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________________ 170] [उपासकरशांगसूत्र रूपी धनुष से कानों तक खींच कर छोड़े हुए पलक रूपी नीले पंख वाले, धैर्य को विचलित कर देने वाले नयन-बाण आकर छाती पर नहीं लगते।"" महाशतक सचमुच एक योद्धा था-आत्म-बल का अप्रतिम धनी। वह कामुक स्थिति, कामोद्दीपक चेष्टाएं वे भी अपनी पत्नी की, उस स्थिरचेता साधक को जरा भी विचलित नहीं कर पाई। वह अपनी उपासना में हिमालय की तरह अचल और अडोल रहा। रेवती ने दूसरी बार, तीसरी बार फिर उसे लुभाने का प्रयत्न किया, किन्तु महाशतक पर उसका तिलमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा / वह धर्म-ध्यान में तन्मय रहा / भोग पर यह त्याग की विजय थी। रेवती अपना-सा मुह लेकर वापिस लौट गई। महाशतक का साधना-क्रम उत्तरोत्तर उन्नत एवं विकसित होता गया। उसने क्रमश: ग्यारह प्रतिमाओं की सम्यक् रूप में आराधना की / उग्र तपश्चरण एवं धर्मानुष्ठान के कारण उसका शरीर बहुत कृश हो गया। उसने सोचा, अब इस अवशेष जीवन का उपयोग सर्वथा साधना में हो जाय तो बहुत उत्तम हो / तदनुसार उसने मारणान्तिक संलेखना, आमरण अनशन स्वीकार किया, उसने अपने अापको अध्यात्म में रमा दिया / उसे अवधि-ज्ञान उत्पन्न हुआ। इधर तो यह पवित्र स्थिति थी और उधर पापिनी रेवती वासना की भीषण ज्वाला में जल रही थी। उससे रहा नहीं गया। वह फिर श्रमणोपासक महाशतक को व्रत से च्युत करने हेतु चल पड़ी, पोषधशाला में आई / बड़ा आश्चर्य है, उसके मन में इतना भी नहीं आया, वह तो पतिता है सो है, उसका पति जो इस जीवन की अन्तिम, उत्कृष्ट साधना में लगा है, उसको च्युत करने का प्रयास ऐसा अत्यन्त निन्द्य एवं जघन्य कार्य नहीं कर रही है, जिसका पाप उसे कभी शान्ति नहीं लेने देगा। असल में बात यह है, मांस और मदिरा में लोलुप व्यसनी, पापी मनुष्यों का विवेक नष्ट हो जाता है / वे नीचे गिरते जाते हैं, घोर से घोर पाप-कार्यों में फंसते जाते हैं। यही कारण है, जैन धर्म में मांस और मद्य के त्याग पर बड़ा जोर दिया जाता है। उन्हें सात कुव्यसनों में लिया गया है, जो मानव के लिए सर्वथा त्याज्य हैं। 1. मत्तेभकुम्भदलने भुवि सन्ति शूराः, केचित्प्रचण्डमृगराजवधेऽपि दक्षाः / किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसा, कन्दर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः // सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति च नरस्तावदेवेन्द्रियाणां लज्जां तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव / भ्र चापाकृष्टमुक्ताः श्रवणपथगता नीलपक्ष्माण एते, यावल्लीलावतीनां हृदि न धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति / / --शृङ्गारशतक 75-76 // 2. द्यूतमांससुरावेश्याऽऽखेटचौर्यपराङ्गनाः / / महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेद बुधः / -पद्मनन्दिपंचविंशतिका 1, 16 / जुग्रा, मांस-भक्षण, मद्य-पान, वेश्या-वामन, शिकार, चोरी तथा परस्त्री-गमन-ये महापाप रूप सात कुव्यसन हैं। बुद्धिमान् पुरुष को इनका त्याग करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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