विहरइ / एक दिन गाथापति की पत्नी रेवती ने अनुकल अवसर पाकर अपनी बारह सौतों में से छह को शस्त्र-प्रयोग द्वारा और छह को विष-प्रयोग द्वारा मार डाला। यों अपनी बारह सौतों को मार कर उनकी पीहर से प्राप्त एक-एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ तथा एक-एक गोकुल स्वयं प्राप्त कर लिया और वह श्रमणोपासक महाशतक के साथ विपुल भोग भोगती हुई रहने लगी। रेवती की मांस-मद्य-लोलुपता 240. तए णं सा रेवई गाहावइणी मंस-लोलुया, मंसेसु मुच्छिया, गिद्धा, गढिया, अज्झोववन्ना बहु-विहेहिं मंसेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च महुं च मेरगं च मज्जं च सीधुच पसन्नं च आसाएमाणी, विसाएमाणी, परिभाएमाणी, परिभुजेमाणी विहरइ।। गाथापति की पत्नी मांस-भक्षण में सोलुप, आसक्त, लुब्ध तथा तत्पर रहती / वह लोहे की सलाखा पर सेके हुए, घी आदि में तले हुए तथा आग पर भूने हुए बहुत प्रकार के मांस एवं सुरा, मधु, मेरक, मद्य, सीधु व प्रसन्न नामक मदिराओं का आस्वादन करती, मजा लेती, छक कर सेवन करती। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सुरा, मधु, मेरक, मद्य, सीधु तथा प्रसन्न नामक मदिरामों का उल्लेख है, जिन्हें रेवती प्रयोग में लेती थी। आयुर्वेद के ग्रन्थों में प्रसवों तथा अरिष्टों के साथ-साथ मद्यों का भी वर्णन है / वैसे पासव एवं अरिष्ट में भी कुछ मात्रा में मद्यांश होता है, पर उनका मादक द्रव्यों या मद्यों में समावेश नहीं किया जाता / मदिरा की भिन्न स्थिति है। उसमें मादक अंश अधिक मात्रा में होता है, जिसके कारण मदिरासेवी मनुष्य उन्मत्त, विवेकभ्रष्ट और पतित हो जाता है / आयुर्वेद में मद्य को आसव एवं अरिष्ट के साथ लिए जाने का मुख्य कारण उनकी निर्माणविधि की लगभग सदृशता है / वनौषधि, फल, मूल, सार, पुष्प, कांड, पत्र, त्वचा आदि को कूट-पीस कर जल के साथ मिला कर उनका घोल तैयार कर घड़े या दूसरे बर्तन में संधित कर-कपड़मिट्टी से Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : महाशतक] [177 अच्छी तरह बन्द कर, जमीन में गाड़ दिया जाता है या धूप में रक्खा जाता है / वैसे एक महीने का विधान है, पर कुछ ही दिनों में भीतर ही भीतर उकट कर उस घोल में विलक्षण गन्ध, रस, प्रभाव उत्पन्न हो जाता है / वह आसव का रूप ले लेता है। वनौषधि आदि का जल के साथ क्वाथ तैयार कर, चतुर्थांश जलीय भाग रहने पर, उसे बर्तन में संधित कर जमीन में गाड़ा जाता है या धूप में रखा जाता है / यथासमय संस्कार-निष्पन्न होकर वह अरिष्ट बन जाता है। जमीन में गाड़े हुए या धप में दिए हए द्रव से मयर-यन्त्र--बाष्प-निष्कासन-यन्त्र द्वारा जब उस का सार चना लिया जाता है, वह मद्य है / उसमें मादकता की मात्रा अत्यधिक तीव्रता लिए रहती है / मद्य के निर्माण में गुड़ या खांड तथा रांगजड़ या तत्सदृश मूल-जड़ डालना आवश्यक है। पायर्वेद के ग्रन्थों में जहाँ मदिरा के भेदों का वर्णन है, वहां प्रकारान्तर से ये नाम भी पाए हैं, जिनका इस सूत्र में संकेत है। उनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है सुरा-भावप्रकाश के अनुसार शालि व साठी धान्य की पीठी से जो मद्य तैयार होता है, उसे सुरा कहा जाता है।' __ मधु-वह मद्य, जिसके निर्माण में अन्य वस्तुओं के साथ शहद भी मिलाया जाता है। अष्टांगहृदय मैं इसे माधव मद्य कहा गया है / सुश्रुतसंहिता में इसका मध्वासव के नाम से उल्लेख है / मधु और गुड़ द्वारा इसका संधान बतलाया गया है। मेरक-पआयुर्वेद के ग्रन्थों में इसका मैरेय नाम से उल्लेख है। सुश्रुतसंहिता में इसे त्रियोनि कहा गया है अर्थात् पीठी से बनी सुरा, गुड़ से बना पासव तथा मधु इन तीनों के मेल से यह तयार होता है। मद्य-वैसे मद्य साधारणतया मदिरा का नाम है, पर यहां संभवतः यह मदिरा के मार्दीक भेद से सम्बद्ध है / सुश्रुतसंहिता के अनुसार यह द्राक्षा या मुनक्का से तैयार होता है। सीधु-भावप्रकाश में ईख के रस से बनाए जाने वाले मद्य को सीधु कहा जाता है। वह ईख के पक्के रस एवं कच्चे रस दोनों से अलग-अलग तैयार होता है। दोनों की मादकता में अन्तर होता है। 1. शालिषष्टिकपिष्टादिकृतं मद्य सुरा स्मृता / " -भावप्रकाश पूर्व खण्ड, प्रथम भाग, सन्धान वर्ग 23 / 2. मध्वासबो माक्षिकेण सन्धीयते माधवाख्यो मद्यविशेषः / -अष्टांगहृदय 5, 75 (अरुणदत्तकृत सर्वाङ्गसुन्दरा टीका)। 3. मध्वासबो मधुगुडाभ्यां सन्धानम् / -सुश्रुतसंहिता सूत्र स्थान 45, 188 (डल्हणाचार्यविरचितनिबन्धसंग्रहा व्याख्या)। 4. सुरा पैष्टी, पासवश्च गुडयोनि:, मधु च देयमिति त्रियोनित्वम् / -सुश्रुतसंहिता सूत्र स्थान 45, 190 (व्याख्या)। 5. मार्दीकं द्राक्षोद्भवम् / -सुश्रुतसंहिता सूत्र स्थान 45, 172 (व्याख्या)। 6. इक्षोः पक्वं रसैः सिद्धः सीधुः पक्वरसश्च स: / प्रामस्तैरेव यः सीधुः स च शीतरस: स्मृतः // -भावप्रकाश पूर्व खण्ड, प्रथम भाग, सन्धान वर्ग 25 / Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178] [उपासकदशांगसूत्र प्रसन्न---सुश्रुतसंहिता के अनुसार सुरा का नितरा हुआ ऊपरी स्वच्छ भाग प्रसन्न या प्रसन्ना कहा जाता है / ' अष्टांगहृदय में वारुणी का पर्याय प्रसन्ना लिखा है / तदनुसार सुरा का ऊपरी स्वच्छ भाग प्रसन्ना है। उसके नीचे का गाढ़ा भाग जगल कहा जाता है। जगल के नीचे का भाग मेदक कहा जाता है / नीचे बचे कल्क को निचोड़ने से निकला द्रव बक्कस कहा जाता जाता है / 241. तए णं रायगिहे नयरे अन्नया कयाइ घु? यावि होत्था / एक बार राजगृह नगर में अमारि-प्राणि-वध न करने को घोषणा हुई / 242. तए णं सा रेवई गाहावइणी मंस-लोलुया, मंसेसु मुच्छिया 4 कोल-घरिए पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-तुन्भे, देवाणुप्पिया! मम कोल-घरिएहितो वएहितो कल्लाल्लि दुबे-दुवे गोण-पोयए उद्दवेह, उद्दवित्ता ममं उवणेह / / गाथापति की पत्नी रेवती ने, जो मांस में लोलुप एवं आसक्त थी, अपने पीहर के नौकरों को बुलाया और उनसे कहा तुम मेरे पीहर के गोकुलों में से प्रतिदिन दो-दो बछड़े मारकर मुझे ला दिया करो / 243. तए णं ते कोल-घरिया पुरिसा रेवईए गाहावइणीए 'तहत्ति' एयमट्ट विणएणं पडिसुणंति, परिसुणित्ता रेवईए गाहावइणीए कोल-घरिएहितो वहितो कल्लाकल्लिं दुवे दुवे गोणपोयए यहेंति, वहेत्ता रेवईए गाहावइणीए उवर्णेति / पीहर के नौकरों ने गाथापति की पत्नी रेवती के कथन को 'जैसी आज्ञा' कहकर विनयपूर्वक स्वीकार किया तथा वे उसके पीहर के गोकुलों में से हर रोज सवेरे दो बछड़े लाने लगे। 244. तए णं सा रेवई गाहावइणी तेहिं गोण-मंसेहि सोल्लेहि य 4 सुरं च 6 आसाएमाणी 4 विहरइ। __गाथापति की पत्नी रेवती बछड़ों के मांस के शूलक-सलाखों पर सेके हुए टुकड़ों आदि का तथा मदिरा का लोलुप भाव से सेवन करती हुई रहने लगी। महाशतक : अध्यात्म की दिशा में 245. तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स बहूहि सोल जाव' भावमाणस्स चोइस 1. प्रसन्ना सूराया मण्ड उपर्यच्छो भागः / --सुश्रुतसंहिता सूत्रस्थान 45. 177 (व्याख्या) 2. वारुणी–प्रसन्ना। वारुण्या अधोभागो घनो जगल: / जगलस्थाधो भागो मेदकः / पानीयेन मद्यकल्कपीडनोत्पन्नो बक्कसः / -प्रष्टांगहृदय सूत्र स्थान 5, 68 (टीका)। 3. देखें सूत्र-संख्या 112 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : महाशतक] [179 संवच्छरा वइक्कंता / एवं तहेव जेटुं पुत्तं ठवेइ जाव' पोसहसालाए धम्मपण्णति उवसंपज्जिताणं विहरइ / श्रमणोपासक महाशतक को विविध प्रकार के व्रतों, नियमों द्वारा आत्मभावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए / आनन्द आदि की तरह उसने भी ज्येष्ठ पुत्र को अपनी जगह स्थापित किया-पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तदायित्व बड़े पुत्र को सौंपा तथा स्वयं पोषधशाला में धर्माराधना में निरत रहने लगा। महाशतक को डिगाने हेतु रेवती का कामुक उपक्रम 246. तए णं सा रेवई गाहावइणी मत्ता, लुलिया, विइण्णकेसी उत्तरिज्जयं विकड्डमाणी विकड्डमाणी जेणेव पोसहसाला जेणेव महासयए समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मोहुम्मायजणणाई, सिंगारियाई इथिभावाइं उवदंसेमाणी उवदंसेमाणी महासययं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो! महासयया ! समणोवासया ! धम्म-कामया ! पुग्ण-कामया! सग्ग-कामया ! मोक्खकामया! धम्म-कंखिया ! 4, धम्म-पिवासिया 4, किण्णं तुब्भ, देवाणुप्पिया! धम्मेण वा पुण्णेण वा सग्गेण वा मोक्खेण वा ? ज णं तुम मए सद्धि उरालाई जाव (माणुस्साई भोगभोगाई) भुजमाणे नो विहरसि? एक दिन गाथापति की पत्नी रेवती शराब के नशे में उन्मत्त, लड़खड़ाती हुई, बाल बिखेरे, बार-बार अपना उत्तरीय दुपट्टा या ओढना फेंकती हुई, पोषधशाला में जहाँ श्रमणोपासक महाशतक था, आई / पाकर बार-बार मोह तथा उन्माद जनक, कामोद्दीपक कटाक्ष आदि हाव भाव प्रदर्शित करती हुई श्रमणोपासक महाशतक से बोली-धर्म, पुण्य, स्वर्ग तथा मोक्ष की कामना, इच्छा एवं उत्कंठा रखनेवाले श्रमणोपासक महाशतक ! तुम मेरे साथ मनुष्य-जीवन के विपुल विषय-सुख नहीं भोगते, देवानुप्रिय! तुम धर्म, पुण्य, स्वर्ग तथा मोक्ष से क्या पाअोगे-इससे बढ़कर तुम्हें उनसे क्या मिलेगा? 247. तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए एयम8 नो आढाइ, नो परियाणाइ, अणाढाइज्जमाणे, अपरियाणमाणे, तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ / श्रमणोपासक महाशतक ने अपनी पत्नी रेवती की इस बात को कोई आदर नहीं दिया और न उस पर ध्यान ही दिया / वह मौन भाव से धर्माराधना में लगा रहा / 248. तए णं सा रेवई गाहावइणी महासययं समणोवासयं दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासीहं भो ! तं चेव भणइ सो वि तहेव जाव (रेवईए गाहावणीए एयमट्ठनो आढाइ, नो परियाणाइ) अणाढाइज्जमाणे अपरियाणमाणे विहरइ। उसकी पत्नी रेवती ने दूसरी बार तीसरी बार फिर वैसा कहा / पर वह उसी प्रकार अपनी पत्नी रेवती के कथन को आदर न देता हुआ, उस पर ध्यान न देता हुअा धर्म-ध्यान में निरत रहा / 1. देखें सूत्र-संख्या 92 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180] [उपासकदशांगसूत्र 249. तए णं सा रेवई गाहावइणी महासयएणं समणोवासएणं अणाढाइज्जमाणी, अपरियाणिज्जमाणी जामेव दिसं पाउन्भूया, तामेव दिसं पडिगया / यों श्रमणोपासक महाशतक द्वारा आदर न दिए जाने पर, ध्यान न दिए जाने पर उसकी पत्नी रेवती, जिस दिशा से आई थी उसी दिशा की ओर लौट गई। महाशतक की उत्तरोत्तर बढ़ती साधना 250. तए णं से महासयए समणोवासए पढम उवासग-पडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ पढमं अहासुत्तं जाव एक्कारसवि / श्रमणोपासक महाशतक ने पहली उपासकप्रतिमा स्वीकार की। यों पहली से लेकर क्रमश: ग्यारहवीं तक सभी प्रतिमाओं की शास्त्रोक्त विधि से आराधना की। 251. तए णं से महासयए समणोवासए तेणं उरालेणं जाव' किसे धमणिसंतए जाए / उग्र तपश्चरण से श्रमणोपासक महाशतक के शरीर में इतनी कृशता--क्षीणता आ गई कि उस पर उभरी हुई नाड़ियां दीखने लगीं। आमरण अनशन 252. तए णं तस्स महासययस्य समणोवासयस्य अन्नया कयाइ पुवरत्तावरत्त-काले धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयं अज्झथिए ४-एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं जहा आणंदो तहेव अपच्छिम-मारणंतियसंलेहणाए झसिय-सरीरे भत्त-पाण-पडियाइक्खिए कालं अणवकंखमाणे विहरइ / . एक दिन अर्द्ध रात्रि के समय धर्म-जागरण---धर्म स्मरण करते हुए आनन्द की तरह श्रमणोपासक महाशतक के मन में विचार उत्पन्न हुआ—उग्न तपश्चरण द्वारा मेरा शरीर अत्यन्त कृश हो गया है, आदि / आनन्द की तरह चिन्तन करते हुए उसने अन्तिम मारणान्तिक संलेखना स्वीकार की, खान-पान का परित्याग किया- अनशन स्वीकार किया, मृत्यु की कामना न करता हुआ, वह आराधना में लीन हो गया। अवधिज्ञान का प्रादुर्भाव 253. तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स सुभेणं अज्झवसाणेणं जाव (सुभेणं परिणामेणं, लेसाहि विसुज्झमाणीहि तदावरणिज्जाणं कम्माणं) खओवसमेणं ओहि-णाणे समपन्नेपुरस्थिसेणं लवणसमुद्दे जोयण-साहस्सियं खेत्तं जाणइ पासइ, एवं दक्खिणेणं, पच्चत्थिमेणं, उत्तरेणं जाव चुल्लहिमवंतं वासहरपव्वयं जाणइ पासइ, अहे इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चय नरय चउरासीइ-वाससहस्सटिइय जाणइ पासइ / तत्पश्चात् श्रमणोपासक महाशतक को शुभ अध्यवसाय, (शुभ परिणाम अन्तःपरिणति, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं के कारण) अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से अवधिज्ञान उत्पन्न हो 1. देखें सूत्र-संख्या 73 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : महाशतक] [181 गया। फलतः वह पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में एक-एक हजार योजन तक का लवण समुद्र का क्षेत्र, उत्तर दिशा में हिमवान् वर्षधर पर्वत तक क्षेत्र तथा अधोलोक में प्रथम नारकभूमि रत्नप्रभा में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले लोलुपाच्युतनामक नरक तक जानने देखने लगा / रेवती द्वारा पुनः असफल कुचेष्टा 254. तए णं सा रेवई गाहावइणी अन्नया कयाइ मत्त जाव (लुलिया, विष्णकेसी) उत्तरिज्जय विकट्टमाणी 2 जेणेव महासयए समणोवासए जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता महासयय तहेव भणइ जाव' दोच्चंपि तच्चपि एवं क्यासी-हं भो तहेव / तत्पश्चात् एक दिन महाशतक गाथापति की पत्नी रेवती शराब के नशे में उन्मत्त (लड़खड़ाती हुई, बाल बिखेरे) बार-बार अपना उत्तरीय फेंकती हुई पोषधशाला में, जहाँ श्रमणोपासक महाशतक था, आई / पाकर महाशतक से पहले की तरह बोली। (तुम मेरे साथ मनुष्यजीवन के विपुल विषय-सुख नहीं भोगते, देवानुप्रिय ! तुम्हें धर्म, पुण्य, स्वर्ग तथा मोक्ष से क्या मिलेगा?) उसने दूसरी बार, तीसरी बार, फिर वैसा ही कहा। महाशतक द्वारा रेवती का दुर्गतिमय भविष्य-कथन 255. तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए दोच्चंपि, तच्चंपि एवं वृत्ते समाणे आसुरत्ते 4 ओहि पउंजइ, पउंजित्ता ओहिणा आभोएइ, आमोइत्ता रेवई गाहावइणि एवं वयासी-हं भो रेवई ! अपत्थिय-पत्थिए 4 एवं खलु तुम अंतो सत्त-रत्तस्स अलसएणं वाहिणा अभिभूया समाणी अट्ट-दुहट्ट-वसट्टा असमाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अहे इसीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुए नरए चउरासोइ-वाससहस्सटिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उवजिहिसि / अपनी पत्नी रेवती द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर श्रमणोपासक महाशतक को क्रोध आ गया। उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया, प्रयोग कर उपयोग लगाया। अवधिज्ञान द्वारा जानकर उसने अपनी पत्नी रेवती से कहा-मौत को चाहने वाली रेवती! तू सात रात के अन्दर अलसक नामक रोग से पीडित होकर आत-व्यथित, दुःखित तथा विवश होती हुई आयु-काल पूरा होने पर अशान्तिपूर्वक मरकर अधोलोक में प्रथम नारकभूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक में चौरासी हजार वर्ष के अायुष्यवाले नैरयिकों में उत्पन्न होगी। __ प्रस्तुत सूत्र में अलसक रोग का उल्लेख हुआ है, जिससे पीड़ित होकर अत्यन्त कष्ट के साथ रेवती का मरण हुआ। अलसक आमाशय तथा उदर सम्बन्धी रोगों में भीषण रोग है / अष्टांगहृदय में मात्राशितीय अध्याय में इसका वर्णन है / वहां लिखा है-- "दुर्बल, मन्द अग्निवाले, मल-मूत्र आदि का वेग रोकने वाले व्यक्ति का वायु विमार्गगामी हो जाता है, वह पित्त और कफ को भी बिगाड़ देता है / वायु विकृत हो जाने से खाया हुआ अन्न 1. देखें सूत्र-संख्या 246 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] [उपासकदशांगसूत्र आमाशय के भीतर ही कफ से रुद्ध हो कर अटक जाता है, अलसीभूत-पालस्ययुक्त-गतिशून्य हो जाता है, जिससे शल्य चुभने जैसी भयानक पीड़ा उठती है, तीव्र, दुःसह शूल उत्पन्न हो जाते हैं, वमन और शौच अवरुद्ध रहते हैं, जिससे विकृत अन्न बाहर नहीं निकल पाता / अर्थात् प्रामाशय में कफरुद्ध अन्नपिण्ड जाम हो जाता है। उसे अलस या अलसक रोग कहा जाता है।" उसी प्रसंग में वहाँ दण्डकालसक की चर्चा है जो अलसक का भीषणतम रूप है, लिखा है "अत्यन्त दूषित या विकृत हुए दोष, दूषित प्राम- कच्चे रस से बंधकर देह के स्रोतों को रोक देते हैं, तिर्यगामी हो जाते हैं, सारे शरीर को दंड की तरह स्तंभित बना देते हैं-देह का फैलना-सिकुड़ना बन्द हो जाता है उसे दंडकालसक कहा जाता है / वह असाध्य है, रोगी को शीघ्र ही समाप्त कर देता है। माधवनिदान में भी अजीर्ण निदान के प्रसंग में अलसक की चर्चा है / वहां लिखा है "जिस रोग में कुक्षि या प्रामाशय बंधा सा रहे अर्थात् प्राफरा आ जाय, खिंचावट सी बनी रहे, इतनी पीड़ा हो कि आदमी कराहने लगे, पवन का वेग नीचे की ओर न चल कर ऊपर आमाशय की ओर दौड़े, शौच व अपानवायु बिलकुल रुक जाय, प्यास लगे, डकारें आएं, उसे अलसक कहते अष्टांगहृदय तथा माधवनिदान के बताए लक्षणों से स्पष्ट है कि अलसक बड़ा कष्टकर रोग है। 1. विशेषाद् दुर्बलस्याऽल्पवह वेगविधारिणः / पीडितं मारुतेनान्नं श्लेष्मणा रुद्धमन्तरा।। अलसं क्षोभित दोषः शल्यत्वेनैव संस्थितम् / शूलादीकुरुते तीवाश्छद्यतीसारवजितान / / सोऽलस: दुर्बलत्वादियुक्तस्य यन्मारुतेन विशेषादन्न पीडितमन्तराऽऽमाशयमध्य एव श्लेष्मणा रुद्धमलसीभूतं, तथा दोषः क्षोभितमाकुलितमत एवाऽतिपीडाकारित्वाच्छल्यरूपत एव स्थिते, तीव्रान् दुःसहान् शूलादीन् छादिवजितान् कुरुते / छर्घतीसाराभ्यां विसूचिकोक्ता / सोऽलससंज्ञो रोगः। दुर्बलो ह्यनुपचितधातुः, स न कदाचिदाहारं सोढुं शक्तः / अल्पाग्नेश्चाहारं सम्यङ् न जीर्य ति ! यतो वेगधारणशीलस्य प्रतिहतो वायुर्विमार्गग: पित्तकफावपि विमार्गगो कुरुत इत्येतद्विशेषेण निर्देशः / अष्टांगहृदय 7. 10, 11 टीकासहित 2. ...प्रत्यर्थदुष्टास्तु दोषा दुष्टाऽऽमबद्धखाः / यान्तस्तियक्तनुं सर्वां दण्डवत्स्तम्भयन्ति चेत् / / अष्टाङ्गहृदय 8. 12 3. कुक्षि राहन्यतेऽत्यर्थं प्रताम्येत् परिकूजति / निरुद्धो मारुतश्चैव कुक्षावपरि धावति / / वातव!निरोधश्च यस्यात्यर्थं भवेदपि / तस्यालसकमाचष्टे तृष्णोद्गारौ च यस्स तु / / माधवनिदान, अजीर्णनिदान 17, 18 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : महाशतक] [183 रेवती का दुःखमय अन्त 256. तए णं सा रेवई गाहावइणी महासयएणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणी एवं वयासी-रु? णं ममं महासयए समणोवासए होणे णं ममं महासयए समणोवासए, अवज्झाया णं अहं महासयएणं समणोवासएणं, न नज्जइ णं, अहं केण वि कुमारणं मारिज्जिस्सामि त्ति कट्ट भीया, तत्था, तसिया, उम्विग्गा, संजायभया सणियं 2 पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ओहय-जाव (मण-संकप्पा, चिता-सोग-सागर-संपविट्ठा, करयल-पल्हत्यमुहा, अट्ट-ज्माणोवगया, भूमिगय-दिट्टिया) झियाइ / श्रमणोपासक महाशतक के यों कहने पर रेवती अपने आप से कहने लगी- श्रमणोपासक महाशतक मुझ पर रुष्ट हो गया है, मेरे प्रति उसमें दुर्भावना उत्पन्न हो गई है, वह मेरा बुरा चाहता है, न मालूम मैं किस बुरी मौत से मार डालो जाऊं। यों सोचकर वह भयभीत, त्रस्त, व्यथित, उद्विग्न होकर, डरती-डरती धीरे-धीरे वहाँ से निकली, घर आई / उसके मन में उदासी छा गई, (वह चिन्ता और शोक के सागर में डूब गई, हथेली पर मुह रखे, पार्तध्यान में खोई हुई, भूमि पर दृष्टि गड़ाए) व्याकुल होकर सोच में पड़ गई / 257. तए णं सा रेवई गाहावइणी अंतो सत्तरत्तस्स अलसएणं वाहिणा अभिभूया अट्टदुहट्टवसट्टा कालमासे कालं किच्चा इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुपच्चुए नरए चउरासीइ-वास-सहस्सटिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ना / तत्पश्चात रेवती सात रात के भीतर अलसक रोग से पीड़ित हो गई। व्यथित, दुःखित तथा विवश होती हुई वह अपना आयुष्य पूरा कर प्रथम नारकभूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक में चौरासी हजार वर्ष के आयुष्य वाले नैरयिकों में नारक रूप में उत्पन्न हुई। गौतम द्वारा भगवान का प्रेरणा-सन्देश 258. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरणं जाव परिसा पडिगया। उस समय श्रमण भगवान् महावीर राजगृह में पधारे। समवसरण हुआ। परिषद् जुड़ी, धर्म-देशना सुन कर लौट गई। 259. गोयमा ! इ समणे भगवं महावीरे एवं बयासी-एवं खलु गोयमा ! इहेव रायगिहे नयरे ममं अंतेवासी महासयए नामं समणोबासए पोसह-सालाए अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणाए रसिय-सरीरे, भत्तपाण-पडियाइविखए कालं अणवकंखमाणे विहरइ। श्रमण भगवान महावीर ने गौतम को सम्बोधित कर कहा-गौतम ! यहीं राजगह नगर में मेरा अन्तेवासी-अनुयायी महाशतक नामक श्रमणोपासक पोषधशाला में अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगा हुआ, पाहार-पानी का परित्याग किए हुए मृत्यु की कामना न करता हा, धर्माराधना में निरत है। 1. देखें सूत्र-संख्या 11 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184] [उपासकदशांगसूत्र 260. तए णं तस्स महासयगस्स रेवई गाहावइणी मत्ता जाव (लुलिया, विइण्णकेसी उत्तरिज्जयं) विकडमाणी 2 जेणेव पोसहसाला, जेणेव महासयए, तेणेव उवागया, मोहुम्माय जाव (-जणणाई, सिंगारियाई इथिभावाइं उवदंसेमाणी 2 महासययं समणोवासयं) एवं क्यासी, तहेव जाव'दोच्चंपि, तच्चंपि एवं वयासी। घटना यों हुई–महाशतक की पत्नी रेवती शराब के नशे में उन्मत्त, (लड़खड़ाती हुई, बाल बिखेरे, बार-बार अपना उत्तरीय फेंकती हुई) पोषधशाला में महाशतक के पास आई। (बार-बार मोह तथा उन्माद जनक कामोद्दीपक, कटाक्ष आदि हावभाव प्रदर्शित करती हुई) श्रमणोपासक महाशतक से विषय-सुख सम्बन्धी बचन बोली / उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर वैसा ही कहा / 261. तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए दोच्चंपि तच्चंपि एवं बत्ते समाणे आसुरत्ते 4 ओहि पउंजइ, पउंजित्ता ओहिणा आभोएइ, आभोइत्ता रेवई गाहावइणि एवं वयासी-जाव' उववज्जिहिसि, नो खलु कप्पइ, गोयमा ! समणोवासगस्स अपच्छिम जाव (मारणंतिय-संलेहणा-झूसणा-) झूसिय-सरीरस्य, भत्त-पाणपडियाइक्खियस्स परो संतेहि, तच्चेहि, तहिएहि, सब्भूहि, अणि? हिं, अकतेहिं, अप्पिएहि, अमणुणेहं, अमणामेहि वागरहि वागरित्तए। तं गच्छ णं, देवाणुप्पिया ! तुमं महासययं समणोवासयं एवं वयाहि-नो खलु देवाणुप्पिया ! कप्पइ समणोवासगस्स अपच्छिम जाव (मारणंतिय-संलेहणा-असणा-झूसियस्स,) भत्त-पाण-पडियाइक्खियस्स परो संतेहिं जाव ( तच्चेहि, तहिएहि, सब्भूहि, अणि?हिं, अकतेहिं, अप्पिएहि, अमणुणेहि, अमणामेहि वागरणेहि) वागरित्तए / तुमे य णं देवाणुप्पिया ! रेवई गाहावइणी संतेहिं 4 अणि?हिं 5 वागरणेहि वागरिया। तं गं तुम एयरस ठाणस्स आलोएहि जाव जहारिहं च पायच्छित्तं पडिवज्जाहि / अपनी पत्नी रेवती द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर श्रमणोपासक महाशतक को क्रोध आ गया। उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया, प्रयोग कर उपयोग लगाया। अवधिज्ञान से जान कर रेवती से कहा-(मौत को चाहने वाली रेवती ! तू सात रात के अन्दर अलसक नामक रोग से पीडित होकर, व्यथित, दुःखित तथा विवश होती हुई, आयुकाल पूरा होने पर अशान्तिपूर्वक मर कर नीचे प्रथम नारक भूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक में चौरासी हजार वर्ष के आयुष्य वाले नैरयिकों में उत्पन्न होगी।) गौतम ! सत्य, तत्त्वरूप-यथार्थ या उपचारहित, तथ्य-अतिशयोक्ति या न्यूनोक्तिरहित, सद्भूत--जिनमें कही हुई बात सर्वथा विद्यमान हो, ऐसे वचन भी यदि अनिष्ट-जो इष्ट न हों अकान्त-जो सुनने में अकमनीय या असुन्दर हो, अप्रिय-जिन्हें सुनने से मन में अप्रीति हो, अमनोज्ञ-जिन्हें मन न बोलना चाहे, न सुनना चाहे, अमनःप्राप—जिन्हें मन न सोचना चाहे, न स्वीकार करना चाहे-ऐसे हों तो अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए उन्हें बोलना कल्पनीय-धर्मविहित नहीं है। इसलिए देवानुप्रिय ! तुम श्रमणोपासक महाशतक के पास जाओ और उसे कहो कि अन्तिम मारणान्तिक 1. देखें सूत्र-संख्या 254 2. देखें सूत्र-संख्या 255 3. देखें सूत्र-संख्या 84 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : महाशतक] [185 संलेखना की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए सत्य, (तत्त्वरूप, तथ्य, सद्भूत) वचन भी यदि अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, मन प्रतिकूल हों तो बोलना कल्पनीय नहीं है। देवानुप्रिय ! तुमने रेवती को सत्य किन्तु अनिष्ट वचन कहे। इसलिए तुम इस स्थान को-धर्म के प्रतिकूल आचरण की आलोचना करो, यथोचित प्रायश्चित्त स्वीकार करो। 262. तए णं से भगवं गोयमे समणस्य भगवओ महावीरस्स 'तहत्ति' एयमढविणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमिता रायगिह नयरं मझं-मज्झणं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव महासयगस्स समणोवासयस्स गिहे, जेणेव महासयए समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ / भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर का यह कथन 'आप ठीक फरमाते हैं यों कह कर विनयपूर्वक सुना। वे वहां से चले। राजगह नगर के बीच से गुजरे, श्रमणोपासक महाशतक के घर पहुंचे, उसके पास गए। 263. तए णं से महासयए समणोवासए भगवं गोयम एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट्ठ जाव' हियए भगवं गोयसं वंदइ नमसइ / श्रमणोपासक महाशतक ने जब भगवान् गौतम को आते देखा तो वह हर्षित एवं प्रसन्न हुआ / उन्हें वंदन-नमस्कार किया। __ 264. तए णं से भगवं गोयमे महासययं समणोवासयं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खए भासइ, पण्णवेइ, परूवेइ नो खलु कप्पइ, देवाणुप्पिया! समणोवासगस्स अपच्छिम जाव (मारणंतिय-संलेहणा-झूसणा-झूसियस्स भत्त-पाण-पडियाइ-क्खियस्स परो संतेहि, तच्चेहि, तहिएहि, सम्भूहि, अणि?