SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [25 करता हुआ मुडित होकर, गृहवास से अनगार दशा-मुनि-अवस्था में प्रवाजित होता है। वह सम्पूर्णतः प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह तथा रात्रि-भोजन से विरत होता है / / भगवान् ने कहा-आयुष्मन् ! यह अनगारों के लिए समाचरणीय धर्म कहा गया है / इस धर्म की शिक्षा अभ्यास या आचरण में उपस्थित-प्रयत्नशील रहते हुए निर्ग्रन्थ -साधु या निर्ग्रन्थी –साध्वी प्राज्ञा [अर्हत्-देशना] के आराधक होते हैं / भगवान ने अगारधर्म 12 प्रकार का बतलाया-५ अणुव्रत, 3 गुणव्रत तथा 4 शिक्षाव्रत / 5 अणव्रत इस प्रकार हैं--१. स्थल-मोटे तौर पर. अपवाद रखते हए प्राणातिपात से निवत्त होना, 2. स्थूल मृषावाद से निवृत्त होना, 3. स्थूल अदत्तादान से निवृत्त होना 4. स्वदारसंतोष अपनी परिणीता पत्नी तक मैथुन की सीमा, 5. इच्छा--परिग्रह की इच्छा का परिमाण या सीमाकरण / 3 गुणव्रत इस प्रकार हैं-१.अनर्थदंड-विरमण--आत्मा के लिए अहितकर या प्रात्मगुणघातक निरर्थक प्रवृत्ति का त्याग, 2. दिग्वत-विभिन्न दिशाओं में जाने के सम्बन्ध में मर्यादा या सीमाकरण, 3. उपभोग-परिभोग-परिमाण-उपभोग जिन्हें अनेक बार भोगा जा सके, ऐसी वस्तुएं जैसे वस्त्र आदि तथा परिभोग जिन्हें एक ही बार भोगा जा सके जैसे भोजन आदि–इनका परिमाण-सीमाकरण / 4 शिक्षाव्रत इस प्रकार हैं-१. सामायिक-समता या समत्वभाव की साधना के लिए एक नियत समय [न्यूनतम एक मुहूर्त--४८ मिनट में किया जाने वाला अभ्यास, 2. देशावकासिक-नित्य प्रति अपनी प्रवृत्तियों में निवृत्ति-भाव की वृद्धि का अभ्यास 3. पोषधोपवास-अध्यात्म-साधना में अग्रसर होने के हेतु यथाविधि आहार, अब्रह्मचर्य आदि का त्याग तथा 4. अतिथि-संविभाग--जिनके आने की कोई तिथि नहीं, ऐसे अनिमंत्रित संयमी साधक या सार्मिक बन्धुओं को संयमोपयोगी एवं जीवनोपयोगी अपनी अधिकृत सामग्री का एक भाग आदरपूर्वक देना, सदा मन में ऐसी भावना बनाए रखना कि ऐसा अवसर प्राप्त हो। तितिक्षापूर्वक अन्तिम मरण रूप संलेखना-तपश्चरण, आमरण अनशन की आराधनापूर्वक देहत्याग श्रावक की इस जीवन की साधना का पर्यवसान है, जिसकी एक गृही साधक भावना लिए रहता है। भगवान् ने कहा---प्रायुष्मन् ! यह गृही साधकों का आचरणीय धर्म है / इस धर्म के अनुसरण में प्रयत्नशील होते हुए श्रमणोपासक-श्रावक या श्रमणोपासिका-श्राविका प्राज्ञा के आराधक होते हैं। __ तब वह विशाल मनुष्य-परिषद् श्रमण भगवान् महावीर से धर्म सुनकर, हृदय में धारण कर, हृष्ट-तुष्ट-अत्यन्त प्रसन्न हुई, चित्त में आनन्द एवं प्रीति का अनुभव किया, अत्यन्त सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसित-हृदय होकर उठी, उठकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा, वन्दन-नमस्कार किया, वन्दन-नमस्कार कर उसमें से कई गृहस्थ-जीवन का परित्याग कर मुडित होकर, अनगार या श्रमण के रूप में प्रवजित-दीक्षित हुए / कइयों ने पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाक्त रूप बारह प्रकार का गृहि-धर्म-श्रावक-धर्म स्वीकार किया। शेष परिषद् ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन किया, नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर कहाभगवन् ! आप द्वारा सुप्राख्यात—सुन्दर रूप में कहा गया, सुप्रज्ञप्त-उत्तम रीति से समझाया गया, सुभाषित-हृदयस्पर्शी भाषा में प्रतिपादित किया गया, सुविनीत-शिष्यों में सुष्ठ रूप में विनियोजित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy