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________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [79 श्रमणोपासक आनन्द ने भगवान् गौतम को आते हुए देखा / देखकर वह (यावत्) अत्यन्त प्रसन्न हुआ, भगवान् गौतम को वन्दन-नमस्कार कर बोला--भगवन् ! मैं घोर तपश्चर्या से इतना क्षीण हो गया हूं कि मेरे शरीर पर उभरी हुई नाड़ियां दीखने लगी हैं। इसलिए देवानुप्रिय केआपके पास आने तथा तीन बार मस्तक झुका कर चरणों में वन्दना करने में असमर्थ हूं। अत एव प्रभो ! आप ही स्वेच्छापूर्वक, अनभियोग से—किसी दबाव के बिना यहां पधारें, जिससे मैं तीन बार मस्तक झुकाकर देवानु प्रिय के-आपके चरणों में वन्दन, नमस्कार कर सकू। 82. तए णं से भगवं गोयमे, जेणेव आणंदे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ / तब भगवान् गौतम, जहां आनन्द श्रमणोपासक था, वहां गये / 83. तए णं से आणंदे समणोवासए भगवओ गोयमस्स तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वंदद नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-अस्थि णं भंते ! गिहिणो गिहमज्झावसंतस्य ओहिनाणं समुप्पज्जइ ? हंता अस्थि / जइ णं भंते ! गिहिणो जाव (गिहमज्झावसंतस्स ओहि-नाणं) समुप्पज्जइ, एवं खलु भंते ! मम वि गिहिणो गिहमज्यावसंतस्स ओहि-नाणे समुप्पण्णे-पुरस्थिमे णं लवण-समुद्दे पंच जोयणसयाई जाव (खेत्तं जाणामि पासामि एवं दक्खिणेणं पच्चत्थिमेणं य, उत्तरेणं जाव चुल्लाहमवंतं वासधरपव्वयं जाणामि पासामि, उड्जाव सोहम्म कप्पं जाणामि पासामि, अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए) लोलुयच्चुयं नरयं जाणामि पासामि / श्रमणोपासक आनन्द ने तीन बार मस्तक झुकाकर भगवान् गौतम के चरणों में वन्दन, नमस्कार किया। वन्दन, नमस्कार कर वह यों बोला-भगवन् ! क्या घर में रहते हुए एक गृहस्थ को अवधि-ज्ञान उत्पन्न हो सकता है ? गौतम ने कहा-हो सकता है। आनन्द बोला-भगवन् ! एक गृहस्थ की भूमिका में विद्यमान मुझे भी अवधिज्ञान हुआ है, जिससे मैं पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में पांच-सौ, पांच-सौ योजन तक का लवणसमुद्र का क्षेत्र, उत्तर दिशा में चुल्ल हिमवान्-वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र, ऊर्ध्व दिशा में सौधर्म कल्प तक तथा अधोदिशा में प्रथम नारक भूमि रत्न-प्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक तक जानता हूं, देखता 84. तए णं से भगवं गोयमे आणंदं समणोवासयं एवं वयासो—अस्थि गं, आणंदा ! गिहिणो जाव' समुप्पज्जइ / नो चेव णं एमहालए। तं गं तुमं, आणंदा ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव (पडिक्कमाहि, निंदाहि, गरिहाहि, विउट्टाहि, विसोहेहि अकरणयाए, अन्भुट्ठाहि अहारिहं पायच्छित्तं) तवो-कम्म पडिवज्जाहि / 1. देखें सूत्र-संख्या 83 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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