हिं, अकतेहि, अप्पिएहि, अमणुर्णाह, अमणामेहि बागरणेहि) वागरित्तए। तुमे णं देवाणुप्पिया ! रेवई गाहावइणी संतेहिं जाव' वागरिया, तं गं तुम देवाणुप्पिया ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव' पडिवज्जाहि।। भगवान् गौतम ने श्रमणोपासक महाशतक से कहा--देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर ने ऐसा पाख्यात, भाषित, प्रज्ञप्त एवं प्ररूपित किया है-कहा है—(देवानुप्रिय ! अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए सत्य, तत्त्वरूप, तथ्य, सद्भूत वचन भी यदि अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ तथा मन के प्रतिकूल हों तो उन्हें बोलना कल्पनीय नहीं है ) देवानुप्रिय ! तुम अपनी पत्नी रेवती के प्रति ऐसे वचन बोले, इसलिए तुम इस स्थान की--धर्म के प्रतिकूल आचरण की आलोचना करो प्रायश्चित्त स्वीकार करो। महाशतक द्वारा प्रायश्चित्त ___265. तए णं से महासयए समणोवासए भगवओ गोयमस्स 'तहत्ति' एयमट्ट विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव' अहारिहं च पायच्छित्तं पडिवज्जइ / 1. देखें सूत्र-संख्या 12 2. देखें सूत्र-संख्या 261 3. देखें सूत्र-संख्या 84 4. देखें सूत्र-संख्या 87 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] [उपासकदशांगसूत्र तब श्रमणोपासक महाशतक ने भगवान् गौतम का कथन 'आप ठीक फरमाते हैं' कह कर विनयपूर्वक स्वीकार किया, अपनी भूल की आलोचना की, यथोचित प्रायश्चित्त किया। 266. तए णं से भगवं गोयमे महासयगस्स समणोवासयस्स अंतियाो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता रायगिहं नयरं मझ-मज्झणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागन्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरई। तत्पश्चात् भगवान् गौतम श्रमणोपासक महाशतक के पास से रवाना हुए, राजगृह नगर के बीच से गुजरे, जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आए / भगवान् को वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए धर्माराधना में लग गए। 267. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ नयराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवय-विहारं विहरइ। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर, किसी समय राजगृह नगर से प्रस्थान कर अन्य जनपदों में विहार कर गए। 268. तए णं से महासयए समणोवासए बहूहि सोल जाव भावेत्ता वीसं वासाइं समणोवासग-परियायं पाउणित्ता, एक्कारस उवासगपडिमाओ सम्मं कारण फासित्ता, मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता, सट्टि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता, आलोइय-पडिक्फते समाहिपत्ते कालमासे कालं फिच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणवडिसए विमाणे देवताए उववन्ने / चत्तारि पलिओवमाइं ठिई / महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। निक्लेवो // सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं अट्ठमं अज्मयणं समत्तं // यों श्रमणोपासक महाशतक ने अनेक विध व्रत, नियम आदि द्वारा आत्मा को भावित किया--आत्मशुद्धि की। बीस वर्ष तक श्रमणोपासक-श्रावक-धर्म का पालन किया। ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं की भली भांति आराधना की। एक मास की संलेखना और साठ भोजन-एक मास का अनशन सम्पन्न कर अालोचना, प्रतिक्रमण कर, मरणकाल आने पर समाधिपूर्वक देह-त्याग किया। वह सौधर्म देवलोक में अरुणावतंसक विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ। वहां प्रायु चार पल्योपम की है / महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध-मुक्त होगा। ॥निक्षेप / / / / सातवें अंग उपासकदशा का पाठवाँ अध्ययन समाप्त / / 1. देखें सूत्र-संख्या 122 2. एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्रमस्स अज्झयणस्स अयम; पण्णत्तेत्ति बेमि / 3. निगमन—आर्य सुधर्मा बोले-जम्बू ! सिद्धि-प्राप्त भगवान महावीर ने पाठवें अध्ययन का यही अर्थ---- भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां अध्ययन सार : संक्षेप श्रावस्ती नगरी में नन्दिनीपिता नामक एक समृद्धिशाली गाथापति था। उसकी सम्पत्ति बारह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं में थी, जिनका तीसरा भाग सुरक्षित पूजी के रूप में अलग रखा हुआ था, उतना ही व्यापार में लगा था तथा उतना ही घर के वैभव साज-सामान आदि में लगा हुआ था। उसके दस-दस हजार गायों के चार गोकुल थे। उसकी पत्नी का नाम अश्विनी था / नन्दिनीपिता एक सम्पन्न, सुखी गृहस्थ का जीवन बिता रहा था। एक सुन्दर प्रसंग बना। भगवान् महावीर श्रावस्ती में पधारे। श्रद्धालु मानव-समुदाय दर्शन के लिए उमड़ पड़ा। नन्दिनीपिता भी गया। भगवान् की धर्म-देशना सुनी। अन्तःप्रेरित हुआ। गाथापति आनन्द की तरह उसने भी श्रावक-धर्म स्वीकार किया। नन्दिनीपिता अपने व्रतमय जीवन को उत्तरोत्तर विकसित करता गया। यों चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। उसका मन धर्म में रमता गया। उसने पारिवारिक तथा सामाजिक दायित्वों से मुक्ति लेना उचित समझा। अपने स्थान पर ज्येष्ठ पुत्र को मनोनीत किया। स्वयं धर्म की आराधना में जुट गया। शुभ संयोग था, उसकी उपासना में किसी प्रकार का उपसर्ग या विघ्न नहीं हुआ। उसने बीस वर्ष तक सम्यक् रूप में श्रावक-धर्म का पालन किया। यों प्रानन्द की तरह साधनामय जीवन जीते हुए अन्त में समाधि-मरण प्राप्त कर वह सोधर्मकल्प में अरुणगव विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां अध्ययन : नन्दिनीपिता गाथापति नन्दिनीपिता 269. नवमस्स उक्खेवो' / एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नयरी। कोटुए चेइए / जियसत्तू राया। तत्थ णं सावत्थीए नयरोए नंदिणीपिया नाम गाहावई परिवसइ, अड्ढे / चत्तारि हिरण्णकोडीओ निहाण-पउत्ताओ, चत्तारि हिरण-कोडीओ वुट्टि-पउत्ताओ, चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ पवित्थर-पउत्ताओ, चत्तारि वया, दसगो-साहस्सिएणं वएणं / अस्सिणी भारिया। उत्क्षेप'-उपोद्घातपूर्वक नौवें अध्ययन का प्रारम्भ यों है जम्बू ! उस काल-वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में उस समय-जब भगवान् महावीर सदेह विद्यमान थे, श्रावस्ती नामक नगरी थी, कोष्ठक नामक चैत्य था / जितशत्रु वहाँ का राजा था / श्रावस्ती नगरी में नन्दिनीपिता नामक समृद्धिशाली गाथापति निवास करता था। उसकी चार करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रक्खी थीं, चार करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थी तथा चार करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर की साधन-सामग्री में लगी थीं। उसके चार गोकुल थे / प्रत्येक गोकुल में दस-दस हजार गायें थीं। उसकी पत्नी का नाम अश्विनी था / वत: आराधना 270. सामी समोसढे / जहा आणंदो तहेब गिहिधम्म पडिवज्जइ / सामी बहिया विहरइ। भगवान् महावीर श्रावस्ती में पधारे / समवसरण हुआ / आनन्द की तरह नन्दिनीपिता ने श्रावक-धर्म स्वीकार किया / भगवान् अन्य जनपदों में विहार कर गए / 271. तए णं से नंदिणीपिया समणोवासए जाव' विहरइ / नन्दिनीपिता श्रावक-धर्म स्वीकार कर श्रमणोपासक हो गया, धर्माराधनापूर्वक जीवन बिताने लगा। साधनामव जीवन : अवसान 272. तए णं तस्स नंदिणीपियस्स समणोवासयस्स बहूहि सीलब्जय-गुण जाव भावेमागस्स 1. जइ णं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवासगदसाणं प्रदुमस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते, नवमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अठे पण्णत्ते ? 2. प्रार्य सुधर्मा से जम्बू ने पूछा-सिद्धिप्राप्त भगवान् महावीर ने उपासकदशा के आठवें अध्ययन का यदि यह अर्थ--भाव प्रतिपादित किया तो भगवन ! उन्होंने नौवें अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया ? (कृपया कहें)। 3. देखें सूत्र-संख्या 64 4. देखें सत्र संख्या 122 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां अध्ययन : नन्दिनीपिता] [189 चोइस संवच्छराई वइक्कताई। तहेव जेठं पुत्तं ठवेइ / धम्म-पण्णति / वीसं वासाई परियागं / नाणत्तं अरुणगवे विमाणे उववाओ महाविदेहे वासे सिज्झिहिए। निक्खेवओ // सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं नवमं अज्झयणं समत्तं // तदनन्तर श्रमणोपासक नन्दिनीपिता को अनेक प्रकार से अणुव्रत, गुणवत आदि की आराधना द्वारा प्रात्मभावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए / उसने अानन्द आदि की तरह अपने ज्येष्ठ पुत्र को पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व सौंपा। स्वयं धर्मोपासना में निरत रहने लगा। नन्दिनीपिता ने बीस वर्ष तक श्रावक-धर्म का पालन किया / आनन्द आदि से इतना अन्तर है-देह-त्याग कर वह अरुणगव विमान में उत्पन्न हुा / महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध—मुक्त होगा। "निक्षेप"३ "सातवें अंग उपासकदशा का नौवां अध्ययन समाप्त / / 1. एवं खल जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं तवामस्स प्रज्झयणस्स अयमठे पण्णत्तेत्ति बेमि / 2. निगमन–प्रार्य सुधर्मा बोले-जम्बू ! सिद्धिप्राप्त भगवान् महावीर ने नौवें अध्ययन का यही अर्थ-भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंसवां अध्ययन सार : संक्षेप श्रावस्ती में सालिहीपिता नामक एक धनाढ्य तथा प्रभावशाली गाथापति था। उसकी पत्नी का नाम फाल्गुनी था। नन्दिनीपिता की तरह सालिहीपिता की सम्पत्ति भी बारह करोड़ स्वर्णमुद्रात्रों में थी, जिसका एक भाग सुरक्षित पूजी के रूप में रखा था तथा दो भाग बराबर-बराबर व्यापार एवं घर के वैभव-साज-सामान आदि में लगे थे। एक बार भगवान् महावीर का श्रावस्ती में पदार्पण हुआ / श्रद्धालु जनों में उत्साह छा गया। भगवान् के दर्शन एवं उपदेश-श्रवण हेतु वे उमड़ पड़े / सालिहीपिता भी गया। भगवान् के उपदेश से उसे अध्यात्म-प्रेरणा मिली। उसने गाथापति आनन्द की तरह श्रावक-धर्म स्वीकार किया। चौदह वर्ष के बाद उसने अपने आपको अधिकाधिक धर्माराधना में जोड़ देने के लिए अपना लौकिक उत्तरदायित्व ज्येष्ठ पुत्र को सौप दिया, स्वयं उपासना में लग गया। उसने श्रावक की 11 प्रतिमाओं की यथाविधि उपासना की। सालिही पिता की अराधना-उपासना में कोई उपसर्ग नहीं आया / अन्त में उसने समाधिमरण प्राप्त किया / सौधर्म कल्प में अरुणकील विमान में वह देव रूप में उत्पन्न हुआ। - Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां अध्ययन : सालिहीपिता मायापति सालिहीपिता 273. वसमस्स उक्लेवो'। एवं खल जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नयरी। कोट्ठए चेइए / जियसतू राया। तत्थ णं सावत्थीए नयरीए सालिहीपिया नाम गाहावई परिवसइ, अड्डे दित्ते / चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ निहाण-पउत्ताओ, चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ वडि-पउत्ताओ, चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ पवित्थर-पउत्ताओ, चत्तारि क्या, क्स-गो-साहस्सिएणं वएणं / फग्गुणी भारिया। उत्क्षेप'-उपोद्घातपूर्वक दसवें अध्ययन का प्रारम्भ यों है - जम्बू ! उस काल-वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे पारे के अन्त में, उस समय-जब भगवान् महावीर सदेह विद्यमान थे, श्रावस्ती नामक नगरी थी, कोष्ठक नामक चैत्य था / जितशत्रु वहां का राजा था। श्रावस्ती नगरी में सालिहीपिता नामक एक धनाढ्य एवं दीप्त-दीप्तिमान्-प्रभावशाली गाथापति निवास करता था / उसकी चार करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थीं, चार करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थीं तथा चार करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव –साधन-सामग्री में लगी थी। उसके चार गोकुल थे / प्रत्येक गोकुल में दस-दस हजार गायें थीं। उसकी पत्नी का नाम फाल्गुनी था। सफल साधना 274. सामी समोसढे / जहा आणंदो तहेव गिहिधम्म पडिवज्जइ / जहा कामदेवो तहा जेट्र पुत्तं ठवेत्ता पोसहसालाए समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्म- पत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / नवर निरुवसग्गाओ एक्कारस वि उवासग-पडिमाओ तहेव भाणियवाओ, एवं कामदेव-गमेणं नेयव्वं जाव सोहम्मे कप्पे अरुणकीले विमाणे देवताए उववन्ने। चत्तारि पलिओवमाई ठिई। महाविदेहे वासे सिमिहिइ। // सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दसमं अज्सयणं समत्तं // भगवान महावीर श्रावस्ती में पधारे / समवसरण हुआ / अानन्द की तरह सालिहीपिता ने श्रावक-धर्म स्वीकार किया / कामदेव की तरह उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र को पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्त्व सौंपा / भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्मशिक्षा के अनुरूप स्वयं पोषधशाला में 1. जइ णं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवासगदसाणं नवमस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते, दसमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अट्ठ पण्णत्ते ? 2. आर्य सुधर्मा से जम्बू ने पूछा-सिद्धिप्राप्त भगवान महावीर ने उपासकदशा के नवमे अध्ययन का यदि यह अर्थ-भाव प्रतिपादित किया, तो भगवन ! उन्होंने दसवें अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया ? (कृपया कहें) Sain Education International Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] [उपासकदशांगसूत्र उपासनानिरत रहने लगा। इतना ही अन्तर रहा–उसे उपासना में कोई उपसर्ग नहीं हुआ, पूर्वोक्त रूप में उसने ग्यारह श्रावक-प्रतिमाओं की निर्विघ्न आराधना की। उसका जीवन-क्रम कामदेव की तरह समझना चाहिए। देह-त्याग कर वह सौधर्म-देवलोक में अरुणकील विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ / उसकी आयुस्थिति चार पल्योपम की है / महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध-मुक्त होगा। "सातवें अंग उपासकदशा का दसवां अध्ययन समाप्त" Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार 275. दसह वि पण्णरसमे संवच्छरे वट्टमाणाणं चिता। दसह वि वीसं वासाई समणोवासय-परियाओ। उपसंहार दसों ही श्रमणोपासकों को पन्द्रहवें वर्ष में पारिवारिक, सामाजिक उत्तरदायित्व से मुक्त हो कर धर्म-साधना में निरत होने का विचार हुया / दसों ही ने बीस वर्ष तक श्रावक-धर्म का पालन किया। 276. एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव' संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते / / आर्य सुधर्मा ने कहा-जम्बू ! सिद्धिप्राप्त भगवान् महावीर ने सातवें अंग उपासकदशा के दसवें अध्ययन का यह अर्थ-भाव प्रज्ञप्त-प्रतिपादित किया / 277. उवासगदसाणं सत्तमस्स अंगस्स एगो सुय-खंधो। दस अज्झयणा एक्कसरगा, दससु चेव दिवसेसु उद्दिस्संति / तओ सुय-खंधो समुद्दिस्सइ / अणुण्णविज्जइ दोसु दिवसेसु अंगं तहेव / // उवासगदसाओ समत्ताओ // सातवें अंग उपासकदशा में एक श्रुत-स्कन्ध है / दस अध्ययन हैं। उनमें एक सरीखा स्वरपाठ-शैली है, गद्यात्मक शैली में ये ग्रथित हैं। इसका दस दिनों में उद्देश किया जाता है। तत्पश्चात् दो दिनों में समुद्देश-सूत्र को स्थिर और परिचित करने का उद्देश किया जाता है और अनुज्ञासंमति दी जाती है / इसी प्रकार अंग का सुमुद्देश और अनुमति समझना चाहिए / "उपासकदशा सूत्र समाप्त हुआ" 1. देखें सूत्र-संख्या 2 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगह-गाहाओ' वाणियगामे चंपा दुवे य बाणारसीए नयरीए / पालभिया य पुरवरी कंपिल्लपुरं च बोद्धव्वं / / 1 // पोलासं रायगिहं सावत्थीए पुरीए दोन्नि भवे / एए उवासगाणं नयरा खलु होन्ति बोद्धव्वा // 2 // सिवनंद-भद्द-सामा धन्न-बहुल-पूस-अग्गिमित्ता य / रेवइ-अस्सिणि तह फग्गुणी य भज्जाण नामाइं // 3 / / प्रोहिण्णाण-पिसाए माया वाहि-धण-उत्तरिज्जे य। भज्जा य सुब्वया दुव्वया निरुवसग्गया दोन्नि / / 4 / / अरुणे अरुणाभे खल अरुणप्पह-अरुणकत-सिदय। अरुणज्झए य छ8 भूय वडिसे गधे कीले / / 5 // चाली सट्ठी असीई सट्ठि सट्ठी य सट्ठि दस सहस्सा / असिई चत्ता चत्ता एए वइयाण य सहस्साणं / / 6 / / बारस अट्ठारस चउवीसं तिविहं अट्ररसइ नेयं / धन्नेण ति-चोव्वीसं बारस बारस य कोडीअो / / 7 / / उल्लण-दंतवण-फले अभिगणवणे सिणाणे य / वत्थ-विलेवण-पुत्फे आभरणं धूव-पेज्जाई / / 8 / / भक्खोयण-सूय-घए सागे माहुर-जेमणऽन्नपाणे य / तंबोले इगवोसं पाणंदाईण अभिग्गहा / / 9 / / उड्ढे सोहम्मपुरे लोलए अहे उत्तरे हिमवंते / पंचसए तह तिदिसिं प्रोहिण्णाणं दसगणस्स / / 10 / / दसण-वय-सामाइय-पोसह-पडिमा-प्रबंभ-सच्चित्ते / आरंभ-पेस-उद्दिट्ठ-वज्जए समणभूए य / / 11 / / इक्कारस पडिमाओ वीसं परियायो अणसणं मासे / सोहम्मे चउपलिया महाविदेहम्मि सिज्झिहिइ / / 12 / / उवासगदसायो समत्तानो 1. ये माथाएं प्रस्तुत ग्रन्थ के मूल पाठ का भाग नहीं हैं। ये पूर्वाचार्यकृत गाथाएं हैं, जिनमें ग्रन्थ का संक्षिप्त . परिचय है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रह-गाथाओं का विवरण प्रस्तुत सूत्र में वर्णित उपासक निम्नांकित नगरों में हुए--- / / / श्रमणोपासक अानन्द कामदेव चुलनीपिता सुरादेव चुल्लशतक कुडकौलिक सकडालपुत्र महाशतक नन्दिनीपिता सालिहीपिता / / / / / / नगर वाणिज्यग्राम चम्पा वाराणसी वाराणसी पालभिका काम्पिल्यपुर पोलासपुर राजगृह श्रावस्ती श्रावस्ती श्रमणोपासकों की भार्याओं के नाम निम्नांकित थे--- भार्या शिवनन्दा भद्रा श्रमणोपासक प्रानन्द कामदेव चुलनीपिता सुरादेव चुल्लशतक कुडकौलिक सकडालपुत्र महाशतक नन्दिनीपिता सालिहीपिता / / / / / / / / / श्यामा धन्या बहुला पूषा अग्निमित्रा रेवती प्रादि तेरह अश्विनी फाल्गुनी श्रमणोपासकों के जीवन की विशेष घटनाएं निम्नांकित थीं विशेष घटना अवधिज्ञान के विस्तार के सम्बन्ध में गौतम स्वामी का संशय, भगवान् महावीर द्वारा समाधान। पिशाच आदि के रूप में देवोपसर्ग, श्रमणोपासक की अन्त तक दृढता। श्रमणोपासक आनन्द कामदेव Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उपासकवांगसूत्र 196] चुलनीपिता सुरादेव चुल्लशतक कुडकौलिक देव द्वारा मातृवध की धमकी से व्रत-भंग, प्रायश्चित्त। देव द्वारा सोलह भयंकर रोग उत्पन्न कर देने की धमकी से व्रत-भंग, प्रायश्चित्त / देव द्वारा स्वर्ण-मुद्राएं आदि सम्पत्ति बिखेर देने की धमकी से व्रत-भंग, प्रायश्चित्त / देव द्वारा उत्तरीय एवं अंगूठी उठा कर गोशालक मत की प्रशंसा, कुडकौलिक की दृढता, नियतिवाद का खण्डन, देव का निरुत्तर होना। व्रतशील पत्नी अग्निमित्रा द्वारा भग्न-व्रत पति को पुनः धर्म स्थित करना। व्रत-हीन रेवती का उपसर्ग, कामोद्दीपक व्यवहार, महाशतक की अविचलता / व्रताराधना में कोई उपसर्ग नहीं हुआ। व्रताराधना में कोई उपसर्ग नहीं हुआ। श्रमणोपासक देह त्याग कर निम्नांकित विमानों में उत्पन्न हुए विमान सकडालपुत्र महाशतक नन्दिनीपिता सालिहीपिता श्रमणोपासक आनन्द कामदेव चुलनीपिता सुरादेव चुल्लशतक कुडलौलिक सकडालपुत्र महाशतक नन्दिनीपिता सालिहीपिता अरुण अरुणाभ अरुणप्रभ अरुणाकान्त अरुणश्रेष्ठ अरुणध्वज अरुणभूत अरुणावतंस अरुणगव अरुणकील श्रमणोपासकों के गोधन की संख्या निम्नांकित रूप में थी गायों की संख्या हजार श्रमणोपासक आनन्द कामदेव चुलनीपिता सुरादेव चुल्लशतक Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रह-मायाओं का विवरण] [197 कुडकौलिक 60 हजार सकडालपुत्र महाशतक नन्दिनीपिता सालिहीपिता श्रमणोपासकों की सम्पत्ति निम्नांकित स्वर्ण-मुद्रामों में थीश्रमणोपासक स्वर्ण-मुद्राएं प्रानन्द 12 करोड़ कामदेव चुलनीपिता सुरादेव चुल्लशतक कुडकौलिक सकडालपुत्र महाशतक कांस्य-परिमित नन्दिनीपिता सालिहीपिता आनन्द आदि श्रमणोपासकों ने निम्नांकित 21 बातों में मर्यादा की थी 1. शरीर पोंछने का तौलिया, 2. दतौन, 3. केश एवं देह-शुद्धि के लिए फल-प्रयोग, 4. मालिश के तैल, 5. उबटन, 6. स्नान के लिए पानी, 7 पहनने के वस्त्र, 8. विलेपन, 9. पुष्प, 10. आभूषण, 11. धूप, 12. पेय, 13. भक्ष्य-मिठाई, 14. अोदन-चावल, 15. सूप-दालें, 16. घृत, 17. शाक, 18. माधुरक--मधु पेय, 19. व्यंजन-दहीबड़े, पकोड़े आदि, 20. पीने का पानी, 21. मुखवास--पान तथा उसमें डाले जाने वाले सुगन्धित मसाले / इन दस श्रमणोपासकों में आनन्द तथा महाशतक को अवधि-ज्ञान प्राप्त हुआ, जिसकी मर्यादा या विस्तार निम्नांकित रूप में थाआनन्द -पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में लवण समुद्र में पांच-पांच सौ योजन तक, उत्तर दिशा में चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत तक, ऊर्ध्व-दिशा में सौधर्म देवलोक तक, अधोदिशा में प्रथम नारक भूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक स्थान तक / महाशतक--पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में लवण-समुद्र में एक-एक हजार योजन तक, उत्तर दिशा में चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत तक, अधोदिशा में प्रथम नारक भूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक स्थान तक / ' प्रत्येक श्रमणोपासक ने 11-11 प्रतिमाएं स्वीकार की थां, जो निम्नांकित हैं--- / / / / / / / / / / 12 // / 1. महाशतक के अवधिज्ञान के विस्तार का गाथा में उल्लेख नहीं है। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] [उपासकदशांगसूत्र 1. दर्शन-प्रतिमा, 2. व्रत-प्रतिमा, 3. सामायिक प्रतिमा, 4. पोषध-प्रतिमा, 5. कायोत्सर्गप्रतिमा, 6. ब्रह्मचर्य-प्रतिमा, 7. सचित्ताहार-वर्जन-प्रतिमा, 8. स्वयं प्रारम्भ-वर्जन-प्रतिमा, 9. भृतक-प्रेष्यारम्भ-वर्जन-प्रतिमा, 10. उद्दिष्ट-भक्त-वर्जन-प्रतिमा, 11. श्रमणभूत-प्रतिमा। इन सभी श्रमणोपासकों ने 20-20 वर्ष तक श्रावक-धर्म का पालन किया, अन्त में एक महीने की संलेखना तथा अनशन द्वारा देह-त्याग किया, सौधर्म देवलोक में चार-चार पल्योपम की आयु वाले देवों के रूप में उत्पन्न हुए / देव-भव के अनन्तर सभी महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होंगे, मोक्ष-लाभ करेंगे। / उपाशकदशा समाप्त / / Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1 : शब्दसूची शब्द सूत्र शब्द प्रइक्कम 47,49, 50, 56 / अइदूर 59, 208 अज्जुण 94 अइभार 45 अज्झत्थिय 66, 73, 80, 136, 154, 163, अइयार 44-57 188, 193, 230, 238, 252 अइरित्त अज्झयण 124, 150, 157, 276, 277, अइवाय 13, 45 अज्भवसाण 74, 253 प्रकत 261 अज्झोववन्न 240 अकरणया 53 अंजण 107 अकाल 95, 102, 107, 127, 133, 160 अट्ट 95, 102, 107, 127, 133, 160, अक्खुभिय 227, 255, 257 अगरु 29, 32 अट्टहास 95 अग्ग 94, 95, 101 अट्टय अम्गो 130, 132, 133, 136, 227, 230 अट्ठ (अथ) 67,86, 87, 218, 221, अग्गहत्थ 243, 247 अग्गजीह 95 अट्ठ (अष्ट) 27, 125, 232, 234, 235 अग्गि 238 अट्टम 71, 231 अग्गिमित्ता 183, 200, 204, 205, 208, 210, 211, 227, 230 अड 77, 78, 79 अंग (देह का भाग) 101 अडवी 218 अंग (जैन आगम) 2, 117, 175, 277 अङ्क 3,8,125, 150, 157, 232, 273 अंगुली 94 अणगार प्रचलिय 96 अणगारिय अचवल 77, 78 अणंग 48 अच्चणिज्ज 187 अणट्ठ 43, 52 अच्चासन्न 208 अणणपालणया अच्छ अणंतर 14-57,90 Vअच्छि 94 अणभिप्रोग्र 81 अच्छिद 200 प्रणवक्खमाण 73, 79,259 अजीव 44, 64, 213, 236 अणवट्टिय अज्ज (अद्य) 58, 68, 95, 97, 102, अणसण 89, 122, 268 107, 127, 132, 133 अणागय 187 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200] [उपासकदराांगसूत्र अन्न 6 our शब्द अणागलिय 107 अधर अणाढाइज्जमाण 216, 249 58, 111, 175, 184 प्रणाढायमाण 215 अन्नत्थ अणारिय 136, 145, 163 अन्नमन्न प्रणालत्त 58 अन्नया 63, 66, 73, 74, 88, 120, अणिक्खित्त 166, 185, 195, 241, 267 अणि? __ अपच्छिम 73, 79, 252, 259, 261 अणियय 168,169, 171 अपत्थिय 95, 97,132, 133, 142 अणुट्ठाण 169, 170, 171 अपरिग्गहिय 48 अणुप्पदा 58 अपरिजाणमाण 215 अणुप्पविस 111,262 अपरिजाणिज्जमाण अणुभाव अपरिभूय 3,8,125 अणुरत्त अपरियाण 247, 248 अणुराग 181,227 र 169, 170, 171, 198, 199 54 अणुवाय अप्प 10, 114, 190, 208 अणव्विग्ग असण अप्पउलिन अप्पडिलेहि अण्ह 55 175, 185, 192 अप्पमज्जिय प्रतत्थ अप्पाण 66, 76, 89,181 अंत 179 अप्पिय 261 अंतरा 66, 223 अप्फोडत अंतरद्धा अब्भक्खाण अंतलिक्ख 41, 111,168, 187, 192 अब्भंगण अंतिय 12, 13, 58,61, 78,86, 192, अब्भणुण्णाय 77, 78, 86 202, 204, 211, 223 अब्भुग्गय 101 अतुरिय 77, 78 अभियोग अंतेवासि 79, 259 अभिगज्जंत 95 अंतो 195, 255, 257 अभिगय 44, 64, 181, 213 अस्थि 73, 83,84, 85, 168, 169, अभिगिण्ह 58, 235 171, 192 /अभिग्गह 58, 235 अत्थेगइय 62, 89, 122 अभिभूय 218, 255, 257 अदिण्णादाण 15, 47 अभिमुह 218 अदूर अभिरुइय अद्दह 127, 130, 133, 227 अभिरूव 184 अभिलास 48 58 , प्रद Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शन्द सूत्र 6 अयं परिशिष्ट 1: शब्दसूची] [201 सूत्र शब्द अभिवंद अवज्झाय अभिसमण्णागय 111,169, 170,171 अवदालिय अभीय 96, 98, 103, 108, 116, अवर 66, 93, 126, 166, 175, 185, 139, 226, 228 192, 223, 224, 238, 252 प्रमणाम 261 अवसेस 16-42, 234, 235 अमणुण्ण 261 अवहर 200 अमाघाय 41 अवि अम्मगा 147 अवितह अम्मया 38 अविरत्त अम्मा 138 असई अय (अयस्) 94 असण 58, 66, 68 अय (अज) 219 असद्दहमाण 2, 73, 80,191,181, 230 असंभंत 77, 78, 96 252, 276 असमाहिपत्त 255 अयसी . असि 95,99, 116, 127,138, 151 अया असुर 187 असोग अरहा 166, 175, 185, 192 अस्सिणी अरुण 269 अरुणकंत 12, 66, 73, 81,86, 95, 102, अरुणकील 274 107, 111, 127, 132, 133,139 अरुणगव अहड 272 अरुणज्य अहरी अरुणप्पभ अहा 12,56, 70, 77,79, 210, 250 अरुणभूय अहिगरण 52 अरुणडिसय अहिज्जमाण 117 अरुणसिट्ठ Vअहियास (अभि-वासय्) 100, 106, 141 164 अरुणाभ अहियास (अधिवास) अलंकिय 59, 190, 208 अहीण 6, 233 अलंब . 101 अहे 74, 102, 105,253 अलसय 255, 257 अहो (अधः, समास में) अलिजरय 184 अहो (आमन्त्रण के अर्थ में) 111, 136, 163 अल्ल 23 Vाइक्ख 79,111, 264 अल्लीण 101 आउक्खय 90, 123 अवगासिय 54 पाउसो अवज्माण 43 प्रायोस 95 101 187 अहं 94 >> 200 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उपासकवांगसूत्र 202] सूत्र सूत्र शब्द प्रायव प्राकार 10, 190 प्रागच्छ 188. आयाहिण 70,71 86 Vाराह प्रागमण आगय 86, 216, 218 अाराहणा आगर 107 प्रारोह 197 आलंबण प्रागार प्रागास 136, 145, 154 पालभिया 157, 160, 163 आघवणा 222 Vालव आजीवियोवासग 182, 183, 184, 186, / आलोय 84-87,89, 261, 264,265 188, 191, 194, 203 प्रावण 184, 193, 194,220, 211 आजीवियोवासय 181, 185, 187, 190, पावरणिज्ज 74 57 - आसंसा 192, 193, 195-202, 204 आजीविय पासण 181, 214 आडोव 107 असाइय 145, 154 Vाढा 215, 247 आसाएमाणी 240,244 आणत्तिय 206 आसी 197 पाणंद 2, 3, 5, 10, 12, 58, 62, 204, प्रासुरत्त 95, 99, 105, 109, 116 232, 252, 270, 274 130,138, 255, 261 प्राणवण पाहय प्राणामिय 195 आदाण (आदान) 15, 47, 51 आहार (आधार) आदाण (आर्द्रहण) 127, 130, 133 आहार (आहार) आदिय (प्रा-दा) 58, 119, 177 इ (इति) 44,86, 117, 168, 169, पादिय (आदिक) 29, 32 175, 192, 199, 200, 259 प्राधार 66 इ (अपि, चित्त) 63, 66, 73, 74, 88, Vापुच्छ 5,68, 69, 62 120, 185, 195, 112, प्राभरण 10, 31, 190, 208 238,241, 252, 254, 267 Vाभोय 255, 261 इइ Vामंत 117, 175 इंगाल प्रामलय 24 - इच्छ 77, 136, 154, 163, 202 प्रायंक 152, 154, 156 इच्छा 17 Vायंच 127, 130, 133, 136, 140, 151, इच्छिय 12, 58 154, 158, 163, 225, 227, 230 इट्ट आयरिय (आचरित) 43 इड्डि 111, 169,170, 171 आयरिय (प्राचार्य) 73, 188, 219, 220 इत्तरिय 48 200 101 ग्राहयय Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इम इव 78 परिशिष्ट 1 : शब्दसूची] [203 शब्द सूत्र शब्द . सूत्र इदाणि 66 उत्तर 3, 7, 74, 253 इंदभूई उत्तरिज्ज 58, 94, 133, 136, 142, उत्तरिज्जग 154, 163, 169, 230, 235 उत्तरिज्जय 172, 246, 254 इमेयारूव 66, 136, 188, 193 उत्थिय 58, 175 102 उदग 27 इह 44, 57, 86, 188, 216, 259 उदग्ग इहलोग 57 उदय 41, 197 ईरिया उदर 101 ईसर Vउद्दव 239, 242 उक्कड 107 उदाहु 86, 169, 198 उक्खेव 124, 157, 269, 273 उप्पइय 136, 145, 154 उक्खेवन 150, 165, 231 उप्पन्न 187, 188, 193 उग्ग (उग्र) 76, 107 उप्पल 95, 99, 116 127, 138, 206 उग्ग (प्रारक्षक अधिकारी) 210 उप्पियमाण 218 Vउग्गाह 77 उम्मन्ग 218 उच्च 78 उम्माय 246 Vउच्चार (उच्चर-उच्चारण) 141, 235 उर - 94, 107, 109 उच्चार (उच्चार) 55, 69 उरब्भ 94 उच्चावय 72, 76, 81, 238, 239, 246 उच्छूढ 76 उल्लणिया उज्जल 100, 106, 141 उवएस 43, 46, 219 उज्जाण 157, 165, 180, 190, 208 / उवएसय 73, 219 उज्जुग 206 /उवकर उज्जोवेमाण 111 /उवक्खड़ Vउज्झ 95 उवगय 69,96, 97,98, 219, 249 उट्ट उवचिय 94, 95 उट्टिय 27 ।उवट्ठव 206 उट्टिया 94, 184, 197 Vउवण उ8 (ोष्ठ) 94 Vउवदंसेमाण 246 Vउट्ठ (उत्था) 193 /उवनिमंत 187, 188, 193, 220 उट्टाण 73, 168, 169, 171, उवभोग 22, 51, 52 198, 199, 200 उवमा 62, 94, 156 उड 111, 208 /उववज्ज 62, 90, 255 उड्ड 50,74, 102, 105 उववन्न 89, 122, 156, 164 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204] [उपासकदशांगसूत्र 58 107 सूत्र शब्द सूत्र 230, 257, 268, 274 84, 85, 86, 92 उववाग्र 272 एसण उववास एसणिज्ज उववेय 206 ओरगहियय 206 उवसग्ग 112, 116, 117, 146, 156, 225 /ोगिण्ह 220, 221 उवसंपज्ज 66, 69, 70, 92, 121, प्रोदण 125, 148 प्रोसह उब्वट्टण 26 अोसहि Vउवागच्छ 10, 58, 69, 77, 78, 80, 82, ओहह्य 256 86,92,95, 102, 107, 137, 256 74, 83, 253, 255, 261 उवासग 70, 71, 121, 250, 268 क 2, 86, 90, 91, 123, 164, 169 उवासगदसा 2, 276, 277 196, 198, 200, 217 उद्विग्ग 218, 219, 256 कइवय Vउव्विह 214 102, 105 कक्कस उस्सेह कंखा कंखिय Vए (इयत् अथवा एवम्, समास में) 84 86, 95, 246 कज्ज 5, 68, 125 81,187 एक्क 16, 182 एक्कसरग कट्ट 277 एक्कारस 89, 122, 179, 250, 268, 274 कडाहय 127, 130, 133, 227 एक्कारसम 71,148 कडिल्ल एक्केक्क 225 कणग 76, 206 एग 22, 23, 24,93,126, कणीयस 132, 136, 145, 151, 163, 186, 192, 204 225, 230 एगमेग 234, 238, 239 कण्ण एगयानो 197 कण्णपूर Vएज्ज 215, 263 कण्णजय एत्थ 7, 201 कत्तर एय 67, 86, 87, 111, 118, 194 कतार 58, 218 एयारूव 72, 80, 94, 163, 169 कंदप्प एलय 219 कप्प (कल्प-विधि या मर्यादा)। 219 कप्प (कल्प-देवलोक) 62, 74, 89, 122, 2, 10, 12, 44, 58, 59, 62, 66, 149, 156, 179, 268, 274 68, 73, 74, 77, 79, 80, 81, 83, कल्प (क्लप्) 58, 95, 235, 261, 264 9F कंचण एवं एव Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1 : शन्दसूची] [205 -- सूत्र काय 137 सूत्र शब्द कभल्ल कामय 95, 246 कम्म 43, 51,72, 73, 74, 76, 84 53, 70, 107, 109 85, 193, 218 कार कम्पिल्लपुर कारण 175 कंबल 58 कारिया 133, 136 कय 5, 111, 136 काल 1,2,3,9,56, 66, 73, 75, 76, 89, कयत्थ 116, 122, 126, 173, 252, 255, /कर (कृ) 10, 16-42, 99, 132, 225 257, 268 कर (कर) 101 कालग 107 करग 197 कास 152 करण 46, 48, 59, 107, 206 कासाई 22 करणया 111 किंचि 172 करय 184 किण्ण (किण्व) करिस 197 किण्णं (किं नम्) कलंद 94 /कित्त 70 कलम 35 कित्तण 216, 220 कलसय 184 कित्ति 95 कलाय 36 किलिंज 94 कलाव 206 251 कलुस 172 48 कल्लं 66, 73, 175, 189, 192 कुक्कुड 219 कल्लाकल्लिं 184, 235, 242, 243 कुक्कुय कवाड कुकुम कविल 94 कुच्छि 101 कविजल कुडिल कबोय कुडुब 5,66,68,238 कंसपाई 235 कुडकोलिय 2, 165-172, 174, 175, /कह 60,86, 156, 163, 209 177,179 कहा 10, 114, 115, 174, 190, 214 कुद्दाल . 94 218 कुमार काम 48 कुभकार 181, 184, 193, 194, 200, कामदेव 92, 93, 95-112, 114, 115, 221 116, 119, 121, 122, 123, कुम्भ 101 125, 174 कुल 66, 69, 77, 78 कामभोग 57 कुविय (कुप्य) 49 किस कीडा 52 94 कहि Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206] [उपासकदशांगसूत्र केइ केणइ केवि केस 94 खुर (खुर) सूत्र शब्द सूत्र कुविय (कुपित) 95 खय 74, 90, 253. कुसुम 30, 95 खलु 2, 3, 10, 12, 44, 58, 66, 73, कड 46, 47 79, 81, 83, 86, 92, 95, 111, कणिय 114, 124 खाइम 68, 200 खिखिणिय 111 111, 187. केवली 187 खिखिणी 168 खिप्प 59, 206 खीर 24 केसी 246 Vखुभ 95, 101, 107, 111, 222 कोहय 94, 124 खुर (क्षुर) कोट्ठिया 206, 219, कोडी खेत्त 4, 17, 92, 125, 150, 157, 19, 49, 50, 74, 253 160, 163, 165, 182, 204, 232, खोम 28 234, 238, 239, 269, 273 /गच्छ 10, 58, 80, 90, 204, 214, 220 कोडुबिय गण 12, 59, 206, 207 58 कोढ 117, 175 कोरेण्ट 22, 26 कोलघरिय 234, 239, 242, 243 गंधव्व 111 कोलाल 195, 196, 198, 200 Vगम (गम्) 123 कोलाहल 136, 137, 145 गम (गम-जीवनक्रम) 274 कोल्लाय 8,66,69, 79, 80 गमण 86 कोसी गय 11, 111 खइय गल्ल 94 खग्रोवसम गवल खज्जमाण 218 गहिय 181 खज्जय 34 गाय 127, 130, 133, 136, 227 94 गाहावइ२-~६, 8, 10, 11, 12, 13, 13, 58, Vखंड (खण्ड धातु) 92, 125, 150, 157, 165, 232, खंड (खण्ड) 269, 273 खंडाडि 95, 99 गाहावइणी 238, 239, 240, 242, 243, खंध 94 244, 246, 248, 249, 254, खंभ * 136, 145, 154 255, 256, 257, 260, 261 Vखम 86, 87, 111 /गिण्ह (गेण्ह) 127, 168, 219, 225 खमण 77 गिह 10, 58, 69, 114, 152 गणि गंध 253 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PO गुद्ध चक्खु XGG .1, 92 गोत्त 76 76 चाउरंत परिशिष्ट 1: शम्दसूची] [207 शब्द सूत्र शब्द गिहि 12, 58, 61, 83, 204, 274 चउम्विह गीवा 107, 109 चक्क चक्कवाल 208 गुण 66, 76, 216, 220, 272 गुणसील चंचल गुरु 58, 142 चंद गुलगुल चंडिक्किय गुलिया चंदण 4, 18, 37, 92,94, 150, 157 चपा 165, 182, 232, 234, 269, 273 Vचय (च्यु) 123 गोण 206, 242, 243, 244 चय (च्यव, च्यवन) 90, 123 चलण 101 गोयम 62, 76, 87, 123, 259, 261,266 चाउद्दासय गोर 218 गोसाल 168,169, 185, 215-222 चार घड चाल 95, 101,111 धडय चाव 101 घडी 95 206 /चित 136, 163, 230 घटिका घय 34,37 चितिय 77, 78 चलणीपिय 125--138, 140, 142, 144, घाए 127,130,132, 133, 136, 145, 146 146, 147, 148, 149, 156, घाय 241 163, 164, 225 241 चुल्ल 74, 253 घोडय चुल्लसयग 158, 160, 162, 163 76, 107 चुल्लसयय 2, 157, 159, 161 14,43,45-57, 84,94 चल्ली चउ 4, 17, 18, 21, 43, 49, 62, चेइय 1, 6, 10, 86, 92, 124, 231, 89, 122, 149, 156, 164, 268, 269, 273 274 चेडिया 208 चउत्थ 71, 142 चेव 81, 84, 86, 95, 102, 109, चउपय 18, 49 129, 133, 200, 248 चउरंस 76 चोद्दस 66, 179,223, 245, 272 चउरासीय 74, 253, 255, 257 छ 92, 150, 157, 160, 163, 239 184 94 चिध घंटा 206 चिता 275 घर घुटु घोर Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 207] [उपासकदशांगसूत्र शब्द सूत्र 45 छार 197 जाणु 238 45 ज जइ 246 सूत्र शब्द 71, 77 जागरिय 66, 73, 252 95 जाण (ज्ञा) 44.--57, 74, 83, 138, छत्त 239, 253 छवि जाण (यान) 59, 61, 206, 208, 211 छिज्जमाण 218 जाणय 187 छिद्द 94 /छिन्द 89, 122, 268 जाणुय जाय छेय (छेक) 219 64, 65, 72, 73, 81, 101, छेय (छेद) 206, 213, 236, 251, 271 जाल 59, 206 10, 58, 78, 114, 187, 211 जाव 2,83, 85, 91, 138, 200 . 2, 3, 5---12, 44, 58-66, 68, जंघा 94 71, 72, 73, 75, 79, 81, ८३जडिल 107 87, 89, 253 जिण जण 51, 79, 80, 88,120, 178, 73, 85, 187 जिब्भा 94 212, 222, 237, 267 जणण जिमिय जणणी 133, 136 जियसत्तु 3, 9, 92, 124, 150, 157, जणवय 88, 120, 178, 212, 222, 165, 180, 269, 273 237, 267 जीव 13, 14, 15, 44, 64, 171, जंत 213, 218, 263 जमग-समग 152 जीविय 57,95, 102, 107, 111,116, जमल 94, 107 127, 133, 151, 200, 238 जंबुद्दीव 111 जीह 95, 107 जंबू 2, 92, 124, 231, 269, 273, 276 जुइ जंबूणय 206 जुग (युग-मानविशेष) 78 जंबूलय 184 जुग (युग-यूप) 206 जम्म 111 जूगवंत 219 Vजल 66, 73, 189 जुत्त 101, 206 जह 94 जुयल 28, 107 जहा . 2, 9, 12, 43-57, 66, 79, 92, जुवाणय 95, 102, 127 जेट्ट 66-69,76, 92, 127, 130, जहारिह 136, 145, 151, 154, 230, 245, जहेयं 12, 210 272, 274 जा 81 जेमण जागर 66, 73, 252 जोइय 206 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तया 240 तव लिइ परिशिष्ट 1: शब्दसूची] [209 शब्द सूत्र शब्द सूत्र जोणिय 14.43, 45-57 जोत्त तरुण 219 जोयण 74, 83, 253 तल 102, 105 माण 77, 96, 97, 98 तलवर 12 Vझिया तलाय झुसिर तलिय 89, 122, 268 72, 76, 84, 85, 266 असण तवस्सि झसिय 252, 259 तसिय 256 Vठव 66, 68, 172, 245, 272 तह 66, 67, 87,118, 135, ठाण 84, 85, 86, 87, 146, 261, 264 141, 176, 260, 265 62, 89, 122, 149, 156 तह 164, 268, 274 तहा 9, 12,79,92,125, 136 ठिइय 74, 208, 253, 255, 257 तहिय 85, 220, 261 2-8, 10-43, 45-74, 77-90 ता णाण 187, 188, 193, 218, 253 Vताल 200 ण्हाय 10, 190, 208 ताव 73, 117, 175 पहाविय 10, 58, 81,83,99,102, 105 10, 12, 13, 47-57, 74 107, 109, 119, 190, 208 109, 187, 227 तिक्ख 102, 105, 107, 109 तइय 77, 124 10, 58,81, 83, 102, 105, तो (ततः) 118 107, 109, 119, 190,208 तो (त्रय) 127, 130, 133 62 तक्कर तित्तिर 219 70,85, 188, 218, 220 / तिरिक्ख 117 तच्च (तृतीय) 71, 97, 98, 104, 129, 132 तिरिय 135, 136, 140, 229, 230 / तिवलिय तज्ज 200 तिविह 13, 14, 15 तत्त 76 तिव्व तत्थ (त्रस्त) 256 तीय 187 तत्थ (तत्र) 8, 51, 62, 122, 125, 181 Vतीर (तीर) 184, 193, 232, 273 तीर (तीर) 218 101, 222 तुच्छ तम 218 तुछ 12 तंबोल 58, 95, 107, 133, 171, 200, 255 94 ति तच्च तंत Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 [उपासक दशांगसूत्र सूत्र शब्द तुरुक्क तुल्ल तुसिणीय सूत्र शब्द 32 दिण्ण 47 6, 215, 247 दिप्पमाण दिवस दित्त 76, 273 तेण दिव्व दिसा 277 101,107, 111, 169 20, 21, 61, 119 50 तेय तेरस तेलोक्क तेल्ल थणय थिमिय थलग दक्षिण दच्छ दंड 233, 235 187 दिसि 25 दिसी 94 दीव 13, 14, 15, 49, 51 227, 230 49 95 दंतवण दब्भ दरिसणिज्ज दरिसि Vदलय दवग्गि 13, 14, 15, 45, 46, 47 दुक्कर 74, 253 दुक्ख 107 दुपय 43, 52, 200, 218 दुप्पउलिय 23, 51, 94, 101 दुरंत 23 दुरहियास 69, 111 दुरुह 111 दुवालस 187 दुह. दूइपलास 2, 4,18, 92 दूइपलासय 187, 188, 193, 218 देवत्त 273, 276 देवय देवाणुप्पिय 61, 69, 109,211 12, 58, 211, 234, 238, 239 13, 14, 15, 51 95, 102, 108, 127 58, 78, 86 दस देव दसण दंसणिज्ज दसम दह 90, 111, 116, 123, 128 62, 89, 122, 149, 268, 274 58, 133, 136 12, 68, 77,79, 95 156, 204 169, 171 111 111 दाढा दाणव दाम दार दावणया दालिया दिट्ठ दिट्टि. 