SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 136] [उपासकदशांगसूत्र दुवालसंगं गणि-पिडगं अहिज्जमार्गोह अन्न-उत्थिया अठेहि य जाव (हेऊहि य पसिणेहि य कारणेहि य वागरणेहि य) निप्पट्ठ-पसिणवारणा करित्तए। भगवान् महावीर ने श्रमणोपासक कुडकौलिक से कहा----कुडकौलिक ! कल दोपहर के समय अशोकवाटिका में एक देव तम्हारे समक्ष प्रकट हया / वह तम्हारी नामांकित अंगठी और दुपट्टा लेकर आकाश में चला गया। आगे जैसा घटित हुआ था, भगवान ने बतलाया। (जब वह देव तुमको कुछ उत्तर नहीं दे सका तो तुम्हारी नामांकित अंगूठी और दुपट्टा वापस रख कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा की ओर लौट गया / ) कुडकौलिक ! क्या यह ठीक है ? कुडकौलिक ने कहा-भगवन् ! ऐसा ही हुआ / तब भगवान् ने जैसा कामदेव से कहा था, उसी प्रकार उससे कहा-कुडकौलिक ! तुम धन्य हो। श्रमण भगवान महावीर ने उपस्थित श्रमणों और श्रमणियों को सम्बोधित कर कहाआर्यो ! यदि घर में रहने वाले गृहस्थ भी अन्य मतानुयायियों को अर्थ, हेतु, प्रश्न, युक्ति तथा उत्तर द्वारा निरुत्तर कर देते हैं तो आर्यो ! द्वादशांगरूप गणिपिटक का प्राचार आदि बारह अंगों का अध्ययन करने वाले श्रमण निर्ग्रन्थ तो अन्य मतानुयायियों को अर्थ, (हेतु, प्रश्न, युक्ति तथा विश्लेषण) द्वारा निरुत्तर करने में समर्थ हैं ही। 176. तए णं समणा निग्गंथा य निग्गंथीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स 'तह ति एयमझें विणणं पडिसुणेति / श्रमण भगवान् महावीर का यह कथन उन साधु-साध्वियों ने 'ऐसा ही है भगवन् !'-यों कह कर विनयपूर्वक स्वीकार किया। 177. तए णं से कुडकोलिए समणोवासए समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता पसिणाई पुच्छइ, पुच्छित्ता अट्ठमादियइ, अट्ठमादित्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। श्रमणोपासक कुडकौलिक ने श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया, प्रश्न पूछे, समाधान प्राप्त किया तथा जिस दिशा से वह आया था, उसी दिशा की ओर लौट गया / 178. सामी बहिया जणवय-विहारं विहरइ / भगवान् महावीर अन्य जनपदों में विहार कर गए। शान्तिमय देहावसान 179. तए णं तस्स कुडकोलियस्स समणोवासयस्स बहूहि सील जाव' भावेमाणस्स चोद्दस संवच्छराइं वइक्कंताई / पण्णरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अन्नया कयाइ जहा कामदेवो तहा जेट्टपुत्तं ठवेत्ता तहा पोसहसालाए जाव' धम्मपण्णत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। एवं एक्कारस 1. देखें सूत्र-संख्या 122 2. देखें सूत्र-संख्या 149 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy