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________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] गरिहेयन्वं, विउट्टेयव्वं विसोहेयध्वं अकरणयाए, अन्भुट्ट्यव्वं अहारिहं पायच्छित्तं तवो-कम्म) पहिवज्जेयव्वं उदाहु मए? गोयमा ! इ समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं बयासी-गोयमा ! ' तुम चेव णं तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवज्जाहि, आणंदं च समणोवासयं एयमढें खामेहि। श्रमणोपासक अानन्द के यों कहने पर भगवान् गौतम के मन में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा--- संशय उत्पन्न हुआ। वे आनन्द के पास से रवाना हुए। रवाना होकर जहां दूतीपलाश चैत्य था, भगवान् महावीर थे, वहां आए। आकर श्रमण भगवान् महावीर के न अधिक दूर, न अधिक नजदीक गमन-प्रागमन का प्रतिक्रमण किया, एषणीय-अनेषणीय की आलोचना की। आलोचना कर आहारपानी भगवान् को दिखलाया / दिखलाकर वन्दन-नमस्कार कर वह सब कहा जो भगवान् से आज्ञा लेकर भिक्षा के लिए जाने के पश्चात् घटित हया था ! वैसा कर वे बोले-मैं इस घटना के बाद शंका, कांक्षा और संशययुक्त होकर श्रमणोपासक आनन्द के यहां से चलकर आपके पास त हूँ। भगवन् ! उक्त स्थान-पाचरण के लिए क्या श्रमणोपासक आनन्द को आलोचना (प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा, निवृत्ति अकरणता-विशुद्धि, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तदनुरूप तपःक्रिया) स्वीकार करनी चाहिए या मुझे ? __श्रमण भगवान् महावीर बोले--गौतम ! इस स्थान-आचरण के लिए तुम ही आलोचना करो तथा इसके लिए श्रमणोपासक अानन्द से क्षमा-याचना भी। 87. तए णं से भगवं गोयमे, समणस्स भगवओ महावीरस्स तह ति एयमट्ट विणएणं पडिसणेइ, पडिसूणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव (पडिक्कमह, निवड, गरिहइ, विउद्रइ, विसोहइ, अकरणयाए, अन्भुढेइ अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म) पडिवज्जइ, आणंदं च समणोवास एयमटुंखामेइ। भगवान गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर का कथन, 'पाप ठोक फरमाते हैं', यों कहकर विनयपूर्वक सुना / सुनकर उस स्थान पाचरण के लिए आलोचना, (प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा, निवृत्ति, अकरणता-विशुद्धि, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तदनुरूप तपःक्रिया) स्वीकार की एवं श्रमणोपासक आनन्द से क्षमा-याचना की। 88. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ बहिया जणक्य-विहारं विहरइ / तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर किसी समय अन्य जनपदों में विहार कर गए। 89. तए णं से आणंदे समणोवासए बहहिं सील-वएहि जाव (गुण-वेरमण-पच्चक्खाणपोसहोववाहि) अप्पाणं भावेत्ता, वीसं वासाइं समणोवासग-परियागं पाउणित्ता, एक्कारस य उवासग-पडिमाओ सम्मं कारणं फासित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता, आलोइय-पडिक्कते, समाहिपत्ते, कालमासे कालं किच्चा, सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिसगस्स महाविमाणस्स उत्तरपुरस्थिमेणं अरुणे विमाणे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ णं अत्थे१. देखें सूत्र-संख्या 84 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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