107, 109 देविड्डी 111 देविंद 10, 30 देवी 16, 46, 48 देस 51 दोच्च 40 दोणिय 111, 146 धन्न (धान्य) 78, 93, 214 धन्न (धन्य) 71, 97, 104, 108 235 111 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1: शन्दसूची] [211 218 शब्द सूत्र शब्द धन्ना 150, 155, 156 नबर 204, 225, 230, 232, 235, 274 धमणि 72, 73, 81, 251 नस्समाण 218 Vधमधमे 107 नाइ (ज्ञाति) 8, 69, 92 Vधम्म (ध्मा) 107 नाइं (नार्थक) 111 धम्म (धर्म) 66, 69, 73, 92, 157, 209 नाण 74, 83 धम्मकहा 11,115, 191 नाणत्त 272 धम्मकही 218 नाणा 95, 206 धम्ममय 218 नाम 1, 3, 6, 7, 31, 76, 92 धम्मायरिय 73, 188, 219, 220 नाय धम्मिय 61, 206, 208, 211 नायाधम्मकहा धम्मोवएसय 73, 188 नाराय Vधर (धू) 219 नावा धर (धर) 187, 188, 193,218 नासा धरणि 102, 105 नाही 94 धरणी 107 निउण धवल 101 निकुट्ट 107, 109 धारा 95 निक्खेव 90, 123, 149, 156, 164, 179,230, 268 धूव निक्खेवन 272. धुवण निक्खेवणया नउल निगर 107 नक्ख 94, 101 /निग्गच्छ 9, 10, 69, 114 नगर 184, 208 निग्गय 9, 75, 94, 189, 235 नत्था 206 निग्गंथ (निर्ग्रन्थ) 58, 117, 118, 175 नत्थि 168, 169, 171, 199, 200 176, 214 नंदिणीपिय 2, 269, 271 निग्गंथ (नैर्ग्रन्थ) 12, 101, 111, 210, 222 Vनमंस 58, 62, 77, 81, 83 निग्गंथी 117, 118, 175, 176 86,119, 177 निग्गह 219 नयण निघस निच्चल 165, 180, 222, 231 219 नयर नयरी 1, 92, 114, 124, 150, 157, निच्छय 218, 269, 273 निच्छोड 200 तरय 74, 83,253, 255, 257 निडाल 94, 99 नव 225, 227 /नित्थार नवम 71, 269 निप्पट्ठ 175, 219 धि mr m rror or 58 नय 218 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] [उपासकदशांगसूत्र 94 शब्द सूत्र शब्द निष्फंद 219 पक्केलय 200 /निब्भच्छ 200 पक्खिव 152, 154, 156 Vनिमिज्ज 197 पक्खेव 54 निम्मिय 206 पगास 95, 107 नियग पग्गह नियत्तण पग्गहिय 72 नियय 168,169, 171, 199,200 पच्चक्खा 13, 43, 235 निरवसेस 156 पच्चक्खाण निल्लंछण पच्चणुभवमाणी निल्लालिय पच्चत्थिम 74, 253 निवुडमाण 218 /पच्चप्पिण 206, 207 निव्वाण 218 पच्चोरुह 208 निसंत पच्चोसक्क 101, 107, 111, 256 निसम्म 12,61,80,137,155 पच्छा 197 204, 210 पच्छिम 57, 73, 79, 109, 252, निसा 259, 261 निसाम पज्जत्त निहाण 4, 17, 92, 125, 160, 165, पज्जुवास 9, 10, 59, 114, 174 182, 204, 232, 269, 273 Vनीणे 102, 136, 160, 163, 195, 230 पंच 6, 19, 20, 42, 44-57, 74, 83 पंचम नीय 71,157 77, 78 पंचाणुव्वइय नील 12, 58, 204, 210, 211 95, 99, 116, 127, 138 पंजलि 111, 208 116, 175, 192 नेत्त पट्टण 218 पट्रय नेयव्व 274 पडल 218 नेरइय 255 पडिउच्चारेयव्व नेरइयत्त 255, 257 पडिक्कंत 89, 122, 268 12, 58,62,84, 85, 95,101 पडिक्कम पइट्टिय 101 पडिगय 61, 75,111, 119, 172 पइविसिट्ठय 206 पडिग्गह 58 Vपउंज 255, 261 पडिग्गाह पउत्त 4, 17, 92, 125, 160 /पडिच्छ 102, 105 पउम 30 पडिच्छिय 12, 58 पउलिय 51 पडिजागरमाणी 238 पप्रोग 47 /पडिणिक्खम 10, 58,69, 78, 86 नणं नो Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [213 95, 97, 132, 133, 138 218 74, 253, 255 111 12, 58, 68 69, 77 1908 5, 49,1 76 43 परिशिष्ट 1 : शब्दसूची] शब्द सूत्र शब्द पडिणिग्गच्छ पत्थिय पडिणियत्त 114 पंथ पिडिदंसे पभा पिडिनिग्गच्छ पभासेमाण पडिपुच्छ पभिइ पडिपुण्ण 101 पभु पडिबद्ध पमज्य पडिबंध 12, 77, 210 पमज्जिय पिडिभण पमाण पडिमा 70,71, 112, 148, 179 पमाय पडियाइक्खिय 73, 252, 259 पम्ह पडिरूव पयत्त पडिरूवग पयाण पडिलाभेमाण 58, 64, 65 पयाहिण पर अपडिलेहे 66, 69, 77 परक्कम पडिलेहिय /पडिवज्ज 12, 58, 61, 86, 87 पडिवत्ती परम परलोक पडिवन्न 111, 168, 187, 192, 218 /पडिसुण Vपरिकह 87, 118, 176, 194, 205 परिक्खित्त पडुप्पन्न परिकिण्ण पडोच्छन्न 218 परिगय पढम 70, 77, 91,121, 250 पढमया परिग्गहिय पणरसम /परिच्चय Vपणिहा 192 परिजण पणिहाण 53 परिजाण पण्णत्त 2, 51, 62, 89, 91 /परिटुवे पण्णत्ति 66, 69, 92, 141 परिणद्ध पण्णरस 51 परिणाम पण्णरसम 66, 179, 223 परितंत पण्णवणा 222 परिभोग सपण्णव 264 परिमाण पत्त 89, 121, 122, 169, 170, 171 परियाग /पत्तिय 12 परियाय 10, 190 44, 48, 56, 57 73, 168, 169, 170, 198 199, 200 181 203 208 107, 109, 190, 206 48, 58 95, 152 200 95 74 101, 222 22, 51, 52 89, 122, 272 62, 275 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 पविट्ठ 214] [उपासकदशांगसूत्र शब्द सूत्र शब्द सूत्र Vपरियाण 247 पामोक्ख 172, 233, 235 परिलोयण पाय 10, 81,94,102 परिवज्जिय पायच्छित्त 261, 265 परिवस 3, 8, 125, 181 पायपुञ्छण 58 परिवड 208 /पारे परिसा 9, 11, 75, 125, 189, 235, 4102.235, पारणग ওও 258 पालंगा परिहिय 111, 187 /पाले 70 परूव 264 पाव परो 261 पावयण 12, 101, 111, 210, 222 पलंव 101 पावेस 10, 114, 190, 208 पलिग्रोवम 62,89, 122, 149, 156, पास 74,80,81,83, 97,99, 101. 164, 268, 274 104, 105, 109, 111 पवण 101 पासंड पवर 61, 111, 206, 208, 211 पासवण 101 पासाईय पवित्थर 4, 17, 92, 125 पासादीय पव्व इय 12, 210 पाहाण 94 /पव्वय (प्र-व्रज्) 12, 62 पि 98, 104, 108, 129, 132 पव्वय (पर्वत) 74, 253 पिच्छ 219 पसत्थ 206 पिट्ठ पसन्न 240 पिडग 117, 175 पसंसा पिवासिय 95, 246 पसिण 58, 119, 175, 177, 219 पिसाय 94, 96, 97, 99, 101, 116 पसेवन 94 पिहडय 184 160 पीढ 58, 187, 193, 194, 216, 220, 221 /पाउण 62, 89, 122, 268 पीलण 51 /पाउब्भव 81, 167, 186, 192, 224 पुच्छ (पुच्छ) 101, 219 पाउन्भूय /पुच्छ (प्रच्छ्) 50, 119, 163, 177 पाडिहारिय 187, 188, 193, 194,220, पुच्छा 125 221 पुच्छिय 181 पाण (पान) 58, 73, 79, 86, 252, 259 पुछ 94 पाण (प्राण) 13, 45 पुञ्छण पाणिय 107 पह Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1: शब्दसूची] [215 पुढवी पुण शब्द सूत्र शब्द सूत्र पुड 94 पोसणया पुडग 94 पोसह 55, 66, 69, 79,80, 92.95 74, 166, 168, 253, 255 पोसहिय 69, 111, 125 214 फग्गुणी 273 पुणाई 117, 175 फरुस पुण्ण (पुण्य) 95, 246 फल 24, 111 पुण्ण (पूर्ण) 34, 107 फलग 58, 187, 193, 194, 216, 220 पुण्णभद्द 1,92 फाल पुत्त 66.67, 130,136 फास 70, 89, 122, 268 पुप्फ 30, 66 फासुएसणिज्ज 194 94 फासुय 66, 68, 78, 101 फुग्गफुग्गा पुरथिम 74, 83, 89, 122, 149, 253 फुट्ट पुरवर 94 फुड 107 पुरिस 59, 136, 138, 139, 146, 154, फोडी पूर पुरो बंध पुरिसक्कार 111, 125 पुलग पुव्व पुब्वि पूइय 18, 73,168, 218 3, 7,54,63, 88 5, 12, 62, 68, 89 बहु 73, 168, 169, 170, 171, बंभयारि 198, 199 बंभचेर 76 बल 66, 73, 93,116, 126 बहिया 58, 197 187, 218 बहुय बहुला 165 बाह बिइय 181 बीभच्छ बुड्डमाण 54 बुद्धि पूरण 157 पूसा पेज्ज 14 77 पेम 94 45 पेयाल पेसवण 218 235 184 पेहणया पोग्गल पोट्ट पोयय पोरिसी पोलासपुर भई 94 भक्ख 242, 243 भक्खणया 77 भगव 180, 181, 184, 190, 193, 204, 208, 212, 214, 222 भग्ग 9, 10, 11, 44, 60, 62, 63, 73, Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] [उपासकदशांगसूत्र भंड 214 भूमि भत्त भेय मग्ग 70 शब्द सूत्र शब्द सूत्र Vभंज 95, 102, 107, 127, 132, 133 भज्जो 142 भुजमाण 200, 238, 239, 246 भज्जिय 240 भुत्त Vभण 102, 153, 229, 230, 248, 254 भुमगा 195, 196, 198, 200 भंडग 45, 73, 79, 86, 122 भूय भट्टा (कामदेव की पत्नी का नाम) 46 भद्दा (चुलनीपिता की माता का नाम) 133, भेसज्ज 58 136, 137, 138 भोग (राजा के मंत्रीमंडल के सदस्य) 210 भय 256 भोग (सांसारिक सुख) 200, 238, 239 भरिय 127, 130, 133, 227, 235 भोयण Vभव 12, 89, 122, 210, 266 66,73, 83,136, 140, 170 मउल 90, 123 भव 101 भवस्खय 90, 123 भसेल्ल 94 मखलिपुत्त 168, 169, 171, 188, 192, भाडी 214, 216, 218, 221, 222 भाणियव्व 230 मंगल भाय 3, 7, 107, 109 168, 169, 171 भायण 77 मच्छरिया भारह 111 मज्ज 240 भारिया 6, 59, 65, 92, 125, 163 मज्जण भाव 168, 169, 199, 200, 220 मझ 10, 69, 111, 114, 190, 208 246 मज्झिम 77, 78, 132, 136 भावेमाण 66, 76, 179, 181, 223, 245 मज्झिमय 230 266, 272 मट्टिया 197 भास मट्ठ भिडि मडह भिक्खा 77, 78, 79 मंड भिक्खायरिया 77, 78, 79 मंडुक्किया भिज्जमाण 118 मण 13, 14, 15, 53, 66, 101 /भिद 200 मणि 206 भीम 95 मणुय 187 भीय 228, 256 मणुस्स 10, 117, 190 भुगा 95 मणोगय 27 سه م له له GK Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1: शन्वसूची] [217 187, 218 240 12,68,77, 210 12 47 मसी 6,111, 238 मह / 57, 73, 252, 259 256 95 94 95 शब्द सूत्र शब्द मंत 46 महिय मत्त 101, 246, 254, 260 महु मरण 57 महुय मल्ल 10 मा मल्लिया 101 माडंबिय मंस 127,130, 133, 158, 225, 227, माण 240, 244 माणुस 107 माणुस्सय मंसु माया मह (मथ्) 200 मायी 101, 107, 111, 138, 151 मारणतिय महइ 11, 60, 191, 218 महग्घ 10, 114, 190, 208 मालइ महप्फल माला महल्ल मालियाय महाकाय 107 माम माप) महागोव 218 मास (मास) महातव 76 मासिय महाधम्मकही माहुरय महानिज्जामय 218 मिच्छत्त महापट्टण 218 मिच्छा महामाहण 187, 188, 193, 216, मिज 217, 218 मित्त महालय 84,218 मिसिमिसीयमाण महालिया 11 मीस महावाड 218 मुइंग महाविदेह 90, 123, 149, 156, 164, मुक्क 179, 230, 268, 272, 274 मुगुस महाविमाण 89, 122, 149 मुग्ग महावीर 9, 10, 11, 44, 58, 60 61, मुच्छिय 62, 63, 73, 75, 76, 77, 78 मुण्ड महासस्थवाह 218 मुड महासमुद्द 218 मुद्दगा महासयग 233, 234, 253, 260, 266 महासयय 2, 232, 236, 246-252 मुद्दा 89, 122, 257, 268 89, 122, 168 218 218 93, 171, 200 . 181 8,66,68,69, 92 94 240, 242 12 12, 62, 210 मुद्दया 172 31,168, 175 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुह मुहपत्ती 000 246, 260 . लद्ध 52 लट्ठ [उपासकवशांगसूत्र 218] शब्द सूत्र शब्द सूत्र मुद्धाण 81,83 रुट्ट 95, 256 मुसल 102, 105 54, 66, 80, 94, 96, 97, 99, मुसा 14,46 101,103 42, 77 रेवई 233, 234, 235, 238, 239, 240, 77 242, 243, 244, 246, 247, 248, 249 मूसा 107 रोए 12 मेढी 5 रोग 152, 154, 156 मेरग 240 रोम 219 मेह 101 रोस 107 16, 235 लक्खण 95, 111, 206 मेहुण मोक्ख 95, 246 लक्खा 46 लट्रि मोसा 23 लडह 95 मोह 10, 114, 169, 170, 171, 174 मोहरिय 181, 190, 219 य 2, 5, 11, 31, 51, 58, 60, 66, 73 10, 114, 174 यत्तिय 20, 21 लंब (लम्ब) 94 यल 94, 101 यावि 5, 125, 241 लंबोदर 101 रज्ज ललिय 206 101 रज्जुग लवण 74, 83, 253 रत्त (रक्त) 107, 227 रत्त (रात्र) 66, 73,93, 116, 126 लहु रयण 74, 253, 255 लावय रयणप्पभा 74, 253, 255 लिहिय 206 लुप्पमाण 218 रययामय 206 246 लुलिय लेसा रस लेस्सा रहिय लेह लोग 57, 90, 123, 187 राईसर लोढ 3, 9, 11, 58,111, 124, 150 लोम 94, 95 रायगिह 231, 232, 241, 259, 262 लोयण 107 266, 267 रिद्ध, 74, 83, 253, 255, 257 रिसह 76 लोलुया 240, 242 107 लंब (लम्ब) 219 रयय 74 46 125 राय चय Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1: शब्दसूची] [219 x 76 वह वट्ट 94 वा 111 शब्द सूत्र शब्द लोले 102, 105 वयण (वचन) लोह 107 वयण (वदन) लोहिय 107 वर 94, 206 94 वराह वइक्कंत 66, 179, 223, 245, 272 ववएस वइय 12, 58, 204, 210, 211 /ववरोवे 95, 97, 102, 107, 116 वक्खेव 66 ववहार वग्गुरा 10, 114, 190 वस 95, 102, 107, 127, 160, 255, 257 वच्छ 94, 111 बसण 94 वज्ज वसंत 117, 175 बज्जिय वहिय 187 वट्टमाण 179, 223, 275 Vवहे 243 वट्टय 219 30, 34, 36, 38, 58 वडिय Vवागर 261, 264 वागरण 5, 125 वड्ढावय 175, 261 वड्डि 92, 273 वाणारसी 124, 125, 150 51, 157, 165 180 বাড়ি वणिया 164, 175, 185, 192 वाणियगाम 3, 7, 10,66, 77, 78, 79 वण्ण वाणियग्गाम 58 वण्णग्रो वादि 219 वण्णग वाय (वात) 195, 200 वण्णावास वत्तव्वय 92, 165, 230 वाय (वाद) वत्थ 28, 58, 77, 114 वायस 219 वत्थु (शाकविशेष) वारय 184 वत्थु (वास्तु) 19, 49 वास (वर्ष) 62, 89, 90, 111, 123 Vवंद 10, 58, 62, 77, 81, 83, 86 वास (वास) Vवम 214 वासधर वय (पद) 88, 120, 178, 212, 222, वासहर 253 237, 267 वासि वय (व्रत) 66, 89,95, 272 वाहण वय, (व्रज) 4, 18, 92, 125, 150, 157 वाहि 255, 257 165, 182, 232, 369, 273 वि 5, 58, 66, 84, 89, 94, 104, 108 वय (वचस्) 13, 14, 15, 53 विइगिच्छा Vवय (वद्) 2, 12,44, 58, 59 विइण्ण 246 वण 51 15 .f 42 So muror 44 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 [उपासकदशांगसूत्र सूत्र 6, 10, 63, 64, 65, 69, 70, 73, 76, 79, 88, 92, 96 10, 88, 120, 178, 212, 222 237, 267 16-42, 235 वीरिय वीस 73 238 89, 122, 168, 272 218 218, 219 4, 17, 125, 160, 165, 182, 204, 232, 269 86, 96, 98,103, 108 222 वृत्त वेणि शब्द सूत्र शब्द विइज्जिया 227 /विहर विउल 66, 72, 76, 200 विउव्व 94, 101,107, 111,116 विहार विकड्डमाण 246, 254, 260 विक्खिर 200 विहि विगय 94, 95 विघाय विणय 67, 87, 118, 176, 205, 262 वीस विणस्समाण Vवुच्च विणिग्गय वुड्डि विणिच्छिय 181 विष्णवणा विष्णाण 219 वेग वित्ति 58, 184 वेगच्छ विदरिसण 146 वेढे विदेह 90, 123, 149, 156, 164 /विपरिणाम 101,111, 222 वेयण Vविप्पइर 160, 163 वेयणा -विप्पजह 101, 107, 111 वेरमण 218 वेस विमल वेहास विमाण 62,89, 122, 149, 156, 164 वोच्छेय 179, 230, 268, 272, 274 / वियड 107 सइय विरइय 206 सकस विराइय सक्क विरुद्ध सक्का विलुप्पमाण Vसक्कारे विलेवण सगड विवर सग्ग विवाद संकप्प विवाह 48 संका विस 51,107, 109, 238, 239 संकिय विसाण 219 संख विसुज्झमाण 74 संखवण 107, 109 107 184 100 45, 46, 47, 52, 66, 95 10, 114, 190, 208 102, 105 45 विप्पणट्ठ 101 सइ 232, 235 111, 117, 175 20 95, 246 44 86,172 114 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1: सन्दसूची] [221 संचिट्ट 214 52 संजुत्त संठाण सट्टि शब्द सूत्र शब्द संखित्त 76 सद्धा संगोवेमाण 218 सद्धि 200, 214, 219, 238, 239, 246 संघ 214 सन्निभ 94 संघयण 76 सन्निवेस 7, 8, 66, 69, 79, 80 Vसंचाय 12, 66, 81, 107, 111, 172, सप्प 95, 107, 108, 109, 111 210, 222, 238 / सप्पह 218 215 सभा सचित्त 51, 56 सब्भूय 85, 220, 261 संजम सम 76, 206, 227, 230 संजाय 256 समट्ट 62, 85, 116, 175, 192, 219 सज्झाय समण 9, 10, 11, 44, 60, 62, 63, 73 76, 94 75, 77, 78 समणोवासग 44,66,67, 73, 74 संठिय 76, 94, 101 समणोवासय 