________________ 82] [उपासकदशांगसूत्र गइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णता / तत्थ णं आगंदस्य वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णसा। यों श्रमणोपासक आनन्द ने अनेकविध शीलवत [गुणवत, विरमण विरति, प्रत्याख्यानत्याग एवं पोषधोपवास द्वारा आत्मा को भावित किया--प्रात्मा का परिष्कार और परिमार्जन किया / बीस वर्ष तक श्रमणोपासक पर्याय-श्रावक-धर्म का पालन किया, ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं का भली-भांति अनुसरण किया, एक मास की संलेखना और साठ भोजन—एक मास का अनशन संपन्न कर, आलोचना, प्रतिक्रमण कर मरण-काल आने पर समाधिपूर्वक देह-त्याग किया। देहत्याग कर वह सौधर्म देवलोक में सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशान-कोण में स्थित अरुण-विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ / वहां अनेक देवों की आयु-स्थिति चार पल्योपम की होती है / श्रमणोपासक अानन्द की आयु-स्थिति भी चार पल्योपम की बतलाई गई है। 90. आणंदे णं भंते ! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता, कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववज्जिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झहिइ / निक्खेवो // सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं पढमं अज्झयणं समत्तं / गौतम ने भगवान महावीर से पूछा- भन्ते ! आनन्द उस देवलोक से आयु, भव एवं स्थिति के क्षय होने पर देव-शरीर का त्याग कर कहां जायगा ? कहां उत्पन्न होगा? भगवान् ने कहा-गौतम ! आनन्द महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा-सिद्ध-गति या मुक्ति प्राप्त करेगा। / निक्षेप // 2 / / सातवें अंग उपासकदशा का प्रथम अध्ययन समाप्त / / 1. एवं खलु जम्बु ! समणेणं जाव उवासगदसाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्तेत्ति-बेमि / 2. निगमन-आर्य सुधर्मा बोले-जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने उपासकदशा के प्रथम अध्ययन का यही अर्थ-भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org