________________ 24] [उपासकदशांगसूत्र विपुल ऋद्धियों से परिपूर्ण, अत्यन्त सुखमय दूरगतिक-दूर गति से युक्त एवं चिरस्थितिकलम्बी स्थिति वाले होते हैं। वहाँ देव रूप में उत्पन्न वे जीव अत्यन्त ऋद्धि-सम्पन्न तथा चिर स्थिति दीर्घ आयुष्य युक्त होते हैं। उनके वक्षस्थल हारों से सुशोभित होते हैं, वे अपनी दिव्य प्रभा से दसों दिशाओं को प्रभासित-उद्योतित करते हैं। वे कल्पोपग देवलोक में देव-शय्या से युवा के रूप में उत्पन्न होते हैं / वे वर्तमान में उत्तम देवगति के धारक तथा भविष्य में भद्र-कल्याणनिर्वाण रूप अवस्था को प्राप्त करने वाले होते हैं, असाधारण रूपवान् होते हैं। भगवान् ने आगे कहा-जीव चार स्थानों कारणों से-नैरयिक-नरकयोनि का आयुष्य बन्ध करते हैं, फलत: वे विभिन्न नरकों में उत्पन्न होते हैं। वे स्थान या कारण इस प्रकार हैं-१. महाप्रारम्भ-घोर हिंसा के भाव व कर्म, 2. महापरिग्रह--अत्यधिक संग्रह के भाव व वैसा आचरण, 3. पंचेन्द्रिय-वध-मनुष्य, तिर्यंचपशु पक्षी आदि पांच इन्द्रियों वाले प्राणियों का हनन तथा 4. मांस-भक्षण / इन कारणों से जीव तिर्यंचयोनि में उत्पन्न होते हैं.--१. मायापूर्ण निकृति-छलपूर्ण जालसाजी, 2. अलीक वचन-असत्य भाषण, 3. उत्कंचनता-झूठी प्रशंसा या खुशामद अथवा किसी मूर्ख व्यक्ति को ठगने वाले धूर्त का समीपवर्ती विचक्षण पुरुष के संकोच से कुछ देर के लिए निश्चेष्ट रहना या अपनी धूर्तता को छिपाए रखना, 4. वंचनता--प्रतारणा या ठगी। इन कारणों से जीव मनुष्ययोनि में उत्पन्न होते हैं 1. प्रकृति-भद्रता-स्वाभाविक भद्रता-भलापन, जिससे किसी को भीति या हानि की आशंका न हो, 2. प्रकृति-विनीतता-स्वाभाविक विनम्रता, 3. सानुक्रोशता-सदयता, करुणाशीलता तथा 4. अमत्सरता-ईर्ष्या का अभाव / इन कारणों से जीव देवयोनि में उत्पन्न होते हैं 1. सरागसंयम-राग या आसक्तियुक्त चारित्र अथवा राग के क्षय से पूर्व का चारित्र, 2. संयमासंयम-देशविरति-श्रावकधर्म, 3. अकाम-निर्जरा-मोक्ष की अभिलाषा के बिना या विवशतावश कष्ट सहना, 4. बाल-तप-मिथ्यात्वी या अज्ञानयुक्त अवस्था में तपस्या / तत्पश्चात्-जैसे नरक में जाते हैं, जो नरक हैं और वहाँ नैरयिक जैसी वेदना पाते हैं तथा तिर्यंचयोनि में गये हुए जीव जैसा शारीरिक और मानसिक दुःख प्राप्त करते हैं उसे भगवान् बताते हैं / मनुष्य जीवन अनित्य है, उसमें व्याधि, वृद्धावस्था, मृत्यु और वेदना के प्रचुर कष्ट हैं। देवलोक में देव दैवी ऋद्धि और दैवी सुख प्राप्त करते हैं / इस प्रकार प्रभु ने नरक, नरकावास, तिर्यञ्च, तिर्यञ्च के आवास, मनुष्य, मनुष्य लोक, देव, देवलोक, सिद्ध, सिद्धालय, एवं छह जीवनिकाय का विवेचन किया। जिस प्रकार जीव बंधते हैं-कर्म-बन्ध करते हैं, मुक्त होते हैं, परिक्लेश पाते हैं, कई अप्रतिबद्ध-अनासक्त व्यक्ति दु:खों का अन्त करते हैं, पीडा, वेदना व आकुलतापूर्ण चित्तयुक्त जीव दुःख-सागर को प्राप्त करते हैं, वैराग्य-प्राप्त जीव कर्म-दल को ध्वस्त करते हैं, रागपूर्वक किये गए कर्मों का फलविपाक पापपूर्ण होता है, कर्मों से सर्वथा रहित होकर जीव सिद्धावस्था प्राप्त करते हैं-यह सब [भगवान् ने] आख्यात किया / आगे भगवान् ने बतलाया-धर्म दो प्रकार का है-आगर-धर्म और अनगार-धर्म / अनगार-धर्म में साधक सर्वतः सर्वात्मना--सम्पूर्ण रूप में, सर्वात्मभाव से सावध कार्यों का परित्याग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org