45, 49, 51-56, 59, 62, 68, 89, 122, 268 सणियं 79, 80, 81, 82, 83, 84, 85 101,107, 111,256 समणोवासिया सण्णवणा 222 संत (श्रान्त) समत्त 90, 123, 149, 156, 164, 179, 101, 111, 222 230, 268,272, 274, 277 संत (सत्) 85, 220, 261, 264 समता संतय 72,73, 81, 251 समय 1, 2, 3, 9, 66, 75, 76, 92, 113 संतोसिए समाण 10,59, 78, 86,96, 98, 103 सत्त 12, 58, 76, 101 Vसमायर सत्तम 2,71, 91 समायरियव्व 44-57 सत्तुस्सेह सत्थ 238, 239 समावन्न 86, 172 सत्थवाह 5, 12 89, 122, 255, 268 सत्थवाही 133, 136, 137, 138,146, समुद्द 74, 83, 253 147 75, 77, 78 /संथर Vसमुद्दिस 277 संथव Vसमुप्पज्ज 66, 83, 84 संथार 55, 69, 111, 216 सम् 74, 83, 188, 231, 253 संथारय 69 समोसढ 125, 150, 157, 165, 173, सद्द 54, 79, 136, 137, 145, 154, 155 204, 235, 270, 274 V सद्दह 12, 210 समोसरण 92, 258 सद्दालपुत्त 2,181, 182, 183, 184, 185, समोसरिय 2, 9, 65, 189 186, 188, 190 संपउत्त 187, 188, 193, 218 Vसद्दावे 59, 66, 206, 142 संपत्त 2, 91, 276 समाहि समुदाण .44 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 सम्म 25 عمر ل साग مر 222] [उपासकरशांगसूत्र शब्द सूत्र शब्द संपया 187, 188, 193, 218 सव्व 5, 16-22, 86, 125, 141, संपरिवुड 214 168, 169, 171, 187, 192, /संपावे 218 199, 200, 230, 235 संपुण्ण 111 सव्वो संपेह 10, 66, 80, 114, 190, सव्वण्णु 187 193, 214, 238, संसार 218 संबंधि 8 /सह (सह.) 100, 117 संबुद्ध सहसा 46 55, 70,79,89, 100, 101, 117 संहर 122, 268 सहस्सपाग सम्मत्त सहस्संबवण 165, 180, 190, 208, 212 /सम्माणे सहाइया 227 सय (शत) 19, 20, 25, 74,83, साइम 184, 193, 194 / सय (स्वक) 1,10,58, 66,69, 114, साडी 204, 256 सामंत 79,86 सयं स्वयम्) 238, 239 सामा 125 सयण सामाइय सयपाग 85 सामाणिय 111 सामि 127, 150, 157, 165, 173, सरड 95 178, 235, 270, 274 सरसरस्स 107, 109. साय 38 सरिस सारइय 37 सरीर 10, 76, 152, 190, 208, 252, 259 सारक्खमाण सरीरग साला 66,69, 79, 92, 101, 107, 111 Vलव 58 सालि 35, 94 संलेहणा 57, 73, 89, 122, 252, 259 सालिहीपिय 2, 273 संवच्छर 66, 179, 223, 245, 272 सावग सवत्तिया 238 सावत्थी 269, 273 सवत्ती 238,239 सावय 58, 92, 165, 235 संववहर 235 सास 152 संवाहणिय 20, 21 साहत्थि 218 संविभाग 56 साहस्सिय 4,18, 92, 125,150, 157, संवल्लिय 101 165, 182, 232, 234, 269, 273 संवेग 73 साहस्सी 218 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १:शब्दसूची] [223 सि सेटि 163 160 सेय 42 सोलस शब्द सूत्र शब्द सूत्र 111, 175 सुवण्ण 17,49 सिक्कग 12, 77, 210 227, 230 सिक्खा 12, 58, 204, 210, 211 सुहत्यि सिंग 219 सुहम्म सिंगय 206 सूयर 219 सिंगारिय 246 सूव सिंघाडग सिंघाडय सेणाय 219 सिज्जा सेणिय 55,58, 187, 216 231 Vसिज्झ 90, 123, 149,156, 164, 66, 73, 136, 154, 163, 193, 230, 268. 272, 274 230, 238 सिप्प सिप्पि सोगंधिय सिरी सोणिय 127, 130, 133, 136, 151, 227 सिला 166, 168, 172 सोडा 191, 102, 105 सिवनंदा 6, 16, 58, 59, 60, 61, 65 152, 154, 156 सीधू सोल्ल 240 127, 240, 244 66, 89, 95, 151, 179, 223, सोल्लय 130, 133, 151,158, 225, 227 245, 268, 272 सोसणया 94 सोहम्म 62, 74, 89, 122, 149, 156, 164, 179, 268, 274 सुक्क 72 /सोहे सुजाय 101, 206 सोहेमाण Vसुण 12,61,80,137, 155, 204, 210 95,97, 102,104, 107, 111, 70, 148, 206, 250 116, 127, 129, 132, 133, 10, 30,114, 190, 208 135, 138, 140, 144 168, 169, 171 हट्ट 12, 59, 61, 81, 119, 174, सुप्प 204, 210, 263 सुभ 74, 253 हण 200 सुय 277 हणुय सुरहि 83,116, 175, 192 सुरा 240, 244 हत्थ 94, 219 सुरादेव 150-156, 163 हत्थि 101, 103, 104, 105, 107 सुरूव 19, 94 सुलद्ध 111 हव्वं 86,111, 188 सील सीस सीह 78 सुद्ध सुन्दरी हंत Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224] [उपासकदशांगसूत्र शब्द 95 43 हार हास हिमवंत हियय हिरण्ण सूत्र शब्द 111 हिरी 95 हिंसा 74, 253 हीण 81, 204, 263 हेउ 4, 17, 49, 92, 125, 150, 157, हो 160, 163, 165, 182, 204, 232, 234, 235, 238, 239, 269, 273 95, 256 175, 219 1, 3-7, 92, 125, 183, 184, 233, 234, 241 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : प्रयुक्त-ग्रन्थ-सूची अनुवाद, विवेचन, प्रस्तावना आदि के सन्दर्भ में व्यवहृत कान्थों की सूची अनुयोगद्वारसूत्र अभिधानराजेन्द्र कोष अष्ट प्राभृत : श्रीकुन्दकुन्दाचार्य अष्टाङ्गहृदयम्, सटीकम् [ऋषिकल्पश्रीवाग्भटप्रणीतम्, विद्वद्वरश्रीमदरुणदत्तकृता सर्वाङ्गसुन्दराख्या टीका, श्रीमदाचार्यमौद्गल्यकृता मौद्गल्यटिप्पणी च, प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास, पंजाब संस्कृत बुक डिपो, सैदमिट्ठा स्ट्रीट, लाहौर, सन् 1933 ई०] अंगसुत्ताणि 3 [संपादक : मुनि श्री नथमलजी प्रकाशक : जैन विश्वभारती, लाडन् विक्रमान्द 2031] अंगुत्तरनिकाय आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड 1 : इतिहास और परम्परा [लेखक : मुनि श्री नगराजजी डी० लिट प्रकाशक : जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, 3, पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट, कलकत्ता-१ प्रथम संस्करण : सन् 1969 ई.] आचारांग-चूर्णि आवश्यक-नियुक्ति THE UTTARADHYAYANA SUTRA [Translated from Prakrit by Hermann Jacobi OXFORD, at the CLARENDON PRESS, 1895) उत्तराध्ययनसूत्रम्, संस्कृतच्छाया-पदर्थान्वय-मूलार्थोपेतम्, [अनुवादक : जैनधर्मदिवाकर, जैनागमरत्नाकर उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज प्रकाशक : जैन शास्त्रमाला कार्यालय, सैदमिट्ठा बाजार, लाहौर, वि० 1996] Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226] [उपासकदशांगसूत्र उपासकदशासूत्रम् [संपादक : डॉ० ए० एफ० रुडोल्फ हार्नले प्रकाशक : बंगाल एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता, प्रथम संस्करण : 1890 ई०] उपासकदशासूत्र [संपादक, अनुवादक : बालब्रह्मचारी पं० मुनि श्री अमोलक ऋषिजी महाराज प्रकाशक : राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद जौहरी, हैदराबाद-सिकंदराबाद जैन संघ, हैदराबाद (दक्षिण), वीराब्द 2442-2446] [श्रीमद् उपासकदशांगम्, श्रीमद् अभयदेवाचार्यविहितविवरणयुतम् प्रकाशक : प्रागमोदय समिति महेसाणा, प्रथम संस्करण : 1929 ई०] उपासकदशांगसूत्रम् संस्कृत-हिन्दी-गुजराती-टीकासमेतम् [वृत्तिरचयिता : जैन शास्त्राचार्यपूज्य श्री घासीलालजी महाराज प्रकाशक : श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन संघ, करांची, प्रथम संस्करण : 1936 ई० श्रीउपासकदशांगसूत्रम् संस्कृतच्छाया-शब्दार्थ-भावार्थोपेतम् हिन्दीभाषाटीकासहितं च [अनुवादक : जैनधर्मदिवाकर, जैनागमरत्नाकर प्राचार्यश्री आत्मारामजी महाराज प्रकाशक : आचार्य श्री आत्माराम जैन प्रकाशन समिति, लुधियाना प्रथम संस्करण : 1964 ई०] उपासकदशांग [अनुवादक, संपादक : डॉ. जीवराज घेला भाई दोषी अहमदाबाद देवनागरी लिपि, गुजराती भाषा] श्री उपासकदशांगसूत्र [अनुवादक : वी० घीसूलाल पितलिया प्रकाशक : श्री अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ, सैलाना (म० प्र०) प्रथम संस्करण : विक्रम संवत् 2034] उववाईसूत्र [संपादक, अनुवादक : बालब्रह्मचारी पं० मुनि श्री अमोलक ऋषिजी महाराज प्रकाशक : राजाबहादुर लाला सुख देवसहाय ज्वालाप्रसाद जौहरी, हैदराबाद, सिकंदराबाद जैन संघ, हैदराबाद (दक्षिण) वीराब्द 2442-2446] Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : प्रयुक्त-प्रन्थ-सूची] [227 श्री उववाईसूत्र, श्री अभयदेव सूरिकृत टीका तथा श्री अमृतचन्द्र सूरिकृत बालावबोध सहित [प्रकाशक : श्रीयुक्त राय धनपतिसिंह बहादुर, जैन बुक सोसायटी, कलकत्ता] उववाइय सुत्त [अनुवादक : आत्मार्थी पं० मुनि श्री उमेशचन्द्रजी महाराज 'अणु' प्रकाशक : श्री अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ, सैलाना (मध्य प्रदेश), प्रथम संस्करण : 1962 ईसवी] उवासगदसामो मूल अने श्री अभयदेवसूरि विरचित टीकाना अनुवाद सहित [अनुवादक अने प्रकाशक : पं० भगवानदास हर्षचन्द्र, जैनानन्द पुस्तकालय, गोपीपुरा, सूरत प्रथम संस्करण : विक्रम संवत् 1992] देवनागरी लिपि, गुजराती भाषा कल्प सूत्र कुमारसंभव महाकाव्य [महाकवि कालिदास विचरित] चरकसंहिता छान्दोग्योपनिषद् जयध्वज [लेखक : गुलाबचन्द नानकचन्द सेठ, प्रकाशक : श्री जयध्वज प्रकाशन समिति, 98 मिण्ट स्ट्रीट, मद्रास-१] जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र जीवाजीवाभिगम सूत्र जैन आगम [लेखक : पं० श्री दलसुख मालवणिया प्रकाशक : जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-५] जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [लेखक : डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, एम० ए०, पी-एच० डी० प्रकाशक : चोखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-१, सन् 1965] जैन दर्शन लेखक : प्रो० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य प्रकाशक : श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला काशी, प्रथम संस्करण : सन् 1955 ई०] Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228] [उपासकदशांगसूत्र जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व, पहला भाग [लेखक : मुनि श्री नथमलजी प्रकाशक : मोतीलाल बेंगानी चेरिटेबल ट्रस्ट, 1/4 सी, खगेन्द्र चटर्जी रोड, काशीपुर, __ कलकत्ता-२, प्रथम संस्करण : वि० सं० 2017] जैनधर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग [लेखक एवं निर्देशक : आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज, प्रकाशक : जैन इतिहास समिति, जयपुर (राजस्थान) प्रथम संस्करण : सन् 1971 ई०] जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश क्षुल्लक जैनेन्द्र वर्णी प्रकाशक, भारतीय ज्ञानपीठ, 3620/21 नेताजी सुभाष मार्ग, दिल्ली-६, प्रथम संस्करण : 1970-73] तत्त्वार्थसूत्र : विवेचना सहित [विवेचनकर्ता : पं० सुखलालजी संघवी प्रकाशक : जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस-५, द्वितीय संस्करण : 1952 ई०] तैत्तिरीयोपनिषद् दशवकालिक-वृत्ति दीघनिकाय [सुमंगलविलासिनी टीका धम्मपद नायाधम्मकहाओ पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका पंचतन्त्र प्रज्ञापना सूत्र प्रमाणनयतत्त्वालोक प्रवचनसारोद्वार पाइअसद्दमहण्णवो पाणिनीय अष्टाध्यायी पातंजल योगसूत्र प्राकृत-सर्वस्व : मार्कण्डेय प्राकृत साहित्य . (डॉ० हीरालाल जैन) Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : प्रयुक्त-ग्रन्थ-सूची] [229 प्राकृत साहित्य का इतिहास [लेखक : डॉ० जगदीशचन्द्र जैन एम० ए०, पी-एच० डी० प्रकाशक : चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी-१, सन् 1961] ब्रह्मवैवर्तपुराणम् द्वितीयो भाग: [प्रकाशक : राधाकृष्ण मोर 5, क्लाइब रो, कलकत्ता, सन् 1955 ई.] भगवतीसूत्र भगवती सूत्र : आचार्य अभयदेव सूरिकृत टीका भावप्रकाश : भाव मिश्र भाषा-विज्ञान [लेखक : डॉ० भोलानाथ तिवारी प्रकाशक : किताब महल, इलाहाबाद तृतीय संस्करण : सन् 1961 ई०] मज्झिमनिकाय मनुस्मृति महाभारत : प्रथम खण्ड (आदि पर्व, सभा पर्व) महाभारत : तृतीय खण्ड (उद्योग पर्व, भीष्म पर्व) महाभारत : पञ्चम खण्ड (शान्ति पर्व) [अनुवादक : पं० रामनारायणदत्त शास्त्री पाण्डेय 'राम' प्रकाशक : गीता प्रेस, गोरखपुर माधवनिदान रघुवंशमहाकाव्य (महाकवि कालिदास विरचित) शाङ्गधरसंहिता शृङ्गारशतक : भर्तृहरि सकडालपुत्र : श्रावक [व्याख्याता : श्रीमज्जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलालजी महाराज प्रकाशक : पूज्य श्री हुक्मीचन्दजी महाराज के सम्प्रदाय का श्री हितेच्छु श्रावक मण्डल, रतलाम, तृतीय संस्करण : विक्रम संवत् 2005] समवायाङ्ग : सानुवाद, सपरिशिष्ट [संपादक : मुनिश्री कन्हैयालालजी 'कमल' प्रकाशक : आगम अनुयोग प्रकाशन, पोस्ट बॉक्स नं० 1141 दिल्ली-७ प्रथम संस्करण : सन् 1966 ई०] संक्षिप्त प्रसार : क्रमदीश्वर Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230] [उपासकवांगसूत्र संक्षिप्त हिन्दी शब्दसागर [संपादक : रामचन्द्र वर्मा प्रकाशक : नागरी प्रचारिणी सभा, काशी षष्ठ संस्करण : सन् 1958 ईसवी] संयुत्तनिकाय NSKRIT ENGLISH DICTIONARY Sir Monier Monier-Williams, M. A.; K.C.L.E., OXFORD, at the CLARENDON PRESS) SANSKRIT ENGLISH DICTIONARY [Vaman Shivram Apte, M. A.] संस्कृत-प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा [संपादक : मुनि श्री दुलहराजजी, डॉ० छगनलालजी शास्त्री, डॉ. प्रेमसुमन जैन प्रकाशक : कालूगणी जन्म-शताब्दी समारोह समिति, छापर (राजस्थान), सन् 1977 ई०] संस्कृत-हिन्दी कोश [लेखक : वामन शिवराम आप्टे प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास, बंगला रोड, जवाहर नगर, दिल्ली-७, सन् 1966 ई०] सांख्यतत्त्वकौमुदी सिद्धहेमशब्दानुशासन सुत्तनिपात सुश्रुतसंहिता मिहर्षिणा सुश्रुतेन विरचिता, श्री डल्हणाचार्यविरचियता निबन्धसंग्रहाख्यव्याख्यया, निदानस्थानस्य श्री गयदासाचार्यविरचियता न्यायचन्द्रिकाख्यपञ्जिकाव्याख्यया च समुल्लसिता प्रकाशक : पाण्डुरङ्ग जावजी, निर्णयसागर मुद्रणालय, 26-28 कालबा देवी स्ट्रीट, बम्बई-२, शक संवत् 1860] सूत्रकृतांगसूत्र सूत्रकृतांग वृत्ति नोट-व्यवहृत ग्रन्थों में केवल उन्हीं के संपादन, प्रकाशन प्रादि का विवरण दिया गया है, जो प्राबश्यक प्रतीत हुआ। ---सम्पादक Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगमप्रकाशन-समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया, मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजो महता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर 4. श्री श० जडावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरड़िया, बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर 6. श्री एस. किशनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री मोहनलालजी नेमीचंदजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरडिया, मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरडिया, मद्रास 9. श्री गुमानमलजी चोरडिया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरडिया, मद्रास ___ टोला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 9. श्रीमती सिरेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास चंदजी झामड़, मदुरान्तकम् 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरडिया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरडिया, मद्रास (K. G. F.) जाड़न 15. