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________________ 26] [उपासकदशांगसूत्र -~-अन्तेवासियों द्वारा सहज रूप में अंगीकृत, सुभावित-प्रशस्त भावों से युक्त निर्ग्रन्थ-प्रवचन-- धर्मोपदेश, अनुत्तर–सर्वश्रेष्ठ है। आपने धर्म की व्याख्या करते हुए उपशम-क्रोध आदि के निरोध का विश्लेषण किया। उपशम की व्याख्या करते हुए विवेक-बाह्य ग्रन्थियों के त्याग का स्वरूप समझाया। विवेक की व्याख्या करते हुए आपने विरमण-विरति या निवृत्ति का निरूपण किया। विरमण की व्याख्या करते हुए आपने पाप-कर्म न करने की विवेचना की। दूसरा कोई श्रमण या ब्राह्मण नहीं है, जो ऐसे धर्म का उपदेश कर सके। इससे श्रेष्ठ धर्म के उपदेश की तो बात ही कहां? यों कहकर वह परिषद् जिस दिशा से आई थी, उसी ओर वापस लौट गई। राजा भी लौट गया / आनन्द की प्रतिक्रिया 12. तए णं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हतुट्ट जाव (चित्तमाणंदिए पीइ-मणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए उट्ठाए उट्ठइ, उ?त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंबइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता) एवं वयासी सद्दहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं, भंते ! निग्गंथं पावयणं, रोएमि णं, भंते ! निरगंथं पावयणं, एवमेयं, भंते ! तहमेयं, भंते ! अवितहमेयं, भंते ! इच्छियमेयं, भंते ! पडिच्छियमेयं, भंते ! इच्छिय-पडिच्छियमेयं, भंते ! से जहेयं तुम्भे वयह त्ति कटु, जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-सेटि-सेणावई-सत्यवाहप्पभिइआ मुण्डा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया, नो खलु अहं तहा संचाएमि मुडे जाव (भवित्ता अगाराओ अणगारियं) पन्वइत्तए। अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त-सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहि-धम्म पडिवज्जिस्सामि / अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / तब आनन्द गाथापति श्रमण भगवान महावीर से धर्म का श्रवण कर हर्षित व परितुष्ट होता हुया यावत् [चित्त में आनन्द एवं प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ, अत्यन्त सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसितहृदय होकर उठा, उठकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर] यों बोला-भगवन् ! मुझे निर्ग्रन्थ-प्रवचन में श्रद्धा है, विश्वास है / निर्ग्रन्थ-प्रवचन मुझे रुचिकर हैं / वह ऐसा ही है, तथ्य है, सत्य है, इच्छित है, प्रतीच्छित [स्वीकृत] है, इच्छित-प्रतीच्छित है। यह वैसा ही है, जैसा आपने कहा। देवानुप्रिय ! जिस प्रकार आपके पास अनेक राजा, ऐश्वर्यशाली, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठी, सेनापति एवं सार्थवाह आदि मुडित होकर, गृह-वास का परित्याग कर अनगार के रूप में प्रवजित हुए, मैं उस प्रकार मुडित होकर [गृहस्थ-जीवन का परित्याग कर अनगारधर्म में प्रव्रजित होने में असमर्थ हूं, इसलिए आपके पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत मूलक बारह प्रकार का गृहीधर्म--श्रावक-धर्म ग्रहण करना चाहता हूं। प्रानन्द के यों कहने पर भगवान् ने कहा-देवानुप्रिय ! जिससे तुमको सुख हो, वैसा ही करो, पर विलम्ब मत करो। व्रत-ग्रहण अहिंसा व्रत 13. तए णं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए तप्पढमयाए थूलगं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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