________________ 80] [उपासकदशांगसूत्र तब भगवान् गौतम ने श्रमणोपासक अानन्द से कहा-गृहस्थ को अवधि-ज्ञान उत्पन्न हो सकता है, पर इतना विशाल नहीं। इसलिए आनन्द ! तुम इस स्थान की इस मृषावाद रूप स्थिति या प्रवृत्ति की आलोचना करो, (प्रतिक्रमण करो-पुनः शुद्ध अन्तःस्थिति में लौटो, इस प्रवृत्ति की निन्दा करो, गर्दा करो--आन्तरिक खेद अनुभव करो, इसे वित्रोटित करो-विच्छिन्न करो या मिटाओ, इस अकरणता या अकार्य का विशोधन करो-इससे जनित दोष का परिमार्जन करो, यथोचित्त प्रायश्चित्त के लिए अभ्युत्थित-उद्यत हो जाओ) तदर्थ तपःकर्म स्वीकार करो। 85. तए णं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयम एवं वयासी–अस्थि णं, भंते ! जिण-वयणे संताणं, तच्चाणं तहियाणं, सब्भूयाणं भावाणं आलोइज्जइ जाव पडिक्कमिज्जइ, निदिज्जइ, गरिहिज्जइ, विउट्टिज्जइ, विसोहिज्जइ अकरणयाए, अब्भुट्टिज्जइ अहारिहं पारच्छित्तं तपोकम्म) पडिवज्जिज्जइ ? नो इण? सम? / __ जइ णं भंते ! जिण-वयणे संताणं जाव (तच्चाणं, तहियाणं, सब्भूयाणं) भावाणं नो आलोइज्जइ जाव (नो पडिक्कमिज्जइ, नो निदिज्जइ, नो गरिहिज्जइ, नो विउट्टिज्जइ, नो विसोहिज्जइ अकरणयाए, नो अब्भुद्विज्जइ अहारिहं पायच्छित्तं) तवो-कम्मं नो पडिवज्जिज्जइ, तं गं भंते ! तुब्भे चेव एयस्स ठाणस्स आलोएह जाव (पडिक्कमेह, निदेह, गरिहेह, विउट्टह, विसोहेह अकरणयाए, अब्भुट्ठह अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म) पडिवज्जह / श्रमणोपासक आनन्द भगवान् गौतम से बोला-भगवन् ! क्या जिन-शासन में सत्य, तत्त्वपूर्ण, तथ्य-यथार्थ, सद्भूत भावों के लिए भी आलोचना (प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा, निवृत्ति, अकरणता-विशुद्धि, यथोचित प्रायश्चित्त, तदनुरूप तपःक्रिया) स्वीकार करनी होती है ? गौतम ने कहा-ऐसा नहीं होता। आनन्द बोला-भगवन् ! जिन-शासन में सत्य भावों के लिए पालोचना (प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा, निवृत्ति, अकरणता-विशुद्धि, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तदनुरूप तपःक्रिया) स्वीकार नहीं करनी होती तो भन्ते ! इस स्थान-आचरण के लिए आप ही आलोचना (प्रतिक्रमण, निन्दा, गहीं, निवृत्ति, अकरणता-विशुद्धि यथोचित प्रायश्चित्त तथा तदनुरूप तपःक्रिया) स्वीकार करें / 56. तए णं से भगवं गोयमे आणंदेणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे, संकिए, कंखिए, विइगिच्छा-समावन्ने, आणंदस्स अंतियाओ पडिणिवखमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव दूइपलासे चेइए, जेणेव समणे भगवं महाबीरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामन्ते गमणागमणाए पडिक्कमइ पडिक्कमित्ता एसणमणेसणं आलोएइ, आलोइत्ता भत्तपाणं पडिदसइ, पडिदंसित्ता समणं भगवं वंदइ नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं बयासी-एवं खलु भंते ! अहं तुम्भेहि अब्भणुण्णाए तं चेव सव्वं कहेइ, जाव तए णं अहं संकिए, कंखिए, विइगिच्छा-समावन्ने आणंदस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पडिणिक्खमामि, पडिणिक्खमित्ता जेणेव इहं तेणेव हव्वमागए, तं णं भंते ! किं आणंदेणं समणोवासएणं तस्स ठाणस्स आलोएयव्वं जाव (पडिक्कम्मेयव्वं, निदेयव्वं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org