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोर- 11. श्री थानचंदजी मेहता, जोधपुर डिया, मद्रास 12. श्री भैरुदानजो लाभचंदजी सुराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजी होराचन्दजी चोरडिया, मद्रास 13. श्री खूबचन्दजी गादिया, व्यावर 17. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया. स्तम्भ सदस्य ब्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर 15. श्री इन्द्रचंदजी बैद, राजनादगांव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेत 16. श्री रावतमलजी भीकमचंदजी पगारिया. 3. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास 4. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया, टंगला 5. श्री आर. प्रसत्रचन्दजी चोरडिया, मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी चोरडिया, मद्रास 19. श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मूलचन्दजी चोरडिया, कटंगी 20. श्री रघनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा८. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर टोला 9. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला बालाघाट Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232] [सदस्य-नामावली 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजो पोंचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, 9. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली / 24. श्री केशरीमलजो जंवरीलालजी तलेसरा, पाली 11. श्री मोहनलालजो मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचंदजी उत्तमचंदजी मोदी, ब्यावर 12. श्री नथमलजी मोहनलालजी लणिया चण्डावल 26. श्री धर्मीचंदजी भागचंदजी बोहरा, झूठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 29. श्री मूलचंदजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 30. श्री सी० अमरचंदजी बोथरा, मद्रास 16. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 31. श्री भंवरलालजी मूलचंदजी सुराणा, मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर 32. श्री बादलचंदजी जुगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 19. श्री बादरमल जी पुखराजजी बंट, कानपुर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर 20. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी w/o श्री ताराचन्दजी 35. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, गोठी, जोधपुर बैंगलोर 21. श्री रायचंदजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरडिया, मद्रास 22. श्री घेवरचंदजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास / 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजो बाफना, अागरा 24. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी ब्यावर 39. श्री घेवरचंदजो पुखराजजी भुरट, गोहाटी 25. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी, मेड़तासिटी। 40. श्री जबरचंदजो गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचंदजी, मद्रास 27. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 29. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 44. श्री लणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास / 30. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 45. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 31. श्री प्रासूमल एण्ड कं०, जोधपुर सहयोगी सदस्य 32. श्री पुखराजजी लोढ़ा, जोधपुर 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़ता सिटी 33. श्रीमती सुगनीबाई w/o श्री मिश्रीलालजी सांड, जोधपुर 2. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचंदजी नाहटा, जोधपुर 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 38. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोकडिया, सेलम 39. श्री मांगीलालजी चोरडिया, कुचेरा Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली] [233 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 69. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा, भिलाई 41. श्री प्रोकचंदजी हेमराजजी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 42. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास दल्ली-राजहरा 43. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) .. 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, 46. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलारम 49. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, 77. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया मेटूपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 50. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली 79. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री प्रासकरणजी जसराजजी पारख, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गोहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 82. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन मेड़तासिटी 83. श्री फकीरचदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर कुचेरा 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरडिया, भैरूंदा / 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेहता कोठारी, गोठन सिटी 87. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर 59. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी होरालालजो बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर जोधपुर 61. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां 86. श्री धुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 90. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजो मोदी, भिलाई / 91. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 92. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 93. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा, 94. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी, बैंगलोर राजनादगांव 65. श्रीमती कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई स्व. पारसमलजो ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूंगरमलजी कांकरिया, 96. श्री अखेचंदजी लणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 97. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनादगाँव Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुचेरा 234] [सदस्य-नामावली 98. श्री प्रकाशचंदजी जन, नागौर 116. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी 99. श्री कुशालचंदजी रिखबचन्दजी सुराणा, लोढ़ा, बम्बई बोलारम 117. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद 119. श्री भीखमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया 101. श्री गूदड़मलजी चम्पालाल जी, गोठन (कुडालोर) मद्रास 102. श्री तेजराजजी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुंवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी 103. सम्पतराजजी चोरड़िया, मद्रास - संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 105. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भीखमचन्दजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास 108. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 109 श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया 110. श्री जीवराजजी भंवरलालजी चोरडिया, .. सिकन्दराबाद भैरूदा 126. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैनश्रावक संघ, 111. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाव 127. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 128. श्री टी. पारसमलजी चोरडिया, मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुलीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता 129. श्री मोतीलालजी पासूलालजी बोहरा सिटी एण्ड कं., बैंगलोर 115. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ 01 4 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत डॉ. भागचन्द्र जैन एम. ए., पी-एच. डी., डो. लिट. पागम प्रकाशन समिति द्वारा प्रकाशित अठारह भाग प्राप्त हुए। धन्यवाद / इन ग्रन्थों का विहंगावलोकन करने पर यह कहने में प्रसन्नता हो रही है कि संपादकों एवं विवेचक विद्वानों ने नियुक्ति, चूणि एवं टीका का प्राधार लेकर आगमों की सयुक्तिक व्याख्या की है। व्याख्या का कलेवर भी ठीक है। अध्येता से ये ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी हैं / इस सुन्दर उपक्रम के लिए एतदर्थ हमारी बधाइयाँ स्वीकारें। Use Only www.jainelibrary org Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 640 25) 3 25) 25) 242 प्रागमप्रकाशन समिति द्वारा अद्यावधि प्रकाशित आगम ग्रन्थांक नाम पृष्ठ अनुवादक-सम्पादक 1. प्राचारांगसूत्र [प्र. भाग] 426 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 30) 2. आचारांगसूत्र [द्वि. भाग] 508 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 35) 3. उपासकदशांगसूत्र 250 डॉ. छगनलाल शास्त्री 25) 4. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र पं० शोभाचन्द्र भारिल्ल 5. अन्तकृद्दशांगसूत्र 248 साध्वी दिव्यप्रभा 6. अनुत्तरोपपातिकसूत्र 120 साध्वी मुक्तिप्रभा 7. स्थानांगसूत्र 824 पं० हीरालाल शास्त्री 8. समवायांगसूत्र 364 पं० हीरालाल शास्त्री 9. सूत्रकृतांगसूत्र [प्र. भाग] 562 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 45) 10. सूत्रकृतांगसूत्र [द्वि. भाग] 280 धीचन्द सुराना 'सरस' 11. विपाकसूत्र 208 अनू. पं. रोशनलाल शास्त्री सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल 12. नन्दीसूत्र 252 अनु. साध्वी उमरावकुवर 'अर्चना' 28) सम्पा. कमला जैन 'जीजी' एम. ए. 13. प्रोपपातिकसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री 14. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [प्र. भाग] 568 अमरमुनि 15. राजप्रश्नीयसूत्र 284 वाणीभूषण रतनमुनि 16. प्रज्ञापनासूत्र [प्र. भाग] 568 जैनभूषण ज्ञानमुनि 17. प्रश्नव्याकरणसूत्र 356 अनु. मुनि प्रवीणऋषि सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल 18. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [द्वि. भाग] 266 अमरमुनि 19. उत्तराध्ययनसूत्र राजेन्द्रमुनि शास्त्री 20. प्रज्ञापनासूत्र [द्वि. भाग] 542 जनभूषण ज्ञानमुनि 21. निरयावलिकासूत्र 176 देवकुमार जैन 22. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र[४. भाग] 836 अमरमुनि 23. दशवकालिकसूत्र 532 महासती पुष्पवती 24. आवश्यकसूत्र 188 महासती सुप्रभा एम. ए., शास्त्री 25. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [चतुर्थ भाग] 908 अमरमुनि 26. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री 27. प्रज्ञापनासूत्र [तृ. भाग] जैनभूषण ज्ञानमुनि 28. अनुयोगद्वारसूत्र 502 उपा. धी केवलमुनि 29. सूर्यप्रज्ञप्ति-चन्द्रप्रज्ञप्ति मुनि श्री कन्हैयालाल 'कमल' शीघ्रप्रकाश्य| 30. जीवाजीवाभिगमसूत्र [प्रथम खण्ड] 842 FEEEEEEEEEEEEE* 478 296 मुनि बाकाहा For Pites Personal use only a brary.org!